कालिका पुराण अध्याय ६२

कालिका पुराण अध्याय ६२                      

कालिका पुराण अध्याय ६२ में कामाख्या का माहात्म्य और पूजा-पद्धति का वर्णन है ।

कालिका पुराण अध्याय ६२

कालिका पुराण अध्याय ६२                                       

Kalika puran chapter 62

कालिकापुराणम् द्विषष्टितमोऽध्यायः कामाख्यामाहात्म्यम् ( २ )

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ६२                        

।। भगवानुवाच ।।

कामार्थमागता यस्मान्मया सार्धं महागिरौ ।

कामाख्या प्रोच्यते देवी नीलकूटे रहोगता ।। १ ।।

श्रीभगवान् बोले- वे देवी महामाया, महान् नीलकूट पर्वत पर एकान्त में मेरे साथ कामहेतु पधारीं थीं इसीलिए उन्हें कामाख्या कहा जाता है ॥ १ ॥

कामदा कामिनी कामा कान्ता कामाङ्गदायिनी ।

कामाङ्गनाशिनी यस्मात् कामाख्या तेन चोच्यते ॥ २ ॥

वे काम प्रदान करने, कामयुक्त स्त्री कामिनी, कामरूपा, कान्ता (प्रिया), कामाङ्ग को प्रदान करने तथा कामाङ्ग को नष्ट करने वाली भी हैं। इसीलिए वे कामाख्या कही जाती हैं ॥ २ ॥

एतस्याः शृणु माहात्म्यं कामाख्यायाः विशेषतः ।

या सा प्रकृतिरूपेण जगत्सर्वं नियोजयेत् ॥ ३ ॥

अब इसके, विशेषकर कामाख्यादेवी के माहात्म्य को सुनो, जो सम्पूर्ण संसार को प्रकृतिरूप से अपने-अपने कर्मों में नियोजित करती हैं ॥ ३ ॥

मधुकैटभनाशाय महामायाविमोहितः ।

यदा संयुयुधे विष्णुस्तदैषामोहयद्धरिम् ।। ४ । ।

महामाया से विमोहित हो जब भगवान् विष्णु, मधु-कैटभ के नाश के लिए उन दोनों से युद्ध कर रहे थे, उस समय इन्हीं ने हरि को मोहित कर दिया था ॥४॥

दैनन्दिने तु प्रलये प्रसुप्ते गरुड़ध्वजे ।

तस्याः श्रवणविड्जातावसुरौ मधुकैटभौ ।।५।।

ब्रह्मा के मान से दैनन्दिन प्रलय के समय, जब गरुड़ध्वज, भगवान् विष्णु भली-भाँति सो गये थे। उस समय उनके कान के मल से मधु और कैटभ नाम के दो असुर उत्पन्न हुए ।।५।।

कूर्मपृष्ठे स्थिता देवी विशीर्णेवाभवज्जलैः ।

तां विशीर्णां योगनिद्रा महामाया व्यलोकयत् ।।६।।

कूर्मपृष्ठ पर स्थित पृथ्वी देवी उस समय जल के कारण सिकुड़ गई थीं। (डूब गई) थीं। तब उस संकटग्रस्त पृथ्वी को योगनिद्रा महामाया ने देखा ॥ ६ ॥

तां वै दृढतरां पृथ्वीं कर्तुं प्रति तदेश्वरी ।

उपायं चिन्तयामास कथं पृथ्वी भवेद्दृढा ।।७।।

उस पृथ्वी को अधिक दृढ़ करने हेतु उस देवी ने उपाय का विचार करना प्रारम्भ किया कि कैसे यह पृथ्वी अधिक दृढ़ हो ॥ ७ ॥

इदानीमाज्यवत् पृथ्वी प्रवृत्ता कोमला जलैः ।

सृष्टिकाले जनान् सोढुं कथं शक्ता भविष्यति ।।८।।

इस समय पृथ्वी कोमल हो, जल पर घी की भाँति स्थित है । वह सृष्टि के समय, प्रजा के भार को वहन करने में कैसे समर्थ होगी ? ॥ ८ ॥

इति संचिन्त्य सा माया जगतां सृष्टिरूपिणी ।

उपगम्य तदा विष्णुमाससाद सुनिद्रितम् ।।९।।

ऐसा सोचकर वे संसार सृष्टिरूपा माया तब, भली भाँति सोये हुए भगवान् विष्णु के समीप पहुँच गई ॥ ९ ॥

तंतु सुप्तं समासाद्य जगन्नाथं जगत्पतिम् ।

वामहस्तकनिष्ठाग्रं तस्य कर्णे न्यवेशयत् ।। १० ।।

उन जगत् के स्वामी, जगन्नाथ, विष्णु को सोता हुआ पाकर, बायें हाथ की कनिष्ठा अंगुली के नख के अगले भाग का उन्होंने उन (विष्णु) के कान में प्रवेश कराया ॥ १० ॥

निवेश्य नखराग्रेण प्रोद्धृत्य श्रावणं मलम् ।

चूर्णीचकार सा देवी योगनिद्रा जगत्प्रसूः ।

तत्कर्णमलचूर्णिभ्यो मधुर्नामासुरोऽभवत् ।। ११ ।।

उन जगत् जननी, योगनिद्रा देवी ने अपने नाखून के अग्रभाग को उनके कान में प्रवेश कराकर उनके कान के मैल को निकाला और उसे चूर्ण कर दिया। उस कान के मैल के चूरे से मधु नामक असुर उत्पन्न हुआ ॥ ११ ॥

ततो दक्षिणहस्तस्य कनिष्ठाग्रं तु दक्षिणे ।

कर्णे न्यवेशयद् देवी तस्मादप्युद्धृतं मलम् ।। १२ ।।

तच्चापि क्षोदयामास करशाखाद्वयेन तु ।

ततोऽभूत् कैटभो नाम बलवान् सोऽसुरो महान् ।। १३ ।।

तब देवी ने अपने दाहिने हाथ की कनिष्ठिका के अगले भाग का विष्णु के दाहिने कान में प्रवेश कराया और उससे भी मल (खोंट) निकाला। उसको भी उन्होंने अपनी दो अंगुलियों से मसला तो वह कैटभ नामक महान् बलवान् असुर हो गया ।।१२-१३।

उत्पन्नः स च पानार्थं यस्मान्मृगितवान्मधु ।

ततस्तस्य महादेवी मधुनामाकरोत्तदा ।। १४ ।।

उत्पन्नः कीटवद्भाति महामायाकरे यतः ।

ततोऽस्य कैटभं नाम महामाया तदाकरोत् ।। १५ ।।

जिसने उत्पन्न होते ही पहले पीने के लिए मधु की याचना की, इसीलिए देवी ने उसका नाम मधु किया। जो उत्पन्न होते ही, महामाया के हाथ पर कीड़े की भाँति दिखाई दे रहा था, महामाया ने उसका कैटभ नामकरण किया ।। १४-१५ ॥

तावुवाच महामाया युध्यतां हरिणा सह ।

युवां नो श्रद्धयेवात्र भवन्तौ निहनिष्यति ।। १६ ।।

युवां यदा प्रभाषेथे आवां विष्णो वधान भो ।

तदैवायं युवां हन्ता नान्यथा हरिरप्यथ ।। १७ ।।

तब (नामकरण के पश्चात्) देवी ने उन दोनों से कहा कि तुम दोनों विष्णु के साथ युद्ध करो। जब तक तुम दोनों उन पर श्रद्धा नहीं करोगे। वे तुम्हें मार नहीं सकते। जब तुम दोनों भगवान् विष्णु से कहोगे कि हे विष्णु ! तुम हमारा वध करो। तभी हरि तुम दोनों को मारेंगे अन्यथा नहीं ॥ १६-१७॥

