कालिका पुराण अध्याय ८९

कालिका पुराण अध्याय ८९                      

कालिका पुराण अध्याय ८९ में भैरव के वंश का वर्णन है।

कालिका पुराण अध्याय ८९

कालिका पुराण अध्याय ८९                                         

Kalika puran chapter 89

कालिकापुराणम् एकोननवतितमोऽध्यायः भैरववंशवर्णनम्

कालिकापुराणम् 

एकोननवतितमोऽध्यायः

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ८९                          

।। ऋषय ऊचुः ।।

संक्षेपतः सदाचारो विशेषो राजनीतिषुः ।

श्रुतस्त्वद् वचनादौर्वः सगराय यथोक्तवान् ।। १ ।।

ऋषिगण बोले- और्व ने राजा सगर से सदाचार और राजनीति के भेदो के विषय में जैसा कहा था आपके वचनानुसार वैसा हम लोगों ने सुना ॥ १ ॥

विष्णुधर्मोत्तरे तन्त्रे बाहुल्यं सर्वतः पुनः ।

द्रष्टव्यस्तु सदाचारो द्रष्टव्यास्ते प्रसादतः ॥२॥

वे विष्णुधर्मोत्तर तन्त्र में अधिकता से तथा सब जगह किञ्चित पुन: देखे योग्य हैं। ऐसे सदाचार आपकी कृपा से देखे जाने योग्य हैं ॥ २ ॥

भूयो नः संशयो योऽस्ति तदनुक्तं त्वया पुरा ।

छिन्धि विप्रेन्द्र पृच्छामः परं कौतूहलं हि नः ॥ ३ ॥

हे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ! अब भी हमे जो संशय है, जो आपसे पहले हम लोगों द्वारा नहीं कहा गया है, उसे हम आपसे पूछते हैं, उसे आप दूर कीजिये । इस विषय में हमें परम कौतुहल (जिज्ञासा) है ॥ ३ ॥

अपुत्रस्य गतिर्नास्ति श्रूयते वेदलोकयोः ।

वेतालभैरवौ यातौ पुरा वै तपसे गिरिम् ।

पूर्वस्त्वकृतदारौ तौ तयोः पुत्रा न च श्रुताः ॥ ४ ॥

वेद और लोक दोनों में यही सुना जाता है कि अपुत्र की गति नहीं होती। प्राचीनकाल में वेताल और भैरव दोनों बिना पत्नीग्रहण (विवाह) किये ही तपस्या करने चले गये थे । उन दोनों के पुत्रों के विषय में हम लोगों द्वारा कुछ नहीं सुना गया ॥४॥

न जाता अथवा जाता यदि नाना द्विजोत्तम ।

तेषां तु सम्यगिच्छामि श्रोतुं संस्थानमुत्तमम् ।।५।।

हे द्विजों में श्रेष्ठ ! यदि नहीं हुए या बहुत से हुये तो उनके उत्तम स्थान प्राप्ति तथा पुत्रों के विषय में हम भली-भाँति सुनना चाहते हैं ॥ ५ ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ॥

अपुत्रस्य गतिर्नास्ति निश्चितं चेति सत्तमाः ।

स्वपुत्रैर्भ्रातृपुत्रैर्वा पुत्रवन्तो हि स्वर्गताः ।। ६ ।।

मार्कण्डेय बोले- हे द्विजसत्तमों ! यह निश्चित है कि बिना पुत्रवाले की गति नहीं होती। किन्तु अपने पुत्रों से या भाई के पुत्रों से भी पुत्रवान् होकर, लोग स्वर्ग गये हैं॥ ६ ॥

जातापत्यौ च तौ विप्रा धीरौ वेतालभैरवौ ।

तयोर्वंशान् प्रवक्ष्यामि शृण्वन्तु च महर्षयः ॥ ७ ॥

हे महर्षियों! हे विप्रों ! उन दोनों धैर्यशाली, वेताल और भैरव को पुत्र उत्पन्न हुये थे। मैं उनके वंश के विषय में कहता हूँ, उसे अब आप सुनें ॥ ७ ॥

सम्यक् सिद्धिमवाप्यैव यदा वेतालभैरवौ ।

हरस्य मन्दिरं प्राप्तौ कैलासं प्रतिहर्षितौ ॥८॥

जब भलीभाँति सिद्धि प्राप्त करके वेताल और भैरव प्रसन्नतापूर्वक भगवान् शिव के निवास स्थान, कैलाश पर्वत पर चले गये ॥ ८ ॥

तदा हरस्य वचनान्नन्दी तौ रहसि द्विजाः ।

प्राहेदं वचनं तथ्यं सान्त्वयन्निवं बोधकृत् ।। ९ ।।

हे द्विजों ! भगवान् शिव के कथनानुसार तब नन्दि ने उन दोनों को सान्त्वना देते हुये, इन बोधकारक, तथ्यपूर्ण वचनों को एकान्त में कहा - ॥९॥

।। नन्द्युवाच ।।

अपुत्रौ पुत्रजनने भवन्तौ शङ्करात्मजौ ।

यततां जातपुत्रस्य सर्वत्र सुलभा गतिः ।। १० ।।

नन्दि बोले - हे भगवान् शङ्कर के दोनों पुत्रों! तुम दोनों पुत्र हीन हो । पुत्रवान् की गति सर्वत्र सुलभ है, इसलिए तुम दोनों पुत्रजन्म के लिए प्रयत्न करो ॥ १० ॥

पुन्नाम नरकं पुत्रविहीनः परिपश्यति ।

न तपोभिर्न धर्मेण तन्मोचयितुमीश्वरः ।। ११ ।।

पुत्रविहीन पुरुष पुन्न नामक नरक में जाता है। तपस्या एवं धर्माचरण से ईश्वर भी मुक्ति नहीं दिला सकता।। ११।।

केवलात् पुत्रजननात् तस्मान्मोक्षः प्रजायते ।

तदुत्पादयतां पुत्रं भवन्तौ देवयोनिषु ।। १२ ।।

केवल पुत्र उत्पन्न करने पर ही उससे मोक्ष प्राप्त होता है। इसलिए आप दोनों देवयोनियों में पुत्र उत्पन्न करें ।। १२ ।।

अमर्त्यता तु युवयोः क्षीरपानादजायत ।

कात्यायन्यास्ततः पुत्रानमर्त्याः स्वसमा यतः ।। १३ ।।

भगवान् शिव के द्वारा दूध पीने से तुम दोनों में देवत्व आ गया है, इसलिए तुम दोनों कात्यायनि से अपने समान देव- पुत्र उत्पन्न करने का प्रयत्न करो ॥ १३ ॥

तस्माद् यथा तथा पुत्रानुत्पाद्य सुरयोनिषु ।

प्रियौ भवन्तौ शिवयोर्भवनं न चिरादिति ।। १४ ।।

इसलिए जैसे-तैसे हो देवयोनि के पुत्र उत्पन्न करके, भगवान् शिव के प्रिय, आप दोनों, शीघ्र ही शिवलोक में वापस आयेंगे ॥ १४ ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

तस्येति वचनं श्रुत्वा नन्दिनं प्रीतमानसौ ।

एवमेव करिष्यावो नन्दिनं चेत्यभाषताम् ।। १५ ।।

मार्कण्डेय बोले- उन नन्दि के वचन को सुनकर, वे दोनों, प्रसन्न होते हुये नन्दि से ऐसा बोले- हम दोनों ऐसा ही करेंगे ।। १५ ।।

ततस्तौ सततं कृत्वा नन्दिनौ वचनं हृदि ।

अचेष्टतां स्वपुत्रार्थे व्रजन्तौ तावितस्तत: ।।१६।।

तब नन्दि के वचन को हृदय में स्थायीरूप से धारण करके, अपने पुत्र प्राप्ति की इच्छा से, प्रयत्न किये बिना ही, वे दोनों इधर-उधर घूमने लगे ।। १६॥

अथैकदा भैरवोऽसौ उर्वशीमप्सरोवराम् ।

हिमवत्-पर्वतप्रस्थे ददर्श सुमनोहराम् ।। १७ ।।

अथ तां कामुको भूत्वा ययाचे सुरतोत्सवम् ।

वेश्याभावाच्च सुप्रीता सा यथेच्छमुवाच तम् ।। १८ ।।

तत्पश्चात् भैरव ने हिमालय पर्वत के शिखर पर एक बार उर्वशी नाम की श्रेष्ठ सुन्दरी अप्सरा को देखा और कामुक होकर उससे सुरतोत्सव की याचना की, तब वेश्या- भाव के कारण वह उर्वशी भी प्रसन्न होकर, उसकी इच्छानुसार, उससे बोली।। १७-१८॥

