कालिका पुराण अध्याय ८५
कालिका पुराण
अध्याय ८५ में देवी के नीराजन की विधि वर्णन है।
कालिका पुराण अध्याय ८५
Kalika puran chapter 85
कालिकापुराणम् पञ्चाशीतितमोऽध्यायः नीराजनविधिः
कालिकापुराणम्
।।
पञ्चाशीतितमोध्यायः ।।
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ८५
।। और्व उवाच ।।
सदाचारेषु
राजेन्द्र विशेषां शृणु सम्प्रति ।
यानवश्यं नृपः
कुर्यात् तान्मत्तः सकलं शृणु ।। १ ।।
और्व बोले- हे
राजाओं में इन्द्र के समान श्रेष्ठ ! अब सदाचार सम्बन्धी उन रहस्यों को सुनो,
जिन्हें राजाओं को अवश्य करना चाहिये। उन सभी भेदों को आप मुझसे
सुनो ॥ १ ॥
साधवः
क्षीणदोषाश्च सच्छब्दः साधुवाचकः ।
तेषामाचरणं
यत् तत् सदाचारः स उच्यते ।।२।।
साधु (सज्जन) लोग,
दोषमुक्त होते हैं, सत् शब्द साधु का बोधक है ऐसे साधुपुरुषों का जो आचरण है,
उसे ही सदाचार कहा जाता है ॥
२ ॥
आगमेश
पुराणेषु संहितासु यथोदितान् ।
समुद्दिष्टसदाचारान्
गृह्णीयात् तान् गृहस्थवत् ।। ३ ।।
गृहस्थों के
जो सदाचार, आगमों में, पुराणों में, संहिताओं में गृहस्थाश्रम वर्णन प्रसङ्ग में बताये गये हैं,
उन्हें वहीं से उसी रूप में ग्रहण करना चाहिये ॥
३ ॥
ऋषीन् यजेद्
वेदपाठैर्देवान् होमैः प्रपूजयेत् ।
श्राद्धैः
पितॄंस्तर्पयेत् तु भूतानि बलिभिस्तथा ।। ४ ।।
ऋषियों का
वेदपाठ द्वारा पूजन करे, देवताओं की होम से पूजा करे, श्राद्धों से पितरों को तथा बलि (भोजन) से प्राणियों को
तृप्त करे ॥४॥
मैत्रं
प्रसाधनं स्नानं दन्तधावनमञ्जनम् ।
सर्वं
गृहस्थवत् कुर्यान्निषेकाद्यं विधिं तथा ॥५॥
मैत्र
(मलोत्सर्ग), प्रसाधन (शरीर सज्जा), स्नान, दाँत की सफाई, अञ्जन, निषेक आदि सभी विधियाँ गृहस्थों की भाँति करनी चाहिये ॥ ५ ॥
षट्कर्मसु
नियुञ्जीत राजा विप्रान् समन्ततः ।
तथैव
क्षत्रियादींश्च स्वे स्वे धर्मे नियोजयेत् ।। ६ ।।
राजा को
चाहिये कि वह ब्राह्मणों को ब्राह्मणों के लिए निर्दिष्ट पठन-पाठन आदि छः कर्मों
में सब ओर से लगाये। उसी प्रकार उसे क्षत्रिय आदि अन्य वर्ण वालों को भी उनके
अपने-अपने धर्मों में लगाना चाहिये ॥ ६ ॥
यः स्वधर्मं
परित्यज्य परधर्मं समाचरेत् ।
तं शतेन नृपो
दण्डं पुनस्तस्मिन् नियोजयेत् ।।७।।
जो व्यक्ति
अपने धर्म का परित्याग कर अन्य के धर्म का आचरण करे, राजा उसे पहले सौ मुद्राओं से दण्डित करे तत्पश्चात् उसे
उसके अपने वर्णोचितकर्म में लगाये ॥७॥
सांवत्सरेषु
कृत्येषु विशिष्यैतान् समाचरेत् ।
अवश्यं
पार्थिवो राजन् तान् विशेषां शृणुष्वमे ।। ८ ।।
वह वार्षिक कार्यक्रमों
में इन विशिष्ट आचारों का प्रयोग करे। उक्त अवसरों पर राजाओं को जो कुछ अवश्य करना
चाहिये,
उनको मुझसे सुनो ॥ ८ ॥
