कालिका पुराण अध्याय ८२
कालिका पुराण
अध्याय ८२ में ब्रह्मपुत्रनद लौहित्य की उत्पत्ति, ब्रह्मपुत्र को पर्वतों के बीच से पृथिवी पर अवतरित करना तथा
परशुरामोपाख्यान का वर्णन है।
कालिका पुराण अध्याय ८२
Kalika puran chapter 82
कालिकापुराणम् द्व्यशीतितमोऽध्यायः लौहित्योत्पत्तिवर्णनम्
कालिकापुराणम्
।।
द्व्यशीतितमोऽध्यायः ।।
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ८२
।। मार्कण्डेय
उवाच ।
और्वस्य वचनं
श्रुत्वा सगरस्तं मुनिं पुनः ।
पप्रच्छेदं
द्विजश्रेष्ठा हर्षसंप्लुतमानसः ।।१।।
मार्कण्डेय
बोले- हे द्विजो और्वमुनि के वचनों को सुनकर राजा सगर ने हर्ष से प्लावित मन हो,
उनसे पुनः यह पूछा-॥१॥
।। सगर उवाच
।।
अमोघायां कथं
यज्ञे लौहित्यो ब्रह्मणः सुतः ।
कथं
शान्तनुजायायां रतः स कमलासनः ॥२॥
सगर
बोले-अमोघा से ब्रह्मा का लौहित्य नामक पुत्र, कैसे उत्पन्न हुआ ? कमल जिनका आसन है, ऐसे वह ब्रह्मा, शान्तनु की पत्नी से क्यों अनुरक्त हुए ?
॥ २ ॥
पारस्त्रैणेयपुत्रो
वा कथं जज्ञे पितामहात् ।
तत् सर्वं
श्रोतुमिच्छामि कथयस्व द्विजोत्तम ॥३॥
हे द्विजों
में उत्तम ! ब्रह्मा ने पराई स्त्री के सम्बन्ध से उत्पन्न पुत्र,
क्यों उत्पन्न किया ? वह मैं सुनना चाहता हूँ, आप बताइये ॥ ३ ॥
।। और्व उवाच
।।
शृणु त्वं
राजशार्दूल कथयामि महत्तरम् ।
आख्यानं
ब्रह्मपुत्रस्य लौहित्यस्य महात्मनः ॥
४॥
और्व बोले- हे
राजाओं में सिंह के समान श्रेष्ठ ! ब्रह्मा के पुत्र,
महात्मा- लौहित्य सम्बन्धी महान् आख्यान,
मैं कहता हूँ, तुम उसे सुनो ॥ ४ ॥
हरिवर्षे
महावर्षे शान्तनुर्नाम नामतः ।
मुनिरासीन्महाभागो
ज्ञानवान् स तपोरतः ।।५।।
हरिवर्ष (भारत
का पूर्व नाम) नामक महान् वर्ष में शान्तनु नाम के एक महाभाग,
ज्ञानी मुनि थे । वे अपने नाम के अनुरूप शान्तनु और
तपस्यारत थे॥ ५ ॥
तस्य भार्या
महाभागा अमोघाख्या महासती ।
हिरण्यगर्भस्य
मुनेस्तृणविन्द्वाश्रमोद्भवा ।।६।। .
उनकी अमोघा
नाम की महाभागा और महान्सती एक पत्नी थी, जो तृणविन्दु के आश्रम पर, हिरण्यगर्भ मुनि से उत्पन्न हुई थी ॥
६ ॥
तया सार्धं स
कैलासं मर्यादापर्वते वसन् ।
लोहिताख्यस्य
सरसस्तीरे वै गन्धमादने ॥७॥
उसके साथ वे
शान्तनु मुनि लोहित नाम के सरोवर के किनारे, कैलास के मर्यादा पर्वत, गन्धमादन पर, निवास करते थे ॥७॥
एकदा स
तपोनिष्ठो निजपुष्पादिगोचरम् ।
जगाम वनमध्यं
तु चिन्वन् बहुफलानि च ॥८॥
एक बार वे
तपस्वी मुनि अपने पुष्प आदि की खोज में तथा बहुत से फलों के संग्रह हेतु वन में
गये ॥८॥
तस्मिन्नवसरे
ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः ।
तत्राजगाम
यत्रास्ति अमोघा शान्तनोः प्रिया ।।९।।
उसी अवसर पर
सभी लोकों के पितामह, ब्रह्मा, वहाँ आये, जहाँ शान्तनु की अमोघा नाम की पत्नी थी ॥ ९ ॥
तां दृष्टवा
देवगर्भाभां युवतीमतिसुन्दरीम् ।
मोहितो
मदनेनाशु तदाऽभूद् दूषितेन्द्रियः ।। १० ।।
