कालिका पुराण अध्याय ८४
कालिका पुराण
अध्याय ८४ में राजधर्म का वर्णन है।
कालिका पुराण अध्याय ८४
Kalika puran chapter 84
कालिकापुराणम् चतुरशीतितमोऽध्यायः राजधर्मकथनम्
कालिकापुराणम्
।। चतुरशीतितमोऽध्यायः
।।
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ८४
।। ऋषय ऊचुः
।।
कथितो भवता
सर्गः संशयश्चापि शातिताः ।
त्वत्प्रसादान्महाभाग
कृतकृत्या वयं गुरो ।। १ ।।
ऋषिगण बोले-
हे गुरुदेव ! आपके द्वारा सृष्टि का वर्णन किया गया तथा हमारे संशय भी नष्ट किये
गये। हे महाभाग ! आपकी कृपा से हम सब कृतकृत्य हो गये हैं॥ १ ॥
भूयश्च
श्रोतुमिच्छामो वयमेतद् द्विजोत्तम ।
कोऽन्यो
भृङ्गी महाकालो जातौ वेतालभैरवौ ॥२॥
हे द्विजों
में उत्तम ! हम सब पुनः सुनना चाहते हैं कि क्या कोई अन्य भृङ्गी और महाकाल थे जो अगले
जन्म में वेताल तथा भैरव हुए थे॥ २ ॥
वेतालं च
महाकालं भैरवं भृङ्गिणं तथा ।
शृणुमो
द्विजशार्दूल कथमेषां चतुष्ट्यम् ॥ ३ ॥
हे
द्विजसिंहों ! हमने तो वेताल और महाकाल, भैरव तथा भृङ्गि, इन चार के विषय में सुना है, यह नाम चतुष्टय क्या है? ॥ ३ ॥
॥
मार्कण्डेय उवाच
।।
भुवं गते
महाकाले मानुष्यस्थे च भृङ्गिणि ।
वेतालभैरवाख्ये
च तयोर्भूते द्विजोत्तमाः ॥४॥
मार्कण्डेय
बोले- हे द्विजों में श्रेष्ठजन ! महाकाल और भृङ्गि के मनुष्य शरीर प्राप्त कर
पृथ्वी पर आने पर वे ही दोनों क्रमशः वेताल और भैरव नाम वाले हो गये ॥
४ ॥
वरलब्धे च
वेताले भैरवे तेन सङ्गते ।
अन्धकं तपसा
युक्तं भृङ्गिणं चाकरोद्धरः ॥५॥
वेताल और उसके
साथ ही भैरव के वर प्राप्त कर लेने के बाद, तपस्या में लगे अन्धक को भगवान् शिव ने भृङ्गिगण बना दिया
(नाम दिया) ।।५॥
अन्धकस्तु हरं
पूर्वं विरुध्यापदमागतः ।
पश्चाद्धरं
समाराध्य पुत्रोऽभूत् तस्य सोऽसुरः ।
भृङ्गिस्नेहाद्
भृङ्गिणं तं संज्ञया चाकरोद्धरः ।। ६ ।।
पूर्वकाल में
उस अन्धक नामक असुर ने भगवान् शङ्कर से विरोध करके आपत्ति (मृत्यु) को प्राप्त
किया तत्पश्चात् भगवान् शिव की आराधना करके वह उनका पुत्र हुआ। भृङ्गि से विशेष
स्नेह के कारण भगवान् शङ्कर ने उसे भृङ्गिगण का नाम दिया था ।। ६ ।।
स्नेहेन तु
महाकाले बाणं बलिसुतं हरः ।
विष्णुना
छिन्नबाहुं तु महाकालमथाकरोत् ॥७॥
महाकाल के
प्रति विशेष स्नेह होने के कारण भगवान् शंकर ने बलि के पुत्र,
बाण को ही विष्णु के द्वारा उसकी भुजायें काटे जाने के
पश्चात्,
उसे महाकाल नामक गण बना दिया ॥ ७ ॥
एवं
मुनिवरस्तेषां संयतं च चतुष्टयम् ।
वेतालभेरवौ
भृङ्गिमहाकालौ ह्यनुक्रमात् ।।८।।
इस प्रकार
वेताल,
भैरव, भृङ्गि एवं महाकाल के रूप में उनका चतुष्टय,
पुनः क्रमशः व्यवस्थित हो गया ॥
८ ॥
।। ऋषय ऊचुः
।।
यत् पृष्टं
सगरेणैव मुनिमौर्व्वं महाधियम् ।
नीत्या योज्या
यया भार्या सुत आत्माऽथवा गुरो ।।९।।
राजनीतौ सतां
नीतौ सदाचारे च ये स्थिताः ।
विशेषास्तेन
ये प्रोक्ता और्वेण सुमहात्मना ।। १० ।।
विशेषेण
द्विजश्रेष्ठ श्रोतुं सम्यक् तपोधन ।
इच्छामस्तान्
महाभाग कथयस्व जगद्गुरो ।। ११ ।।
ऋषिगण बोले-
हे गुरु ! राजा सगर के द्वारा महान् बुद्धिमान् और्व मुनि से जो पूछा गया था कि
किस नीति से स्वयं को, अपनी भार्या तथा अपने पुत्र को युक्त किया जाना चाहिये
जिससे वे राजनीति, सज्जनों की नीति और सदाचार में स्थित रहें। इस सन्दर्भ में
उन महात्मा और्व के द्वारा जो रहस्य कहा गया है। हे द्विजों में श्रेष्ठ! हे
तपोधन! उसे हम विशेषरूप से सुनना चाहते हैं। हे महाभाग ! हे जगद्गुरु ! उन्हें आप
कहें ।। ९ - ११ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
ये ये विशेषाः
कथिता और्वेण सुमहात्मना ।
तद्वः सर्वं
प्रवक्ष्यामि शृण्वन्तु मुनिसत्तमाः ।। १२ ।।
मार्कण्डेय
बोले- हे मुनियों में श्रेष्ठ मुनिगण ! महात्मा और्व के द्वारा जो-
जो भेद बताये गये हैं, वह सब मैं आप लोगों से कहूँगा । आप सब उसे सुनें ।। १२ ।।
श्रुत्वैवं
सगरो राजा मन्त्रकल्पादिकं पुनः ।
विशेषं
परिपप्रच्छ नीत्यादीनां महामुनिम् ।। १३ ।।
इस प्रकार
मन्त्र और विधि के सम्बन्ध में सुनकर राजा सगर ने महामुनि और्व से पुनः नीति आदि
के भेद को पूछा ॥१३॥
।। सगर उवाच
।।
यया नीत्या
प्रयोक्तव्यः सुत आत्मा प्रिया तथा ।
तेषां विशेषैः
सहितं सदाचारं वदस्व मे ।। १४ ।।
जिस नीति से
प्रिया,
आत्मा, पुत्र को नियोजित करना चाहिये उसमें विशेषों (भेदों) सहित
आप मुझसे सदाचार का वर्णन कीजिये ॥ १४ ॥
।। और्व उवाच
॥
क्रमेण शृणु
राजेन्द्र ययानीत्या नियोजिताः ।
आत्मा सुतो वा
भार्या वा तद् विशेषं शृणुष्व मे ।।१५।।
और्व बोले- हे
राजाओं में इन्द्र के समान श्रेष्ठ ! जिस नीति में अपने को,
अपने पुत्र और पत्नी को नियोजित करना चाहिये,
उन भेदों को तुम क्रमशः मुझसेसुनो ।। १५ ।।
ज्ञानविद्यातपोवृद्धान्