शरत् काले
महाष्टम्यां दुर्गायाः परिपूजनम् ।
नीराजनं
दशम्यां तु कुर्याद् वै बलवृद्धये ।। ९।।
राजा बल की
वृद्धि हेतु, शरदऋतु की महाष्टमी को दुर्गादेवी का विशेष पूजन तथा दशमी को वह उनका नीराजन
करे ॥ ९ ॥
पौषे मासि
तृतीयायां कुर्यात् पुष्याभिषेचनम् ।
पूजयित्वा
श्रियं देवीं पञ्चम्यां नृपतिश्चरेत् ।
श्रीयज्ञं
धनधान्यस्य वृद्धये नृपसत्तम ।। १० ।।
पौषमास की
तृतीया तिथि को राजा पुष्याभिषेक करे। वह पञ्चमी तिथि को श्री देवी की पूजा कर,
धनधान्य की वृद्धि हेतु श्रीयज्ञ का आयोजन करे।। १० ।।
ज्येष्ठे
दशहरायां तु विष्णोरिष्टिं तथाचरेत् ।। ११ ।।
रवौ हरिस्थे
द्वादश्यां शक्रपूजां समाचरेत् ।
विशिष्यैतांस्तु
नृपतिः कुर्याद् यज्ञान् बहुव्ययैः ।। १२ ।।
ज्येष्ठमास की
दशहरा तिथि गङ्गादशहरा, को विष्णुयज्ञ का आयोजन करे तथा सूर्य के सिंहराशि पर स्थित
रहने पर द्वादशी तिथि को शक्र पूजा का आयोजन करे। इन विशेष- यज्ञों के अतिरिक्त
राजा,
अत्यधिक व्ययवाले, यज्ञों का भी आयोजन करे ।। ११-१२।
एभिः
कृतैर्बलं राज्यं कोषश्चापि विवर्धते ।
अकृतेष्वेषु
यज्ञेषु दुर्भिक्षं मरणं तथा ।
जायन्ते चेतयः
सर्वा विशिष्यैतांस्ततश्चरेत् ।। १३ ।।
इनके करने से
सेना,
राज्य और कोष का विकास होता है तथा यज्ञों के न करने से
राज्य में अनेक प्रकार की महामारियाँ, दुर्भिक्ष एवं मरण होते हैं। इसीलिए इन विशेष आयोजनों को,
राजा को करना चाहिये ॥१३॥
शरत् काले
महाष्टम्यां दुर्गायाः पूजने विधिः ।
पुरा
प्रोक्तस्तु विधिना तेन कार्यं तु पूजनम् ।। १४ ।।
जहाँ तक
शरत्ऋतु में महाअष्टमी के दिन दुर्गापूजन की विधि का प्रश्न है,
पहले बताई गई विधि से ही उस पूजन के कार्य को सम्पन्न करना
चाहिये ॥१४॥
विधिं
नीराजनस्य त्वं शृणु पार्थिवसत्तम ।
कृतेन येन
चाश्वानां गजानामपि वर्धनम् ।। १५ ।।
हे राजाओं में
श्रेष्ठ! अब तुम देवी के नीराजन की उस विधि को सुनो जिसके करने से राजाओं के घोड़े
और हाथियों की वृद्धि होती है ।। १५ ।।
आश्विने
शुक्लपक्षे तु तृतीया स्वातीयोगिनी ।
ऐशान्यां
स्वपुरस्वैव गृह्णीयात् स्थानमुत्तमम् ।। १६ ।।
आश्विनमास के
शुक्लपक्ष में जब स्वाती नक्षत्र से युक्त तृतीया तिथि हो,
अपने नगर के ही ईशानकोण में नीराजन हेतु उत्तम स्थान ग्रहण
करे। १६ ॥
नीराजनं ततः
कुर्यात् संप्राप्ते दिवसेऽष्टमे ।
नीराजनस्य
कालस्तु पूर्वमुक्तो मया तव ।। १७ ।।
विधानमात्रं
शृणु मे कृतकृत्यो भविष्यसि ।। १८ ।।
तब उस दिन से
आठवाँ दिन (दशमीतिथि) प्राप्त होने पर नीराजन करे। नीराजन का समय मेरे द्वारा
तुम्हें पहले ही बताया गया है। अब तुम उसका विधान मात्र मुझसे सुनो,
इसे करके तुम कृतकृत्य हो जाओगे ।। १७-१८ ।।