महामायामोहितौ तौ विष्णुगात्रं तदा गतौ ।

भ्रममाणौ ददृशतुर्नाभिपद्मोत्थितं विधिम् ।। १८ ।।

तमूचतुस्तौ धातारं हनिष्यावोऽद्य त्वामिह ।

तं जागरय वैकुण्ठं यदि जीवितुमिच्छसि ।। १९ ।।

तब महामाया से विमोहित हो वे दोनों विष्णु के शरीर के समीप गये । वहाँ घूमते हुए, उन दोनों ने विष्णु के नाभि से निकले हुए कमल पर विराजमान, ब्रह्मा को देखा। तब उन दोनों भाइयों ने ब्रह्मा से कहा कि तुम यदि जीना चाहते हो तो इस विष्णु को जगाओ, अन्यथां आज हम दोनों, तुम्हें ही मार डालेंगे ।।१७-१८ ।।

ततो ब्रह्मा महामायां योगिनिद्रां जगत्प्रसूम् ।

प्रसादयामास तदा स्तुतिभिर्बहुभिर्भयात् ।। २० ।।

तब ब्रह्मा ने भयभीत हो, बहुत सी स्तुतियों द्वारा, जगत् को उत्पन्न करनेवाली, महामाया, योगनिन्द्रा को प्रसन्न किया ॥ २० ॥

चिरं स्तुताथ सा देवी ब्रह्मणा जगदात्मना ।

प्रसन्ना तरसा व्यग्रमुवाच च यथाविधि ।। २१ ।।

जब जगत्-आत्मा ब्रह्मा ने बहुत समय तक उस देवी की विधिपूर्वक स्तुति की तो वे झट से प्रसन्न हो गईं। उस समय घबराये हुये ब्रह्मा ने उन से उन्होंने पूछा ॥ २१ ॥

किमर्थं संस्तुता चाहं किं करिष्याम्यहं तव ।

तद् वद त्वं महाभाग करिष्याम्यहमद्य ते ।। २२ ।।

तुम्हारे द्वारा किस उद्देश्य से मेरी स्तुति की गई है ? मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ ? हे महाभाग ! तुम उसे बताओ। मैं आज तुम्हारे लिए, वह अवश्य करूँगी ॥ २२ ॥

ततस्तेन महामाया प्रोक्ता धात्रा महात्मना ।। २३ ।।

प्रबोधय जगन्नाथं यावत्तौ मां हनिष्यतः ।

सम्मोहय दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ ।। २४ ।।

तब उन महान् आत्मा वाले ब्रह्मा द्वारा महामाया से कहा गया- जब तक ये दोनों मुझे मार न डालें, तब तक आप जगन्नाथ (विष्णु) को प्रबोधित (जागृत) कर दें । तथा मधु-कैटभ नामक, इन दोनों भयानक असुरों को आप मोहित करें ।। २३-२४।।

इत्युक्ता सा तदा देवी ब्रह्मणा जगदात्मना ।

बोधयामास वैकुण्ठं मोहयामास तौ तदा ।। २५ ।।

तब जगदात्मा ब्रह्मा देवता द्वारा ऐसा कहे जाने पर उन देवी ने वैकुण्ठ (विष्णु) को, जागृत किया तथा उन दोनों दैत्यों को मोहित किया ।। २५ ।।

ततः प्रबुद्धः कृष्णस्तु ददर्श भयशालिनम् ।

ब्रह्माणं तौ तदा घोरावसुरौ मधुकैटभौ ।। २६ ।।

तब उस समय उठकर कृष्ण (विष्णु) ने भयभीत ब्रह्मा को तथा उन दोनों भयानक असुरों को देखा ॥२६॥

ततस्ताभ्यां स युयुधे ह्यसुराभ्यां जनार्दनः ।

नाशकद्धारितुं वीरावसुरौ मधुकैटभौ ।। २७।।

तब वे जनार्दन (विष्णु) उन दोनों असुरों से युद्ध करने लगे किन्तु मधु-कैटभ नामक उन दोनों वीरों को मारने में वे समर्थ नहीं हुये ॥ २७॥

अनन्तोऽपि फणाग्रेण तान्नोधर्तुं क्षमोऽभवत् ।

युध्यमानान् महावीरान् वैकुण्ठं मधुकैटभान् ।। २८ ।।

अनन्त (शेष नाग) भी अपने फन के अगले भाग से उन मधु-कैटभ नामक महान वीरों का उद्धार करते हुए, विष्णु को धारण करने में समर्थ नहीं हुए ॥२८॥

अथ ब्रह्मा शिलारूपां स्थितिशक्तिं तदाकरोत् ।

अर्धयोजनविस्तीर्णामर्धयोजनमायताम् ।। २९ ।।

तब ब्रह्मा ने आधे योजन चौड़ी तथा आधे योजन लम्बी एक वर्गाकार शिला के रूप में स्थितिशक्ति का निर्माण किया ।। २९ ।।

तस्यां शिलायां गोविन्दो युयुधे नृपसत्तम ।

सह ताभ्यां शिला सा तु प्रविवेश जलान्तरम् ।। ३० ।।

हे राजाओं में श्रेष्ठ ! जब उस शिला पर गोविन्द (विष्णु) ने उन दोनों असुरों के साथ युद्ध किया तो वह शिला भी जल में प्रवेश कर गई ॥३०॥

तस्यां तु शक्त्यां मग्नायां तोये स युयुधे हरिः ।

पञ्चवर्षसहस्राणि बाहुयुद्धैर्निरन्तरम् ।। ३१ ।।

उस शक्तिरूपी शिला के जलमग्न हो जाने पर भी भगवान् विष्णु, जल में ही निरन्तर पाँच हजार वर्षों तक उनसे बाहुयुद्ध (कुश्ती) लड़ते रहे ॥३१॥

यदा वै नाशकद् हन्तुं तौ विष्णुर्जगतां पतिः ।

परां चिन्तां तदावाप विधातापि भयात् ततः ।। ३२ ।।

जब वे जगत् के स्वामी, विष्णु उन दोनों को नहीं मार सके । तब उस समय ब्रह्मा भी भयवश अत्यन्त चिन्तित हो उठे ॥३२॥

ततस्तावेव तं विष्णुमूचतुर्बलदर्पितौ ।

पुनः पुनर्जगन्मातृ - महामाया - विमोहितौ ।। ३३ ।।

तब उन दोनों ने जगन्माता, महामाया से विमोहित हो अपने बल के अहंकारवश, बारम्बार भगवान् विष्णु से कहा ॥ ३३ ॥

तुष्टौ स्वस्त्यस्यवन्नियुद्धेन वरं वरय माधव ।

तवेष्टं सम्प्रदास्यावः सत्यमेतद् ब्रुवोऽधुना ।। ३४ ।।

हे माधव (विष्णु) ! तुम्हारा कल्याण हो । हम दोनों तुम्हारे इस युद्ध से सन्तुष्ट हुये। जो भी तुम्हारा अभीष्ट हो । वर मांग लो। वह हम तुम्हें इस समय देगें । यह सत्य है ॥३४॥

तयोस्तद्वचनं श्रुत्वा माधवो जगतां पतिः ।

उवाच तौ युवां वध्यौ भवतां मे महाबलौ ।

इति देहि वरं मह्यं दातव्यं यदि विद्यते ।। ३५ ।।

उन दोनों के उस वचन को सुनकर जगत् के स्वामी माधव (विष्णु) ने कहा तुम दोनों महाबली, मेरे द्वारा मारे जाओ । यदि कुछ वर देना चाहते हो तो मुझे यही वर दो ॥३५॥