उस देवगर्भा,
अतिसुन्दरी, युवती को देखकर वे शीघ्र ही कामदेव से मोहित हो गये,
उस समय वे दूषित इन्द्रिय वाले हो गये ।। १० ।
उदीरितेन्द्रियो
भूत्वा जिघृक्षुस्तां महासतीम् ।
अथाधावत् ततो
ब्रह्मा सम्मुखो मदनार्दितः ।। ११ ।।
तब काम से
पीड़ित हो ब्रह्मा, जो उत्थित इन्द्रिय वाले हो गये थे,
उस महान् सती को पकड़ने के लिए सामने (उसकी ओर) दौड़ पड़े ॥
११॥
धावमानं
विधातारं दृष्टाऽमोघा महासती ।
नैवं नैवमिति
प्रोक्त्वा पर्णशालां व्यलीयत ।। १२ ।।
ब्रह्मा को उस
प्रकार से अपनी ओर दौड़ते देखकर वह अमोघा नाम वाली महान्सती ऐसा मत करें,
ऐसा न करें, कहती हुई पर्णशाला में छिप गई ॥१२॥
इदं चोवाच
धातारममोघा कुपिता तदा ।
पर्णशालान्तरं
गत्वा द्वारमावृत्य तत्क्षणात् ।। १३ ।।
अकार्यं न मया
कार्यं मुनिपत्न्या विगर्हितम् ।
बलात् प्रमथ्य
चाहं चेत् त्वया त्वां च शापाम्यहम् ।। १४ ।।
तब उस समय
तुरंत पर्णशाला में जाकर उसने तत्काल पर्णशाला का द्वार बन्द कर लिया और क्रोधित
होकर अमोघा ने ब्रह्मा से यह वचन कहा- मुझ मुनि पत्नी के साथ न करने योग्य निन्दित
कर्म आपको नहीं करना चाहिये। यदि आप द्वारा बलपूर्वक मेरा प्रमथन किया जायेगा तो
मैं आप को शाप दे दूँगी ।। १३-१४ ।।
अमोघया
चैवमुक्ते विधातुश्च तदा नृप ।
रेतश्चस्कन्द
तत्रैव आश्रमे शान्तनोर्मुनेः ।। १५ ।।
अमोघा के
द्वारा ऐसा कहे जाने पर उस समय विधाता का वीर्य, वहीं शान्तनु- मुनि के आश्रम में ही स्खलित हो गया ।।१५।।
च्युते रेतसि
धातापि हंसयानं समुत्थितः ।
लज्जयाऽतिपरीतात्मां
द्रुतं वै स्वाश्रमं ययौ ।। १६ ।।
वीर्यपतन के
बाद ब्रह्मा भी उठकर अत्यन्त लज्जा से भरकर अपने हंसयान से शीघ्र ही अपने धाम को
चले गये ॥ १६ ॥
गते वेधसि
शान्तनुश्च निजमाश्रममागतः ।
आगत्य दृष्टवा
हंसानां पादक्षोभं तदा भुवि ।।१७।।
तेजश्च पतितं
भूमौ विधातुर्ज्वलनोपमम् ।
अमोघां
परिपप्रच्छ पर्णशालान्तरस्थिताम् ।। १८ ।।
ब्रह्मा के
चले जाने पर शान्तनु मुनि अपने आश्रम पर आये। आने के पश्चात् पृथ्वी पर हंसो के
पैरों के चिह्न तथा ब्रह्मा के प्रखर वीर्य को देखकर उन्होंने पर्णशाला में स्थित
अमोघा से पूछा ।। १७ - १८ ।।
।। शान्तनुरुवाच
।।
किमेतदत्र
सुभगे प्रवृत्तं दृश्यते तु यत् ।
पक्षिणां च
पदक्षोभं तेजश्चेदं च कीदृशम् ।। १९ ।।
शान्तनु बोले-
हे सुभगे ! यह यहाँ क्या हुआ दिखाई देता है?यह पक्षियों के पैरों का चिह्न और गिरा हुआ तेज कैसा है?।
।। और्व उवाच
।
सा तस्य वचनं
श्रुत्वा शान्तनुं मुनिसत्तमम् ।
अमर्षितैव
न्यगददाकुला विकलानना ।। २० ।।
और्व बोले- तब
उस मुनियों में श्रेष्ठ, शान्तनु मुनि के उन वचनों को सुनकर क्रोध से भरी हुई किन्तु
मन से आकुल तथा मुख से व्याकुल, अमोघा ने कहा- ॥२०॥
।। अमोघोवाच
।।
हंसयुक्तस्यन्दनेन
कोऽप्यागत्य चतुर्मुखः ।
कमण्डलुकरोऽतीव
रतिं मां समयाचत ।। २१ ।।
अमोघा बोली-
