कालिका पुराण अध्याय ८१
कालिका पुराण
अध्याय ८१ में कामरूपमण्डल के अन्य माहात्म्य का वर्णन है।
कालिका पुराण अध्याय ८१
Kalika puran chapter 81
कालिकापुराणम् एकाशीतितमोऽध्यायः कामरूपमाहात्म्यवर्णनम्
कालिकापुराणम्
।।
एकाशीतितमोऽध्यायः ।।
अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ८१
।। और्व उवाच
।
कामरूपे
महापीठे स्नात्वा पीत्वा च देवताः ।
पूजयित्वा च
विपुला लोकाः स्वर्गं पुरा ययुः ।
केचिद्
भेजुश्च निर्वाणं केचिद् यान्ति स्म शम्भुताम् ।। १ ।।
और्व बोले-
प्राचीनकाल में कामरूपपीठ में (स्थित तीर्थों में) स्नान, वहाँ का जल-पान, तथा
पूजन करके बहुत से लोग एवं देवता, स्वर्ग को गये हैं। कुछ ने
निर्वाण प्राप्त किया तो कुछ शिवत्व को प्राप्त किये ॥ १ ॥
न यमस्तान्
धारयितुं नेतुं च निजमन्दिरम् ।
क्षमोऽभून्नरशार्दूल
शिवाया जातसाध्वसः ॥२॥
हे मनुष्यों
में सिंह ! शिवा के प्रभाव के कारण, यमराज न उन्हें रोकने में समर्थ हैं और न उन्हें अपने लोक में
ही ले जाने में समर्थ हैं ॥२॥
यमदूतं तत्र
यान्तं बाधन्ते शंकरा गणाः ।
न तद्भिया
तत्र यान्ति यमदूताः प्रचोदिताः ।। ३ ।।
शिव के गण
यमदूतों को वहाँ जाने से रोकते हैं। उन्हीं के भय से यमदूत प्रेरित किये जाने पर
भी वहाँ नहीं जाते ॥ ३ ॥
तथा दृष्टवाथ
शमनः स्वक्रियापरिवर्जितः ।
विधातारं समासाद्य
वचनं चेदमब्रवीत् ।।४।।
इस प्रकार
अपने क्रिया के रोके जाने को देखकर यमराज, विधाता के निकट जाकर ये वचन बोले-
।। यमोवाच ।।
विधातुः
कामरूपेऽस्मिन् स्नात्वा पीत्वा च मानवः ।
कामाख्यागणतां
याति तथा शम्भुगणेशताम् ।।५।।
तत्र मे
नाधिकारोऽस्ति न तान् वारयितुं क्षमः ।
विधत्स्वात्रोचितं
नीतिं युज्यते यदि गोचरे ।। ६ ।।
यमराज बोले-
हे विधाता ! इस कामरूप में स्नान करके और वहाँ का जल पीकर मनुष्य, कामाख्यादेवी के गणों की श्रेणी को तथा शिव
के गणों के आधिपत्य को प्राप्त करता है। वहाँ मेरा कोई अधिकार नहीं है और न मैं
उन्हें ऐसा करने से रोकने में ही सक्षम हूँ । यदि कोई उचित नीति दिखती हो तो यहाँ
उसका प्रयोग करें ।। ५-६ ॥
।। और्व उवाच
।।
तस्य तद्वचनं
श्रुत्वा ब्रह्मा लोकपितामहः ।
जगाम विष्णुभवनं
सहैव समवर्तिना ॥७॥
और्व बोले-
उसके इन वचनों को सुनकर लोकपितामह ब्रह्मा, समवर्ती (यमराज) के साथ विष्णुलोक को गये॥७॥
तमासाद्य तथा
प्राह विष्णुर्वै यमभाषितम् ।
यथावत्
सर्वलोकेशः स च तद्वाक्यमग्रहीत् ।।८।।
यमराज ने जैसा
कहा था उसे ज्यों का त्यों लोकेश, ब्रह्मा ने उनके निकट जाकर विष्णु से कह दिया और उन्होंने ब्रह्मा के उस
वाक्य को ग्रहण कर लिया ॥ ८ ॥
सह
ब्रह्मयमाभ्यां तु विष्णुः शम्भुं ययौ ततः ।
सत्कृतस्तेन पृष्टश्च
प्राहेद यमभाषितम् ।।९।।
तब ब्रह्मा और
यमराज के साथ विष्णु, शिव के समीप गये । उनसे सम्मानित होकर तथा पूजे जाने पर उन्होंने यमराज
द्वारा कहे ये वचन कहे ॥ ९ ॥
।।
श्रीभगवानुवाच ।।
सर्वदेवैः सर्वतीर्थे:
सर्वक्षेत्रस्तथैव च ।
एतद् व्याप्तं
कामरूपं नातोऽन्यद् विद्यते परम् ।। १० ।।
श्रीभगवान्
(विष्णु) बोले- यह कामरूपक्षेत्र सभी देवों, सभी तीर्थों एवं सभी क्षेत्रों से व्याप्त है, अन्य कुछ भी इससे श्रेष्ठ नहीं है ॥१०॥
इदं पीठं
समासाद्य देवत्वं यान्ति मानवाः ।
अमृतत्वं
गणत्वं च तत्र शक्तो यमो नहि ।। ११ । ।
इस पीठ को
प्राप्तकर मनुष्य, देवत्व को प्राप्त करते हैं। वे अमरत्व और गणश्रेणी को प्राप्त कर लेते
हैं। वहाँ यमराज नियन्त्रण करने में समर्थ नहीं हैं ॥। ११ ॥
तथा कुरु
महादेव यथा तत्र क्षमो यमः ।
यमो निरस्तो
यत्रास्ति मर्यादा न प्रदृश्यते ।। १२ ।।
हे महादेव !