।। तौ ऊचतुः ।।

तौ तदा प्राहतुर्नाशस्त्वत्तो नौ शोभनोऽधुना ।

तत्रावां जहि नो यत्र तोयं सम्प्रति विद्यते ।। ३६ ।।

तब उन दोनों दैत्यों ने कहा - इस समय तुम्हारे द्वारा हम दोनों का नाश उचित ही होगा। अतः इस समय जहाँ जल न हो वहीं तुम हम दोनों का वध करो ॥३६॥

तयोस्तद्वचनं श्रुत्वा माधवो जगतां पतिः ।

ब्रह्माणं मां च शीघ्रेण प्राहेदं चात्मसंज्ञया । ३७।।

उन दोनों की बातें सुनकर जगत् के स्वामी भगवान् विष्णु, मुझ (शिव) से और ब्रह्मा से अपनी आत्मसंज्ञा द्वारा शीघ्रतापूर्वक बोले ॥३७॥

तत्र स्थित्वा महाघोरौ हनिष्यामि महाबलौ ।। ३८ ।।

ब्रह्मशक्तिशिलां शीघ्रमुद्धृत्य प्रियतां यतः ।

आप दोनों इस ब्रह्मशक्तिशिला को शीघ्र ही ऊपर उठा कर धारण करो । जिससे मैं उस पर स्थित हो इन दोनों अत्यन्त भयानक और बलशाली असुरों को मार सकूँ ॥३८॥

ततो ब्रह्मा ह्यहं चैव उद्दधार शिलां तु ताम् ।। ३९ ।।

तस्यां मध्ये पूर्वभागे ह्यहं पर्वतरूपधृक् ।

ऊर्ध्वे स्थित्वा शिलां भित्त्वा प्रविवेश रसातलम् ।। ४० ।।

ऐशान्यामभवत् कूर्मः पर्वतश्चाग्रहीच्छिलाम् ।

वायव्यां च तथानन्तो नैऋत्यां च सुरेश्वरी ।। ४१ ।।

महामाया जगद्धात्री शैलरूपप्रधारिणी ।

आग्नेय्यां च तथा विष्णुरेकरूपेण संस्थितः ।। ४२ ।।

ब्रह्मशक्तिशिलां गृह्णन् भगवान् परमेश्वरः ।

मध्ये ब्रह्मा त्वहं चैव वाराहश्च तथापरः ॥४३॥

तब मैं और ब्रह्मा ने उस शिला को ऊपर उठाया। उस शिला के मध्यभाग पूर्वदिशा में मैं (शिव) पर्वतरूप में शिला पर स्थित हो उसे भेद कर रसातल तक पहुँच गया। ईशानकोण में कूर्म ने पर्वतरूप धारणकर उस शिला को पकड़ा तो वायव्यकोण में अनन्त (शेषनाग) और नैऋत्य कोण में देवताओं की स्वामिनी, जगत् का पालन करने वाली, महामाया ही पर्वतरूप में उपस्थित हुईं। अपने एक रूप से पर्वतरूप में स्वयं परमेश्वर भगवान् विष्णु ने अग्निकोण में स्थित हो, उस ब्रह्मशक्तिशिला को सँभाला। उस समय मध्य में मैं, ब्रह्मा और वाराह ने उसे रोका ।। ३९-४३।।

ततो वाराहपृष्ठास्य चरमे जगतांपतिः ।

स्थित्वा शिलामवष्टभ्य ब्रह्मशक्तिमधोगताम् ।। ४४ ।।

वामोरुजघने यत्नादारोप्य शिरसी तयोः ।

जगदाधारभूतः स सर्वयत्नेन संयुतः ।। ४५ ।।

सर्वैर्बलैः समाक्रम्य चिछेद च पृथक् पृथक् ।

मधुकैटभयोः सम्यग् ग्रीवयोः पृथिवीमृते ।। ४६ ।।

तब वाराह की पीठ के चरम भाग (शिखर पर) स्थित हो, जगत् के स्वामी, विष्णु ने नीचे जाती हुई ब्रह्मशिला को पकड़ा तथा उन दोनों दैत्यों के सिर को अपने बायें जंघे और टखने पर यत्नपूर्वक रखा। तब जगत् के आधारभूत उन विष्णु ने सब प्रकार के प्रयत्न और बलों से युक्त हो, वहाँ उन दोनों मधु और कैटभ के गले को अच्छी तरह से अलग-अलग काट डाला ।।४४-४६ ।।

तस्य चाक्रमत स्थेम्ना ब्रह्मशक्तिरधोगता ।

ध्रियमाणापि देवौघैर्यनादपि मुहुर्मुहुः ।। ४७ ।।

उन विष्णु के शिला पर आरूढ़ हो जाने पर समस्त देवसमूह द्वारा बार-बार प्रयत्नपूर्वक धारण किये जाने पर भी ब्रह्मशक्तिशिला जल में नीचे चली गई ॥४७॥

ततस्तयोस्तु मृतयोः शरीरे जगतां पतिः ।

ब्रह्मशक्तिं समुद्धृत्य न्यधात् तस्यां प्रयत्नतः ।।४८ ।।

तब जगत् के स्वामी, विष्णु ने ब्रह्मशक्तिशिला को ऊपर लाकर, उन दोनों दैत्यों के मृत शरीर को यत्नपूर्वक उस पर रखा ॥४८॥

उद्धृतायां पृथिव्यां तु तयोर्मेदोविलेपनैः ।

सुदृढामकरोत् पृथ्वीं क्लेदितां तोयराशिभिः ।। ४९ ।।

जलराशि से भींगी हुई पृथिवी को ऊपर उठाकर, उन दोनों के मेदे के लेपन से भगवान विष्णु ने उसे सुदृढ़ किया ॥ ४९ ॥

मेदोविलेपनाद् यस्माद् गीयते मेदिनी च सा ।

अद्यापि पृथिवी देवी देवराक्षसमानुषैः ।। ५० ।।

उसमे से विलेपन (लिपे जाने) के कारण ही देवता, राक्षस और मनुष्यों द्वारा आज भी वह पृथिवीदेवी, मेदिनी नाम से पुकारी जाती हैं ॥ ५० ॥

अथ काले बहुतिथे व्यतीते प्राणिसर्जने ।

अगृह्णां दक्षतनयां भार्यार्थेऽहं वधूं वराम् ।। ५१ ।।

इस घटना के बहुत समय बीत जाने और सृष्टि प्रक्रिया पूर्ण हो जाने पर मैंने दक्षप्रजापति की श्रेष्ठ कन्या, सती को पत्नी हेतु, वधू के रूप में ग्रहण किया ॥ ५१॥

सा मेऽभूत् प्रेयसी भार्या प्रादाय समयं पितुः ।

अनिष्टकारी त्वं चेत् स्याः प्राणांस्त्यक्ष्ये तदा त्वहम् ।। ५२ ।।

वह अपने पिता से यह वचन लेकर मेरी प्रियपत्नी बनी, कि जब तुम मेरे लिए कोई अनिष्ट करोगे। तो मैं अपना प्राण छोड़ दूँगी ॥ ५२ ॥

ततो यज्ञे समस्तांस्तु स च वव्रे चराचरम् ।

न मां नापि सतीं वव्रे तदानीष्टान्मृता तु सा ।। ५३ ।।

तत्पश्चात् एक यज्ञ में दक्षप्रजापति ने समस्त चराचर जगत् को आमन्त्रित किया किन्तु उस समय न तो मुझे और न सती को ही आमन्त्रित किया। तब इस अनिष्ट के कारण वह सती, मर गई ॥ ५३ ॥

ततो मोहं समाक्रान्तस्तमादाय मृतामहम् ।

प्राप्तः पीठवरं तं तु भ्रममाण इतस्तत: ।।५४।।

तो मोहग्रस्त हो, मैं उस मरी हुई सती को लेकर इधर-उधर घूमता हुआ, इस श्रेष्ठपीठ (पूजा स्थान) पर पहुँचा ॥ ५४ ॥