ततस्तस्यां भैरवस्तु चकार सुरतोत्सवम् ।

प्रीतायामुर्वशीदेव्यां सुप्रीतोऽभूच्च केलिभिः ।। १९ ।।

सुप्रीतायामथोर्वश्यां तेजोभिर्भैरवस्य तु ।

सद्योजातोऽभवत् पुत्रो बालसूर्यसमप्रभः ॥२०॥

तब भैरव ने उस उर्वशी के साथ सुरतोत्सव किया, उर्वशी देवी के प्रसन्न हो जाने पर, वह भी केलि से प्रसन्न हो गया । प्रसन्न हुई उर्वशी में भैरव के वीर्य से बालसूर्य के समान आभावाला एक पुत्र, तत्काल उत्पन्न हो गया।। १९-२० ।।

तं तु पुत्रं परित्यज्य ययौ स्वस्थानमुर्वशी ।

आदाय तनयं पश्चाद् भैरवः स्वपदं ययौ ।। २१ ।।

उस पुत्र को छोड़कर उर्वशी अपने स्थान को चली गई, तत्पश्चात् भैरव भी पुत्र को लेकर अपने स्थान पर चले गये॥२१॥

संस्कृत्य तनयं तं तु भैरवो मोदसंयुतः ।

सुवेशमिति तन्नाम चकार सगणाधिपः ।। २२।।

उस पुत्र को संस्कारित कर, उस गणों के स्वामी भैरव ने प्रसन्नता से युक्त हो, उसका सुवेश, यह नामकरण किया॥२२॥

अथ तं जातवयसं शक्रसूर्यसमप्रभम् ।

विद्याधराधिपत्ये तु सुवेशमभ्यषेचयत् ।। २३ ।।

इसके बाद वयस्क हो जाने पर, इन्द्र और सूर्य के समान आभावाले उस सुवेश को, विद्याधरों के अधिपति के रूप में अभिषिक्त किया ।। २३ ।।

स तु विद्याधराध्यक्षस्तनयामतिसुन्दरीम् ।

येमे गन्धर्वराजस्य धृतराष्ट्राह्वयस्य च ।। २४ ।।

उस विद्याधरों के प्रधान (सुवेश) ने धृतराष्ट्र नामक गन्धर्वराज की अति- सुन्दरी कन्या से विवाह किया ।। २४ ।।

तस्यां तस्य सुतो जज्ञे रुरुर्नाम मनोहरः ।

रुरोस्तु तनयो बाहुमैंनाक्यामभ्यजायत ।। २५ ।।

उस सुन्दरी से उसे रुरु नामक एक सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ । रुरु के मैनाकी से बाहु नामक पुत्र, उत्पन्न हुआ।।२५।।

बाहोस्तु पुत्राश्चत्वारस्तपनोऽङ्गद ईश्वरः ।

कुमुदोऽभूत् कनीयांस्तु चार्वत्यां तु मनोहरः ।। २६ ।।

बाहु के चार्वती से तपन, अङ्गद, ईश्वर और कुमुद नामक चार पुत्र उत्पन्न हुये जिनमें कुमुद सबसे छोटा और सुन्दर था ।। २६ ॥

कुमदस्य सुतो जज्ञे देवसेनो महाबलः ।

स देवसेनः पृथिवीमवतीर्य मनोहरः ।। २७ ।।

मान्धातुर्यौवनाश्वस्य तनयां केशिनीं मुहुः ।

वरयामास भार्यार्थे मृद्वङ्गीमप्सरः समाम् ।। २८ ।।

कुमुद ने देवसेन नामक एक महान् बलशाली, सुन्दर, पुत्र उत्पन्न किया। उस देवसेन ने पृथ्वी पर अवतरित हो, युवनाश्व के पुत्र मान्धाता की पुत्री, केशिनी, जो अप्सरा के समान कोमल अङ्गों वाली थी, का पत्नी के रूप में वरण किया ।। २७-२८ ।।

यौवनाश्वोऽपि मान्धाता शक्रस्य वचनाद् ददौ ।

केशिनीं तनयां स्वीयां देवसेनाय वाञ्छया ।। २९ ।।

युवनाश्व के पुत्र मान्धाता ने इन्द्र के वचनों को मानते हुये अपनी पुत्री केशिनी को, उसकी इच्छानुसार, देवसेन को प्रदान कर दिया ।। २९ ।।

केशिनीमुपयम्याथ देवसेनस्तया सह ।

वाराणस्यां शम्भुपुर्यां हरमाराधयच्छिवम् ॥३०॥

केशिनी से विवाह करके, देवसेन ने उसके साथ, शिव की नगरी, वाराणसी में रहकर, हर (भगवान् शिव) की आराधना की ॥ ३० ॥

आराधितो हरः प्रीतस्तस्येष्टं प्रददौवरम् ।

सोऽप्याददे हरात् तस्मादिष्टमेव वरत्रयम् ।। ३१ ।।

उसकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने उसे अभीष्ट वर प्रदान किया। उस देवसेन ने भी उनसे तीन अभीष्टवर माँगे ॥ ३१ ॥

यावच्च सूर्यो भविता तावत् स्थास्यति संततिः ।

अस्यामेव नगर्यां ये मद्वंशस्यापि राजता ।

प्रसन्नो मम वंशे त्वं नित्यमेव भविष्यसि ॥३२॥

उनको वर था कि जब तक सूर्य रहें तब तक मेरी सन्तानें, स्थिर रहें और तब तक मेरे ही वंशज इस नगरी में राज करते रहें। आप मेरे वंशवालों पर नित्य ही प्रसन्न रहें ॥ ३२ ॥

इत्यादाय वरं सोऽपि देवसेनो महाकृती ।

शङ्करस्य प्रसादेन चिरं तां बुभुजे पुरीम् ।। ३३।।

इस प्रकार का वर प्राप्त कर महान्यशस्वी देवसेन ने शिव के प्रसाद से, बहुत समय तक उस नगरी का भोग किया । ३३ ॥

देवसेनोऽथ केशिन्यां जनयामास पुत्रकान् ।

यूयं शृणुत सप्तैतान्नामतः कीर्तितांस्तथा ।। ३४ । ।

सुमना वसुदानश्च ऋतुधृग् यवनः कृती ।

नीलो विवेकी ह्येते वै सर्वशास्त्रविशारदाः ।। ३५ ।।

सर्वे वंशकराः पुत्रा देवसेनस्य सत्तमाः ।। ३६ ।।

हे श्रेष्ठजनों ! देवसेन ने केशिनी से जिन सात पुत्रों को उत्पन्न किया, आप मेरे द्वारा बताये गये, उनके नामों को सुनें - वे सुमना, वसुदान, ऋतुधृक्, यवन, कृती, नील और विवेकी थे। देवसेन के उपर्युक्त सातों श्रेष्ठ पुत्र सभी शास्त्रों में निपुण व वंश चलाने वाले थे ।। ३४-३६ ॥

अथ काले तु संप्राप्ते देवसेनोऽपि भार्यया ।

पुत्रेषु राज्यं निःक्षिप्य यातो विद्याधरक्षयम् ।। ३७।।

तब समय आने पर, पुत्रों को राज्य सौंप कर वह विद्याधर, देवसेन, अपनी पत्नी के सहित, क्षय (मृत्यु) को प्राप्त हुआ॥३७॥

ततस्ते तस्य तनयाः कृत्वा सुमनसं नृपम् ।

वसुदानादयः सर्वे बुभुजुश्चोत्तमां श्रियम् ।। ३८।।

तब उसके वसुदानादि सभी पुत्रों ने सुमना को राजा बनाकर उत्तम शोभा का भोग किया ॥ ३८ ॥

जाताः सुमनसः पुत्रास्त्रयः शूरा महाबलाः ।

सुमतिश्च विरूपश्च सत्यः शास्त्रार्थपारगाः ।। ३९ ।।

सुमना के सुमति, विरूप और सत्य नामक शास्त्रार्थ में पारङ्गत, शूर-वीर एवं महाबली तीन पुत्र उत्पन्न हुये ॥ ३९ ॥