वयोवृद्धान् सुदक्षिणान् ।
सेवेत प्रथमं विप्रानसूयापरिवर्जितान्
।। १६ ।।
सबसे पहले,
ईर्ष्या से रहित, ज्ञान, विद्या, तप और वय में वृद्ध ब्राह्मणों की,
जिन्हें सुन्दर दक्षिणा से सन्तुष्ट किया गया हो,
उनकी सेवा करे ॥ १६ ॥
तेभ्यश्च
शृणुयान्नित्यं वेदशास्त्रविनिश्चयम् ।
यदूचुस्ते च
तत् कार्यं प्राज्ञ चैव नृपश्चरेत् ।। १७ ।।
राजा उनसे
नित्य वेद-शास्त्रों के सार सुने तथा जो वे कहें, उसके अनुसार ही बुद्धिमान् राजा कार्य करे ।। १७ ।।
पञ्चेन्द्रियाणि
पञ्चाश्वाः शरीरं रथ उच्यते ।
आत्मा रथी कशा
ज्ञानं सारथिर्मन उच्यते ।। १८ ।।
आँख,
कान, नाक, जिह्वा और त्वचा ये पाँच (ज्ञान) इन्द्रियाँ,
शरीररूपी रथ के पाँच घोड़े हैं,
आत्मा उस पर विराजमान रथी, ज्ञान चाबुक, तथा मन सारथि कहे जाते हैं ।। १८ ।।
अश्वान्
सुदान्तान् कुर्वीत सारथिं चात्मनो वशम् ।
कशा दृढा सदा
कार्या शरीरस्थिरता तथा ।। १९ ।।
इन्द्रियरूपी
अश्वों को सुन्दर ढंग से नियन्त्रित करे तथा मनरूपी सारथी को अपने वश में रखे।
ज्ञानरूपी कशा को सदैव दृढ़ करे और शरीररूपी रथ को स्थिरता प्रदान करे ।। १९ ।।
अदान्तांस्तु
समारुह्य सैन्धवान् स्यन्दनी यथा ।
अश्वानामिच्छया
गच्छन्नुत्पथं प्रतिपद्यते ।। २० ।।
अनियन्त्रित
घोड़ों पर चढ़ा हुआ रथी जैसे घोड़ों के अपनी इच्छानुसार चलने पर अनुचित रास्ते पर
चला जाता है॥२०॥
तत्रावशः
सारथिस्तु स्वेच्छया प्रेरयन् हयान् ।
नयेत् परवशं
सम्यग् प्रथितं वीरमप्युत ।। २१ ।।
वैसे ही वश
में न किया सारथी भी स्वेच्छा से घोड़ों को प्रेरित कर प्रसिद्ध वीर को भी परवश कर
देता है॥ २१ ॥
तथेन्द्रियाणि
नृपतिर्विषयाणां परिग्रहे ।
स्ववश्यानि
प्रकुर्वीत मनो ज्ञानं दृढं तथा ।। २२ ।।
एक राजा को
चाहिये कि वह विषयों के परिग्रह में इन्द्रियों को, मन को अपने वश में रखे तथा ज्ञान को दृढ़ करे ॥ २२ ॥
ज्ञाने दृढे
कशायां च दृढायां नृपसत्तम ।
सारथिः स्ववशो
दान्तानीशः प्रेरयितुं हयान् ।। २३ ।।
हे राजाओं में
श्रेष्ठ ! ज्ञान के दृढ़ होने, कशा की दृढ़ता होने पर स्ववश सारथि के साथ,
ईश (स्वामी) रथी, अपने घोड़ों को नियन्त्रित रूप से प्रेरित करने में सक्षम
होता है॥२३॥
अतो नृपः
स्वेन्द्रियाणि वशे कृत्वा मनस्तथा ।
ज्ञानमार्गमधिष्ठाय
प्रकुर्वीतात्मनो हितम् ।। २४ ।।
इसलिए राजा
अपनी इन्द्रियों तथा मन को वश में करके ज्ञानमार्ग का आश्रय ले अपना हित करे ॥२४॥
भोक्तव्यं
स्वेच्छया भूयो न कुर्याल्लोभमासवे ।
द्रष्टव्यमिति
द्रष्टव्यं न द्रष्टव्यं च स्वेच्छया ।। २५ ।।
राजा को अपनी
रुचि के अनुसार बार-बार भोग करना चाहिये किन्तु आसवों का लोभ नहीं करना चाहिये। जो
देखने योग्य हो वही देखना चाहिये, देखने में मनमानी नहीं करनी चाहिये ।। २५ ।।
श्रोतव्यमिति
श्रोतव्यं नाधिकं श्रवणे चरेत् ।
शास्त्रतत्त्वामृते
धीरेः श्रुतिवश्यो भवेन्न हि ।। २६ ।।
जो सुनने
योग्य हो वही सुने, अधिक सुनने की चेष्टा न करे, शास्त्रज्ञान के अतिरिक्त, धीरपुरुष कानों के वश में न हो । २६ ॥
एवं घ्राणं
त्वचं चाति वशीकृत्येच्छया नृपः ।
स्वेच्छया
नोपभुञ्जीत नोद्दामं विषयं व्रजेत् ।। २७ ।।
इसी प्रकार
राजा अपनी घ्राणेन्द्रिय तथा त्वचा को भी अपने वश में करे,
वह स्वेच्छा से उनका उपभोग न करे और न उन्हें विषयों की ओर
उद्दामभाव से दौड़ने दे ॥२७॥
एवं यदि
भवेद्राजा तदा स स्याज्जितेन्द्रियः ।
जितेन्द्रियत्वे
हेतुश्च शास्त्रवृद्धोपसेवनम् ।। २८ ।।
राजा यदि इस
प्रकार का होवे तो वह जितेन्द्रिय हो जाता है। जितेन्द्रियता का मुख्य कारण,
शास्त्र और वृद्ध जनों की सेवा ही है ॥२८॥
अवृद्धसेव्यशास्त्रज्ञो
नृपः शत्रुवशो भवेत् ।
तस्माच्छास्त्रमधिष्ठाय
भवेद्राजा जितेन्द्रियः ।। २९ ।।
बिना वृद्धों
की सेवा किये तथा शास्त्र को न जानने वाला राजा भी शत्रुओं का -वशवर्ती हो जाता है
अतः शास्त्रों का अधिष्ठान होने पर भी राजा को जितेन्द्रिय होना चाहिये॥२९॥
धृतिः
प्रागल्भ्यमुत्साहो वाक्पटुत्वं विवेचनम् ।
दक्षत्वं
धारयिष्णुत्वं दानमैत्रीकृतज्ञता ।। ३० ।।
दृढशासनतासत्यशौचं
मतिविनिश्चयम् ।
पराभिप्रायवेदित्वं
चरित्रं धैर्यमापदि ।। ३१ ।।
क्लेशधारणशक्तिश्च
गुरुदेवद्विजार्चनम् ।
अनसूया
ह्यकोपित्वं गुणानेतान्नृपोऽभ्यसेत् ।। ३२ ।।
धैर्य,
कुशलता, साहस, वाकपटुता, विवेचना की शक्ति, दक्षता, धारणी इच्छा, दान, मैत्री, कृतज्ञता, शासन की दृढ़ता, सत्य, शौच, बुद्धि की विशेष निश्चय की क्षमता,
दूसरे का अभिप्राय जानने की प्रतिभा,
चरित्र, आपत्ति में धैर्य, कष्ट सहने की शक्ति, गुरु-देवता और ब्राह्मण की पूजा,
ईर्ष्या न करना, क्रोध रहित होने जैसे गुणों का राजा अभ्यास करे ।। ३०-३२ ।।
कार्याकार्यविभागश्च
धर्मार्थे काम एव च ।
सततं प्रतिबुध्येत
कुर्यादवसरेऽपि तत् ।। ३३ ।।