तस्यास्त्वङ्गानि पर्यांयात् पतितानि यतो यतः ।

तत् तत् पुण्यतमं जातं योगनिद्राप्रभावतः । । ५५ ।।

योगनिद्रा के प्रभाव से जहाँ-जहाँ उसके अङ्ग, क्रमशः गिरे थे, वे पवित्रतम (पीठ) स्थान हो गये ॥५५॥

तस्मिंस्तु कुब्जिकापीठे सत्यास्तद्योनिमण्डलम् ।

पतितं तत्र सा देवी महामाया व्यलीयत ।। ५६ ।।

उसमें भी कुब्जिकापीठ, जहाँ सती का योनिमण्डल गिरा था। वहीं वह देवी, महामाया, लीन हो गईं ।। ५६ ।।

लीनायां योगनिद्रायां मयि पर्वतरूपिणी ।

सनीलवर्णः शैलोऽभूत्पतिते योनिमण्डले ।।५७ ।।

योगनिद्रा के पर्वतरूप से मुझ में लीन हो जाने तथा वहाँ योनिमण्डल के गिरने से वह पर्वत, नीले रंग का हो गया॥५७॥

स तु शैलो महातुङ्गः पातालतलमाविशत् ।

तस्या आक्रमणाद्गाढं ह्यन्तस्थं दुहिणो ह्यधात् ।। ५८ ।।

उसके अत्यधिक गिरने से, वह अति ऊँचा पर्वत, पाताल में चला गया। उस- समय उसके अन्तर में स्थित ब्रह्मा ने उसे धारण किया ॥ ५८ ॥

स तु पूर्वं ब्रह्मशक्तिशिलां धर्तुं चतुर्मुखः ।

शैलरूपोऽभवत् तेन शैलरूपेण मामधात् ।। ५९ ।।

चतुर्मुख ब्रह्मा, पहले ही ब्रह्मशक्तिशिला को धारण करने के लिए पर्वत- रूप हो चुके थे। उसी पर्वतरूप से उन्होंने उस समय मुझे धारण किया ।। ५९ ।।

ब्रह्मापर्वतरूपी स मयि पर्वतरूपिणी ।

सशक्तोऽधोऽगमद् गाढमाक्रान्तो मायया विधेः ।। ६० ।।

वह पर्वतरूपधारी ब्रह्मा, पर्वतरूप में स्थित मेरे साथ, विधाता की माया के कारण, मुझसे जुड़े ही, भारी बोझ से नीचे चलते गये ॥ ६० ॥

ततो वाराहः संसक्तो मयि मां संतु माधवः ।

शैलरूपः शैलरूपं धर्तुं समुपचक्रमे ।।६१॥

तब वराह जो पर्वतरूप में माधव ही थे, मुझे शैलरूप में धारण करने (रोकने) का यत्न किये ॥ ६१ ॥

सोऽप्यधोsयान्मया सार्धं तदा पर्वतरूपिणीम् ।

आक्रम्य देवीं पृथिवीं स्थितो भुवि निखानितः ।। ६२ ।।

पृथ्वी को धारण करते, जब पर्वतरूपी वे भी नीचे जाने लगे तो उन्होंने पृथ्वी पर चढ़कर उसे गाड़ दिया ॥ ६२ ॥

शतं शतं योजनानां तुङ्गमासीद् गिरित्रयम् ।

तदाक्रान्तं महादेव्या सर्वमेव ह्यधोगतम् ।

क्रोशमात्रस्थितं तुङ्गशेषं तत्त्रितयस्य तु ।। ६३ ।।

वे तीनों पर्वत सौ-सौ योजन ऊँचे थे। उस समय महादेवी से आक्रान्त सभी नीचे चले गये और धरती के ऊपर ऊन तीनों की एक कोसमात्र ही ऊँचाई शेष रह गई ॥ ६३ ॥

एका समस्तजगतां प्रकृतिः सा यतस्ततः ।

ब्रह्मविष्णुशिवैर्देवैर्धृता सा जगतां प्रसूः ।। ६४ ।।

वह अकेले ही समस्त जगत् की मूलप्रकृति है, इसीलिए जगत् को उत्पन्न करने वाली, वह पृथ्वीरूपिणी देवी, ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि द्वारा धारण की गंई ॥ ६४ ॥

तत्र पूर्वो ब्रह्मशैलः श्वेत इत्युच्यते सुरैः ।

मद्रूपधारी शैलस्तु नील इत्युच्यते तथा ।। ६५ ।।

स तु मध्यगतः पीठस्त्रिकोणोलूखलाकृतिः ।

विभ्राजमानः सततं मध्ये ब्रह्मवराहयोः ।। ६६ ।।

प्रथम ब्रह्मशैल देवताओं द्वारा श्वेतपर्वत कहा जाता है। मेरे द्वारा रूप धारण किया गया पर्वत, नीलपर्वत कहा जाता है। वह मध्यवर्ती त्रिकोण में, उलूखल के आकार में ब्रह्मपर्वत और वाराहपर्वत के मध्य में निरन्तर शोभायमान होता है । ६५-६६ ॥

वराहः शैलरूपो यः स चित्र इति कथ्यते ।

सर्वेषां संस्थितः पश्चाद् दीर्घः सर्वेभ्य एव तु ।। ६७ ।।

जो पर्वतरूपधारी वाराह है व चितकबरे रंग का कहा गया है। यह सबके पश्चात स्थित है और सभी से लम्बा (ऊँचा) है ॥६७॥

ऐशान्यां योऽभवत् कूर्मः शैलरूपो महाद्युतिः ।

मणिकर्णः स नाम्ना तु ख्यातो देवौघसेवितः ॥६८॥

ईशानकोण में जो अत्यन्त आभायुक्त, शैलरूपधारी, कूर्म स्थित है, वह मणिकर्ण नाम से प्रसिद्ध तथा देवसमूह से सेवित है ॥ ६८ ॥

योऽनन्तरूपः शैलस्तु वायव्यां समवस्थितः ।

मणिपर्वतसंज्ञोऽसौ पर्वतो माधवप्रियः ।। ६९ ।।

जो अनन्त, शैलरूप में स्थित हैं। वह क्षेत्र के वायव्यकोण में समवस्थित है । उसका नाम मणिपर्वत है तथा वह पर्वत, माधव को प्रिय है ॥ ६९ ॥

महामाया गिरिर्यस्तु नैर्ऋत्यां समवस्थितः ।

स गन्धमादनो नाम्ना सर्वदा शङ्करप्रियः ।।७० ।।

महामाया का जो पर्वतरूप है, वह क्षेत्र के नैर्ऋत्यकोण में भली भाँति स्थित है । वह गन्धमादन नामवाला है तथा शङ्कर को सर्वदा प्रिय है ।। ७० ॥

वराहपृष्ठचरमे यतश्छिन्नौ महासुरौ ।

हरिणा तत्र संयातः पाण्डुनाथ इति स्मृतः ।।७१ ।।

वाराह पृष्ठ के शिखर पर जहाँ भगवान् विष्णु द्वारा मधु-कैटभ नामक महान् असुरों का सिर काटा गया था। वह पाण्डुनाथ के नाम से स्मरण किया जाता है ॥ ७१ ॥

ब्रह्मशक्तिशिलायास्तु पूर्वभागे तु मध्यतः ।

यस्तु पर्वतरूपोऽहं स तु भस्मचलाह्वयः ।।७२।।

ब्रह्मशिला के मध्य से पूर्वभाग में, जो मैं पर्वतरूप में स्थित हूँ। वह भस्माचल नाम से पुकारा जाता है।७२ ॥