हंस जुते हुए रथ से कोई चार मुखों वाला, हाथ में कमण्डलु लिये आया था । आकर उसने मुझसे रति की
अत्यधिक याचना की ॥ २१ ॥
ततो मया
तर्जितः स उटजान्तरलीनया ।
प्रच्याव्य
तेजः संयातो मम शापभयार्दितः ।। २२ ।।
तब मेरे
द्वारा कुटिया में छिपने के बाद, उसे फटकारे जाने पर, मेरे शाप के भय से पीड़ित, उस व्यक्ति का तेज स्खलित हो गया ॥ २२ ॥
कुरु तत्र
प्रतीकारं यदि शक्नोषि शान्तनो ।
नहीमां
धर्षणां सोढुं कश्चिच्छक्नोति जीवभृत् ।। २३ ।।
शान्तनु! यदि
आप कोई प्रतिकार कर सकते हो तो करें क्योंकि कोई प्राणी इस प्रकार का अपमान नहीं
सह सकता।।२३।।
।। और्व उवाच
।।
स तस्या वचनं
श्रुत्वा स्वयं ब्रह्मा समागतः ।
इति निश्चित्य
मनसा तदा ध्यानपरोऽभवत् ।। २४ ।।
और्व बोले- तब
वे शान्तनु मुनि, उस अमोघा के वचन को सुनकर मन में ऐसा निश्चय करके कि स्वयं
ब्रह्मा यहाँ आये थे, ध्यान परायण हो गये ।। २४ ।।
दिव्यज्ञानेन
सा ज्ञात्वा देवकार्यमुपस्थितम् ।
तीर्थावतरणं
चापि हिताय जगतां मुनिः ।
ज्ञात्वोद्रेकं
चिन्तयित्वा स्वभार्यामिदमब्रवीत् ।। २५ ।।
अग्नि के समान
उन मुनि ने दिव्य ज्ञान से संसार के हित को लिए उपस्थित देवताओं के कार्य के
(महत्त्व) हेतु तीथों के अवतारण के अवसर को जान लिया और उद्रेक को जानकर उन्होंने
अपनी पत्नी से विचारपूर्वक ये वचन कहे ॥ २५ ॥
।।
शान्तनुरुवाच ।।
इदं तेजो
ब्रह्मणस्त्वं पिवामोघे ममाज्ञया ।। २६ ।।
हिताय
सर्वजगतां देवकार्यार्थसिद्धये ।
भवत्या निकटं
ब्रह्मा स्वयमेव समागतः ।। २७ ।।
शान्तनु बोले-
हे अमोघे ब्रह्मा के इस तेज को मेरी आज्ञा से तुम पी जाओ क्योंकि समस्त संसार के
कल्याण एवं देवताओं के कार्यसिद्धि हेतु स्वयं ब्रह्मा ही तुम्हारे समीप आये थे ।।
२६-२७।।
त्वामप्राप्य
महत् कृत्यमावयोः स समर्प्य च ।
गतो निजास्पदं
तत् त्वं कर्तुमर्हसि तद्वचः ।। २८ ।।
तुमको न पाकर
इस महान् कार्य को हम दोनों को ही सौंप कर वे अपने लोक को चले गये हैं । अतः अब
तुम्हीं उनके वचन को पूरा करो ॥ २८ ॥
।। और्व उवाच
।।
तच्छ्रुत्वा
शान्तनोर्वाक्यममोघातीव लज्जिता ।
सान्त्वयन्तीव
तं प्राह पतिं नत्वा महासती ।। २९ ।।
और्व बोले-
शान्तनु के उपर्युक्त वचनों को सुन कर अमोघा अत्यन्त लज्जित हुई। उस महासती ने पति
को नमस्कार किया और उन्हें सान्त्वना देती हुई बोली ॥२९॥
।। अमोघोवाच
।।
नान्यस्य तेजो
धास्यामि न च ते विमनस्कता ।
अवश्यं यदि
कर्तव्यं पीत्वा त्वं मयि चोत्सृज ।। ३० ।।
अमोघा बोली- न
तो मैं दूसरे का वीर्य धारण कर सकती हूँ और न आपकी खिन्नता ही सह सकती हूँ। इसलिए
यदि आप इसे आवश्यक समझते हैं तो आप ही इसे पीकर मेरे में छोड़ दें (आधान करें) ।।
३० ।।
ततस्तस्या वचः
श्रुत्वा युक्तं तथ्यं च शान्तनुः ।
स्वयं पीत्वा
तु तत् तेजः स्वभार्यायां न्यषेचयत् । । ३१।।
और्व बोले- तब
उसके तथ्यपूर्ण और उचित, वचन को सुनकर शान्तनु ने स्वयं उस तेज का पान किया और उसका