आप कुछ ऐसा करें, जिससे यमराज वहाँ नियन्त्रण स्थापित करने में समर्थ हो सकें। क्योंकि
यमराज जहाँ अधिकार से निरस्त होते हैं वहाँ मर्यादा नहीं दिखाई देती ॥ १२ ॥
।। और्वउवाच
।।
एतद्
विष्णुवचः श्रुत्वा विधिना सहितस्य तु ।
अङ्गीचकार
हृदये तद्वचः साध्यसाधने ।। १३ ॥
विसृज्य तान्
ब्रह्मविष्णुयमान्ं वृषभवाहनः ।
आदाय स्वगणान्
सर्वान् कामरूपान्तरं ययौ ।। १४ ।।
और्व बोले-
वृषवाहन शिव ने ब्रह्मा के सहित, विष्णु द्वारा कहे इन वचनों को साध्य - साधन ( पूरा करने) के लिए हृदय में
धारण किया और उन ब्रह्मा, विष्णु तथा यमराज को विदाकर,
वे अपने सभी गणों को साथ लेकर स्वयं कामरूपक्षेत्र में गये ।। १३-१४
॥
उग्रतारां ततो
देवीं गणं च प्राह शङ्करः ।
उत्सारयन्तु
सकलानिमाँल्लोकान् गणाः द्रुतम् ।
उग्रतारे
महादेवी त्वं चाप्युत्सारय द्रुतम् ।। १५ ।।
तब भगवान
शङ्कर ने वहाँ जाकर देवी उग्रतारा और अपने गणों से कहा- हे गणों ! तुम सब इन सभी
लोगों को शीघ्र ही यहाँ से निकाल बाहर करो । हे महादेवी ! उग्रतारा आप भी शीघ्र ही
इन्हें निकालें ॥ १५॥
ततो गणाः
कामरूपाद् देवी चाप्यपराजिता ।
लोकानुत्सारयामासुः
पीठं कर्तुं रहस्यकम् ।। १६ ।।
तब शिवगणों और
देवी अपराजिता ने भी कामरूपपीठ को रहस्यमयपीठ बनाने के लिए, लोगों को वहाँ से भगा दिया ॥ १६ ॥
उत्सार्यमाणे लोके
तु चतुर्वर्णद्विजातिषु ।
सन्ध्याचलगतो
विप्रो वसिष्ठः कुपितो मुनिः ।।१७।।
सोऽप्युग्रतारया
देव्या उत्सारयितुमीशया ।
गणैः सह धृतः
प्राह शापं कुर्वन् सुदारुणम् ।। १८ ।।
द्विज आदि
चारों वर्णों के लोगों के वहाँ से निकाले जाने पर, सन्ध्याचल पर स्थित, विप्र, वशिष्ठ मुनि क्रोधित हो गये और गणों के सहित ईश्वरी उग्रतारादेवी द्वारा
उनको भी निकालने को, पकड़े जाने पर वे भी उन्हें भयंकर शाप
देते हुए बोले- ॥१७- १८॥
।। वशिष्ठ
उवाच ॥
यस्मादहं धृतो
वामे त्वयोत्सारयितुं मुनिः ।
तस्मात् त्वं
वाम्यभावेन पूज्या भव समन्त्रिका ।। १९ ।।
बशिष्ठ बोले-
हे वामे (भगवति) ! मैं मुनि होते हुये भी तुम्हारे द्वारा हटाने के लिए पकड़ा गया
हूँ, इसलिए तुम वाम भाव से ही वाममन्त्रों के
द्वारा पूजिता होओ।। १९ ।।
भ्रमन्ति
म्लेच्छवद्यस्माद् गणानां मन्दबुद्धयः ।
भवन्तु म्लेच्छास्तस्माद्वै
भवन्तः कामरूपके ।। २० ।।
ये मन्दबुद्धि
वाले गण जो यहाँ म्लेच्छों की भाँति घूम रहे है। सभी कामरूप में रहने वाले म्लेच्छ
हों ॥ २० ॥
महादेवोऽपि यस्मान्मां
निः सारयितुमुद्यतः ।। २१ ।।
तपोधनं मुनिं
दान्तं म्लेच्छवद् वेदपारगम् ।