एवं पुण्यतमे पीठे कुब्जिकापीठसंज्ञके ।

नीलकूटे मया सार्धं देवी रहसि संस्थिता ।। ७३ ।।

इस प्रकार के कुब्जिकापीठ नामक पवित्रतम पीठ, नीलकूट पर एकान्त में मेरे साथ देवी स्थित रहती हैं ।।७३॥

सत्यास्तु पतितं तत्र विशीर्णं योनिमण्डलम् ।

शिलात्वमगमच्छैले कामाख्या तत्र संस्थिता ।।७४ ।।

सती का जलकर नष्ट हुआ योनिमण्डल जहाँ गिरा था एवं शिलारूप को प्राप्त हुआ था। वहीं कामाख्या देवी स्थित रहती हैं ॥ ७४ ॥

संस्पृश्यतां शिलां मर्त्यो ह्यमरत्वमवाप्नुयात् ।

अमर्त्यो ब्रह्मसदनं तत्स्थो मोक्षमवाप्नुयात् ।। ७५ ।।

उस शिला को भली-भाँति स्पर्श करके मरणधर्मा प्राणी, अमरत्व, देवत्व प्राप्त कर लेता है । तथा अमर्त्य (देवता) ब्रह्मलोक को जाते हैं और वहाँ रहकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं ।।७५ ॥

तस्याः शिलायाः माहात्म्यं यत्र कामेश्वरी स्थिता ।

अद्भुतं यस्य गुह्ये तु लोहं भस्म भवेद्गतम् ।।७६ ।।

जहाँ कामेश्वरी निवास करती हैं। उस शिला का अद्भुत माहात्म्य हैं। जिसके गुह्यभाग में लोहा भी भस्म (राख) हो जाता है।

सा चापि प्रत्यहं तत्र पञ्चमूर्तिधराभवत् ।

मोहार्थं सर्वलोकानां ममापि प्रीतये शिवा ।। ७७ ।।

वे शिवा (कामेश्वरी) भी, मेरी प्रसन्नता एवं सभी लोकों को मोहित करने के लिए प्रति दिन पाँच रूप धारण करने वाली होती हैं ।। ७७ ॥

अहं पञ्चमुखेनाशु पञ्चभागे व्यवस्थितः ।

ईशानः पूर्वभागस्थः कामेश्वर्याः प्रधानतः ।।७८ ।।

ऐशान्यां वै तत्पुरुषो ह्यघोरस्तस्य सन्निधौ ।

सद्योजातोऽथ वायव्यां वामदेवस्तु सङ्गतः ।। ७९ ।।

मैं भी अपने पाँचमुखों से उनके पाँचो भागों में व्यवस्थित हूँ। मैं पूर्व- भाग में जहाँ प्रधानदेवी कामेश्वरी स्थित हैं, वहाँ ईशान, ईशानकोण में तत्पुरुष और उसी के निकट अघोर, वायव्यकोण में सद्योजात तथा उसी से लगा हुए वामदेव के नाम से स्थित हूँ ।। ७८-७९ ॥

देव्याश्चापि नरश्रेष्ठ पञ्चरूपाणि भैरव ।

शृणु वेताल गुह्यानि देवैरपि सदैव हि ।। ८० ।।

कामाख्या त्रिपुरा चैव तथा कामेश्वरी शिवा ।

शारदाथ महालोका कामरूपगुणैर्युता ।। ८१ ।।

हे मनुष्यों में श्रेष्ठ, वेताल और भैरव ! अब देवी के भी पाँच रूपों को तुम दोनों सुनो जो देवताओं के लिए भी सदैव गुप्त हैं, देवी के वे पाँचरूप, कामाख्या, त्रिपुरा, कामेश्वरी (शिवा), शारदा और महालोका हैं, जो इच्छानुसार रूप धारण करने के गुणों से युक्त हैं ॥८०-८१ ॥

मयि लिङ्गत्वमापन्ने शिलायां योनिमण्डले ।

सर्वे शिलात्वमगमच्छैलरूपाश्च निर्जराः ।।८२॥

मेरे द्वारा लिङ्गरूप धारण करने तथा योनि-मण्डल द्वारा शिलारूप धारण करने पर, सभी देवता शिलारूप में आ गये और उन्होंने पर्वत का रूप धारण कर लिया ॥८२॥

यथाहं निजरूपेण रेमे वै सह कामया ।

शिलारूपप्रतिच्छन्नास्तथा सर्वास्तु देवताः ।। ८३ ।।

शिलारूपप्रतिच्छन्नाः शैले शैले व्यवस्थिताः ।

रमन्ते च स्वरूपेण नित्यं रहसि सङ्गताः ।। ८४ ।।

जैसे मैं कामेश्वरी के साथ शिलारूप में गुप्त रहने के बाद भी अपने यथार्थ- रूप में रमण करता हूँ वैसे ही प्रत्येक पर्वतों पर स्थित और शिलारूप में अपने को छिपाये हुए सभी देवता भी, अपने-अपने स्वरूप के द्वारा एकान्त में मिलकर सम्पर्क करते हैं ।।८३-८४।।

ब्रह्मा विष्णुर्हरश्चात्र दिक्पालाः सर्व एव ते ।

अन्येऽप्यत्र स्थिता देवाः सानुकूलाः सदा मयि ।। ८५ ।।

उपासितुं तदा देवी कामाख्यां कामरूपिणीम् ।। ८६ ।।

ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं सभी दिक्पाल और भी अन्य देवता, सदैव मेरे अनुकूल होकर कामरूपिणी कामाख्या देवी की उपासना के लिए वहाँ उपस्थित रहते हैं ।। ८५-८६ ॥

नीलशैलत्रिकोणस्तु मध्यनिम्नः सदाशिवः ।

तन्मध्ये मण्डलं चारु त्रिंशच्छक्तिसमन्वितम् ।। ८७ ।।

नीलाचल, त्रिकोणात्मक है और मध्यम में गहरा है। वह शिव का ही स्वरूप है । उसके मध्य में तीस शक्तियों से युक्त एक सुन्दर मण्डल है ॥८७॥

गुहा मनोभवा तत्र मनोभवविनिर्मिता ।

योनिस्तस्यां शिलायां तु शिलारूपा मनोहरा ।

वितस्तिमात्रविस्तीर्णा एकविंशाङ्गुलीयुता ।।८८॥

वहाँ मनोभव (कामदेव) के द्वारा बनाई गई एक मनोभव गुहा है। जिसमें, शिला में, शिलारूप में एक मनोहर योनि है। जो एक विततस्ति (बीता १२ अङ्गुल) चौड़ी, इक्कीस अङ्गुल लम्बी है ॥८८॥

क्रमसूक्ष्मविनम्र सा भस्मशैलानुगामिनी ।

महामाया जगद्धात्री मूलभूता सनातनी ।।८९।।

सिन्दूरकुङ्कुमारक्ता सर्वकामप्रदायिनी ।

तस्यां योनौ पञ्चरूपा नित्यं क्रीडति कामिनी ।। ९० ।।

यह क्रमशः सङ्कीर्ण और झुकती हुई (ढालुई होकर), भस्म शैल तक जाती है । यह सिन्दूर या कुङ्कुम के रंग की लाल है, यह सभी कामनाओं को पूरी करने वाली है। उस योनि पर महामाया, जगत् का पालन करने वाली, मूलभूता (मूल प्रकृति), सनातनी, निरन्तर विद्यमान रहने वाली, कामिनी (कामाख्या देवी, अपने पाँचरूपों में स्थित हो, नित्य क्रीड़ा करती हैं ॥। ८९-९०॥

तत्राष्टौ योगिनीर्नित्या मूलभूताः सनातनी ।

पूर्वोक्ताः शैलपुत्र्याद्याः स्थिता देव्याः समन्ततः ।। ९१ ।।

वहाँ पहले बताई गई शैलपुत्री आदि मूलभूत, सनातनरूप से स्थित आठ योगिनियाँ, देवी के चारों ओर, नित्य स्थित रहती हैं ॥ ९१ ॥