सुमतेरभवत् कन्या सुतः सत्यस्य डिण्डिमः ।

विरूपस्याभवद् गाधिर्गाधेर्मित्रोऽभवत् सुतः ।। ४० ।।

इनमें से सुमति को एक कन्या, सत्य को डिण्डिम नाम का पुत्र और विरूप गाधि नाम वाला पुत्र हुआ। गाधि से मित्र नामवाला पुत्र उत्पन्न हुआ ॥४०॥

तेषां कल्पोऽभवद्राजा कल्पातु तु विजयोऽभवत् ।

यो विजित्य क्षितिं सर्वां पार्थिवान् भूरितेजसः ।।४१ ।।

उससे कल्प नामक राजा हुआ, कल्प से विजय हुआ जो अत्यन्त तेजस्वी था। उसने सभी राजाओं और पृथ्वी को जीत लिया था ।। ४१ ।।

शक्रस्यानुमते चक्रे खाण्डवं शतयोजनम् ।

यत् सव्यसाची ह्यदहत् पाण्डुपुत्रः प्रतापवान् ।

आवहत् परमां प्रीतिं ज्वलनस्य महात्मनः ।। ४२ ।।

इन्द्र की अनुमति से उसने सौ योजन विस्तार के खाण्डव वन का निर्माण किया था, जिसे पाण्डु के प्रतापी पुत्र, सव्यसाची (अर्जुन) ने जलाकर, महात्मा अग्नि की परम प्रसन्नता को प्राप्त किया था ॥४२ ॥

।। ऋषय ऊचुः ।।

कथं स खाण्डवं चक्रे विजयः शतयोजनम् ।

तद्वयं श्रोतुमिच्छामः कथयस्व तपोधन ।। ४३ ।।

ऋषिगण बोले- हे तपस्या के धनी ! विजय ने सौ योजन विस्तृत खाण्डवन को क्यों बनाया? हम सब वह सुनना चाहते हैं। आप हमसे कहें ॥ ४३ ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

सोमवंशेऽभवद्राजा महाबलपराक्रमः ।

धीरः सुदर्शनो नाम चारुरूपः प्रतापवान् ।। ४४ । ।

मार्कण्डेय बोले- चन्द्रवंश में सुन्दररूप, महान्बल और पराक्रम तथा धैर्य से युक्त, सुदर्शन नामक एक राजा हुआ ।। ४४ ।।

स वै हिमवतो नातिदूरे भङ्क्तवा महावनम् ।

सिंहान् व्याघ्रान् समुत्सार्य क्वचिच्चापि तपोधनान् ।। ४५ ।।

खाण्डवीं नाम नगरीमकरोत् तत्र शोभनाम् ।

त्रिंशद्योजनविस्तीर्णामायतां शतयोजनाम् ।। ४६ ।।

उसने हिमालय के समीप एक महान् वन को नष्ट कर, वहाँ के सिंहों, बाघों और कुछ तपस्वियों को भी वहाँ से हटाकर, वहाँ सौ योजन लम्बी तथा तीस योजन चौड़ी, खाण्डवी नाम की एक सुन्दर नगरी बसाई ।। ४५-४६ ।।

उच्चप्राकारसंयुक्तां साट्टाम्बुदतोरणाम् ।

निम्नाभिरतिदीर्घाभिः परिखाभिः समावृताम् ।। ४७ ।।

वह नगरी ऊँची चहार-दिवारियों से युक्त, बादलों को छूते, ऊँचे, तोरणद्वारों वाली, गहरी व लम्बी खाइयों से घिरी हुई थी ॥ ४७ ॥

अघृष्यामपरैर्वीरैर्नानाजनसमावृताम् ।

दीर्घिकाभिश्चोपवनैर्बहुभिश्चाप्सरोगणैः ।

आकीर्णां च तथारामैरुत्तमैरपि मानवैः ।।४८ ।।

जो, शत्रुओं के वीरों द्वारा न जीते जाने योग्य, अनेक प्रकार के लोगों से घिरी हुई, लम्बी वाटिकाओं एवं बहुत सी अप्सराओं, उत्तम बगीचों और मनुष्यों से भरी हुई थी ।। ४८ ।।

सोत्सवाः सततं यत्र जनाः देवान् दिवि स्थितान् ।

स्पर्धन्ते स्म मुदा युक्ता आद्या - भोगसमन्विताः । । ४९ ।।

जहाँ के लोग निरन्तर उत्सवों में रत, प्रसन्नता से भरे, आद्या (यथार्थ) भोगों से सम्पन्न हो, स्वर्ग स्थित देवताओं से प्रतिस्पर्धा करते थे ।। ४९ ॥

सवै सुदर्शनो राजा खात्वा भूमिं विदार्य च ।

गङ्गां कनखलां देवीं वाहयामास खाण्डवीम् ।। ५० ।।

उसी सुदर्शन नाम के राजा ने पृथ्वी को खोद कर तथा चीर कर कनखल में स्थित गङ्गादेवी को खाण्डवी नगरी तक ले आया ।। ५० ।।

संप्लाव्याखाण्डवीमध्यं तेन खातैश्च वर्त्मभिः ।

वक्रानुवक्रगा भूत्वा याति सीतां नदीं प्रति ।। ५१ ।।

जो मध्य से खाण्डवी को आप्लावित करती हुई, उसी खाई के टेढ़े-मेढ़े रास्ते से होती हुई, सीता नामक नदी में मिलती है ॥ ५१ ॥

स जित्वा सकलान् भूपान् वित्तान्याहृत्य भूरिशः ।

वशीचकार खाण्डव्यां मध्ये रत्नैरनेकशः ।।५२।।

वह राजा, सभी राजाओं को जीतकर तथा उनसे बहुत अधिक धन लाकर अनेक प्रकार के रत्नों से सम्पन्न हो, उस खाण्डवी पुरी में रहने लगा ॥ ५२ ॥

अन्येषां नगरेभ्यस्तु जनानानीय भूपतिः ।

खाण्डव्यां वासयामास हठादपि सुदर्शनः ।। ५३ ।।

देवदानवगन्धर्वाञ् जित्वा जित्वा युधा कृती ।

देववृक्षं देवरत्नं देवीं चापि तथौषधिम् ।। ५४ ।।

खाण्डव्यां रोपयामास स भूपालः सुदर्शनः ।। ५५ ।।

उस यशस्वी राजा सुदर्शन ने अन्य नगरों से भी लोगों को बलपूर्वक लाकर उन्हें खाण्डवपुरी में बसाया तथा युद्ध से देवताओं और गन्धर्वों को जीत कर, देववृक्ष (कल्पतरु), देवरत्न (कौस्तुभ), देवी तथा औषधियों को खाण्डवीपुरी में स्थापित किया ।। ५३-५५॥

जिष्णुस्तोsपि वै विष्णुर्नृपतिं तं सुदर्शनम् ।

कृतापकारं च बहुधा देवानां च तथा नृणाम् ।। ५६ ।।

वाराणसीपतिं वीरं विजयं जयशालिनम् ।

युद्धाय कृतसाचिव्यं तद्वैरे समयोजयत् ।। ५७ ।।

विष्णु ने उस जीतने की इच्छा रखने वाले राजा सुदर्शन को, जिसने बहुत उपायों से देवता और मनुष्यों का अपकार किया था, से विजय की इच्छा रखने वाले वाराणसी के स्वामी, विजय नामक वीर राजा को, परामर्श देकर वैर के लिए समायोजित किया। ५६-५७।।

विजयो विवरं प्राप्य महाबलपराक्रमः ।

सुदर्शनस्य नृपतेरवस्कन्दमथाकरोत् ।।५८।।

महाबल और पराक्रम से युक्त विजय ने छिद्र (भेद) पाकरे, राजा सुदर्शन पर आक्रमण कर दिया ।। ५८ ।।

नासत् सह्यवस्कन्दं विजयस्य सुदर्शनः ।

चतुरङ्गबलेनाशु युद्धायाभिमुखोऽभवत् ।। ५९ ।।

वह सुदर्शन भी विजय के आक्रमण को न सहते हुये, शीघ्र ही अपनी चतुरङ्गिणी सेना के साथ, युद्ध के लिए उद्यत हुआ ।। ५९ ।।