राजा को करने
योग्य एवं न करने योग्य कार्यों के भेद, धर्म-अर्थ-काम के प्रति निरन्तर जागरुक होना चाहिये,
अवसर पर वह उस जागृति का उपभोग भी करे ॥ ३२ ॥
सामदानं च
भेदश्च दण्डश्चेति चतुष्टयम् ।
ज्ञात्वोपायांस्तु
तत्काले तदुपायान् प्रयोजयेत् ।। ३४ ।।
साम,
दाम, दण्ड और भेद इन चारों उपायों को जानकर वह समय पर इन उपायों
का प्रयोग करे ।। ३४ ।।
साम्नस्तु
विषये भेदो मध्यमः परिकीर्तितः ।
दानस्य विषये साम
योग्यमेवोपलक्ष्यते ।। ३५ ।।
दानस्य विषये
दण्डो ह्यधमः परिकीर्तितः ।
दण्डस्य विषये
दानं तदप्यधममुच्यते ।
साम्नस्तु
गोचरे दण्डो ह्यधमादधमः स्मृतः ।। ३६ ।।
साम उपायों से
सम्बन्धित विषयों में भेद मध्यम उपाय कहा गया है। दान विषय में साम ही उचित उपाय
दिखाई देता है। दान सम्बन्धी समस्याओं में दण्ड अधम उपाय कहा गया हैं तथा दण्ड के
विषय में दान उससे भी अधम उपाय कहा जाता है। साम के विषयों में दण्ड अधम से भी अधम
उपाय कहा गया है।। ३५-३६॥
सौजन्यं सततं
ज्ञेयं भूभृतो भेददण्डयोः ।
साम्रो दानस्य
च तथा सौजन्यं याति गोचरे ।। ३७ ।।
राजा सदैव भेद
और दण्ड में आपसी सौजन्य को जाने तथा साम और दाम में दिखाई देने वाले सौजन्य को
देखे ॥ ३७ ॥
कामः क्रोधश्च
लोभश्च हर्षो मानो मदस्तथा ।
एतानतिशयान्
राजा शत्रूनिव विशातयेत् ।। ३८ ।।
काम,
क्रोध, लोभ, हर्ष, मान तथा मद इनकी अधिकता को राजा,
शत्रुओं की भाँति नष्ट करे ॥ ३८॥
सेव्याः काले
संयुक्तौ ते लोभगर्वी विवर्जयेत् ।। ३९ ।।
उसे इनका
समयानुसार संयुक्तरूप से सेवन भी करना चाहिये किन्तु लोभ और घमण्ड को वह सदैव दूर
रखे ॥३९॥
तेज एव
नृपाणां तु तीव्रंसूर्यस्य वै यथा ।
तत्र गर्व
रोगयुक्तं कायवांस्तं तु संत्यजेत् ।। ४० ।।
राजाओं का तेज
सूर्य के समान तीव्र होता है। ऐसी परिस्थिति में जैसे मनुष्य रोगी शरीर को छोड़
देता है उसी प्रकार राजा गर्व को छोड़ दे ॥ ४० ॥
आखेटकाक्षौ
स्त्रीसेवा पानं चैवार्थदूषणम् ।
वाग्दण्डयेश्च
पारुष्यं सप्तैतानि विविर्जयेत् ॥ ४१ ॥
शिकार,
जुआ, परस्त्री सेवन, मदिरादिपान, दूषितधनग्रहण, वाणी देना (अनुचित वचन), कठोरता इन सात दोषों को राजा छोड़ दे ॥ ४१ ॥
परस्त्रीषु
विरक्तासु सेवामेकान्ततस्त्यजेत् ।
सतीषु
निजनारीषु युक्तं कुर्यान्निवेशनम् ।। ४२ ।।
वह दूसरे की
स्त्रियों या जो उनसे विरक्त रहती हों, ऐसी स्त्रियों का सेवन निश्चितरूप से छोड़ दे तथा सती चरित्र
वाली अपनी पत्नियों से ही उचित सम्पर्क करे ॥ ४२ ॥
रतिपुत्रफला
दारास्तांस्तु नैकान्ततस्त्यजेत् ।
तयोः सिद्धयै
स्त्रियः सेव्या वर्जयित्वातिसक्तताम् ।। ४३ ।।
पत्नियाँ
रतिसुख और पुत्र का फलप्रदान करने वाली होती हैं, इसलिए उनका पूर्णतः परित्याग कभी न करे। उपर्युक्त दोनों
सुखों की प्राप्ति के लिए स्त्रियों का सेवन करना चाहिये किन्तु उनमें अधिक आसक्त
नहीं होना चाहिये ।। ४३ ।।
मृगयां तु
प्रमादानां स्थानं नित्यं विवर्जयेत् ।
अक्षांस्तथा न
कुर्वीत सत्कार्यासक्तिनाशनम् ।
अन्यैः कृतं
कदाचित् तु सेवेत नात्मनाचरेत् ।। ४४ ।।
शिकार एवं
प्रमाद के स्थानों का नित्य त्याग करे। उसी प्रकार जुओं में भी आसक्ति न करे क्योंकि
इससे सत्कार्य में आसक्ति का नाश होता है। यदि आवश्यकता पड़े तो कभी दूसरों के
किये उपयुक्त कार्यों का लाभ ले ले किन्तु स्वयं सेवन न करे ।। ४४ ।।
अकार्यकरणे
बीजं कृत्यानां च विवर्जने ।
अकालमन्त्रभेदे
च कलहे सत्कृतिक्षये ।। ४५ ।।
वर्जयेत् सततं
पानं शौचमाङ्गल्यनाशनम् ।
अर्थक्षयकरं
नित्यं त्यजेच्चैवात्मदूषणम् ।। ४६ ।।
निरन्तर
मदिरापान,
न करने योग्य कार्यों के करने,
करने योग्य कार्यों को न करने,
असमय में मन्त्रभेद (रहस्यभेद ),
कलह, सत्कृति के क्षय, शौच तथा माङ्गल्य का नाश करने वाला और अर्थ क्षय का एक स्थायी
कारक है इसलिए राजा अपने इस दोष को छोड़ दे।।४५-४६॥
अभिशस्तेषु
चोरेषु घातकेष्वाततायिषु ।
सततं
पृथिवीपालो दण्डपारुष्यमाचरेत् ।। ४७ ।।
राजा,
कलंकित, चोर, घातक, आततायी जनों के प्रति निरन्तर दण्डनीति और कठोरता का आचरण
करे॥४७॥
नान्यत्र दण्डपारुष्यं
कुर्यान्नृपतिसत्तमः ।
वाक्पारुष्यं
च सर्वत्र नैव कुर्यात् कदाचन ।। ४८ ।।
श्रेष्ठ राजा,
दण्ड और कठोरता का इनके अतिरिक्त अन्यत्र प्रयोग न करे,
उसे कभी भी सभी स्थानों पर वाणी की कठोरता का प्रयोग नहीं
करना चाहिये ।। ४८ ।।
रक्षणीयं सदा
सत्यं सत्यमेकं परायणम् ।
क्षमां
तेजस्वितां चैव प्रस्तावान्नृप आचरेत् ।। ४९ ।।
हे राजा ! उसे
एकमात्र सत्य का परायण हो सदैव सत्य की रक्षा करनी चाहिये। वह क्षमा और तेजस्विता
जैसे गुणों का प्रयोग प्रस्तावों (परिस्थितियों) के अनुरूप करे ॥ ४९ ॥
यानासनाश्रयद्वैधसन्धयो
विग्रहस्तथा ।
अभ्यसेत्
षड्गुणानेतांस्तेषां स्थानं च शाश्वतम् ।। ५० ।।
यान
(प्रस्थान), आसन,