अपनी पत्नी में षेचन किया ॥३१॥
संक्रामितैः
शान्तनुना तेजोभिर्ब्रह्मणः सती ।
गर्भं
दधारामोघाख्या हिताय जगतां ततः ।। ३२।।
तब शान्तनु के
द्वारा ब्रह्मा के तेज से संक्रमित, अमोघा नाम वाली सती ने संसार के कल्याण हेतु,
गर्भ धारण किया ॥ ३२॥
तस्यः काले तु
सम्प्राप्ते नासातो जलसञ्चयः ।
तन्मध्ये
तनयश्चापि नीलवासा कीरीटधृक ।। ३३ ।।
रत्नमालासमायुक्तो
रक्तगौरश्च ब्रह्मवत् ।
चतुर्भुजः
पद्मविद्याध्वजशक्तिधरस्तथा ।
शिशुमारशिरस्थश्च
तुल्यकायो जलोत्करैः ।। ३४।।
समय आने पर
उसकी नासिका से एक जल का समूह निकला। उसमें से नीलावस्त्र और मस्तक पर मुकुट,
धारण किये, रत्नों की माला पहने, ब्रह्मा के समान लालं गौरवर्ण का और चार भुजाओं वाला एक
पुत्र भी प्राप्त हुआ जो अपने हाथों में कमल, ग्रन्थ, ध्वजा और शक्ति धारण किये था। वह सोंस के सिर पर स्थित था। वह
शरीर में जल के ढेर के ही समान था।। ३३-३४।।
तञ्जातं च
तथाभूतं शान्तनुर्लोकशान्तनुः ।
चतुर्णा
पर्वतानां च मध्यदेशे न्यवीविशत् ।। ३५ ।।
कैलासश्चोत्तरे
पार्श्वे दक्षिणे गन्धमादनः ।
जारुधिः
पश्चिमे शैलः पूर्वे संवर्तकादयः ।। ३६।।
उसके उस
प्रकार उत्पन्न होने पर लोक को सान्त्वना देने वाले शान्तनु ने उत्तर में कैलाश,
दक्षिण में गन्धमादन, पश्चिम में जारुधि तथा पूर्व में संवर्तक आदि चार पर्वतों
के मध्यदेश में उसे बसाया ।।३५-३६ ।।
तेषां मध्ये
स्वयं कुण्डं पर्वतानां विधेः सुतः ।
कृत्वाऽतिववृधे
नित्य शरदीव निशाकरः ॥३७॥
उनके मध्य में
ही,
उस ब्रह्मा के पुत्र ने स्वयं एक कुण्ड का निर्माण किया और
वहीं शरदऋतु के चन्द्रमा की भाँति बढ़ना आरम्भ किया ॥३७॥
तं तोयमध्यगं
पुत्रमासाद्य द्रुहिणः सुतम् ।
क्रमतस्तस्य संस्कारानकरोद्
देहशुद्धये ।। ३८ ।।
ब्रह्मा ने
अपने उस पुत्र को जल के बीच पाकर, उसकी शरीर शुद्धि के लिए संस्कारों को क्रमशः सम्पन्न किया
।। ३८ ।।
अथ काले
बहुतिथे व्यतीते ब्रह्मणः सुतः ।
तोयराशिस्वरूपेण
ववृधे पञ्चयोजनान् ।। ३९ ।।
बहुत समय बीत
जाने पर ब्रह्मा का वह पुत्र लौहित्य, जलराशि के रूप में पाँच योजन तक बढ़ गया । । ३९ ।।
तस्मिन् देवाः
पपुः सस्नुर्द्वितीय इव सागरे ।
सितामलजले
हृद्ये दिव्यैश्चाप्सरसां गणैः ।। ४० ।।
दूसरे समुद्र
जैसे श्वेत, निर्मल, हृदय को प्रिय लगने वाले, उसके जल में दिव्य अप्सराओं के सहित देवताओं ने स्नान किया
एवं उसके जल को पिया ॥ ४० ॥
तस्मिन्नवसरे
रामो जामदग्न्यः प्रतापवान् ।
चक्रे मातृवध
घोरमयुक्तं पितुराज्ञया ।। ४१ ।।
तस्य पापस्य
मोक्षाय स्वपितुश्चोपदेशतः ।
स जगाम
महाकुण्डं ब्रह्माख्यं स्नातुमिच्छया ।। ४२ ।।
उसी अवसर पर
जमदग्नि ऋषि के पुत्र राम (परशुराम), जो प्रतापी थे, उन्होंने अपने पिता की आज्ञा का पालन करते हुये,
मातृवध जैसा भयानक और अनुचित कार्य किया एवं उस पाप से