विजयो रथमारुह्य नियोज्य चतुरङ्गिणीम् ।

ततः सुदर्शनं योद्धुं सम्मुखोऽभवदञ्जसा ।। ६० ।।

तब विजय भी रथ पर सवार हो, अपनी चतुरङ्गिणी सेना को साथ ले, क्रोध से भरकर सुदर्शन से युद्ध के लिए सामने आया ॥ ६० ॥

तदा महायुद्धमासीद्विजयेन महात्मना ।

सुदर्शनस्य नृपतेर्वृत्रवासवयोर्यथा ।। ६१ ।।

तब सुदर्शन का महात्मा राजा विजय से वैसा ही महान् युद्ध हुआ जैसा कि वृत्रासुर का इन्द्र के साथ हुआ था ।। ६१ ॥

सुदर्शनस्य सेनानी रुमण्वान्नाम वीर्यवान् ।

कांचनं रथमारुह्य विजयसंमुखोऽभ्ययात् ।। ६२ ।।

सुदर्शन का रुमण्वान् नाम का पराक्रमी सेनापति, सोने के रथ पर सवार हो, विजय के सम्मुख आया ।।६२ ॥

अक्षौहिण्यस्तु सप्तास्य परिवार्य समन्ततः ।

व्यधमत्तां शत्रुसेनां यावतीमुद्यतायुधः ।। ६३ ।।

उसने अपनी सात अक्षौहिणी सेना के साथ, हाथ में आयुध ले, उद्यत, शत्रु की उतनी ही सेना को सब ओर से घेर कर आक्रमण किया ॥ ६३ ॥

विजयस्य च सेनानीः सञ्जयः स रिपुञ्जयः ।

नागानीकेन जग्राह रुमण्वन्तं ससैनिकम् ।। ६४ ।।

विजय का शत्रुओं को जीतने में समर्थ, सञ्जय नाम का एक सेनापति था, जिसने हाथियों की सेना की सहायता से सैनिकों के सहित रुमण्वन्त को पकड़ लिया ।। ६४ ।।

तयोर्महदभूद् युद्धं सेनान्योर्वीरयोर्महत् ।

ववर्ष शरवर्षेण रुमण्वानथ संजयम् ।। ६५ ।।

तब उन दोनों महान् और वीर सेनापतियों के मध्य एक महान् युद्ध हुआ जिसमें रुमण्वान् ने बाणों की वर्षा करके संजय को ढक दिया ॥ ६५ ॥

कुर्वश्चापि महानादं गजं दृष्ट्वैव केशरी ।

रुमण्वानथ विंशत्या बाणैर्विध्वाथ सञ्जयम् ।

क्षुरप्रेण धनुस्तस्य चिच्छेद कृतहस्तवत ।। ६६ ।।

जैसे हाथी को देखकर सिंह गर्जना करता है उसी प्रकार महान् गर्जना करते हुए रुमण्वान् ने, संजय को बीस बाणों से वेध दिया, उस समय क्षुरप्र नामक से उसने सञ्जय के धनुष को काट कर, उसके हाथ में रख दिया।।६६।।

सोऽपि कार्मुकमादाय तदाऽन्यत् संजयस्त्रिभिः ।

बाणैर्विव्याध भल्लेन धनुश्चिच्छेद तत्क्षणात् ।।६७।।

तब दूसरे धनुष को लेकर उस संजय ने भी तीन बाणों से वेध दिया। उसने उसी क्षण भल्ल से धनुष को काट दिया।।६७।।

शतान्यष्टौ च नागानां सहस्राणि च पञ्चषट् ।

पत्तीनां वाजिनां त्रीणि सहस्राणि समन्ततः ।। ६८ ।।

संजयो निर्जघानाशु बाणवर्षैः सुदारुणैः ।।६९।।

उसने शीघ्रतापूर्वक भयानक बाण वर्षा करके, आठ सौ हाथियों, पैंसठ हजार पत्तियों (पैदलों), तीन हजार घोड़ों को एक साथ ही मार दिया ।। ६९ ।।

अथान्यद्धनुरादाय रुमण्वान् कुपितो भृशम् ।

भल्लेन सारथेरस्य शिरः कायादपाहरत् ।। ७० ।।

तब रुमण्वान् ने भी बहुत अधिक क्रोधित हो, दूसरा धनुष लेकर उसके सारथी का सिर, धड़ से अलग कर दिया।।७०।।

हयांश्चास्य चतुर्भिस्तु बाणैर्निन्ये यमक्षयम् ।

चतुरः पंचभिर्बाणैरविध्यच्चापि सञ्जयम् ।। ७१ ।।

चार बाणों से घोड़ों को यमलोक में पहुँचा दिया और चार-पाँच बाणों से सञ्जय को भी वेध दिया ।। ७१ ।।

संजयोऽप्यतिवेगेन गदामादाय तत्क्षणात् ।

अवतीर्य रथोपस्थाद्रुमण्वन्तमधावत ।। ७२ ।।

सञ्जय भी उसी क्षण, अत्यन्तवेग से गदा लेकर रथ के उपस्थ से उतर कर रुमण्वन्त की ओर दौड़ पड़ा।। ७२ ।।

स धावन्तं सञ्जयं तं रुमण्वान् द्रुतहस्तवत् ।

शरवर्षेण सच्छाद्य वारयामास संजयम् ।।७३।।

रुमण्वान ने दौड़ते हुये संजय को हाथ की तेजी से शरवर्षा करके, ढक कर, रोक दिया ।।७३॥

गदायाः भ्रामणेनासौ निवार्य शरवर्षणम् ।

आससाद् रुमण्वन्तं केसरीव महागजम् ।। ७४ ।।

जैसे सिंह हाथी पर टूटता है, उसी तरह उसने गदा के भ्रमण से शरवर्षा को रोककर रुमण्वन्त पर गदा को फेंका।। ७४ ।।

आसाद्य तां गदां गुर्वीमाविध्यातीव सञ्जयः ।

एकेनैव प्रहारेण सरथं तं व्यपोथयत् ।। ७५ ।।

उस भारी गदा को फेंक कर संजय ने अत्यन्त घायल कर, एक ही प्रहार में रथ के सहित उस रुमण्वान् को मार डाला ॥ ७५ ॥

स पपात महावीरः पृथिव्यां गदया हतः ।

वज्रहतो यथा शाल: प्रफुल्लो वनमध्यगः ।।७६।।

बिजली के आघात से वन में जिस प्रकार खिला हुआ शाल का वृक्ष गिर जाता है, उसी प्रकार गदा के प्रहार से मारा गया वह महावीर (रुमण्वान्) पृथ्वी पर गिर गया ।। ७६ ॥

रुमण्वन्तं निपतितं दृष्ट्वा राजा सुदर्शनः ।

शोक- कोपसमाविष्टः सधूम इव पावकः ।।७७ ।।

जज्वालाकुलदेहोऽपि क्रोधेनातीव संयुतः ।

आरुह्य जवनैरश्वैर्युक्तं वैयाघ्रकृत्तिना ।।७८ ।।

रथं कांचन- चित्रांगं सिंहध्वज-विभूषितम् ।

आमुक्तो धनुरादाय विस्फार्य च पुनः पुनः ।

ससैन्यः सञ्जयं राजा समाद्रवत वेगवान् ।। ७९ ।।

अथास्य निशितैः शस्त्रैः सेनामग्रगतां भृशम् ॥८०॥

रुमण्वन्त को मारा गया देख कर राजा सुदर्शन, शोक और क्रोध से युक्त हो, धुएँ से युक्त अग्नि की भाँति शोभायमान हुए। वे राजा अत्यन्त क्रोध से युक्त ज्वाला से व्याकुल शरीर होकर, वैयाघ्रचर्म और हाथी के चमड़े से ढके, स्वर्णरचित, यूनानी घोड़ों से युक्त, सिंह की ध्वजा से सुशोभित रथ पर चढ़कर, कवच धारण कर, धनुष लेकर बार-बार टंकार करते हुए, सेना के सहित, बड़े वेग से सञ्जय की ओर चल पड़े।। ७७-८० ।।