आश्रय, द्वैध, संधि और विग्रह (युद्ध) इन छः गुणों का अभ्यास,
वह निरन्तर स्थान (अवसर) के अनुरूप करे ॥५०॥
यः प्रमाणं न
जानाति स्थाने वृद्धौ तथा क्षये ।
कोष जनपदे
दण्डे न स राज्येऽवतिष्ठते ।। ५१ ।।
जो राजा अपने
कोष,
जनपद, दण्ड की स्थिति, वृद्धि तथा क्षय को प्रमाणित रूप से नहीं जानता,
वह राज्य में स्थित नहीं रह सकता ॥ ५१ ॥
कोषे जनपदे
दण्डे चैकैकत्र त्र्यं त्रयम् ।
प्रस्तावाद्
विनियुञ्जीत रक्षेन्नैकांस्ततस्त्विमान् ।। ५२ ।।
मित्रे
शत्रावुदासीने प्रभावं त्रिष्वपीरयेत् ।। ५३ ।।
राजा कोष,
जनपद और दण्ड (शासन) की रक्षा हेतु एक-एक अथवा प्रत्येक में
तीन-तीन के विचार से रक्षा करे किन्तु उपर्युक्त तीनों को कभी भी किसी एक के हाथ
में न सौंपे। मित्र, शत्रु और उदासीन का विचार कर तीनों पर प्रभाव का प्रयोग करे
।। ५२-५३ ॥
उत्साहो
विजिगीषायां धर्मकृत्येऽष्टवर्गके ।
शरीरयात्रानिर्वाह
क्रियेत सततं नृपैः ।।५४।।
राजाओं द्वारा
विजय की इच्छा में, धर्मकृत्यों में, अष्टवर्ग सम्बन्धी कार्यों में, शरीर यात्रा के निर्वाह में, निरन्तर उत्साह का प्रयोग किया जाना चाहिये ।। ५४ ।।
मन्त्रनिश्चयसम्भूतां
बुद्धिं सर्वत्र योजयेत् ।
अमात्ये
शात्रवे राज्ये पुत्रेष्वन्तः पुरेषु च ।। ५५ ।।
उसे मन्त्र
(मन्त्रियों) के निश्चय से उत्पन्न बुद्धि का ही अमात्य,
शत्रु, राज्य, पुत्र तथा अन्तःपुर सम्बन्धी व्यवहारों में उपयोग करना
चाहिये ॥ ५५ ॥
कृषिं दुर्गं
च वाणिज्यं खड्गानां करसाधनम् ।
आदानं
सैन्यकरयोर्बन्धनं गजवाजिनोः ।। ५६ ।।
शून्ये
सद्ममुखानां च योजनं सततं जनैः ।
त्रयाणां
सारसेतुनां बन्धनं चेति चाष्टमम् ।
एतदष्टसु
वर्गेषु चारान् सम्यक् प्रयोजयेत् ।। ५७ ।।
कृषि,
दुर्ग, वाणिज्य, खड्ग (शस्त्र), करसाधन, आदान, सैन्यसंगठन, हाथी- घोड़ों का बन्धन, शून्यगृह आदि की व्यवस्था, नित्य लोगों के तीन, सारसेतुओं, बन्धन, इन आठ कार्यों में दूतों को (अधिकारियों को) भली-भाँति
योजित करे।।५६-५७।।
कार्याकार्यविभागाय
चाष्टवर्गाधिकारिणाम् ।
अष्टौ
चारान्नियुञ्जीयादष्टवर्गेषु पार्थिवः ।। ५८ ।।
हे राजन् !
कार्य (करने योग्य कार्य), अकार्य (न करने योग्य कार्य) के विचार के लिए आठो वर्गों के
आधिकारिक आठदूतों को आठो वर्गों में नियुक्त करे ।। ५८ ।।
दश शून्येषु
युञ्जीत क्रमतः शृणु तानि मे ।। ५९ ।।
स्वामी सचिव-
राष्ट्राणि मित्रं कोशो बलं तथा ।
दुर्गं तु
सप्तमं ज्ञेयं राज्याङ्गं गुरुभाषितम् ।। ६० ।।
जिन दश
शून्यों में अधिकारियों की नियुक्ति करनी चाहिये उसे क्रमशः सुनो- स्वामी,
सचिव, राष्ट्र, मित्र, कोश, बल तथा दुर्ग इन सात को गुरु द्वारा कथित राज्य के अङ्ग
जानना चाहिये ।। ५९-६० ।।
दुर्गयुक्तं
चाष्टवर्गे चारान्नात्मनि योजयेत् ।
तस्मादिमानि
शेषाणि पंच चारपदानि च ।। ६१ ।।
दुर्ग का
उल्लेख पहले अष्टवर्ग के प्रसङ्ग में किया गया है और अपने पीछे अर्थात् दूतों को
नहीं लगाना इसलिए उपर्युक्त सात अङ्गों में से केवल पाँच ही चरों द्वारा रक्षणीय
हैं ॥ ६१ ॥
शुद्धान्तेषु
च पुत्रेषु ससूय्यादौ महानसे ।
शत्रूदासीनयोश्चापि
बलाबलविनिश्चये ।
अष्टादशसु
चैतेषु चारान् राजा प्रयोजयेत् ।। ६२।।
शुद्ध
(एकान्त),
अन्त:पुर में एवं पुत्रों, रसोइया सहित रसोई में, शत्रुओं एवं उदासीनों के बलाबल का विनिश्चय करने के लिए
राजा को उपयुक्त अठारह प्रकार के प्रसङ्गों (आठवर्ग एवं दशशून्य) का प्रयोग करना
चाहिये ॥ ६२ ॥
न यत्प्रकाशं
जानीयात् तत् तच्चारैर्निरुपयेत् ।
निरुप्य तत्
प्रतीकारमवश्यं छिद्रतश्चरेत् ।। ६३ ।।
यथानियोगमेतेषां
यो यो यत्रान्यथाचरेत् ।
ज्ञात्वा तत्र
नृपश्चारैर्दण्डयेद् वा वियोजयेत् ।। ६४ ।।
जिसका
स्पष्टतः पता न चले उसे जानने के लिए गुप्तचरों की व्यवस्था करनी चाहिये। चरों का
निरुपण करने के पश्चात जो त्रुटियाँ मिलें उनका, उनके अनुरूप प्रतिकार अवश्य करे । जहाँ जिसकी नियुक्ति की
गई हो यदि वह अन्यथा आचरण करे तो, उसे दूतों द्वारा जानकर, राजा उन्हें दण्डित करे या कार्यमुक्त कर दे।। ६३-६४ ॥
चारांस्तु
मन्त्रिणा सार्धं रहस्ये संस्थितो नृपः ।
प्रदोषसमये
पृच्छेत् तदानीमेव साधयेत् ।। ६५ ।।
राजा सन्ध्या
के समय,
एकान्त में मन्त्रियों के साथ,
दूतों से पूछे तथा उसी समय उनकी व्यवस्था भी करे॥६५॥
स्वपुत्रे चाथ
शुद्धान्ते ये तु चारा महानसे ।
नियुक्तास्तान्मध्यरात्रे
पृच्छेत् स्वेऽपि च मन्त्रिणि ।। ६६ ।।
एतांश्चारान्
स्वयं पश्येन्नृपतिमन्त्रिणा विना ।
अन्यांस्तु
मन्त्रिणा सार्धं निरुप्य प्रदिशेत् फलम् ।। ६७ ।।
अपने पुत्रों,
अपने अन्तःपुर के सेवकों, रसोइयों, अपने प्रति या मन्त्रियों के प्रति जिन दूतों की राजा
द्वारा नियुक्ति की गई हो, उनसे मन्त्रियों की अनुपस्थिति में स्वयं राजा,