मुक्ति पाने हेतु अपने पिता के उपदेश के अनुसार- ब्रह्मपुत्र उत्पत्ति स्थल,
ब्रह्म नामक उस कुण्ड में स्नान करने के लिए गये ।।४१-४२॥
तत्र स्नात्वा
च पीत्वा च मातृहत्यामपानयन् ।
बीथीं परशुना
कृत्वा तं मह्यमवतारयत ।। ४३ ।।
वहाँ स्नान कर
उसका जल पीकर उन्होंने अपनी माता की हत्या के पाप को दूर किया तथा अपने परशु से
मार्ग बना कर, उस जलराशिरूप, ब्रह्मपुत्र को पर्वतों के बीच से पृथिवी पर अवतरित किया ॥४३॥
कालिका पुराण अध्याय ८२ परशुरामोपाख्यान
।।
परशुरामोपाख्यान ।।
।। सगर उवाच
।।
जमदग्नेः सुतो
रामः किमर्थं निजमातरम् ।
जघान तस्य
माता च किन्नाम्नी कस्य चात्मजा ।। ४४ ।।
सगर बोले-
जगदग्निपुत्र राम ने अपनी माता को क्यों मारा? उनकी माता का क्या नाम था ? वे किसकी पुत्री थीं? ॥४४॥
मुनेः पुत्रः
कथं जातस्तथा क्रूरो महाबलः ।
यो युद्धकुशलो
वीरो राजन्यान् समपोथयत् ।। ४५ ।।
मुनि के पुत्र
होते हुये भी परशुराम ऐसे क्रूर और महाबलशाली, युद्ध में पारङ्गत, वीर, कैसे हुए, जिन्होंने अन्य राजाओं को नष्ट कर दिया ॥ ४५ ॥
तदहं
श्रोतुमिच्छामि तत्त्वत्तो मुनिसत्तम ।
कथयस्व महाभाग
यदि गुह्यं तथापि मे ।। ४६ ।।
हे मुनियों
में श्रेष्ठ ! वह मैं आप से सुनना चाहता हूँ। यदि गोपनीय भी हो तो भी आप मुझे वह
सब बतायें॥४६॥
।। और्व उवाच
।
शृणु
राजन्नवहितो जमदग्नेः सुतस्य वै ।
चरितं स यथा जघ्ने
प्रसूं क्रूरतरश्च सः ।।४७।।
और्व बोले- हे
राजन् ! मेरे द्वारा वर्णित जमदग्नि के पुत्र परशुराम का वह चरित्र सुनो,
जिस प्रकार उन्होंने अपनी जननी को मार डाला और वे मुनिपुत्र
होते हुये भी क्रूरतर हो गये ॥ ४७ ॥
ब्रह्मपुत्रो
भृगुर्नाम ऋचीकस्तत्सुतोऽभवत् ।
स भार्यार्थी
चरन् भूमौ कान्यकुब्जं गतः पुरा ।। ४८ ।।
प्राचीनकाल
में ब्रह्मा के पुत्र भृगु, नाम के एक ऋषि थे। जिनसे ऋचीक-नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ।
वह अपनी पत्नी को पाने के निमित्त पृथ्वी पर घूमते हुये कान्यकुब्ज देश मे गया।।
४८ ।।
ददर्श
चारण्यगतं जह्नोर्वंशसमुद्भवम् ।
कुशिकस्य सुतं
गाधिं तपःस्थं नृपसत्तम ।। ४९ ।।
हे राजाओं में
श्रेष्ठ ! वहाँ उन्होंने वन में जह्रु के वंश में उत्पन्न,
कुशिक नामक राजा के पुत्र, गाधि को तपस्यारत देखा ॥४९॥
अरण्यस्थस्य
तस्याथ पुत्रकामस्य भूभृतः ।
सभार्यस्य
सुता जज्ञे देवकन्यासमा गुणैः ।
ऋचीको
भृगुपुत्रस्तां भार्यार्थं समयाचत ।। ५० ।।
वे राजा गाधि,
वन में रहते हुये पुत्र की कामना से पत्नी के साथ,
वहाँ तपस्या कर रहे थे । उन्हें समय आने पर गुणों में
देवकन्या के समान श्रेष्ठ, एक पुत्री उत्पन्न हुई थी। भृगुपुत्र ऋचीक ने उसे पत्नी के
रूप में माँगा ।। ५० ।।
दातुं योग्या
सुता मेऽद्य तद्विधाय महामुने ।
किं त्वेकः
कुलधर्मो मे विद्यते शुल्कसंग्रहे ।। ५१ ।।
एकत्र
कृष्णवर्णानामश्वानां चन्द्रवर्चसाम् ।
सहस्रमेकं यो
दद्यात् तस्मै पुत्री प्रदीयते ।।५२।।
हे महामुनि !