न्यहनत् सकलां राजा मृगानिव मृगाधिपः ।

एकामक्षौहिणीमग्रगामिनीं विपुलौजसाम् ।। ८१ ।।

उस समय राजा ने अपने तीव्र बाणों से सेना के अग्रभाग में स्थित, बहुत अधिक – पराक्रम शालिनी एक अक्षौहिणी सेना को उसी प्रकार मार दिया जैसे सिंह अन्य मृगों को मार देता है ।। ८१ ॥

क्रोशद्वयेन न्यहनत् तमांसीव दिवाकरः ।

हत्वा चाक्षौहिणीमेकामासाद्य संजयं नृपः ।

बाणैः षष्ट्या तु विव्याध ध्वजमेकेन चिच्छिदे ।।८२॥

जैसे सूर्य अन्धकार को नष्ट कर देता है उसी प्रकार दो कोश क्षेत्र में विस्तृत एक अक्षौहिणी सेना को मारकर वह राजा, सञ्जय के निकट पहुँचा तथा छः बाणों सञ्जय को वेधा एवं एक से उसके ध्वज को काट डाला।। ८२ ॥

संजयोऽप्यथ विंशत्या हृदि विद्ध्वा सुदर्शनम् ।

ललाटे त्वेकबाणेन प्राविध्यत् कृतहस्तवत् ।। ८३ ।।

क्षुरप्रेणास्य कोदण्डं छित्त्वा राज्ञः प्रतापवान् ।

सारथिं दशभिर्बाणैः पुनर्विव्याध सञ्जयः ।। ८४ ।।

संजय ने भी बीस बाणों से राजा सुदर्शन के हृदय में प्रहार किया । ललाट में एक बाण से वेधा तथा क्षुरप्र से उस प्रतापी राजा का धनुष काट कर, उसे हाथ में धनुष पकड़े की भाँति कर दिया तत्पश्चात् उनके सारथि को भी उसने दश बाण मारे।। ८३-८४ ॥

कोदण्डमन्यमादाय तदा राजा सुदर्शनः ।

शरवर्षेण तीव्रेण ववर्षातीव सञ्जयम् ॥८५ ।।

तयोर्महदभूद्युद्धं मुनिविस्मयकारकम् ।

शस्त्रैरस्त्रैर्भृशं तीक्ष्णैर्बलिवासवयोरिव ।। ८६ ।।

तब राजा सुदर्शन दूसरा धनुष लेकर तीव्र बाण वर्षा से सञ्जय पर बरस पड़ा। उस समय उन दोनों में अत्यधिक तीखे शस्त्रास्त्रों से मुनियों को भी विस्मय में डालने वाला, बलि और इन्द्र के युद्ध की भाँति महान् युद्ध हुआ।। ८५-८६ ।।

ततः सुदर्शनो राजा भल्लेनास्य दृढं धनुः ।

चिच्छेद सारथिं चास्य जंघान निशितैः शरैः ।। ८७ ।।

तब राजा सुदर्शन ने भल्ल नामक बाण से उसके दृढ़ धनुष को काट दिया तथा अपने तीखे बाणों से सारथी को भी मार दिया ॥ ८७ ॥

स्वयं संयम्य वाहान् स सञ्जयः परवीरहा ।

धनुरन्यत् समादाय परिवार्य सुदर्शनम् ।।८८॥

विव्याध दशभिर्बाणैर्धनुरप्यच्छिनद् दृढम् ।। ८९ ।।

तब शत्रुओं को कष्ट देने वाले संजय ने, स्वयं घोड़ों को संयमित कर, दूसरा धनुष लेकर सुदर्शन को बाणों से ढक दिया तथा उसे दश बाणों से वेध दिया और उसके मजबूत धनुष को भी काट दिया ।। ८८-८९ ।।

शरासनान्तरं राजा समादाय सुदर्शन ।

सञ्जयस्य चतुर्वाहाञ्छरैर्निन्ये यमक्षयम् ।

मुष्टौ धनुश्च चिच्छेद तं च विव्याध पंचभिः ।। ९० ।।

तब राजा सुदर्शन ने दूसरा धनुष लेकर संजय के चार घोड़ों को यमलोक पहुँचा दिया, मुठिया पर से धनुष को काटकर पाँच बाणों से उसे भी वेध दिया ।। ९० ।।

विरथश्छिन्नवाहश्च सञ्जयः खड्गचर्मणी ।

आदाय सम्मुखं राज्ञोऽभ्यद्रवत् कुपितो भृशम् ।।९१ ।।

तब सञ्जय रथ से रहित हो, घोड़ों के मारे जाने पर, खड्ग और ढाल लेकर, बहुत अधिक क्रोधित हो, राजा सुदर्शन की ओर सामने से दौड़ा ॥११॥

तस्य चापं ततः खड्गं क्षुरप्रेणसुदर्शनः ।

द्विधा चिच्छेद भल्लेन चर्म चाप्यच्छिनत्तदा ।। ९२ ।।

तब सुदर्शन ने क्षुरप्र से उसके धनुष एवं खड्ग को दो भागों में काट दिया तथा भल्ल से उसके ढाल को भी काट दिया ।। ९२ ।।

अथ द्रुतं तदोपेत्य सञ्जयः स्यन्दनोत्तमम् ।

सुदर्शनस्य सूतं तु कराभ्यां पातयत् क्षितौ ।। ९३ ।।

इसके बाद सञ्जय ने तेजी से सुदर्शन के उत्तम रथ पर पहुँच कर, उसके सारथि को हाथों से पृथ्वी पर गिरा दिया।।९३।।

रथाभ्याशे गतस्यास्य सञ्जयस्य सुदर्शनः ।

शिरश्चिच्छेद खड्गेन ततोऽसौ न्यपतद् भुवि ।। ९४ ।।

स पपात तदा तस्य रथाभ्याशे महाबलः ।

कृत्तः परशुनाऽरण्ये पुष्पितः शालवृक्षवत् ।। ९५ ।।

सुदर्शन ने सञ्जय के रथ के निकट आ जाने पर उसके शिर को खड्ग से काट दिया। तब वह धरती पर गिर गया। उस समय वह महाबली, उस सुदर्शन के रथ के निकट वैसे ही गिर गया जैसे जंगल में फरसे से काटे जाने पर खिले हुए पुष्पों से युक्त शाल का पेड़ गिर पड़ता है।।९४-९५।।

सञ्जयं पतितं दृष्ट्वा विजयः क्रोधमूर्च्छितः ।

महता शङ्खनादेन नादयंस्तु नभः स्थलम् ।। ९६ ।।

रथेन स्वर्णचित्रेण व्याघ्रचर्मविराजिना ।

केतुना वृषभेणाथ योजनार्थोच्छ्रितेन च ।। ९७ ।।

नादयन् ककुभः सर्वा रथौघपरिवेष्टितः ।

विमुञ्चञ्छरवर्षाणि ससाद च सुदर्शनम् ।। ९८ ।।

सञ्जय को रणभूमि में गिरा हुआ देखकर विजय क्रोध से मूर्च्छित सा हो गया और अपने महान् शंखनाद से आकाश को गुँजाता हुआ, स्वर्णचित्रित, व्याघ्रचर्म से सुशोभित रथ से, जिस पर आधे योजन तक विस्तृत, वृषभ के चिन्ह का ध्वज फहरा रहा था, सभी दिशाओं को रथों के घेरे से ध्वनित करता हुआ, बाणों की वर्षा हुआ, वह, सुदर्शन के समीप पहुँच गया।।९६-९८।।

आसाद्य तं नृपं भूपो विजयः परवीरहा ।

हृदि विद्ध्वा त्रिभिर्बाणैस्तिष्ठतिष्ठेति चाब्रवीत् ।। ९९ ।।

उस राजा सुदर्शन के समीप पहुँच कर शत्रुपक्ष के वीरों को मारने वाले राजा विजय ने ठहरो - ठहरो कहते हुये, उसके हृदय को तीन बाणों से वेध दिया ॥ ९९ ॥

सुदर्शनोऽपि विजयं नदन्तं कुंजरोपमम् ।

दशभिर्निशितैर्बाणैर्विद्ध्वा चिच्छेद तद् धनुः ।। १०० ।।

सुदर्शन ने भी श्रेष्ठ हाथी के समान ध्वनि करते हुए, विजय को अपने दश तीखे बाणों से वेध कर, उसके धनुष को भी काट दिया ।। १०० ।।