मध्यरात्रि में विचार करें। अन्यों का मन्त्रियों के साथ
रहकर निरूपण करे और फल का निर्देश करे ।। ६६-६७ ।।
नैकवेशधरश्चारो
नैको नोत्साहवर्जितः ।
संस्तुतो नहि
सर्वत्र नातिदीर्घो न वामनः ।। ६८ ।।
सततं न
दिवाचारी न रोगी नाप्यबुद्धिमान् ।
न
वित्तविभवैर्हीनो न भार्यापुत्रवर्जितः ।।६९।।
कार्यश्वारो नृपतिना
तत्त्वगुह्यविनिर्णये।। ७० ।।
चार (दूत) तो
न एक वेश धारण करने वाला, न अकेला और न वह उत्साह रहित हो । वह सब जगह,
सबसे वार्ता करने वाला भी नहीं होना चाहिये । दूत न बहुत लम्बा
हो और न बौना । उसको दिन में निरन्तर विचरण करने वाला भी नहीं होना चाहिये । वह न
रोगी हो और न अबुद्धिमान् अर्थात बुद्धिहीन हो । वह धन और वैभव से न तो रहित हो और
न स्त्री- पुत्र से रहित ही हो । राजा द्वारा गुप्ततत्त्वों के निर्णय हेतु
उपर्युक्त लक्षणोंवाला दूत नियुक्त करना चाहिये।।६८-७०।।
अनेकवेशग्रहणक्षमं
भार्यासुतैर्युतम् ।
बहुदेवचोऽभिज्ञ
पराभिप्रायवेदकम् ।। ७१ ।।
दृढभक्तं
प्रकुर्वीत चारं शक्तमसाध्वसम् ।
अभितिष्ठेत्
स्वयं राजा कृषिमात्मसमैस्तथा ।। ७२ ।।
राजा,
कृषि में, अपने समान लोगों के प्रति अनेक वेश ग्रहण करने में समर्थ,
पत्नी तथा पुत्र से युक्त, बहुत से देश की बोलियों को जानने वाले,
दूसरों के अभिप्रायों को जानने वाले,
शक्तिशाली एवं न थकने वाले, राजा के प्रति दृढभक्ति रखने वाले,
दूतों को स्वयं नियुक्त करे । । ७१-७२ ।।
वणिक्पथे तु
दुर्गादौ तेषु शक्तान्तियोजयेत् ।
अन्तःपुरे
पितुस्तुल्यान् धीरान् वृद्धान्नियोजयेत् ।। ७३ ।।
व्यापारिक
मार्गों पर, दुर्ग आदि प्रकृतियो के सन्दर्भ में शक्तिशाली तथा अन्तःपुर के कार्यों में
पिता के समान धैर्यशाली और वृद्धगुप्तचरों की नियुक्ति करे ॥ ७३ ॥
षण्डान्
पण्डांस्तथा वृद्धां स्त्रियो वा बुद्धितत्पराः ।
शुद्धान्ते
द्वारि युञ्जीयात् स्त्रियो वृद्धा मनीषिणीः ।। ७४ ।।
राजा को अपने
अन्तःपुर के द्वार पर बुद्धिमान्, वृद्ध, नपुंसक पुरुषों या बुद्धिमती, वृद्धा, स्त्रियों की नियुक्ति करनी चाहिये ॥ ७४ ॥
नैकः स्वपेत्
कदाचित् तु नैको भुञ्जीत पार्थिवः ।
नैकाकिनीं तु
महिषीं ब्रजेन्मैत्राय नैककः ।।७५।।
राजा को न तो
अकेले कभी सोना चाहिए और न अकेले भोजन ही करना चाहिये,
न उसे एक ही रानी रखनी चाहिए, न उसे केवल अकेले शौच करने ही जाना चाहिये ॥ ७५ ॥
अमात्यानुपधाशुद्धान्
भार्याः पुत्रांस्तथैव च ।
प्रकुर्यात्
सततं भूपः सप्रसादं समाचरन् ।।७६॥
राजा को उपधा
(विशेष परीक्षण) द्वारा, अमात्य, पुत्र, एवं पत्नियों के साथ प्रसन्नतापूर्वक निरन्तर व्यवहार करना
चाहिये ॥७६॥
धर्मार्थकाममोक्षैश्च
प्रत्येकं परिशोधनैः ।
उपेत्य धीयते
यस्मादुपधा सा प्रकीर्तिता ।। ७७॥
धर्म,
अर्थ और काम तथा मोक्ष में से एक-एक के शुद्धि हेतु,
इसमें निकट से धारण किया जाता है (विचार किया जाता है),
इसीलिए उसे उपधा कहा गया है ॥
७७ ॥
अर्थकामोपधाभ्यां
तु भार्यापुत्रांश्च शोधयेत् ।
धर्मोपधाभिर्विप्रांस्तु
सर्वाभि: सचिवान् पुनः ।।७८ ।।
राजा अर्थ और
काम की उपधाओं से पत्नी और पुत्रों की परीक्षा करे, धर्म उपधा से ब्राह्मणों की तथा अर्थ,
धर्म, काम सभी उपधाओं से सचिवों की परीक्षा करे ॥७८॥
कालिका पुराण अध्याय ८४-धर्म उपधावर्णन
।। धर्म
उपधावर्णन ॥
एभिर्यज्ञैस्तथा
दानैरिहैव नृपतिर्भवेत् ।
तस्माद्भवांस्तु
राज्यार्थी धर्ममेवं समाचरेत् ।। ७९ ।।
इन यज्ञों और
दानों के करने से मनुष्य इसी लोक में राजा हो जाता है । अतः आप भी राज्य के लिये
इसी प्रकार के धर्म का आचरण करें ।। ७९ ।।
अनेनैवाभिचारेण
यज्ञैर्वा पार्थिवो ह्ययम् ।
प्राणांस्त्यजति
राजा त्वं भविष्यसि न संशयः ।। ८० ।।
इस अभिचार से,
यज्ञ से, यह राजा मृत्यु को प्राप्त करेगा तथा आप राजा हो जायेंगे,
इसमें कोई संशय नहीं है ॥ ८० ॥
इति धर्मे
नृपस्यैव अश्वमेधादिकश्च यः ।
स्वयं न
कुरुते भूपस्तस्मात् त्वं कुरु सत्तम ।। ८१ ।।
हे श्रेष्ठ
पुरुष ! जो अश्वमेधादि यज्ञ हैं, इनका करना राजा का कर्तव्य है किन्तु यदि वह नहीं कर रहे
हैं तो आप ही स्वयं करें ॥ ८१ ॥
एवं
मन्त्रैर्मन्त्रयित्वा नृपः कार्यान्तिकाद् द्विजात् ।
तैरज्ञातान्
स्वयं ज्ञात्वा गृह्णीयात् तस्य तैर्मनः ।। ८२ ।।
इस प्रकार के
उपर्युक्त परामर्शो से राजा, अपने समीपवर्ती द्विज कर्मचारियों से मन्त्रणा करके,
उनके द्वारा न जानी गई बातों को स्वयं जानकर,
उनके मन की बात को ग्रहण (ज्ञात) करे ॥ ८२ ॥
यदि
राज्याभिलाषेण सचिवोऽधर्ममाचरेत् ।
नृपतौ बाधिकं
कुर्याद् धर्मं तं हीनतां नयेत् ।।८३।।
यदि राज्य की
अभिलाषा से सचिव अधर्म का आचरण करता हो तो वह तो राजा का वध कर देता है या
राज्यधर्म में हीनता उत्पन्न करता है ॥ ८३ ॥
आभिचारिकमत्यर्थं
कुर्वाणं तु विघातयेत् ।
प्रवासयेद्