आप जैसे योग्य वर को मैं अपनी कन्या देना चाहता हूँ। किन्तु मेरे कुल में कन्या के
बदले में शुल्क संग्रह की एक परम्परा है- चन्द्रमा के समान,
कृष्णवर्ण नाम के एक हजार घोड़े,
जो प्रदान करे, उसी को कन्या दी जाती है ।। ५१-५२।।
।। ऋचीक उवाच
।।
दास्याम्यश्वसहस्रं
वै तव राजंस्तथाविधम् ।
किंचित् कालं
प्रतीक्षस्व यावत् तदहमानये ।। ५३ ।।
ऋचीक बोले- हे
राजन् ! तुम्हें उस प्रकार के एक हजार घोड़े अवश्य प्रदान करूँगा,
जब तक मैं उन्हें लाता हूँ, आप कुछ समय मेरी प्रतीक्षा करें ॥ ५३ ॥
।। और्व उवाच
।।
एवमस्त्विति
तं गाधिरुवाच भृगुसूनवे ।
गङ्गतीरं कान्यकुब्जं
सोऽगच्छद्धयसाधने ।। ५४ ।।
और्व बोले-
गाधि ने उस भृगुपुत्र ऋचीक् से ऐसा ही हो, यह वचन कहा, तब वे ऋचीक् ऋषि, घोड़ों को लाने के लिए कान्यकुब्ज (कन्नौज) में गङ्गातट पर गये
॥ ५४ ॥
तत्राराध्य
भृगोः पुत्रो वरुणं यादसां पतिम् ।
तेन दत्तं
लेभे सहस्रं वाजिनां मुनिः ।। ५५ ।।
वहाँ आराधना
कर के भृगु के पुत्र ऋचीक नामक मुनि ने जल के स्वामी वरुणदेवता की आराधना,
कर उनसे दिये हुए, एक हजार घोड़ों को प्राप्त किया ।। ५५॥
तेन यत्र तदा
लब्धा अश्वान् नृपतिसत्तम ।
तदश्वतीर्थ
विख्यातं महाफलकरं परम् ।। ५६ ।।
हे राजाओं में
श्रेष्ठ ! उनके द्वारा, जब ये घोड़े प्राप्त हुए तभी से वह श्रेष्ठ स्थान महान्फलदेनेवाले
अश्वतीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हो गया । । ५६ ॥
गङ्गाजलादुत्थितं
तु दत्तं सम्यक् प्रचेतसा ।
आदायाश्वसहस्रं
तु मुनिर्गाधिमथाभ्ययात् ।।५७।।
गङ्गा जल से
निकले तथा वरुण के द्वारा भली-भाँति दिये हुये उन एक हजार घोड़ों को लेकर वे राजा,
गाधि मुनि के पास पहुँच गये ॥५७॥
तानश्वान्
गाधिरादाय पुत्रीं सत्यवतीं सुताम् ।
ऋचीकाय ददौ
लक्ष्मीं केशवायैव सागरः ।। ५८ ।।
जिस प्रकार
सागर ने लक्ष्मी को केशव (विष्णु) को प्रदान किया था,
उसी प्रकार उन्होंने अपनी सत्यवती नाम की पुत्री को ऋचीक
ऋषि को प्रदान कर दिया ।। ५८ ।।
ऋचीको
गाधितनयां लब्ध्वा भार्यामनिन्दिताम् ।
मुदितः स तया
रेमे यथाकामं स्वकाश्रमे ।। ५९ ।।
ऋचीक ने भी उस
अनिन्दित-गाधि पुत्री, को पत्नी के रूप में प्राप्त कर अपने आश्रम में,
उसके साथ प्रसन्नतापूर्वक रमण किया ।। ५९ ।।
कृतदारं सुतं
श्रुत्वा द्रष्टुं पुत्रं स्नुषां भृगुः ।
अथाजगाम
मतिमान् स्नुषां दृष्ट्वा ननन्द च ।। ६० ।।
बुद्धिमान्
भृगु मुनि, अपने बेटे के विवाह की बात का समाचार सुनकर, अपने पुत्र और पुत्रवधू को देखने के लिए वहाँ आये तथा अपनी
पुत्रवधू को देखकर आनन्दित हुये ॥ ६० ॥
दम्पती तं
समासीनं भृगुं देवगणार्चितम् ।
पूजयित्वा
यथान्यायं तस्थतुस्तौ कृताञ्जली ।
ततो भृगुः