अथैनं छिन्नधन्वानं जत्रुदेशे त्रिभिः शरैः ।

निर्भिद्याथ महानादं ननाद स सुदर्शनः ।। १०१ ।।

तब इस प्रकार से कटे हुए धनुष वाले उसके, जत्रुदेश (पसलियों) में तीन बाणों से भेदकर सुदर्शन, महान् नाद करता हुआ, गरजा ॥ १०१ ॥

सोऽन्यद्धनुः समादाय कंकपत्रैस्त्रिभिः शरैः ।

विव्याध हृदये वीरो विजयोऽपि सुदर्शनम् ।। १०२ ।।

उस वीर विजय ने भी दूसरा धनुष लेकर कंकपत्रयुक्त तीन बाणों से सुदर्शन के हृदय को वेध दिया ।। १०२ ।।

ततस्तन्नृपमुद्दिश्य महाशक्ति सुदीपिताम् ।

नागकन्यां कोपयुक्तां लेलिहानामिवातुलाम् ।। १०३ ।।

स्वर्णदण्डां सुतीक्ष्णाग्रां तैलधौतां सुनिर्मलाम् ।

समुद्यम्याथाचिक्षेप विजयः शात्रवं प्रति । । १०४।।

सुदर्शनस्य हृदयं सा शक्तिः प्रविवेश ह ।। १०५ ।।

तब उस राजा को लक्ष्य करके क्रोधित हो, जीभ लपलपाती, अतुलनीय नाग- कन्या के समान, सुन्दर चमकती हुई, सोने के दण्डवाली, सुन्दर और तीखे अग्रभागवाली, तैल में डुबोई गई, सुन्दर, निर्मल, महाशक्ति को उठाकर, विजय ने अपने शत्रु के प्रति फेंका और वह शक्ति, सुदर्शन के हृदय में प्रवेश कर गई ।। १०३-१०५ ॥

स विह्वलो रथोपस्थे ह्यधोवस्त्र उपाविशत् ।

तस्मिन् मोह समापन्ने नृपतौ च सुदर्शने ।। १०६ ।।

तस्याग्रतस्तथा पार्श्वे ये स्थितास्तत्र सैनिकाः ।

तान् सर्वानहनद्राजा क्षणमात्राद् द्विजोत्तमाः ।। १०७ ।।

हे द्विजों में श्रेष्ठजनों ! वह राजा सुदर्शन, उस शक्ति के प्रहार से विह्वल हो, रथ के पिछले भाग में नीचे मुँह करके बैठ गया। उस राजा सुदर्शन के मोहग्रस्त हो मूर्च्छित हो जाने पर, उसके आगे तथा पार्श्वभाग में जो सैनिक स्थित थे, राजा विजय ने उन सबको क्षणभर में ही मार डाला।। १०६-१०७।।

रथान् दशसहस्राणि तावन्त्येव च दन्तिनाम् ।

पंचविंशसहस्राणि वाजिनां च तरस्विनाम् ।

लक्षद्वयं तु पत्तीनां क्षणमात्रादपोथयत् ।। १०८ ।।

उसने दश हजार रथों और उतने ही हाथियों, पच्चीस हजार तीव्रगति वाले घोड़ों तथा दो लाख पत्तियों (पैदलों) को क्षणभर में ही नष्ट कर दिया ।। १०८ ।।

स तु लब्ध्वा ततः संज्ञां धनुरादाय वै दृढम् ।

शरवर्षेण विजयं ववर्ष स सुदर्शनः ।। १०९ ।।

तब उस सुदर्शन ने भी संज्ञा (चेतना) प्राप्त कर, हाथ में दृढ़धनुष लेकर शरवर्षा से विजय को भर दिया ।।१०९॥

निवार्य शरवर्षेण विजयं तु सुदर्शनः ।

भल्लेन कार्मुकं सज्यं तस्य चिच्छेद तत्क्षणात् ।। ११० ।।

सारथेस्तु शिरः कायाद् भल्लेनापाहरत् ततः ।

हयांश्च चतुरश्चास्य प्रेषयामास मृत्यवे ।। १११।।

तब अपनी बाणवर्षा से विजय को घेरकर सुदर्शन ने भल्ल नामक बाण को धनुष पर सजाकर, तत्काल उसके सारथि के सिर को भल्ल द्वारा धड़ से अलग कर दिया और चारों घोड़ों को भी मृत्यु के निकट भेज दिया ।। ११०-१११ ।।

अथैवं विरथं भूपं दशभिः कङ्कपत्रिभिः ।

विव्याध हृदये भूयो ननाद च सुदर्शनः ।। ११२ ।।

इस प्रकार रथहीन हुये राजा विजय के हृदय को सुदर्शन ने दश कंकपत्र वाले बाणों से वेध दिया तथा पुनः गर्जना किया ॥ ११२ ॥

सच्छिन्नधन्वा विरथो गदामादाय वेगवान् ।

विजयो विजयाकाङ्क्षी सुदर्शनमधावत् ।। ११३ ।।

और वह धनुष कट जाने से पर रथहीन हुआ, विजय की आकांक्षा रखने वाला विजय, गदा लेकर बड़ी तेजी से सुदर्शन की ओर दौड़ा ।। ११३ ॥

आपतन्तं महावीरं बाणवर्षैः सुदर्शनः ।

ववर्ष वर्षासु यथा वारिदः पृथिवीधरम् ।। ११४ ।।

उस आते हुये महावीर पर सुदर्शन ने बाणों की ऐसी वर्षा की जैसी वर्षाऋतु में पर्वतों पर, बादल वर्षा करता है।।११४।।

विजयः शरवृष्टिं तां प्राच्छाद्य स्वशरेण वै ।

गदया तं रथारूढमाससाद तु तत्क्षणात् ।। ११५ ।।

विजय ने उस बाणवर्षा को अपने बाणों से ढककर, रथ पर आरुढ़, उस सुदर्शन पर तत्काल गदा से प्रहार किया।।११५॥

आसाद्य तं महावीर्यं विजयोऽथ सुदर्शनम् ।

शीर्ष प्रहृत्य गदया पातयामास भूतले ।। ११६ ।।

विजय ने उस महाबलशाली सुदर्शन के निकट पहुँच कर, उसके सिर पर गदा से प्रहार कर, उसे धरती पर गिरा दिया ॥ ११६ ॥

गिरेः शृङ्गं यथा तुङ्गं वज्राशनिविदारितम् ।

तथा सुदर्शनो राजा दारितो गदयाऽपतत् ।। ११७ ।।

जैसे ऊँचा पर्वत शिखर वज्र और बिजली से विदीर्ण होकर ढहता है, उसी प्रकार राजा सुदर्शन गदा से विदीर्ण होकर गिर गया ।। ११७॥

तस्मिन्निपतिते वीरे सेनाभिस्तस्य सैनिकाः ।

भयात् संप्राद्रवंस्तस्माद् दिशश्च प्रदिशस्तथा ।। ११८ ।।

उस वीर के गिर जाने पर उस घटना से भयभीत हो, उसके सैनिक, सेना के सहित, दिशाओं और प्रदिशाओं में भाग गये ।। ११८ ।।

नष्टेषु तस्य सैन्येषु विजयः खाण्डवीं पुरीम् ।। ११९ ।।

प्रविश्य ददृशे तत्र राशीभूतान् गिरीनिव ।

सुवर्णानां च रत्नानां संचयान् बहुशः पुनः ।। १२० ।।

उस सुदर्शन की बहुत सी सेना के नष्ट हो जाने पर, विजय ने खाण्डवीपुरी में प्रवेश करके, सोने और रत्नों के बहुत प्रकार के, पर्वत की भाँति इकट्ठे हुए संग्रहों को देखा ।। ११९ - १२० ॥