ब्राह्मणं तु पार्थिवश्चाभिचारिकम् ।। ८४ ।।
राजा अत्यधिक अभिचारिक कर्म करने वाले क्षत्रिय को मार डाले, यदि वह ब्राह्मण हो तो उसे देश निकाला दे दे।।८४॥
एषा धर्मोपधा
ज्ञेया तैरमात्यान् सुताञ्जयेत् ।
एतादृशीं तथैवान्यामुपधां
धर्मतश्चरेत् ।। ८५ ।।
यह धर्म उपधा
है। इससे अमात्यों और पुत्रों को वश में करे। इसी प्रकार अन्य अर्थ,
कामादि उपधाओं का भी वह, धर्मपूर्वक प्रयोग करे ।। ८५ ।।
कालिका पुराण
अध्याय ८४- अर्थ उपधावर्णन
।। अर्थ -
उपधावर्णन ॥
कोशाध्यक्षान्
समामन्त्र्य राजामात्यान् प्रतारयेत् ।
पुत्रानन्यान्
प्रति तथा मन्त्रसंवरणाक्षमान् ।। ८६ ।।
मन्त्र
(परामर्श) वरण करने में असमर्थ कोशाध्यक्षों, अमात्यों, पुत्र आदि के आमन्त्रण का छल करे ॥ ८६ ॥
अयं हि
प्रचुरः कोषो मदायत्तो नरोत्तम ।
आनये तव
संमत्या तद् यदि त्वं प्रतीक्षसिः ।।८७।।
तवार्थलग्नादस्माकं
जीवनं च भविष्यति ।
त्वं चापि
प्रचुरैः कोषैः किं किं वा न करिष्यसि ।। ८८ ।।
एवमन्यैः कोषगतैरुपायैर्नृपसत्तमः
।
पुत्रामात्यादिकान्
सर्वान् सततं परिशोधयेत् ।। ८९ ।।
श्रेष्ठपुरुष
! यह जो मैंने बहुत अधिक कोष आदि अर्जित किया है, तुम्हारी सम्मति हो और तुम प्रतिक्षा करो तो,
मैं उसे ले आऊँ तुम्हारे लिए ही हमारा जीवन भी होगा। तुम भी
पर्याप्त धन पाकर क्या क्या नहीं कर सकते अर्थात् बहुत कुछ कर सकते हो। इस प्रकार
के अनेक कोशसम्बन्धी उपायों से, श्रेष्ठ राजा, पुत्र तथा अमात्यादि का नित्य शोधन (परीक्षण) करता रहे।।८७-८९
।।
कोषदोषकरान्
हन्यात् कर्तुमिच्छन् विवासयेत् ।
द्वैधचित्तान्
विमन्येत कुर्याद् वै कोशरक्षणम् ।। ९० ।।
तत्पश्चात्
कोशसम्बन्धी (आर्थिक) अपराध करने वालों को मार डाले, करने की इच्छा करने वालों को निर्वासित कर दे,
दुविधाग्रस्त की अवमानना करे, राजा को, अपने कोश की इस प्रकार से रक्षा करनी चाहिये ।। ९० ।।
कालिका पुराण
अध्याय ८४- काम उपधावर्णन
।। काम
उपधावर्णन ॥
दासीश्च
शिल्पिनीवृद्धा मेधाधृतिमतीः स्त्रियः ।
अन्तर्वहिश्च
या यान्ति विदिताः सचिवादिभिः ।। ११ ।।
ता राजा रहसि
स्थित्वा भार्यादिभिरलक्षितः ।
अभिमन्त्र्याथ
संमन्त्र्य प्रेषयेत् सचिवान् प्रति ।। ९२ ।।
दासी,
शिल्पी, वृद्धा, जो बुद्धिमती और धैर्यशालिनी स्त्रियाँ हों,
जो सचिव आदि की जानकारी में बाहर-भीतर आती-जाती हों,
ऐसी स्त्रियों से अपनी पत्नी आदि से छिप कर राजा एकान्त में
मिले तथा उनसे मन्त्रणा करके अपनी सलाह के सहित उन्हें सचिव आदि के प्रति भेजे ।।
९१-९२ ।।
ता गत्वा
हृदयं बुद्धा स्त्रियो विज्ञानतत्पराः ।
महिषीप्रमुखा
राज्ञस्त्वां वै कामयते शुभाः ।
तत्राहं
योजयिष्यामि यदि ते विद्यते स्पृहा ।। ९३ ।।
वे विशेष ज्ञान
रखनेवाली,
सुन्दर स्त्रियाँ वहाँ जाकर उनके हृदय की बात जानें और कहें
कि राजा की रानी आदि स्त्रियाँ आपकी कामना करती हैं। यदि आपकी भी इस सम्बन्ध में
कोई इच्छा हो तो मैं आपको वहाँ जोड़ दूँगी, पहुँचा दूँगी ।। ९३ ।।
सचिवस्त्वां
कामयते त्वद् योग्यो वरवर्णिनि ।
तं संगमयितुं
शक्ता यदि श्रद्धा तवास्त्यहम् ।। ९४ ।।
अथवा हे
वरवर्णिनी ! अमुक सचिव भी आपकी कामना करता है और वह आपके योग्य भी है यदि आपकी
श्रद्धा हो तो मैं उससे आपको मिला सकती हूँ ।। ९४ ॥
इत्यनेन
प्रकारेण नानोपायैस्तथोत्तरैः ।
भार्याः
पुत्रदुहित्रीश्च स्नुषाश्च प्रस्नुषास्तथा ।। ९५ ।।
शोधयेत्
सचिवान् पुत्रान् पौत्रादीन् सेवकांस्तथा ।
कामोपधाविशुद्धांस्तु
घातयेदविचारयन् ।। ९६ ।।
इस प्रकार के
अनेक उपायों तथा अन्य उपायों, कामोपधाओं से पत्नी, पुत्रदुहिता (पोती), पतोहू, पौत्रवधू, सचिव, पुत्र, पौत्र, सेवकगण, अन्य स्त्री-पुरुष आदि सम्बन्धियों की परीक्षा लेकर,
दोषी जनों को बिना विचारे ही मार डाले ।। ९५-९६ ।।
स्त्रियस्तु
योज्या दण्डेन ब्राह्मणांस्तु प्रवासयेत् ।। ९७ ।।
मोक्षमार्गावसक्तं
तु हिंसापैशुन्यवर्जितम् ।
क्षमैकसारं
नृपतिः सचिवं परिवर्जयेत् ।। ९८ ।।
दोषी पाई गई
स्त्रियों को दण्ड दे, ब्राह्मणों को देश निकाला दे, हिंसा-चुगुली आदि से रहित, मोक्षमार्ग में जुटे हुये, क्षमा ही जिनका एक मात्र सार है,
ऐसे सचिव भी यदि दोषी पाये जायँ तो राजा उन्हें त्याग
दे।।९७-९८।।
मोक्षमार्गविरक्तांस्तु
दण्डयानपि न दण्डयेत् ।
समबुद्धिस्तु
सर्वत्र तस्मात् तं परिवर्जयेत् ।। ९९ ।।
मोक्षमार्ग
में लगे हुये दण्डनीय चरित्रों को भी दण्ड नहीं देना चाहिये क्योंकि वे सब जगह
अपनी समत्वबुद्धि के कारण दोष को समझ ही नहीं पाते, अतएव उनका त्याग ही, दण्ड है ।। ९९ ।।
इति सूत्रं
चोपधानामुपधा बहुधा पुनः ।
विवेचिता
चोशनसा तच्छास्त्रे तत्र बोधयेत् ।। १०० ।।
इस प्रकार
उपधा सम्बन्धी बहुत से सूत्र होते हैं और बहुत सी उपधायें होती हैं,
जिनका विवेचन उशना (शुक्राचार्य) ने किया है। उन्हें उनके