एकं हयं
महासत्त्वं सुमनोहरमेव च ।
पूजयेत्
सप्तदिवसान् गन्धपुष्पांशुकादिभिः ।। १९।।
तृतीयादौ
पूजयित्वा नयेत यज्ञमण्डपम् ।
चेष्टां
निरूपयंस्तस्य जानीयात् तु शुभाशुभम् ।।२०।।
एक महानबलशाली,
सुन्दर, मनोहर घोड़े की, गन्ध (चन्दन), पुष्प, वस्त्रादि से, तृतीया से प्रारम्भ करके, सात दिनों तक पूजन करने के पश्चात् उसे आठवें दिन, यज्ञमण्डप में लावे । उस समय उसकी चेष्टाओं का विचार करते
हुए शुभाशुभ फलों को जाने ।। १९-२०॥
परराष्ट्रावमर्दः
स्यादश्वो यदि पलायते ।
म्रियते
राजपुत्रस्तु यदि चाश्रूणि मुञ्चति ।। २१ ।।
उस समय यदि
घोड़ा भागे तो शत्रुराष्ट्र से पराभव होता है, यदि वह आँसू गिराये तो राजकुमार का मरण होता है॥२१॥
नीयमानो न
गच्छेत् तु महिषीमरणं ततः ।
तथैव
मुखनासाक्षि शब्दं कुर्याद्धयो यदि ।। २२।।
यदि अश्व,
मण्डप में ले जाते समय, न जाये तो रानी का मरण होता है,
ऐसा ही फल यदि घोड़ा, नाक और मुँह से ध्वनि निकाले तो भी होता है।। २२ ।
यः
काष्ठाभिमुखः कुर्यात् तत् काष्ठायां जयेद्रिपून् ।
उत्क्षिप्य
दक्षिणाग्रं तु पदमश्वो भवेत् पुरः ।
तदा यदि
समस्तांश्च नृपतिर्विजयेद्रिपून् ।। २३ ।।
जिस दिशा में
वह मुँह करे, उसी दिशा में राजा, शत्रुओं को जीते। यदि घोड़ा अगला दाहिना पैर उठाकर आगे
बढ़ता है तब राजा अपने समस्त शत्रुओं पर विजयी होता है ।। २३॥
प्रातर्नीराजनं
कुर्याद् दशम्यां नृपसत्तम ।। २४ ।।
तदप्राप्तौ च
द्वादश्यां तस्यामेव समाचरेत् ।
कार्तिके
पंचदश्यां वा तत्राभावे तु पार्थिव ।। २५ ।।
हे राजन् !
दशमी को प्रातः काल नीराजन करना चाहिये। ऐसा न होने पर उसी को (आश्विन शुक्ल)
द्वादशी को या उसके भी अभाव में कार्तिक की पूर्णिमा को नीराजन करे। २४-२५॥
ऐशान्यां
स्वपुरस्थोच्चैर्हस्तमानेन षोडश ।
दशहस्तं तु
विपुलां कुर्याद् वै तत्र तोरणम् ।। २६ । ।
द्वात्रिंशद्धस्तमात्रं
तु हस्तषोडशविस्तृतम् ।
यज्ञार्थं
मण्डलं कुर्यान्मध्ये वेदिं विनिर्दिशेत् ।। २७ ।।
अपने नगर के
ईशान कोण में, अपने हाथ के मान से सोलह हाथ ऊँचा, दश- हाथ चौड़ा, तोरण बनाये। उसके भीतर बत्तीस हाथ मान का सोलह हाथ चौड़ा
महामण्डल बनाये, उसके मध्य में यज्ञ हेतु वेदी बनावे।।२६-२७।।
वेद्याश्चोत्तरतश्चाश्व-
वेदिं कुर्यादनुत्तमाम् ।
यत्र
संस्थाप्य चाश्वश्च पूजितव्यः पुरोहितैः ।। २८ ।।
वेदी से उत्तर
की ओर,
श्रेष्ठ अश्ववेदी का निर्माण करे। जहाँ घोड़े को भलीभाँति
स्थापित कर, पुरोहितों द्वारा उसका पूजन किया जाना चाहिये ॥ २८ ॥
सर्जोदुम्बरशाखानामर्जुनस्याथवा
नृप ।
मत्स्यशङ्खाङ्कितैश्चक्रैर्ध्वजैश्चाप्यभिभूषयेत्
।
तोरणं कनकरत्नैस्तथा
नानाविधैः फलैः ।। २९ ।।
हे राजन् !