दृष्ट्वा सरांसि तत्रैष प्रफुल्लकमलानि च ।

हंसकारण्डवानादैर्नादितानि समन्ततः ।। १२१ ।।

राशीन् सुवर्णरत्नानां पर्वतानिव विस्तृतान् ।

पुष्पितान् देववृक्षांश्च भ्रमद्भ्रमरभूषितान् ।। १२२ ।।

प्रासादान् विपुलाच्छुभ्रान् कैलाससदृशान् गजान् ।

प्रस्फुटांश्च सुगन्धाढ्यान् प्रतिगेहे व्यवस्थितान् ।। १२३ ।।

उत्फुल्लनयनो राजा विजयः परवीरहा ।

मेनेऽमरावतीं तां तु पुरीम् क्षितिगतामिव ।। १२४ ।।

वहाँ खिले हुए कमलों से सुशोभित और हंसकारण्डवों के आवाज से ओर गुंजायमान सरोवरों, पर्वतों के समान विस्तृत हुई स्वर्ण राशियों, घूमते हुये भौरों से युक्त पुष्पों से खिले हुये देववृक्षों, विस्तृत श्वेतमहलों, कैलाशपर्वत के सदृश ऊँचे हाथियों, सुगन्ध से युक्त प्रत्येक घरों में व्यवस्थित प्रस्फुटों (खिले हुए पुष्पों) को देखकर शत्रुवीरों को नष्ट करने वाले राजा विजय ने उस पुरी को पृथ्वी पर उतरी हुई, अमरावतीपुरी माना ।। १२१-१२४ ।।

तं वीक्षन्तं नरपतिं नगरी तां सुरेश्वरः ।

समेत्य विजयं प्राह सान्त्वयन् श्लक्ष्णया गिरा ।। १२५ ।।

उस समय, उस नगरी को देखकर विस्मित हुये राजा विजय के समीप आकर, उसे अपनी मधुरवाणी से सान्त्वना देते हुये, देवराज इन्द्र ने कहा - ।। १२५ ।।

।। इन्द्र उवाच ॥

राजन् महावनमिदमासीद् देवगणावृतम् ।

तच्च गन्धर्वयक्षाणां मुनीनां च मनोहरम् ।। १२६ ।।

सर्वानुत्सार्य देवादीन् मम चाप्यप्रियेरतः ।

भङ्क्तवा वनमिदं गुह्यमुत्साद्य च तपोधनम् ।। १२७ ।।

खाण्डवीं नगरी चक्रे हठाद्राजा सुदर्शनः ।

तदिदं पुनरेव त्वं वनं कुरु नरोत्तम ।। १२८ ।।

इन्द्र बोले - हे नरों में श्रेष्ठ राजा ! पहले यह स्थान देवगण, गन्धर्व, यक्ष और मुनियों से घिरा हुआ, एक महान (विशाल) और सुन्दर वन था किन्तु राजा सुदर्शन ने मेरा अप्रिय करते हुए, यहाँ के गुह्यों एवं तपश्वीजनों को यहाँ से बलपूर्वक निकाल कर, इस वन को नष्ट कर दिया और यहाँ खाण्डवी नाम की नगरी स्थापित की थी। इसलिए हे राजन् ! पुनः तुम इसे वन बना दो ।। १२६-१२७।।

तत्राहं विहरिष्यामि तक्षकेण समं रहः ।

मुनीनां च तपः स्थानमतुलं ते प्रसादतः ।

भविष्यति च यक्षाणां किन्नराणां च पार्थिव ।। १२९ ।।

हे राजन् ! वहाँ मैं तक्षक के साथ एकान्त में विहार करूँगा । तुम्हारी प्रसन्नता से यह यक्ष, किन्नरों तथा मुनियों की तपस्या का अतुलनीय स्थान हो जायेगा ।। १२९ ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य शक्रस्य विजयस्तदा ।

वनमेवाकरोत् तान्तं खाण्डवीं शक्रगौरवात् ।। १३० ।।

मार्कण्डेय बोले-तब देवराज, इन्द्र के उन वचनों को सुनकर विजय ने इन्द्र के उपर्युक्त कथन को गौरव देते हुये, उस नगरी को पुनः एक वन बना दिया।। १३०।।

गच्छन्तु भो यथास्थानं प्रजाः सर्वा यथेच्छया ।

येषां वाञ्छास्ति लोकानां मद्राज्यगमने पुनः ।

वाराणसीं ते गच्छन्तु मयैव प्रतिपालिताम् ।। १३१ ।।

"हे प्रजाजनों ! आप सब अपनी इच्छानुसार अपने-अपने स्थानों को चले जाओ किन्तु जिनकी मेरे राज्य में जाने की इच्छा हो, वे मेरे द्वारा प्रतिपालित वाराणसीपुरी में चले जायँ" ऐसा उसने प्रजाजनों से कहा ।। १३१ ।।

ततस्तस्य वचः श्रुत्वा जनाः केचिन्निजास्पदम् ।

जग्मुर्वाराणसीं केचिद् विजयेनाभिपालिताम् ।। १३२ ।।

तब उसके वचन को सुनकर कुछ लोग अपने स्थानों पर चले गये तो कुछ, राजा विजय द्वारा सब ओर से पाली गई, वाराणसीपुरी में चले गये ।। १३२ ॥

ततो धनानां तान् राशीन् रत्नानां च पृथक् पृथक् ।। १३३ ।।

मणीनां कनकानां च कुप्यानां विजयस्तथा ।

विविधैर्वारयामास पुरीं वाराणसीं प्रति ।। १३४ ।।

तब वहाँ के अनेक प्रकार के धन और रत्नों के समूह को सोने और देवमणिओं के कुप्पों के आकर्षण ने राजा को अलग-अलग वाराणसी जाने से रोका।। १३३ - १३४।।

गन्धर्वाणां च देवानां यदानीतं हठात् पुरा ।

रत्नदार्वादिकं यत् तु विजयं तत् प्रसाद्य च ।

तैस्तैर्नीतं च खाण्डव्याः स्वस्थानं प्रतिहर्षितैः ।। १३५ ।।

राजा सुदर्शन ने देवताओं और गन्धर्वो से जो-जो रत्न वृक्षादि बलपूर्वक पहले लाया था। उनके द्वारा वे विजय को प्रसन्न करके खाण्डवी से अपने स्थानों को ले जाये गये ॥ १३५॥

त्रिंशद् योजन विस्तीर्णा शतयोजनमायताम् ।

तां पुरीं विजयश्चक्रे नचिरादेव वै वनम् ।। १३६ ।।

तीस योजन चौड़ी और सौ योजन फैली हुई उस खाण्डवी नगरी को विजय ने शीघ्र ही वन बना दिया ।। १३६ ।।

तस्मिञ्छक्रस्य सम्मत्या तक्षकः सहितो गणैः ।

उवास सुचिरं तत्र ततोऽभून्निर्जनं वनम् ।। १३७।।

तत्र देवाः सगन्धर्वाः क्रीडन्तेऽप्सरसां गणाः ।

आशंसन्तश्च विजयं रणेषु विजयावहम् ।।१३८ ।।

उसमें इन्द्र की सम्मति से बहुत समय तक तक्षक, अपने गणों के साथ सुख से रहा, तब वह निर्जन वन हो गया। वहाँ देवता, गन्धर्वो के सहित अप्सराओं के साथ क्रीड़ा करते हुए, विजय के युद्ध में विजय प्राप्ति की अभिलाषा करते रहे ।। १३७-१३८ ।।

प्राप्तेऽष्टाविंशतितमे युगे द्वापरशेषतः ।

वह्निर्ब्राह्मणरूपेण भिक्षां जिष्णुमयाचत ।। १३९ ।।

अट्ठाइसवें युग (चतुर्युगी) के द्वापरयुग का अन्तिम समय प्राप्त होने पर अग्निदेवता ने ब्राह्मणरूप धारण कर अर्जुन से भिक्षा माँगी ।। १३९ ।।

दातुमङ्गीकृते भिक्षां तदा पाण्डुसुतेन वै ।

वह्निः स्वरूपमास्थाय जिष्णुं वचनमब्रवीत् ।। १४० ।।

तब पाण्डुपुत्र अर्जुन द्वारा भिक्षा देना स्वीकार कर लिये जाने पर अग्नि अपने यथार्थरूप में आकर अर्जुन से बोले - ॥ १४० ॥

।। अग्निरुवाच ।।

अहमग्निः पाण्डुपुत्र यज्ञभागातिभोजनात् ।

व्याधितोऽहं ततो व्याधिं मम त्वं नाशयाधुना ।। १४१ ।।

अग्नि बोलेहे पाण्डु के पुत्र अर्जुन ! मैं अग्नि हूँ, बहुत अधिक यज्ञभाग के भोजन से मैं रोगी हो गया हूँ। अतः आप इस समय मेरे रोग को नष्ट करें ।। १४१ ॥