तासां तु पीठनामानि शृणु चैकत्र भैरव ।

गुप्तकामा च श्रीकामा तथान्या विन्ध्यवासिनी ।। ९२ ।।

कोटीश्वरी वनस्था तु पाददुर्गा तथापरा ।

दीर्घेश्वरी क्रमादेव प्रकटा भुवनेश्वरी ।। ९३ ।।

हे भैरव ! उन योगिनियों एवं पीठों के नाम एक साथ सुनो। वे गुप्तकामा, श्रीकामा, विन्ध्यवासिनी, कोटीश्वरी, वनस्था, पाददुर्गा, दीर्घेश्वरी और इसी क्रम में प्रकटा भुवनेश्वरी हैं ।। ९२-९३ ।।

स्वयोगिन्यः पीठनाम्ना ख्याता अष्टौ च देवताः ।

सर्वतीर्थानि चैकत्र जलरूपाणि भैरव ।। ९४ ।।

स्थितानि नाम्ना सौभाग्यसरस्यल्पापि पुण्यदा ।

विष्णुस्तु तीरे तस्यास्तु नाम्ना कमल इत्युत ।। ९५ ।।

हे भैरव ! ये आठ देवता (देवियाँ), अपने-आप में योगिनियाँ ही हैं । जो पीठ- नानों से प्रसिद्ध हैं। यहाँ सभी तीर्थ, जल रूप में समन्वित हो, सौभाग्य-सरसी के नाम से स्थित हैं जो छोटा होने पर भी अत्यन्त पुण्यदायिनी है । इस सरसी के तट पर भगवान् विष्णु, कमल नाम से स्थित रहते हैं ।। ९४-९५ ।।

कामुकाख्यस्तु बटुकः कामाख्याभ्यर्णसंस्थितः ।

लक्ष्मीः सरस्वती देव्यौ देव्याः सङ्गे व्यवस्थिते ।। ९६ ।।

ललिताख्याभवल्लक्ष्मीर्मातङ्गी तु सरस्वती ।

गणाध्यक्षः पूर्वभागे तस्य शैलस्य संस्थितः ।

सिद्धः स नाम्ना विख्यातो द्वारे देव्याः प्रियः सुतः ।। ९७ ।।

कामुक नामक बटुक, कामाख्या के निकट स्थित रहता है, लक्ष्मी और सरस्वती देवियाँ, महामाया देवी के साथ ही स्थित रहती हैं। लक्ष्मी, यहाँ ललिता नाम से तथा सरस्वती, मातङ्गी नाम से स्थित हैं। उस पर्वत के पूर्वभाग में द्वार पर देवी के प्रियपुत्र गणाध्यक्ष, सिद्ध नाम से भली-भाँति स्थित हैं ।। ९६-९७ ॥

कल्पवृक्षः कल्पवल्ली तिन्तिडी चापराजिता ।

भूत्वा तस्मिन् महाशैले स्थितो देव्या घृतः प्रिये ।। ९८ ।।

देवी के प्रियरूप धारण किया हुआ कल्पवृक्ष, उस महान् पर्वत पर इमली

वराहः पाण्डुनाथाख्यः स्थितस्तत्र हरिर्यतः ।

का वृक्ष तथा कल्पवल्ली, अपराजितालता होकर स्थित हैं ॥ ९८ ॥

जघने शिरसी कृत्वा जघान मधुकैटभौ ।। ९९ ।।

वाराह, वहाँ पाण्डुनाथ नाम से स्थित हैं। क्योंकि विष्णु ने वहाँ मधु-कैटभ नामक दैत्यों के सिर को अपने टखने पर रखकर, उन्हें मारा था ॥ ९९॥

तस्यासन्ने ब्रह्मकुण्डं ब्रह्मणानिर्मितं पुरा ।

ईशानाख्यः शिवो यत्र तत् सिद्धेश्वरसंज्ञकम् ।

शिलारूपं सिद्धकुण्डं मध्यस्थं विद्धि भैरव ।। १०० ।।

हे भैरव ! उसी के समीप प्राचीनकाल में ब्रह्मा द्वारा निर्मित ब्रह्मकुण्ड नामक एक सरोवर है। जहाँ ईशान नामक शिव, शिलारूपी हो सिद्धकुण्ड के मध्य स्थित हैं। जिन्हें सिद्धेश्वर नाम से जाना जाता है ।। १०० ॥

तस्यासन्ने गयाक्षेत्रं क्षेत्रं वाराणसी तथा ।। १०१ ।।

योनिमण्डलसंकाशं कुण्डं भूत्वा व्यवस्थितम् ।। १०२ ।।

उसी के निकट गया और वाराणसी क्षेत्र, योनिमण्डल के निकट कुण्डरूप में विशेषरूप से स्थित हैं।।१०१-१०२॥

तत्रैवामृत कुण्डं तु सुधासङ्घप्रपूरितम् ।

मम प्रियार्थमिन्द्रेण स्थापितं सह निर्जरैः ।। १०३ ।।

वहीं देवताओं के सहित इन्द्र द्वारा मेरी प्रिया, कामाख्या के लिए सुधा (अमृत) समूह से भरा हुआ, अमृत-कुण्ड स्थापित है ॥ १०३ ॥

वामदेवाह्वयं शीर्ष श्रीकामेश्वरसंज्ञकम् ।

कामकुण्डं महापुण्यं तस्यासन्ने व्यवस्थितम् ।। १०४ ।।

जो वामदेव नामक मेरा सिर है, वह श्रीकामेश्वर नाम से प्रसिद्ध है । उसके निकट ही अत्यन्त पवित्र कामकुण्ड व्यवस्थित है ॥ १०४ ॥

केदारसंज्ञक क्षेत्रं मध्यस्थं सिद्धकामयोः ।

दीर्घं चतुर्दशव्यामच्छायाच्छत्राह्वयं तु तत् ।। १०५ ।।

केदार नामक पवित्र क्षेत्र जो सिद्धकुण्ड और कामकुण्ड के मध्य में स्थित है । वह छायाछत्र नाम से प्रसिद्ध है तथा चौदह व्याम (परोसा) लम्बा है ॥१०५॥

तस्यासन्ने शैलपुत्री गुप्तकामाह्वया तु सा ।

गुप्तकुण्डस्य मध्यस्था कामेशग्रावणि सङ्गता ।। १०६ ।।

कामेश्वरशिलासक्ता कामाख्यासंज्ञिता सदा ।

पूर्वभागेन संसक्ता योनेस्तु परमार्गतः ।। १०७ ।।

उसके समीप शैलपुत्री, गुप्तकामा नाम से गुप्तकुण्ड के मध्य में, कामेश्वर- शिला से संलग्न हो स्थित है। जब यह कामेश्वर शिला से संयुक्त होती है तो सदा कामाख्या जानी जाती है । यह पूर्वभाग से संयुक्त हो योनि के अपर (पश्चिम) भाग की ओर तक स्थित है ।। १०६ १०७॥

कामकामाख्ययोर्मध्ये कालरात्रिर्व्यवस्थिता ।

पीठे दीर्घेश्वरी नाम्ना सीमाभागे प्रचण्डिका ।। १०८ ।।

इस पीठ में कालरात्रि, काम और कामाख्या के मध्य, दीर्घेश्वरी नाम से व्यवस्थित है। यह चण्डिका का (कामरूपपीठ का) पश्चिमी सीमान्त-क्षेत्र है ॥ १०८ ॥