शास्त्रों, नीति आदि ग्रन्थों से जानना चाहिये ॥ १०० ॥
विग्रहं सततं
राजा परैर्न सम्यगाचरेत् ।
भूवित्तमित्रलाभेषु
निश्चितेष्वेव विग्रहाः ।। १०१ ।।
राजा को सदैव
शत्रुओं से युद्ध ही नहीं करना चाहिये। पृथ्वी, धन, मित्र के लाभ का निश्चय (विचार) करके ही युद्ध करना
चाहिये।। १०१ ।।
सप्ताङ्गेषु
प्रसादश्च सदा कार्यो नृपोत्तमैः ।
कोषस्य सञ्चयं
रक्षां सततं सम्यगाचरेत् ।। १०२ ।।
उत्तम राजाओं
द्वारा अपने राज्य के सात अङ्गों का विस्तार तथा अपने कोष का सञ्चय और उसकी रक्षा,
भलीभाँति और निरन्तर करनी चाहिये ॥१०२॥
मन्त्रिणस्तु
नृपः कुर्याद् विप्रान् विद्याविशारदान् ।
विनयाज्ञान्
कुलीनांश्च धर्मार्थकुशलानृजून् ।। १०३ ।।
राजा,
विद्या में विशारद, विनय (विशेषनीति) का ज्ञान रखने वाले,
कुलीन, धर्म और अर्थ सम्बन्धी कार्यों में कुशल,
सरल प्रवृत्ति के ब्राह्मणों की मन्त्री के रूप में
नियुक्ति करे ॥ १०३ ॥
मन्त्रयेत्
तैः समं ज्ञानं नात्यर्थं बहुभिश्चरेत् ।
एकैकेनैव
कर्तव्यं मंत्रस्य च विनिश्चयम् ।। १०४ ।।
वह उनके साथ
समान ज्ञान से मन्त्रणा करे। मन्त्र का परामर्श, एक-एक से ही करे, बहुतों से, बहुत अधिक नहीं करे ॥ १०४ ॥
व्यस्तैः
समस्तैश्चान्यस्य व्यपदेशैः समन्ततः ।
सुसंवृतं
मन्त्रगृहं स्थलं वारुह्य मन्त्रयेत् ।
अरण्ये
निःशलाके वा न यामिन्यां कदाचन ।। १०५ ।।
वह अलग-अलग,
इकट्ठा होकर, दूसरों को हटाकर या सबको मिलाकर,
भली-भाँति घिरे हुये, सुरक्षित मन्त्रणागृह या स्थान पर पहुँच कर मन्त्रणा करे,
वह कभी वन में, खुले स्थान में, रात्रि में मन्त्रणा न करे।।१०५।।
शिशूच्छाखामृगान्
षण्डाञ्छुकान् वै सारिकास्तथा ।
वर्जयेन्मन्त्रगेहे
तु मनुष्यान् विकृतांस्तथा ।। १०६ ।।
बच्चों को,
बन्दरों को, षण्ड (हिजड़ों), तोतों और मैना आदि पक्षियों एवं विकृत मनुष्यों को मन्त्रणा
कक्ष से निकाल दे ॥ १०६ ॥
दूषणं
मन्त्रभेदेषु नृपाणां यत् तु जायते ।
न तच्छक्यं समाधातुं
दक्षैर्नृपशतैरपि ।। १०७ ।।
हे राजन्!
मन्त्रणा के खुल जाने से राजा की जो हानि होती है, सौ कुशल राजा भी उसका समाधान नहीं कर सकते ॥ १०७॥
दण्ड्यांस्तु
दण्डयेद् दण्डैरदण्ड्यान् दण्डयेन्नहि ।। १०८ ।।
अदण्डयन् नृपो
दण्ड्यान्नदण्ड्यांश्चापि दण्डयन् ।
नृपतिर्वाच्यतां
प्राप्य चौरकिल्विषमाप्नुयात् ।। १०९ ।।
राजा,
दण्डनीयों को दण्ड-नीति से दण्डित करे,
अदण्डनीयों को दण्डित न करे। न दण्डनीय को दण्ड देने वाला
एवं दण्डनीय को दण्ड न देने वाला राजा, राजा शब्द से विभूषित होकर भी चोर के पाप का भागी होता है।।१०८-१०९॥
दुर्गे तु
समतां कुर्यात् प्राकाराट्टालतोरणैः ।
भूषितान्नगराद्राजा
दूरे दुर्गाश्रयं चरेत् ।। ११० ।।
राजा ऊँची
अट्टालिकाओं, चहारदीवारी और तोरण से युक्त नगर से, दूरवर्ती, दुर्ग में निरन्तर आश्रय ले (निवास करे) ॥११०॥
दुर्गं बलं
नृपाणां तु नित्यं दुर्गं प्रशस्यते ।
शतमेको योधयति
दुर्गस्थो यो धनुर्द्धरः ।
शतं दशसहस्राणि
तस्माद् दुर्ग प्रशस्यते ।। १११ ।।
राजा के लिए
दुर्गबल एक स्थायी बल है। इसीलिए दुर्ग की प्रशंसा में कहा गया है कि दुर्ग के
भीतर सुरक्षित एक धनुर्धारी योद्धा बाहर के सौ योद्धाओं से तथा सौ,
दश हजार योद्धाओं से युद्ध कर सकता है। इसीलिये दुर्ग को
विशेष महत्व दिया जाता है (दुर्ग शब्द, वर्तमान में सम्पूर्ण रक्षा-विधान का बोधक है)।। १११ ।।
जलदुर्गं
भूमिदुर्गं वृक्षदुर्गं तथैव च ।। ११२ ।।
अरण्यंमरुद्दुर्गं
च शैलजं परिखोद्भवम् ।
दुर्गं कार्यं
नृपतिना यथा दुर्गं स्वदेशतः ।।११३।।
राजा को अपने
देश (राष्ट्र) के अनुरूप जलदुर्ग, भूमिदुर्ग, वृक्षदुर्ग, अरण्यदुर्ग, मरुस्थलीयदुर्ग, पर्वतदुर्ग, तथा परिखा (खाई) से घिरे दुर्गों के रूप में,
दुर्ग का निर्माण करना चाहिये ।। ११२-११३ ।।
दुर्गं
कुर्वन् पुरं कुर्यात् त्रिकोणं धनुराकृति ।
वर्तुलं च
चतुष्कोणं नान्यथा नगरं चरेत् । । १४४।।
दुर्ग का
निर्धारण कर उसमें त्रिकोण, धनुष के आकार का, वृत्ताकार या चौकोर नगर बनाये। इससे अतिरिक्त न बनाये ॥ ११४
॥
मृदङ्गाकृतिदुर्गं
तु सततं कुलनाशनम् ।
यथा
राक्षसराज्यस्य लङ्का दुर्गान्विता पुरा ।। ११५ ।।
मृदङ्ग के
आकार का दुर्ग, निरन्तर कुल का नाश करने वाला होता है, जैसे प्राचीनकाल में राक्षसराज रावण की दुर्गान्वित लङ्का
भी नष्ट हो गई थी ।। ११५ ॥
बलेः पुरं
शोणिताख्यं तेजो दुर्गेः प्रतिष्ठितम् ।
तद् यस्माद्
व्यञ्जनाकारं मानोभ्रष्टः शिवावलिः ।। ११६ ।।
अग्निदुर्ग से
प्रतिष्ठित बलि का शोणित नामक पुर, व्यञ्जन (पंखे) के आकार का होने से,
मान से रहित हो, श्रृंगालों के द्वारा भ्रष्ट हुआ ॥ ११६ ॥
सौभाग्यं
शाल्वराजस्य नगरं पंचकोणकम् ।
दिवि यद्
वर्तते राज्यं तच्च भ्रष्टं भविष्यति ।। ११७ ।।
शाल्वराज का