सर्ज (शाल), उदम्बर (गूलर) या अर्जुन की शाखाओं, मत्स्य, शङ्ख और चक्रांकित ध्वजाओं, स्वर्ण रत्न तथा अनेक प्रकार के फलों से तोरण को सब ओर से
सजाये ।। २९ ।।
भल्लातकं
शलिकुष्ठं सिद्ध्यर्थ सैन्धवस्य तु ।
कण्ठदेशे
निबध्नीयात् पुष्टिशान्त्यर्थमेव च ।। ३० ।।
सफलता
प्राप्ति एवं घोड़े की पुष्टि और शान्ति हेतु उसके गले में भल्ला तक (लिसोड़ा), शालिकुष्ठ (सरसो) बाँधे ॥३०॥
वैष्णवं
मण्डलं कृत्वा दिक्पालांश्च नवग्रहान् ।
विश्वेदेवांस्तु
मन्त्रेण विष्णुमुख्यान् प्रपूजयेत् ।। ३१ ।।
आज्यैस्तिलैश्च
पुष्पैश्च मिश्रीकृत्य पुरोहितः ।।३२।।
पुरोहित को
चाहिये कि वह वैष्णव मण्डल बनाकर घी, फूल और तिल मिलाकर मन्त्रोचारपूर्वक दिक्पाल,
नवग्रह, विश्वेदेवों और विष्णु आदि का पूजन करे ।। ३१-३२ ।।
रवेस्तु
वरुणस्यैव प्रजेशस्य तथैव च ।
पुरुहूतस्य
विष्णोश्च होमं सप्ताहमाचरेत् ।। ३३ ।।
सूर्य,
वरुण, प्रजापति, इन्द्र और विष्णु का एक सप्ताह तक होम करे ॥३३॥
एकैकस्य
सहस्रं वा अष्टोत्तरशतं च वा ।
कुर्यात् तु
प्रत्यहं होमं चतुर्वर्गस्य सिद्धये ।। ३४।।
धर्म,
अर्थ, काम और मोक्ष नामक चतुर्वर्ग की प्राप्ति हेतु,
प्रतिदिन एक-एक हजार या एक सौ आठ होम करना चाहिये ॥
३४ ॥
समिधश्चापि
होतव्याः पलाशाः खादिरास्तथा ।
औदुम्बर्यश्च
काश्मर्या अश्वत्थाश्च पुरोधसा ।। ३५ ।।
पुरोहित
द्वारा पलाश, खैर,
गूलर, काश्मरी, पीपल की समिधायें होम की जानी चाहिये ॥ ३५ ॥
सौवर्णान्
रजतान् वापि मार्तिकान् वा यथेच्छया ।
कुर्यात् तु
कलशानष्टौ फलाम्राम्बरयोजितान् ।। ३६।।
आम्रफल और
वस्त्रों से युक्त कर इच्छानुसार सोने, चाँदी अथवा मिट्टी के आठ कलश स्थापित करे।। ३६ ।।
क्षिपेत् तेषु
घटेष्वेव समङ्गहरितालकम् ।
चन्दनं च तथा
कुष्टं प्रियङ्गुं च मनः शिलाम् ।। ३७।।
अञ्जनं च
हरिद्रां च श्वेतां दन्तीं तथैव च ।
भल्लातकं
पूर्णकोशं सहदेवीं शतावरीम् ।। ३८ ।।
वचां
सनागकुसुमां सोमराजीं सुगुप्तिकाम् ।
तुत्थं च
करवीरं च तुलसीदलमेव च ।
एतान्
निक्षिपेन्मध्ये कलशानां पुरोहितः ।। ३९ ।।
पुरोहित समङ्ग
(मजीठ),
हरिताल, चन्दन, कुष्ठ, प्रियङ्गु, मैनसिल, अन्जन, हरिद्रा, श्वेता, दन्ती, भल्लातक, पूर्णकोश, सहदेवी, शतावरी, वचा, नागकुसुम, सोमराजी, सुगुप्तिका, तुत्थ, करवीर और तुलसीदल, इन सबको सर्वोषधि के रूप में उन कलशों में छोड़े ।। ३७ - ३९