खाण्डवं नाम विपिनं सपत्रिमृगराक्षसम् ।

यदि त्वं मां भोजयितुं शक्रोषि श्वेतवाहन ।। १४२ ।।

तदा मम हासौ व्याधिरपयास्यति नो चिरात् ।। १४३ ।।

हे श्वेतवाहन! यदि आप पशु-पक्षी और राक्षसों से युक्त, खाण्डववन का मुझे भोजन करा सको तो शीघ्र ही मेरी यह महाव्याधि दूर हो जायेगी ।। १४२-१४३।।

पुरा तु विजयो राजा खाण्डवीं नाम तां पुरीम् ।

भङ्क्तवा वन यतश्चक्रे तेन तत् खाण्डवं वनम् ।। १४४ ।।

मदर्थं देवविहितं वनं तु श्वेतवाहन ।

विरोधात् तत् तु शक्रस्य न स्वयं भोक्तुमुत्सहे ।। १४५ ।।

हे श्वेतवाहन ! प्राचीनकाल में विजय नामक राजा ने खाण्डवी नामक नगरी को नष्ट कर, वहाँ वन बना दिया था। इसीलिए वह, खाण्डव वन कहा जाता है। देवताओं ने वह वन मेरे लिए निर्धारित किया था किन्तु इन्द्र के विरोध के कारण मैं स्वयं उसका भोग नहीं कर सकता।। १४४ - १४५ ।।

तस्मात् त्राहि महाभाग वने तस्मिन्नियोजय ।

यथाहं सकलं भोक्तुं शक्नोमि त्वत्प्रसादतः ।। १४६।।

इसलिए हे महाभाग ! आप मेरी रक्षा करें और मुझे उस वन में नियोजित करें, जिससे आपके सहयोग से मैं सब कुछ भोग सकूँ।। १४६ ॥

॥ मार्कण्डेय उवाच ।।

तस्य तद्वचनं श्रुत्वा सव्यसाची महाबलः ।

दाहयामास विपिनं तत्सर्वं प्राणिसंयुतम् ।। १४७ ।।

मार्कण्डेय बोले- उस (अग्नि) के उस (उपर्युक्त) वचन को सुनकर महाबली सव्यसाची (अर्जुन) ने प्राणियों से युक्त, उस सम्पूर्ण वन को जला दिया ।। १४७ ।।

देवकीतनयेनासौ वासुदेवेन पालितः ।

खाण्डवं दाहयामास ज्वलनस्य हिते रतः ।। १४८ ।।

देवकीपुत्र कृष्ण से सुरक्षित हो, अग्निदेव के हित में लगे अर्जुन ने, खाण्डव- वन को जला दिया ।। १४८ ।।

सुप्रीतः प्रददौ तस्मादर्जुनाय महात्मने ।

वह्निर्धनुश्च गाण्डीवं वारुणं देवनिर्मितम् ।। १४९ ।।

अक्षय्ये चेषुधी र्दिव्ये रूपाढ्यांश्चतुरो हयान् ।

हनूमताधिष्ठितं तु महान्तं वानरध्वजम् ।। १५० ।।

खड्गं च त्रिशिखं तीक्ष्णं दहनः सव्यसाचिने ।

नीरोगश्चाभवद् वह्निस्तथा जिष्णुप्रसादतः ।। १५१।।

तब अर्जुन की कृपा से, अग्नि स्वस्थ हो गये तथा उन्होंने प्रसन्न होकर महात्मा अर्जुन को, अपना गाण्डीव धनुष, वरुण देवता का देवनिर्मित अक्षय तरकस, दिव्य रूपवान चार घोड़े, हनुमान से अधिष्ठित, वानरध्वजावाला महान् रथ, तीक्ष्णखड्ग, तीक्ष्ण त्रिशूल प्रदान किया ।। १४९-१५१ ।।

तैर्बाणैस्तेन धनुषा तेन खड्गेन केतुना ।

तदश्वस्यन्दनेनापि विजिग्ये फाल्गुनो रिपून् ।। १५२ ।।

उन अग्निप्रदत्त बाणों, उस धनुष, खड्ग, ध्वजा, घोड़े, रथ से युक्त हो, अर्जुन ने शत्रुओं को जीत लिया ।। १५२ ।।

एवं भैरववंशेषु सञ्जातो विजयो नृपः ।

खाण्डवं नाम विपिनं चकार सुमहाकृती ।। १५३ ।।

इस प्रकार का महान्यशस्वी और सुन्दर, विजय नामवाला राजा, भैरववंश में उत्पन्न हुआ, जिसने खाण्डव वन बसाया ।। १५३ ॥

विजयस्य सुता जातास्त्रयोदश महाबलाः ।

द्युतिमान् सौम्यदर्शी च भूरिः प्रद्युम्न एव च ।। १५४ । ।

क्रतुस्तुण्डो विरूपाक्षो विक्रान्तोऽथ धनंजयः ।

प्रहर्षः प्रबल: केतुस्तथोपरिचरोऽपरः ।। १५५ ।।

विजय के द्युतिमान, सौम्यदर्शी, भूरि, प्रद्युम्न, क्रतु, तुण्ड, विरूपाक्ष, विक्रान्त, धनंजय, प्रहर्ष, प्रबल, केतु और उपरिचर (द्वितीय) ये तेरह पुत्र उत्पन्न हुये ।। १५४-१५५ ।।

एषां राजाऽभवद् वीरः शेषोपरिचरस्तु यः ।

वाराणस्यां नगर्यां यो यज्ञलक्षं पुराऽकरोत् ।। १५६ ।।

इनमें अन्तिम उपरिचर नामक वीरपुरुष, राजा हुआ जिसने प्राचीनकाल में वाराणसी नगरी में लक्षयज्ञ किया था ।। १५६ ॥

लक्षयज्ञकरः कोऽपि नासीन्नापि भविष्यति ।

राजा क्षितौ महाभागो यथोपरिचरस्तथा । । १५७।।

राजा उपरिचर ने जैसा लक्षयज्ञ किया वैसा यज्ञ करने वाला इस पृथ्वी पर न कोई हुआ है, न होगा ।। १५७ ।।

एषां सूतिप्रसूतैश्च व्याप्तं सर्वमिदं जगत् ।

चिरेण तान् कः संख्यातुं शक्नोति भुवि मानुषः ।

क्रमाद् भैरववंशेन व्याप्तं लोकत्रयं त्विदम् ।। १५८।।

इनकी संतानों तथा उन सन्तानों की सन्तानों से ही यह समस्त संसार व्याप्त है। पृथ्वी पर कौन सा मनुष्य है जो शीघ्रता से इनकी गणना कर सके ? अर्थात् कोई नहीं है। क्रमशः भैरव के वंश से यह तीनों लोक व्याप्त हो गया ।। १५८ ॥

एतद् वः कथितं विप्राः सन्तानं भैरवस्य तु ।

येषां श्रुत्वा कथामात्रं नापुत्रो जायते नरः ।। १५९ ।।

हे ब्राह्मणों! आप लोगों से यह भैरव की सन्तानों का वर्णन किया गया, जिसकी कथा के सुननेमात्र से पुत्रहीन मनुष्य भी पुत्रवान् हो जाता है, उसके अपुत्र होने की बात कथा मात्र रह जाती है ॥ १५९ ॥

इदं यः कीर्तयेत् पुण्यं चरितं विजयस्य तु ।

सततं विजयस्तस्य जायते न पराभवः ।। १६० ।।

इस प्रकार से जो राजा विजय के इस पवित्र चरित्र का पाठ करता है, निरन्तर उसकी विजय होती है, कभी भी उसका पराभव नहीं होता ॥ १६० ॥

एकाग्रमनसा यस्तु शृणुयादिदमुत्तमम् ।

तस्य वंशस्य विच्छेदो न कदाचिद् भविष्यति ।। १६१ ।।

एकाग्र मन से जो इस उत्तम वर्णन को सुनेगा उसके वंश का नाश, कभी भी नहीं होगा ।। १६१ ॥

॥ इति श्रीकालिकापुराणे भैरववंशवर्णननाम एकोननवतितमोऽध्यायः ॥ ८९ ॥

श्रीकालिकापुराण में भैरववंशवर्णननामक नवासीवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। ८९ ।।

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 90  

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