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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
सूर्य स्तवन
भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व)
अध्याय – १२७ के श्लोक १०-२३
में वर्णित इस साम्बकृत सूर्य स्तवन स्तोत्र को जो व्यक्ति भक्तिपूर्वक तीन काल
में पढ़ता है अथवा सात दिनों में एक सौ इक्कीस बार पाठ और हवन करता है तो राज्य की
कामना करने वाला राज्य, धन की कामना करनेवाला धन प्राप्त कर लेता है और रोग से
पीड़ित व्यक्ति वैसे ही रोगमुक्त हो जाता है, जैसे साम्ब कुष्ठरोग से मुक्त हो गये ।
साम्बकृत सूर्य स्तव:
Surya stavan
साम्बकृत सूर्य स्तवन स्तोत्रम्
आदिरेष हि
भूतानामादित्य इति संज्ञित: ।
त्रैलोक्यचक्षुरेवात्र
परमात्मा प्रजापति: ॥ १० ॥
प्रजापति
परमात्मन् ! आप तीनों लोकों के नेत्र-स्वरूप हैं, सम्पूर्ण प्राणियों के आदि हैं,
अतः आदित्य नाम से विख्यात हैं ।
एष वै मण्डले
ह्यस्मिन् पुरुषो दीप्यते महान् ।
एष
विष्णुरचिन्त्यात्मा ब्रह्मा चैष पितामह: ॥ ११ ॥
आप इस मण्डल
में महान् पुरुष रूप में देदीप्यमान हो रहे हैं । आप ही अचिन्त्यस्वरूप विष्णु और
पितामह ब्रह्मा हैं ।
रुद्रो
महेन्द्रो वरुण आकाशं पृथिवी जलम् ।
वायुः शशाङ्कः
पर्जन्यो धनाध्यक्षो विभावसुः ॥ १२ ॥
य एष मण्डले
ह्यस्मिन् पुरुषो दीप्यते महान् ।
एकः साक्षान्महादेवो वृत्रमण्डनिभः सदा ॥ १३ ॥
रुद्र, महेन्द्र, वरुण, आकाश, पृथ्वी, जल, वायु, चन्द्र, मेघ, कुबेर, विभावसु. यम के रूप में इस मण्डल में देदीप्यमान पुरुष के
रूप से आप ही प्रकाशित हैं । यह आपका साक्षात् महादेवमय वृत्त अण्ड के समान है ।
कालो ह्येष
महाबाहुर्निबोधोत्पत्तिलक्षणः ।
य एष मण्डले
ह्यस्मिंस्तेजोभिः पूरयन् महीम् ॥ १४ ॥
आप काल एवं
उत्पत्तिस्वरूप हैं । आपके मण्डल के तेज से सम्पूर्ण पृथ्वी व्याप्त हो रही है ।
भ्राम्यते
ह्यव्यवच्छिन्नो वातैर्योऽमृतलक्षणः ।
नातः परतरं
किंचित् तेजसा विद्यते क्वचित् ॥ १५ ॥
पुष्णाति
सर्वभूतानि एष एव सुधामृतैः ।
अन्तःस्थान्
म्लेच्छजातीयांस्तिर्यग्योनिगतानपि ॥ १६ ॥
आप सुधा की
वृष्टि से सभी प्राणियों को परिपुष्ट करते हैं। विभावसो ! आप ही अन्तःस्थ
म्लेच्छजातीय एवं पशु-पक्षी की योनि में स्थित प्राणियों की रक्षा करते हैं ।
कारुण्यात्
सर्वभूतानि पासि त्वं च विभावसो ।
श्वित्रकुष्ठ्यन्धबधिरान्
पंगूंश्चापि तथा विभो ॥ १७ ॥
गलित कुष्ट
आदि रोगों से ग्रस्त तथा अन्ध और बधिरों को भी आप ही रोगमुक्त करते हैं ।
प्रपन्नवत्सलो
देव कुरुते नीरुजो भवान् ।
चक्रमण्डलमग्नांश्च
निर्धनाल्पायुषस्तथा ॥ १८ ॥
देव ! आप
शरणागत के रक्षक हैं । संसार-चक्र-मण्डल में निमग्न निर्धन,
अल्पायु व्यक्तियों की भी सर्वदा आप रक्षा करते हैं।
प्रत्यक्षदर्शी
त्वं देव समुद्धरसि लीलया ।
का मे शक्तिः
स्तवै: स्तोतुमार्तोऽहं रोगपीडितः ॥ १९ ॥
आप प्रत्यक्ष
दिखायी देते हैं । आप अपनी लीलामात्र से ही सबका उद्धार कर देते हैं । आर्त और रोग
से पीड़ित मैं स्तुतियों के द्वारा आपकी स्तुति करने में असमर्थ हूँ ।
स्तूयसे त्वं
सदा देवैर्बह्मविष्णुशिवादिभि: ।
महेन्द्रसिद्धगन्धर्वैरप्सरोभिः
सगुह्यकैः ॥ २० ॥
आप तो ब्रह्मा,
विष्णु और महेश आदि से सदा स्तुत होते रहते हैं । महेन्द्र,
सिद्ध, गन्धर्व, अप्सरा, गुह्यक आदि स्तुतियों के द्वारा आपकी सदा आराधना करते रहते
हैं ।
स्तुतिभिः किं
पवित्रैर्वा तव देव समीरितैः ।
यस्य ते
ऋग्यजुः साम्नां त्रितयं मण्डलस्थितम् ॥ २१ ॥
जब ऋक् यजु और
सामवेद तीनों आपके मण्डल में ही स्थित हैं तो दूसरी कौन-सी पवित्र अन्य स्तुति
आपके गुणों का पार पा सकती है ?
ध्यानिनां
त्वं परं ध्यानं मोक्षद्वारं च मोक्षिणाम् ।
अनन्ततेजसाक्षोभ्यो
ह्यचिन्त्याव्यक्तनिष्कलः ॥ २२ ॥
आप ध्यानियों
के परम ध्यान और मोक्षार्थियों के मोक्षद्वार हैं । अनन्त तेजोराशि से सम्पन्न आप
नित्य अचिन्त्य, अक्षोभ्य, अव्यक्त और निष्कल हैं ।
यदयं व्याहृतः
किंचित् स्तोत्रेऽसस्मिञ्जगतः पतिः ।
आर्तिं भक्तिं
च विज्ञाय तत्सर्वं ज्ञातुमर्हसि ॥ २३ ॥
जगत्पते ! इस
स्तोत्र में जो कुछ भी मैंने कहा है, इसके द्वारा आप मेरी भक्ति तथा दुःखमय परिस्थिति (कुष्ठ रोग
को बात) —
को जान लें और मेरी विपत्ति को दूर करें ।
इति श्रीभविष्यमहापुराणे ब्राह्मे पर्वणि साम्बस्तववर्णनं नामाष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥
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