।।
कनकैरम्बुजैर्यज्ञदारुभिः
स्रुक्स्रुवौ तथा ।
कर्तव्ये
शान्तिकामेन नीराजनविधौ नृप ॥४०॥
एवं
सप्ताहपर्यन्तं पूजाभिर्हवनैस्तथा ।
पूर्वोक्तान्
पूजयित्वा तु नृपः सप्ताहमाचरेत् ।।४१।
हे राजन् !
शान्ति की कामना से किये जाने वाले नीराजन विधि में राजा,
स्वर्ण कमल एवं यज्ञ काष्ठ के बने स्रुचि और स्रुवा से एक
सप्ताह तक हवन-पूजन करता हुआ पूर्वोक्त देवताओं का पूजन कर,
सप्ताह व्यतीत करे।। ४०-४१॥
यावन्नीराजनं
कुर्यात् तावद्राजा वसेद् गृहे ।
रात्रौ न
यज्ञभूमौ तु निवसेच्छान्तिमिच्छुकः ।।४२।।
नारोहयेत्
तुरङ्गम् तं गजं वा तत्र पार्थिवः ।
यावत्
सप्ताहपर्यन्तं यानेनान्येन वै व्रजेत् ।। ४३ ।।
जब तक नीराजन
विधि सम्पन्न न हो, तब तक वह घर ही रहे। उस अवधि में शान्ति चाहने वाला राजा,
रात्रि में यज्ञशाला में न रहे और न तो उस हाथी या घोड़े पर
ही चढ़े। सप्ताहपर्यन्त वह अन्य वाहन से ही यात्रा करे।। ४२-४३ ॥
भक्ष्यैर्नानाविधैश्चैव
मधुपायसयावकैः ॥ ४४।।
मोदकैर्वा
बलिं कुर्यादन्नव्यञ्जनसम्भवैः ।
पूर्वोक्तानां
तु देवानां सप्ताहं यावदुत्तमम् ।। ४५ ।।
मधु,
खीर, यावक (हलुआ), लड्डू तथा अन्नों के व्यञ्जनों से बने हुये अनेक प्रकार के
खाद्य पदार्थों से वह सप्ताह पर्यन्त पहले कहे गये देवताओं को बलि प्रदान करे ॥ ४४
॥
सप्तमेऽह्नि
तु रेभन्तं पूजयेत् तोरणान्तरे ।
सूर्यपुत्रं
महाबाहुं द्विभुजं कवचोज्ज्वलम् ॥४६ ।।
ज्वलन्तं
शुक्लवस्त्रेण केशानुद्ग्रथ्य वाससा ।
कशां वामकरे
विभ्रद् दक्षिणं तु करं पुनः ॥४७ ॥
स खड्गं
न्यस्य वामायां सितसैन्धवसंस्थिम् ।
एवं विधं तु
रेभन्तं प्रतिमायां घटेऽपि वा ।
सूर्यपूजाविधानेन
पूजयेत तोरणान्तरे ।। ४८ ।।
सातवें दिन
दूसरे तोरण पर, सूर्य के पुत्र, महाबाहु रेभन्त का, जो दो भुजाओं से युक्त, उज्ज्वल कवच धारण किये हुये, श्वेतवस्त्र से प्रकाशित स्वरूप कर,
वस्त्रों से केश को बाँधे हुये एवं बायें हाथ में चाबुक तथा
दाहिने हाथ में खड्ग धारण किये हैं एव जिनके बाईं ओर सफेद घोड़ा स्थित है। ऐसे
रेभन्तदेव का प्रतिमा या कलश पर पूजन करे। यह पूजन, अन्य वेदी पर सूर्य भगवान् के पूजाविधान से ही करे।।४६-४८।।
पूजयित्वा तु
रेभन्तं द्विरदं तुरगं तथा ।
अहताम्बरसंवीतं
स्रक्चन्दनसमन्वितम् ।। ४९ ।।
सुवर्णविद्धनिस्त्रिंशं
विचित्रं कवचादिभिः ।
युक्तं तु
