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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
सूर्य स्तुति
भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व)
अध्याय – १२३ के श्लोक ११-२४
में वर्णित भगवान् सूर्यनारायण के इस स्तुति का पाठ सभी को सुख देनेवाला, भोग तथा मोक्ष देनेवाला, बड़े-बड़े पाप नष्ट करनेवाला, मङ्गल और पवित्र करनेवाला, समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाला है ।
सूर्य स्तुति
Surya stuti
सूर्य स्तुति
आदिदेवोऽसि
देवानामीश्चराणां त्वमीश्वरः ।
आदिकर्तासि
भूतानां देवदेव सनातन ॥ ११॥
‘हे सनातन देवदेव ! आप ही समस्त चराचर प्राणियों के आदि स्रष्टा एवं ईश्वरों के
ईश्वर तथा आदिदेव हैं ।
जीवनं
सर्वसत्त्वानां देवगन्धर्वरक्षसाम् ।
मुनिकिन्नरसिद्धानां
तथैवोरगपक्षिणाम् ॥ १२ ॥
देवता,
गन्धर्व, राक्षस, मुनि, किन्नर, सिद्ध, नाग तथा तिर्यक् योनियों के आप ही जीवनाधार हैं।
त्वं ब्रह्मा
त्वं महादेवस्त्वं विष्णुस्त्वं प्रजापतिः ।
वायुरिन्द्रश्च
सोमश्च विवस्वान् वरुणस्तथा ॥ १३ ॥
त्वं कालः
सृष्टिकर्ता च हर्ता त्राता प्रभुस्तथा ।
सरितः सागराः
शैला विद्युदिन्द्रधनूंषि च ।
प्रलयः
प्रभवश्चैव व्यक्ताव्यक्तः सनातनः ॥ १४ ॥
आप ही ब्रह्मा,
विष्णु, शिव, प्रजापति, वायु, इन्द्र, सोम, वरुण तथा काल हैं एवं जगत् के स्रष्टा,
संहर्ता, पालनकर्ता और सबके शासक भी आप ही हैं । आप ही नदी,
सागर, पर्वत, विद्युत्, इन्द्रधनुष इत्यादि सब कुछ हैं । प्रलय,
प्रभव व्यक्त एवं अव्यक्त भी आप ही हैं ।
ईश्वरात्परतो
विद्या विद्यायाः परतः शिवः ।
शिवात्परतरो
देवस्त्वमेव परमेश्वर ॥ १५ ॥
ईश्वर से परे
विद्या,
विद्या से परे शिव तया शिव से परतर आप परमदेव हैं ।
सर्वतः
पाणिपादस्त्वं सर्वतोऽक्षिशिरोमुखः ।
सहस्रांशुस्त्वं
तु देव सहस्रकिरणस्तथा ॥ १६ ॥
हे परमात्मन्
! आपके पाणि, पाद,
अक्षि, सिर, मुख सर्वत्र — चतुर्दिक् व्याप्त हैं । आपकी देदीप्यमान सहस्रों किरणें सब
ओर व्याप्त हैं ।
भूरादिभूर्भुवःस्वश्च
महर्जनस्तपस्तथा ।
प्रदीप्तं
दीप्तिमन्नित्यं सर्वलोकप्रकाशकम् ।
दुर्निरीक्ष्यं
सुरेन्द्राणां यद्रूपं तस्य ते नमः ॥ १७ ॥
सुरसिद्धगणैर्जुष्टं
भृग्वत्रिपुलहादिभिः ।
शुभं
परममाव्यग्रं यद्रूपं तस्य ते नमः ॥ १८ ॥
भूः,
भुवः, महः, जनः, तपः तथा सत्य इत्यादि समस्त लोकों में आपका ही प्रचण्ड एवं
प्रदीप्त तेज प्रकाशित है । इन्द्रादि देवताओं से भी दुर्निरीक्ष्य,
भृगु, अत्रि, पुलह आदि ऋषियों एवं सिद्धों द्वारा सेवित अत्यन्त
कल्याणकारी एवं शान्त रूपवाले आपको नमस्कार है ।
पञ्चातीतस्थितं
तद्वै दशैकादश एव च ।
अर्धमासमतिक्रम्य
स्थितं तत्सूर्यमण्डले ।
तस्मै रूपाय
ते देव प्रणताः सर्वदेवताः ॥ १९॥
हे देव ! आपका
यह रूप पाँच, दस अथवा एकादश इन्द्रियों आदि से अगम्य है, उस रुप की देवता सदा वन्दना करते रहते हैं ।
विश्वकृद्विश्वभूतं
च विश्वानरसुरार्चितम् ।
विश्वस्थितमचिन्त्यं
च यद्रूपं तस्य ते नमः ॥ २० ॥
देव !
विश्वस्रष्टा, विश्व में स्थित तथा विश्वभूत आपके अचिन्त्य रुप की इन्द्रादि देवता अर्चना
करते रहते हैं । आपके उस रूप को नमस्कार है ।
परं
यज्ञात्परं देवात्परं लोकात्परं दिवः ।
दुरतिक्रमेति
यः ख्यातस्तस्मादपि परम्परात् ।
परमात्मेति
विख्यातं यद्रूपं तस्य ते नमः ॥ २१ ॥
नाथ ! आपका
रूप यज्ञ,
देवता, लोक, आकाश — इन सबसे परे है, आप दुरतिक्रम नाम से विख्यात हैं,
इससे भी परे आपका अनन्त रूप है,
इसलिये आपका रूप परमात्मा नाम से प्रसिद्ध है । ऐसे रूप
वाले आपको नमस्कार है।
अविज्ञेयमचिन्त्यं
च अध्यात्मगतमव्ययम् ।
अनादिनिधनं
देवं यद्रूपं तस्य ते नमः ॥ २२ ॥
हे अनादिनिधन
ज्ञाननिधे ! आपका रूप अविज्ञेय, अचिन्त्य, अव्यय एवं अध्यात्मगत है, आपको नमस्कार है ।
नमो नमः
कारणकारणाय नमो नमः पापविनाशनाय ।
नमो नमो
वन्दितवन्दनाय नमो नमो रोगविनाशनाय ॥ २३ ॥
नमो नमः
सर्ववरप्रदाय नमो नमः सर्वबलप्रदाय ।
नमो नमो
ज्ञाननिधे सदैव नमो नमः पञ्चदशात्मकाय ॥ २४ ॥
हे कारणों के
कारण,
पाप एवं रोग के विनाशक, वन्दितों के भी वन्द्य, पञ्चदशात्मक, सभी के लिये श्रेष्ठ वरदाता तथा सभी प्रकार के बल देनेवाले
! आपको सदा बार-बार नमस्कार है।’
इतिश्रीभविष्यमहापुराणे ब्राह्मे पर्वणि सूर्य स्तुति: ।।
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