तस्माद्
म्लेच्छप्रियो भूयाच्छङ्करश्चास्थिभस्मधृक् ।।२२।।
महादेव शिव भी, जो मेरे जैसे तपस्वी, इन्द्रियों का दमन करने वाले, वेदपारङ्गत मुनि को,
यहाँ से हटाने के लिए म्लेच्छ की भाँति उद्यत हुये हैं, वे भी म्लेच्छों के प्रिय तथा हड्डी और भस्म धारण करने वाले हों।।२१-२२।।
एतत् तु
कामरूपाख्यं म्लेच्छैर्गुप्तं मदत्वरम् ।
स्वयं
विष्णुन्न चायाति यावत् स्थानमिदं पुनः ।। २३ ।।
जब तक विष्णु
स्वयं लौटकर इस स्थान पर नहीं आ जाते तब तक कामरूपपीठ, मद से पूरित, म्लेच्छों
द्वारा ही रक्षित हो।। २३ ।।
विरलाश्चागमाः
सन्तु य एतत्प्रतिपादकाः ।
विरलं यस्तु
जानाति कामरूपागमं बुधः ।
स एव प्राप्ते
कालेऽपि सम्पूर्ण फलमाप्स्यति ।। २४ ।।
इस वामभाव के
प्रतिपादक आगमग्रन्थ दुर्लभ हो जायँ और जो साधक इस दुर्लभ कामरूप आगम को जानते हैं, वे ही समय आने पर सम्पूर्ण फल प्राप्त
करेंगे ॥ २४ ॥
एवमुक्त्वा
वसिष्ठस्तु तत्रैवान्तरधीयत ।
ते गणा
म्लेच्छतां याताः कामरूपे सुरालये ।। २५ ।।
वामाऽभूदुग्रतारापि
शम्भुर्लेच्छरतोऽभवत् ।
आगमा
विरलाश्चासन् ये च मत्प्रतिपादकाः ।। २६ ।।
ऐसा कहकर
वशिष्ठ मुनि वहीं अन्तर्ध्यान हो गये तथा वे गण, देवताओं के क्षेत्र, कामरूप में,
म्लेच्छता को प्राप्त किये। उग्रतारादेवी भी वामा (वामभाव से पूजिता)
तथा शिव, म्लेच्छों से सेवित हो गये। मेरा प्रतिपादन करने
वाले आगमग्रन्थ दुर्लभ हो गये ।। २५-२६॥
वेदमन्त्रविहीनं
तु चतुर्वर्णविवर्जितम् ।
कामरूपं
क्षणाज्जातं यद् यमेनानुशाशितम् ।। २७ ।।
जो
कामरूपक्षेत्र था, वह वेदमन्त्रों से हीन तथा चारों वर्णों से रहित होकर क्षणभर
में ही यमराज से अनुशासित हो गया ।। २७।।
आगतेऽपि हरौ
मुक्ते शापात् पीठे फलप्रदे ।। २८ ।।
यथा न सम्यक्
स्थास्यन्ति तत्पीठे देवमानुषाः ।
गुप्तये
सर्वकुण्डानां ब्रह्मोपायं तथाऽकरोत् ।। २९ ।।
जिस प्रकार से
उस पीठ पर विष्णु के पुनः आने पर कामरूपपीठ के शापमुक्त होके बाद भी फलदायक होने
पर,
देवता एवं मनुष्य भली भाँति वहाँ न रह सकें,
ब्रह्मा ने वैसा ही उपाय वहाँ के सभी कुण्डों की रक्षा के
लिए किया।। २८-२९।।
अपुनर्भवकुण्डस्य
सोमकुण्डस्य चोभयोः ।
ब्रह्मोर्वशीकुण्डयोस्तु
नदीनामपि भूरिशः ।। ३० ।।
नदीनां
पूर्वमुक्तानामनुक्तानां च गुप्तये ।
सर्वस्यैकफलज्ञाने
ब्रह्मोपायं तथाऽकरोत् ।। ३१ ।।
ब्रह्मा ने वह
उपाय किया, जिससे पूर्व के अध्यायों में कहे गये और न कहे गये बहुत सी नदियों तथा
अपुनर्भवकुण्ड-सोमकुण्ड-ब्रह्मकुण्ड, उर्वशीकुण्ड एवं इनसे सम्बन्धित नदियों की,