होमकुण्डस्य ऐशान्यामश्ववेदिकाम् ।। ५० ।।
पूर्वकृतां
नयेदश्वगजपालौ पृथक् पृथक् ।। ५१ ।।
रेभन्त की
पूजा के पश्चात् हाथी और घोड़े को नये वस्त्र, माला और चन्दन से युक्त कर, स्वर्ण (आभूषणों) से युक्त, निर्मम (अभेद्य) और विचित्र कवचादि से सज्जित कर,
होमकुण्ड के ईशानकोण में, पहले से बनाई अश्ववेदी पर, हाथीपाल और अश्वपाल, अलग-अलग ले आयें ।। ४९-५१ ॥
नीयमाने गजे
चाश्वे पूर्वोक्तं तु निमित्तकम् ।
यत्नाद्
वीक्षेत नृपतिः फलं चैवावधारयेत् ।। ५२।।
घोड़े एवं
हाथी को लाये जाते समय राजा, पहले बताये निमित्तों का यत्नपूर्वक निरीक्षण कर,
वैसे ही फलों की अवधारणा करे ।। ५२ ।।
होमकुण्डस्योत्तरस्यां
वैयाघ्रे चर्मणि स्थितः ।
वेदविदा
चाश्वविदा सहितो वीक्ष्य सैन्धवम् ।। ५३ ।।
होमकुण्ड की
उत्तर दिशा में व्याघ्र के चर्म पर स्थित हो, राजा, वेद के ज्ञाता और अश्व के ज्ञाता के साथ घोड़े का निरीक्षण
करे ॥५३॥
नीताय
तुरगायाशु भक्तपिण्डीं सुगन्धिनीम् ।
दद्यात्
पुरोहितस्तत्र संमन्त्र्य शान्तिमन्त्रकैः ।। ५४ ।।
भक्षणाद् यदि
जिघ्रेत् तदश्नीयाद् वा हयः स च ।
तदा स्यात्
सर्वकल्याणं विपरीतमतोऽन्यथा ।। ५५ ।।
लाये गये
घोड़े को पुरोहित, शीघ्र ही चावल (भात) की पिण्डी जो सुगन्धित हो,
शान्तिमन्त्रों के साथ, उसे प्रदान करे। घोड़ा उसे खाने लगे या खाने के पहले उस
भोज्य पदार्थ को सूंघे, तब खाये तो सब प्रकार का कल्याण समझना चाहिये अन्यथा उल्टा
ही फल जाने।। ५४-५५।।
शाखामौदुम्बरीमाम्री
सकुशां च घटोदके ।
आप्लाव्याप्लाव्य
तुरगान् गजान् भूपं च सैनिकान् ।। ५६ ।।
रथांश्च
संस्पृशेन्मन्त्रैः शान्तिकैः पौष्टिकैस्तथा ।
सेचयेत् सहितैर्विप्रैश्चतुरङ्गं
पुरोहितः ।।५७।।
तब पुरोहित,
गूलर और आम की टहनियों, कुशाओं को, कलश के जल में बार-बार डुबाकर उससे हाथी,
घोड़े, राजा, रथ और सैनिकों का स्पर्श करे। उस समय वह ब्राह्मणों के सहित
शान्ति तथा पुष्टिकर मन्त्रों से चतुरंग का अभिषेक करे।।५६-५७॥
दिक्पालानां
ग्रहाणां च मन्त्रैश्च वैष्णवैस्तथा ।
बहुधा
चाभिषिच्याथ ततः सौवर्ण दर्पणम् ।। ५८ ।।
वीक्षयित्वा
नृपं चर्त्विक् ततो मन्त्रिणमेव च ।
राजपुत्रं
तथामात्यानन्यानपि च सैनिकान् ।। ५९ ।।
कम्पयन्
द्विजशार्दूलः सर्वानेव तु दर्शयेत् ।
चतुरंगस्य
स्वस्यापि कृत्वैवं शान्तिपौष्टिके ।। ६० ।।
दिक्पालों,
ग्रहों के मन्त्रों तथा वैष्णवमन्त्रों से,