कामाख्याप्रस्तरप्रान्ते कूष्माण्डी नाम योगिनी ।

पीठे कोटीश्वरी नाम्ना योनिरूपेण संस्थिता ।। १०९ ।।

कामाख्या शिला के सीमान्त पर कूष्माण्डी नामक योगिनी, कोटीश्वरी नामक पीठ पर योनिरूप से भली भाँति स्थित है ॥ १०९ ॥

यच्चाघोराह्वयं शीर्षं तत्कामायास्तु दक्षिणे ।

पीठे भैरवनामा तु गदिते परमार्थिभिः ।। ११० ।।

शिव का जो अघोर नामक सिर है, वह कामा (कामाख्या) के दक्षिणी पीठ पर स्थित है और परमार्थ चाहनेवालों द्वारा भैरव नाम से पुकारा जाता है ॥११०॥

चामुण्डा भैरवी नाम्ना भैरवासन्नसंस्थिता ।

नायिका कामदा भक्तेश्चण्डमुण्डविनाशिनी ।। १११ । ।

भैरव के ही निकट, चण्ड-मुण्ड का विनाश करने वाली चामुण्डा, उनकी नायिका, भैरवी नाम से स्थित हैं। जो भक्तों की कामनाओं को पूरा करने वाली हैं ।। १११ ॥

काम भैरवयोर्मध्ये स्वयं देवी सुरापगा ।

हिताय सर्वजगतां देव्यास्तु प्रीतये सदा ।। ११२ ।।

काम और भैरव के मध्य, समस्त जगत् के कल्याण तथा देवी की प्रसन्नता के लिए स्वयं देवनदी गङ्गा स्थित हैं ।।११२ ।

सद्योजाताह्वयं शीर्षं पीठे त्वाम्रातकेश्वरम् ।

भैरवाख्ये गह्वरे तु स्थितं देवर्षिसेवितम् ।। ११३ ।।

इस पीठ में जहाँ सद्योजात नामक मेरा सिर स्थित है वहीं देवर्षियों से सेवित भैरव नामक गुहा में आम्रातकेश्वर नामक पीठ भी स्थित है ॥ ११३ ॥

विद्धि तत्रैव दुर्गाख्यां नायिकां योगरूपिणीम् ।

सिद्धकामेश्वरी नाम्ना ख्याता देवेषु नित्यशः ।। ११४ ।।

वहीं योगरूपिणी दुर्गा नामक नायिका, जो देवताओं में सिद्धकामेश्वरी नाम से नित्य प्रसिद्ध हैं, की स्थिति जानो ।। ११४ ॥

अजीर्णपत्रः सुच्छायो वृक्षस्तत्र सुसंस्थितः ।

आम्रातकः कल्पवृक्षः कल्पवल्लीसमन्वितः ।। ११५ ।।

वहाँ अच्छी छायावाला, एक ऐसा आम्रातक नामक वृक्ष, कल्पवृक्ष और कल्पवल्ली से युक्त होकर स्थित है, जिसके पत्ते कभी जीर्ण नहीं होते, सदैव हरे-भरे रहते हैं ।। ११५ ॥

पीठे तु सिद्धगङ्गाख्या स्वयं गङ्गा समुत्थिता ।

आम्रातकस्य निकटे मम प्रीतिविवृद्धये ।। ११६ ।।

आम्रातक के निकट ही मेरी प्रसन्नता को बढ़ाने के लिए, स्वयं गङ्गा, सिद्धगङ्गा नामक पीठ से निकली हैं ।। ११६ ॥

पुष्कराख्यं तु तत्क्षेत्रं पीठे त्वाम्रातकाह्वयम् ।

ऐशान्यां तत्पुरुषाख्यं मम शीर्षं व्यवस्थितम् ।। ११७।।

भुवनेश्वरनाम्ना तु पीठे ख्यातं च भैरव ।

गह्वरं भुवनेशस्य भुवनानन्दसंज्ञकम् ।। ११८ ।।

हे भैरव ! पुष्कर नामक जो क्षेत्र, इस पीठ में स्थित है, वही आम्रातक नाम से जाना जाता है । मेरा तत्पुरुष नामक सिर इस पीठ के ईशानकोण में स्थित है जो भुवनेश्वर नाम से प्रसिद्ध है। वहीं भुवनेश की भुवनानन्द नाम की गुफा भी है ।।११७-११८।।

तस्यासन्ने तु सुरभिः शिलारूपेण संस्थिता ।

कामधेनुरिति ख्याता पीठे कामप्रदायिनी ।। ११९ ।।

उसी के समीप सुरभि, इस पीठ में कामधेनु नाम से शिलारूप में, भली- भाँति स्थित है, जो भक्तों की कामनाएँ पूरी करती हैं ॥ ११९ ॥

योऽसौ शरभमूर्तिर्मे मध्यखण्डप्रचण्डकः ।

महाभैरवनामाभूत् कोटिलिङ्गाह्वयस्तु सः ।। १२० ।।

जो मध्यभाग में मेरी शरभ नामक भयानक मूर्ति है। वह महाभैरव नाम से प्रसिद्ध हो, इस पीठ में कोटिलिङ्ग नाम से जानी जाती है ॥ १२० ॥

मूर्तिभिः पञ्चभिः पञ्चभागेषु समवस्थितः ।

अहं पश्चादतिप्रीत्या भैरवाख्यः स्थितो धरे ।। १२१ ।।

मैं इस क्षेत्र में भैरव नाम से पाँच-भागों में, अपने पाँच रूपों से, अत्यधिक प्रसन्नतापूर्वक स्थित हूँ ।। १२१ ॥

महागौरी तु या देवी योगिनी सिद्धरूपिणी ।

सा ब्रह्मपर्वते चास्ते शिलारूपेण चोर्ध्वतः ।। १२२ ।।

सिद्धरूपिणी योगिनी, जो महागौरी हैं, वह ब्रह्मपर्वत के ऊपरीभाग में शिला- रूप से विराजमान है ॥ १२२ ॥

अतीव रूपसम्पन्ना नाम्ना सा भुवनेश्वरी ।

यत्र ब्रह्मा तु संसक्तो मयि पर्वतरूपिणि ।। १२३ ।।

कल्पवल्ली तु तत्रास्ते नाम्ना सा त्वपराजिता ।

कामधेनुरदूरस्था पूर्वभागे महेश्वरी ।। १२४ ।।

जहाँ ब्रह्मा पर्वत रूप से मिले हैं, उसी स्थान पर रूप से अत्यन्त सम्पन्न, भुवनेश्वरी नाम की देवी स्थित हैं। वहीं अपराजिता नाम से प्रसिद्ध कल्पवल्ली भी विराजमान है, वहाँ से कामधेनु भी दूर नहीं है तथा उसके पूर्वभाग में स्वयं महेश्वरी उपस्थित हैं ।। १२३ - १२४॥

श्री कामाख्या योनिरूपा चण्डिका सा तु योगिनी ।

आग्नेय्यां विद्धि तां संस्थां सर्वकामप्रदां शुभाम् ।। १२५ ।।

श्री चण्डिका नाम की वह योगिनी, जो योनिरूप में स्थित कामाख्या ही हैं, उन सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाली सुन्दरी को क्षेत्र के अग्निकोण में स्थित जानो ॥ १२५ ॥

योगिनी चन्द्रघण्टाख्या पीठेऽभूद् विन्ध्यवासिनी ।

योगिनी स्कन्दमाता तत्पीठेऽभूद् वनवासिनी ।। १२६ । ।

इस पीठ में चण्डघण्टा नामवाली योगिनी, विन्ध्यवासिनी तथा स्कन्दमाता नाम की योगिनी, वनवासिनी हो गई हैं ।। १२६ ।।