स्नुषां स्वीयां सुप्रीत इदमब्रवीत् ।। ६१ ।।
वे
ऋचीक-दम्पती, अपने आश्रम में तथा आये हुये उन देवगणों से पूजे गये भृगुमुनि की यथोचित पूजा
किये और हाथ जोड़कर खड़े हो गये। तब भृगु ने अपनी पुत्रवधू से प्रसन्नतापूर्वक ये
वचन कहे - ।। ६१ ।।
।। भृगुरुवाच
।।
वरं वृणीष्व
दास्यामि वाञ्छितं वरवर्णिनि ।
अदेयं दुष्करं
वापि यत्र ते विद्यते स्पृहा ।।६२।।
भृगु बोले- हे
वरवर्णिनी ! तुम्हारा जो अभिलषित हो वर माँगो । यदि तुम्हारी इच्छा हो तो अदेय एवं
दुष्कर वर भी तुम माँग लो ॥ ६२ ॥
।। और्व उवाच
।।
ततः सत्यवतीं
पुत्रं तप- आम्नाय पारगम् ।
मातुश्च
वीरमतुलं पुत्रं वरमयाचत ।। ६३ ।।
और्व बोले- तब
सत्यवती ने तप-मार्ग में पारङ्गत पुत्र एवं माता के लिए अतुलनीय वीर पुत्र
प्राप्ति का वर माँगा।।६३।।
स
चैवमस्त्वित्युक्त्वैव भूत्वा ध्यानपरस्तदा ।
विश्वमाधृत्य
मनसा यत्नाच्छ्वासं ससर्ज सः ।। ६४ ।।
तस्य
निःश्वासात् तु निःसृतं वै चरुद्वयम् ।
तस्यैतद्वितयं
दत्त्वा भृगुस्तामिदमब्रवीत् ।। ६५ ।।
सम्पूर्ण
विश्व को मन में आधार बनाकर, यत्नपूर्वक उन्होंने निःश्वास छोड़ा और उस समय उनके
निःश्वास से दो सुन्दर चरुपात्र निकले। उन दोनों को उसे देकर भृगु ऋषि ने ये वचन
कहे ॥। ६४-६५ ।।
।। भृगुरुवाच
।।
चरुद्वयं
गृहाणेदं स्नुषे सत्यवति स्वयम् ।
स्नात्वा ऋतौ
ऋतौ माता स्नुषे त्वं च करिष्यथः ।। ६६ ।।
भृगु बोले- हे
पुत्रवधू सत्यवती ! तुम इन दोनों चरुपात्रों को स्वयं ग्रहण करो। ऋतुकाल में स्नान
करके उस समय तुम और तुम्हारी माता, दोनों ही मेरे बताये अनुसार करना ॥ ६६ ॥
आलिंग्याश्वत्थवृक्षे
ते माता पुंसवनाय वै ।
चरुमारक्तकं
चेमं सा भोक्ष्यति सुतस्ततः ।। ६७ ।।
उस समय
तुम्हारी माता यदि अश्वत्थवृक्ष के पेड़ (पीपल) का आलिङ्गन कर पुंसवन के लिए इस
लाल रङ्ग के सुन्दर, चरु का भोजन करेगी तो उसे इच्छित पुत्र प्राप्त होगा ॥ ६७ ॥
त्वं
चोदुम्बरवृक्षं तु समालिंग्यसितं चरुम् ।
भोक्ष्यसे तव
पुत्रस्तु भविष्यति सनातनः ।। ६८ ।।
तुम गूलर के
वृक्ष का आलिङ्गन कर इस श्वेत रङ्ग के चरु का भोजन करोगी तो तुम्हें वाञ्छित,
सनातन (सात्विक) पुत्र होगा।।६८।।
।। और्व उवाच ॥
एवमुक्त्वा
भृगुर्यातो यथेच्छं सापि समुदम ।
अवाप मात्रा
सहिता भर्त्रा पित्रा च भामिनी ।। ६९ ।।
और्व बोले-
ऐसा कहकर भृगुजी इच्छानुसार चले गये। तब इस भामिनी (सत्यवती) ने भी अपनी माता,
पिता और पति के सहित, प्रसन्नता का अनुभव किया ॥ ६९ ॥
अथ
स्नानदिनेऽश्वत्थमालिंग्यारक्तकं चरुम् ।
आदात् सत्यवती
तस्या माता फल्गुसितं चरुम् ।।७० ।।
इसके बाद
सत्यवती ने ऋतुस्नान के पश्चात् स्नान के दिन, उचित समय पर अश्वत्थ का आलिङ्गन कर,
स्वयं लाल चरु ग्रहण किया। उसकी माता ने फल्गु (गूलर के