बहुत प्रकार से अभिषेक करने के पश्चात् ऋत्विक्,
राजा को सोने का बना दर्पण दिखावे तत्पश्चात् द्विजों में
शार्दूल के समान श्रेष्ठ, पुरोहित, उस दर्पण को घुमाता हुआ, मन्त्री, राजकुमार, अमात्य या अन्य सैनिकों आदि, सभी को दिखावे । अपनी चतुरंगिणी सेना का भी इसी प्रकार से
शान्ति एवं पौष्टिक कर्म सम्पन्न करे ।। ५८-६०॥
मृन्मय
शात्रवं कृत्वा चाभिचारिकमन्त्रकैः ।
हृदि शूलेन
विध्वा तं शिरं खड्गेन छेदयेत् ।। ६१ ।।
शत्रु की
मिट्टी की मूर्ति बनाकर, अभिचारिक मन्त्रों से, उसके हृदय में शूल से भेदकर, खड्ग से उसका गला काट दे ॥ ६१ ॥
आचार्यः
कविकां पश्चादभिमन्य हयाय वै ।
ऐन्द्रैः
प्रभाकरैर्मन्त्रैर्दद्याद् वक्त्रे स्वयं पुनः ।।६२।।
तत्पश्चात्
आचार्य कवि का (लगाम) को इन्द्र और सूर्य के मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके स्वयं
घोड़े के मुँह में दे ॥ ६२ ॥
तमनेन तु
मन्त्रेण समारुह्य नृपस्तदा ।
गच्छेदुत्तरपूर्वां
तु दिशं सर्वैर्बलैर्युतः ।। ६३ ।।
तब राजा
इन्हीं मन्त्रों से उस घोड़े पर सवार होकर, सभी बलों से युक्त हो, उत्तर - पूर्वदिशा, ईशानकोण में जाय॥६३॥
ऋत्विक्
पुरोहिताचार्याः सर्व एव नृपं तदा ।
अनुगच्छेयुरन्यानि
निमित्तानि विलोकितुम् ।। ६४ ।।
तब ऋत्विक,
पुरोहित, आचार्य, सभी, निमित्तों को देखने के लिए राजा का अनुगमन करें ॥ ६४॥
वादित्रघोषैस्तुमुलैरातपत्रैर्वृतस्तथा
।
गच्छेन्नीराजने
राजा दारयन्निव मेदिनीम् ।।६५ ।।
मणिविद्रुममुक्तादि
स्वर्ण - रत्नैरलङ्कृतः ।
क्रोशमात्रं
ततो गत्वा पूर्वद्वारेण पार्थिवः ।
स्वपुरं
प्रविशेद् विप्रैर्यज्ञं यायात् पुरोहितः ।। ६६ ।।
राजा,
मणि, मूँगा, मोती, स्वर्ण आदि रत्नों से अलङ्कृत हो,
बाजे, तुमुलघोष, छत्र आदि से घिर कर, पृथ्वी को चीरता हुआ, नीराजन हेतु, एक कोश तक जाकर पूर्वीद्वार से अपने नगर में प्रवेश करे। उस
समय पुरोहित, ब्राह्मणों द्वारा यज्ञ का आयोजन करे।। ६५-६६।।
तत्र गत्वा
दक्षिणां तु हिरण्यं गां तथा तिलम् ।
दत्त्वा
पश्चाद् द्विजेभ्यस्तु दद्याद् दानानि शक्तितः ।। ६७ ।।
वहाँ जाकर
दक्षिणा,
सोना, गौ और तिल का दान करने के पश्चात् वह,
ब्राह्मणों को शक्ति के अनुसार,
दान करे॥ ६७ ॥
एवं नीराजनं
कृत्वा बलानां च महीक्षितः ।
प्रेत्येह
सुस्थिरां लक्ष्मी नृपतिः प्राप्नुयात् तथा ।। ६८ ।।