फल सहित रक्षा हो सके ।। ३०-३१।।
अमोघायां
शान्तनोस्तु भार्यायां तनयं स्वकम् ।
जलरूपं
समुत्पाद्य जामदग्न्येन धीमता ।
अवतारयदव्यग्रं
प्लावयन् कामरूपकम् ।।३२।।
इस हेतु
शान्तनु की अमोघा नाम की भार्या से उन्होंने जलरूप में अपने पुत्र (ब्रह्मपुत्र)
को उत्पन्न किया और बुद्धिमान जमदग्नि ऋषि के पुत्र, परशुराम की सहायता से उसे धैर्यपूर्वक पृथ्वी पर अवतारित कर,
पूर्वोक्त समस्त कामरूपपीठ को डुबा दिया ॥ ३२॥
स तु
ब्रह्मसुतो धीरः सावयन् कुण्डसञ्चयान् ।
आच्छाद्य
सर्वतीर्थानि भुवि गुप्तानि चाकरोत् ।। ३३ ।।
उस समय जलरूप
ब्रह्मा के, उपर्युक्त धैर्यवान पुत्र ने पूर्व वर्णित कुण्डसमूहों को ढंक कर,
वहाँ पृथिवी पर स्थित सभी तीर्थों को गुप्त कर दिया ।। ३३
।।
लौहित्यमात्रं
ये केचिज्जानन्ति तत्र वै नराः ।। ३४ ।।
ते
लौहित्यस्नानफलं प्राप्नुवन्ति सुनिश्चितम् ।
न जानन्ति च
कुण्डानि नापि तीर्थानि चान्यतः ।। ३५ ।।
जो कुछ लोग
जानते हैं, उसे वे लौहित्य नाम से ही जानते है तथा उसमें स्नान कर लौहित्य स्नान का फल
निश्चित रूप से प्राप्त करते हैं। वे अन्य कुण्डों या तीर्थों को नहीं जानते ॥
३४-३५ ।।
वसिष्ठशापादेतत्
तु प्रवृत्तं तीर्थगोपनम् ।
यः कश्चित्
तत्र जानाति तीर्थानां च विशेषताम् ।
समवाप्नोति
तत् स्नानफलं सम्यग् नरोत्तम ।। ३६ ।।
हे नरों में
श्रेष्ठ ! वशिष्ठमुनि के शाप के कारण ही यह तीर्थों के गुप्त करने का कार्य
सम्पन्न हुआ। जो इसे तथा उसमें लुप्त हुए तीर्थों की विशेषताओं को जानता है । वह
उसमें स्नान का भली-भाँति फल प्राप्त करता है ।। ३६ ॥
सर्वानदी:
समाप्लाव्य सर्वतीर्थानि सर्वतः ।
लौहित्यो
ब्रह्मणः पुत्रो याति दक्षिणसागरम् ।। ३७ ।।
सभी नदियों को
तथा सभी तीर्थों को अपने में भली-भाँति समाहित कर, ब्रह्मा का पुत्र, लौहित्य नामक नद, आज भी दक्षिणसागर में जाता है ॥३७॥
एवं ते कथितं
राजन् कामरूपस्य कीर्तनम् ।
यदन्यद्रोचते
तुभ्यं तत् पृच्छ निगदामि ते ।। ३८ ।।
हे राजन् ! यह
कामरूप का कीर्तन (माहात्म्य) मेरे द्वारा कहा गया। अब तुम्हे जो अच्छा लगे,
पूछो, मैं उसे तुमसे कहूँगा ॥३८॥
॥ श्री
कालिकापुराणे कामरूपमाहात्म्यवर्णननाम एकाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८१ ॥
॥
श्रीकालिकापुराण में कामरूपमाहात्म्यवर्णननामक इक्यासीवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥
८१ ॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 82
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