सौभाग्य नामक पञ्चकोणात्मक नगर भी, जो स्वर्ग में रहता है, वह भी नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा ।। ११७ ।।
यच्चायोध्याह्वयं
भूप पुरमिक्ष्वाकुभूभृताम् ।
धनुराकृति
तच्चापि ततोऽभूद् विजयप्रदम् ।। ११८ ।।
जो राजा इक्ष्वाकु
का अयोध्या नामक धनुषाकार पुर था वह अपने नरेशों को विजय प्रदान करने वाला हुआ ॥
११८ ॥
दुर्गभूमौ
यजेद् दुर्गां दिक्पालांश्चैव द्वारतः ।
पूजयित्वा
विधानेन जयं भूपः समाप्नुयात् ।
अतो दुर्गं
नृपः कुर्यात् सततं जयवृद्धये ।। ११९ ।।
दुर्ग की भूमि
पर दुर्गा की तथा द्वारदेश में दिक्पालों की विधिपूर्वक पूजा कर राजा
को विजय प्राप्त करना चाहिये। इसलिए राजा को अपनी विजय और समृद्धि के लिए दुर्ग का,
सतत निर्माण करना चाहिये ।। ११९ ।।
न ब्राह्मणान्
सदा राजा केनाप्यवमनीकृतान् ।
अवमन्य नृपो
विप्रान् प्रेत्येह दुःखभाग्भवेत् ।। १२० ।।
सदा राजा को
किसी प्रकार से भी ब्राह्मणों की अवमानना नहीं करनी चाहिये। ब्राह्मणों की अवमानना
कर,
राजा इस लोक और परलोक दोनों ही स्थानों पर,
दुःख का भागी होता है ।। १२० ॥
न विरोधस्तु
तैः कार्यः स्वनितेषां न चाददेत् ।। १२१ ।।
कृत्यकालेषु
सततं तानेव परिपूजयेत् ।
नैषां निन्दां
प्रकुर्वीत नाभ्यसूयां तथाचरेत् ।। १२२ ।।
राजा न उनसे द्वेष
करे और न उनकी सम्पत्ति ही अपने अधिकार में ले। कार्य आने पर वह निरन्तर उनका पूजन
ही करे। वह न उनकी निन्दा करे न उनसे द्वेष ही रखे ।। १२१-१२२ ।।
एवं नृपो महाबुद्धिस्तत्त्वमण्डलसंयुतः
।
अप्रमादी चारचक्षुर्गुणवान्
सुप्रियंवदः ।
प्रेत्येह
महती सिद्धिं प्राप्नोति सुखभोगवान् ।। १२३ ।।
इस प्रकार से
महान् बुद्धिमान्, तत्त्वमण्डल से युक्त, प्रमादरहित, गुणवान्, चरों के माध्यम से राज्य का निरीक्षण करने वाला,
राजा, परलोक एवं इहलोक दोनों ही स्थानों में,
महान सिद्धि तथा सुख का उपभोग करता है ।। १२३ ।।
यैर्गुणैर्योजितश्चात्मा
तैः पुत्रानपि योजयेत् ।। १२४ ।।
जिन गुणों से
राजा अपने को विभूषित करे, उन्हीं से वह अपने पुत्रों को भी संयुक्त करे।। १२४ ।।
नृपस्य च
स्वतन्त्रत्वं सततं स्वं विनाशयेत् ।
स्वतन्त्रो
भूपतनयो विकारं याति निश्चितम् ।। १२५ ।।
राजा की
स्वतंत्रता (उच्छृंखलता) निरन्तर उसके स्वत्व का नाश करती है । स्वतन्त्र हुआ
राजकुमार,
निश्चितरूप से विकार (दोष) को प्राप्त करता है ।। १२५ ।।
निर्विकाराय
सततं वृद्धांश्च परियोजयेत् ।
भोजने शयने
याने पुरुषाणां च वीक्षणे ।। १२६ ।।
निर्दोष होने
के लिए,
राजा को निरन्तर अपने भोजन, शयन, यान (यात्रा अभियान) आदि में तथा व्यक्तियों के परख में
वृद्धों को नियोजित करना चाहिये ॥ १२६ ॥
वियोजयेत् सदा
दारान् भूपः कामविचेष्टने ।
अस्वतन्त्राः
स्त्रियः कार्याः सततं पार्थिवेन तु ।। १२७ ।।
राजा को
स्त्रियों की कामचेष्टाओं से सदैव अलग रहना चाहिये। राजा द्वारा स्त्रियों को सतत
अस्वतन्त्र (अपने अधिकार में) किया जाना चाहिये ॥ १२७॥
ताः
स्वतन्त्राः स्त्रियोः नित्यं हानये सम्भवन्ति हि ।
तस्मात् कुमारं
महिषीमुपधाभिर्मनोहरैः ।। १२८ ।।
शोधयित्वा
नियुञ्जीत यौवराज्यावरोधयोः ।
अन्तःपुरप्रवेशे
तु स्वतन्त्रत्वं निषेधयेत् ।
भूपपुत्रस्य
भार्यायाः बहिः सारे तथैव च ।। १२९ ।।
वे स्वतन्त्र
स्त्रियाँ, नित्य हानि ही करती हैं, इसलिये राजकुमार और रानियों की सुन्दर उपधा द्वारा शोधन
करके यौवराज्य एवं अवरोध सम्बन्धी कार्यों में नियुक्त करे । अन्त: पुर प्रवेश के
अवसरों पर स्वतन्त्रता का पूर्णतः निषेध करना चाहिये तथा राजकुमारों की स्त्रियों
के बाहर आने-जाने पर निषेध करना चाहिये ॥१२८-१२९॥
अयं विशेष:
संक्षेपान्नृपधर्मो मयोदितः ।
पुत्राणां
गुणविन्यासे भार्याणामपि भूपते ।। १३० ।।
हे भूपति ! यह
मेरे द्वारा राजधर्म का भेद, संक्षेप में कहा गया है, जिसका पुत्रों और स्त्रियों में गुणों के न्यास हेतु विशेष
ध्यान रखना चाहिये ॥१३०॥
उशना
राजनीतीनां तन्त्राणि तु बृहस्पतिः ।
चकारान्यान्
विशेषांस्तु तयोस्तन्त्रेषु बोधयेत् ।। १३१।।
उशना
(शुक्राचार्य) की राजनीति और बृहस्पति के तन्त्र ( राजव्यवस्था) में अन्य भेद,
बताये गये हैं, उनको वहीं से जानना चाहिये ।। १३१ ॥
एवं राजा
महाभागो राजनीतौ विशेषताम् ।
कुर्वन्न
सीदति सदा भूयसीं श्रियमश्नुते ।। १३२ ।।
इस प्रकार से
राजनीति में विशेषता का प्रयोग करने वाला, महान् ऐश्वर्यशाली राजा, कभी दुःख नहीं पाता । वह विपुल श्री,
शोभा को प्राप्त करता है ॥ १३२ ॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे राजधर्मकथने चतुरशीतितमोऽध्यायः ॥ ८४ ॥
श्रीकालिकापुराण
में राजधर्मकथनसम्बन्धी चौरासीवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥८४॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 85
0 Comments