इस प्रकार से
अपनी सेना का नीराजन कर राजा, इस लोक और परलोक में स्थिरलक्ष्मी प्राप्त करता है ।। ६८ ।।
त्वमश्वामृतसञ्जात
सागरोद्भव सैन्धव ।
येन सत्वेन
वहसे शक्रं तेनेह मां वह ।। ६९ ।।
येन सत्वेन
रेभन्तं येन सत्वेन भास्करम् ।
वहसे तेन
सत्येन विजयाय वहस्व माम् ।।७० ।।
आभ्यां तु
भूपमन्त्राभ्यामश्वारोहणमाचरेत् ।
आरुह्याग्रे
महिष्यास्तु शुद्धान्ते लम्बयेत् ततः ।। ७१ ।।
त्वमश्वामृत....
माम्। इन दोनों
मन्त्रों से राजा, घोड़े पर सवार होये तब वह महारानी के अन्त:पुर में जाये।
मन्त्रार्थ- हे अश्व ! तुम अमृत से उत्पन्न हुए हो, हे घोड़े ! तुम समुद्र से उत्पन्न हो,
जिस बल से तुम इन्द्र को ढोते हो,
उसी से मुझे भी ढोओ। जिस सत्व से तुम रेभन्त और सूर्य को
वहन करते हो, उसी से मुझे भी विजयहेतु वहन करो।। ६९-७१ ॥
महिषी च ततो
भूपं पर्यङ्कोपरि संस्थितम् ।
दूर्वाक्षतैः
ससिद्धार्थः स्त्रीभिः सह तमर्चयेत् ।। ७२ ।।
तब महारानी भी
दूब- अक्षत, सिद्धार्थ (सरसों) से स्त्रियों के सहित पर्यङ्कस्थित राजा का पूजन करे ।।७२।
कृते तु
भूमिग्रहणे तृतीयायां निराजने ।
सूतकं यदि
जायेत तत्र दुष्यति केवलम् ।।७३।।
तृतीया की
नीराजन हेतु भूमिग्रहण के पश्चात् यदि सूतक पड़ जाय तो केवल दोष ही होता है। सूतक
नहीं होता ।। ७३ ॥
सूतकी मृतकी
वापि पार्थिवस्तु यथा तथा ।
बलनीराजनं
कुर्यात् तन्मात्रं च विशेषतः ।।७४ ॥
सूतक का दोष
हो या मृतक का, जैसे भी हो राजा सेना का नीराजन मात्र ही विशेषरूप से करे ॥७४॥
सद्यः शौचं
भवेद्राज्ञो व्यवहारविलोकने ।
तथाधिवासने
यज्ञे परराष्ट्रविमर्दने ।।७५।।
व्यवहारविलोकन
(राजव्यवस्था संचालन) के लिए तथा अधिवासन, यज्ञ, परराष्ट्र के दमन आदि के लिए, राजा शीघ्र ही शुद्ध हो जाता है॥७५॥
अयं ते कथितो
राजन्नीराजनक्रमो मया ।
पुष्यस्नानविधानं
तु पार्थिव शृणु साम्प्रतम् ।। ७६ ।।
हे राजन् ! यह
तुमसे नीराजन की पद्धति, मेरे द्वारा कही गई, अब तुम पुष्य- स्नान की विधि सुनो ॥ ७६ ॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे नीराजनविधिर्नाम पञ्चाशीतितमोऽध्यायः ॥८५॥
श्रीकालिकापुराण
में नीराजनविधिनामक पच्चासीवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥८५॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 86
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