वृक्ष) का आलिङ्गन कर श्वेत चरु ग्रहण किया।।७० ।।
परिवर्तं तु
तज्ज्ञात्वा दिव्यज्ञानो भृगुर्मुनिः ।
अथागत्य
स्नुषां तां तु वचनं चेदमब्रवीत् ।। ७१ ।।
उस परिवर्तन
(व्यतिक्रम) को जानकर, दिव्यज्ञान से सम्पन्न, भृगुमुनि अपनी पुत्रवधू के समीप जाकर उससे ये वचन बोले - ॥
७१ ॥
।। भृगुरुवाच
।।
विपर्ययस्त्वया
भद्रे वृक्षालिङ्गनकर्मणि ।
तथा
चरुप्राशने तु तत्रेदं ते भविष्यति ।।७२।।
ब्राह्मणः
क्षत्रियाचारस्तव पुत्रो भविष्यति ।
क्षत्रियो
ब्राह्मणाचारो मातुस्ते भविता सुतः ।।७३।।
भृगु बोले- हे
भद्रे ! वृक्षों को आलिङ्गन करने के क्रम में तथा चरु के भोजन के प्रसङ्ग में,
तुम्हारे द्वारा विपरीत किया गया है। इसलिए तुम्हारा पुत्र,
क्षत्रिय- आचरण से युक्त ब्राह्मण होगा तथा तुम्हारी माता
को ब्राह्मण-आचरण से युक्त क्षत्रियपुत्र उत्पन्न होगा।।७२-७३ ।।
।। और्व उवाच
।।
इत्युक्त्वा
भृगुणा साध्वी तदा सत्यवती भृगुम् ।।७४ ॥
पुनः
प्रसादयामास पौत्रो मेऽस्त्विति तादृशः ।
एवमस्त्विति स
प्रोच्य तत्रैवान्तर्दधे भृगुः ।। ७५ ।।
और्व
बोले- भृगु के द्वारा ऐसा कहे जाने पर साध्वी सत्यवती ने
भृगु ऋषि को पुनः प्रसन्न किया और उनसे प्रार्थना की कि इस प्रकार का मेरा पौत्र
हो। तब ऐसा ही हो यह कहकर भृगु ऋषि वहीं अन्तर्हित हो गये ।। ७४-७५ ।।
अथ काले सुतं
दीप्तं जमदग्निं च गाधिजा ।
सुषुवे जननी
तस्या विश्वामित्रं तपोनिधिम् ।। ७६ ।।
तत्पश्चात्
समय आने पर गाधिपुत्री सत्यवती ने जमदग्नि नामक प्रकाशमान पुत्र को तथा उसकी माता
ने विश्वामित्र नामक तपस्वी पुत्र को जन्म दिया। ७६॥
जमदग्निस्ततो
वेदांश्चतुरः प्राप मा चिरम् ।
प्रादुरासीद्
धनुर्वेदः स्वयं तस्मिन् महात्मनि ।। ७७ ।।
तब जमदग्नि ने
शीघ्र ही चारों वेदों को प्राप्त कर लिया (जान लिया) तत्पश्चात् उस महात्मा में
धनुर्वेद का ज्ञान स्वयं उत्पन्न हो गया ॥ ७७ ॥
विश्वमित्रोऽपि
सकलान् वेदानाप तथाऽचिरात् ।
धनुर्वेदं तथा
कृत्स्नं विप्रश्चाभूत् तपोबलात् ।।७८।।
शीघ्र ही
विश्वामित्र भी सभी वेदों तथा सम्पूर्ण धनुर्वेद को प्राप्त कर,
अपनी तपस्या के बल पर ब्राह्मण हो गये ॥७८॥
जाज्वल्यमानस्तेजस्वी
जमदग्निर्महातपाः ।
वेदैस्तपोभिः
स मुनीनत्यक्रामच्च सूर्यवत् ।। ७९ ।।
सूर्य के समान
जाज्वल्यमान, तेजस्वी, महान तपस्वी उन जमदग्नि ऋषि ने वेद और तपस्या द्वारा अन्य मुनियों को पराभूत
कर दिया ॥ ७२ ॥
श्री
कालिकापुराणे लौहित्योत्पत्तिवर्णननाम द्वयसीतितमोऽध्यायः ॥ ८२ ॥
श्रीकालिकापुराण
में लौहित्यउत्पत्तिवर्णननामक बयासीवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ। ८२ ।।
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 83
0 Comments