कात्यायनी पीठनाम्ना पाददुर्गेति गद्यते ।

नैर्ऋत्यां नीलशैलस्य प्रान्ते सा संस्थिता शिवा ।। १२७ ।।

कात्यायनी पीठ नाम की देवी यहाँ पाददुर्गा कही जाती हैं और वे देवी नीलशैल के नैर्ऋत्यकोण में स्थित, अन्तिम छोर पर स्थित हैं ।। १२७ ।।

योऽसौ नन्दी मम तनुः स तु पाषाणरूपधृक् ।

संस्थितः पश्चिमद्वारि हनुमान् पीठनामतः ।। १२८।।

यह जो नन्दी नाम का, मेरा ही शरीर, पत्थर के रूप में है। वह यहाँ पश्चिम- द्वार पर हनुमानपीठ नाम से प्रसिद्ध है ।। १२८ ॥

।। और्वउवाच ।।

इति तस्य वचः श्रुत्वा शम्भोरमिततेजसः ।

भैरवस्तं तु पप्रच्छ वेतालोऽपि समुत्सुकः ।। १२९ ।।

और्व बोले- अमित तेजस्वी शिव के इस प्रकार के (उपर्युक्त) वचनों को सुनकर भैरव और वेताल ने विशेष उत्सुकतापूर्वक पूछा- ॥१२९॥

।। वेतालभैरवावूचतुः ।।

श्रुतः पीठक्रमस्तात देव्याः पूजाक्रमस्तथा ।

श्रोतुमिच्छामि मूर्तीनां पञ्चानामपि शङ्कर ।।१३० ।

रूपाणि पञ्चमूर्तीनां मन्त्राणि च समन्ततः ।

तत्र मन्त्राणि तन्त्राणि वद नौ वृषभध्वज ।। १३१ ।।

वेताल और भैरव बोले- हे वृषभध्वज शिव ! हे तात ! हम दोनों ने आपके द्वारा बताये गये (पीठों) स्थानों के क्रम को तथा देवी कामाख्या के पूजन- के विधान को सुना । हे शङ्कर ! अब देवी के पाँच रूपों तथा उनके पूजन के मन्त्रों को साथ-साथ सुनना चाहते हैं। इस सम्बन्ध में मन्त्र और तन्त्र (अर्थात् पूजा-विधि), हम दोनों को आप बताइये ।। १३०-१३१॥

।। ईश्वरउवाच ।।

शृणु वक्ष्यामि वेताल मन्त्रं तन्त्रं पृथक् पृथक् ।

कामाख्यापञ्चमूर्तीनां रूपं कल्पं च भैरव ।। १३२ ।।

ईश्वर (शिव) बोले- हे वेताल और हे भैरव ! कामाख्या देवी की उन पाँचों मूर्तियों के स्वरूप, पूजापद्धति एवं मन्त्र-तन्त्र के विषय में, मैं अलग-अलग कहूँगा । तुम दोनों उसे सुनो ॥ १३२ ॥

कामस्थं काममध्यस्थं कामदेवपुटीकृतम् ।

कामेन कामयेत् काम कामं कामे नियोजयेत् ।। १३३ ।।

जो कामी (साधक), काम (सफलता की कामना) करे, उसे स्वयं कामना में स्थित हो कामरूपक्षेत्र के मध्य में स्थित, कामदेव से संयुक्त काम (कामेश्वर) को काम (कामाख्या) से नियोजित करें।

(उत्तर षट्क्रम् तथा नित्या षोडशिकार्णव ग्रन्थों में भी यह श्लोक, कुछ शब्दभेद से उद्धृत हैं। वहाँ कामस्थ (ह्रीं), काममध्यस्थ (क्लीं), कामदेव के स्थान पर कामोदर शब्द का अर्थ योनि, वाग्भव बीज (ऐं), पुटीकृत कामबिन्दु संज्ञक काम (ब्लूं) इन चारो काम मन्त्रों को पाँच काम (स्त्री) युक्त कर, ह्रीं क्लीं ऐं ब्लूं स्त्रीं इन पाँच बीजों से युक्त, मन्त्र से कामाख्या की साधना में स्वयं को कामराज यन्त्र मानते हुये प्रवृत्त होना चाहिए, ऐसा संकेत दिया है। पंचमूर्ति कामाख्या की भाँति ही इस श्लोक में काम, मन्मथ, कन्दर्प, मकरध्वज, मोहन, आदि काम के पाँच रूपों के ह्रीं, क्लीं, , ब्लू, स्त्रीं इन पाँच बीजों का यहाँ निर्देश किया गया है) ।। १३३॥

ज्येष्ठं तु व्यञ्जनं ब्रह्मन् परः शान्तं तदुच्यते ।

प्रथमं क्रमतः कुर्यात्तत्संसक्तं सुधामयम् ।। १३४ । ।

यह जो ब्रह्म-व्यञ्जन है । वह सर्वश्रेष्ठ है। उसे ही शान्त कहते हैं । इस अमृतमयवर्ण को क्रमशः सभी मन्त्रों के पूर्व में सम्मिलित करना चाहिये ।। १३४।।

प्रजापतिस्तथा शक्रबीजं संस्थादिसंयुतम् ।

चन्द्रार्थसहितं बीजं कामाख्यायाः प्रचक्ष्यते ।। १३५ ।।

प्रजापति का बीजमन्त्र (क) तथा इन्द्रबीजमन्त्र (लॄ) परस्पर संयुक्त होकर चन्द्रघण्टा के सदृश कामाख्या देवी का बीज (क्लॄं) कहा जाता है ।। १३५ ॥

इदं धर्मप्रदं काममोक्षार्थानां प्रदायकम् ।

इदं रहस्यं परममन्यत्र तु सुदुर्लभम् ।। १३६ ।।

श्रोत्रेणोद्यम्य शृणुयाद् गुरुवक्त्रान्नरोत्तमः ।

स कामानखिलान् प्राप्य शिवलोके महीयते ।। १३७ ।।

यह धर्म, काम, मोक्ष और अर्थ को देनेवाला, अन्यत्र दुर्लभ, अत्यन्त रहस्यमय है। जो श्रेष्ठ पुरुष उद्यमपूर्वक अपने गुरुमुख से इसे अपने कानों से सुनता है, वह समस्त कामनाओं को प्राप्त कर, शिवलोक को जाता है ।। १३६-१३७।।

श्रुतिसकलितसारं सकलकलुषहारि

देवकण्ठौघहारं श्रीधरानन्दकारि ।

सुनयशुभगगोभिर्भ्राजयेद्यद्यशोभि-

स्तदिह शिवसमस्तं विघ्नहन्त्रीङ्गितार्थम् ।। १३८ ।।

एकत्रित सभी वेदों के सारभूत, देवकण्ठ में भी हाररूप में स्थित, समस्त दोषों को दूर करने वाले श्रीधर, विष्णु को भी प्रसन्न करने वाले सुन्दर नीति, इन्द्रियाँ तथा यश से अपने साधक को युक्त करने वाला एवं विघ्नहन्त्री कामाख्या को इंगित करने वाला यह बीज, शिव का सर्वस्व है ।। १३८॥

नयनकर भकारि ध्यानिनां चोपकारि

प्रणयिसुनयसंस्थं देवसत्याह्निकस्थम् ।

परमपदविशीर्णं सर्वदौर्भाग्यजीर्णं

शृणु शिवपदरूपं कामदेव्याः स्वरूपम् ।। १३९ ।।

आँखों को विकसित करने वाला, ध्यानियों का उपकार, प्रणयियों, प्रेमीजनों को नीतिरत करने वाला, देवों के दैनिककर्म का अङ्ग, परमपद को भी तुच्छ तथा सब प्रकार के दुर्भाग्यसूचक लक्षणों को जीर्ण करने वाले, शिवपदरूपी देवी कामाख्या के स्वरूप को सुनो ॥ १३९ ॥

कालिका पुराण अध्याय ६२

।। कामाख्याध्यान ।।

श्रवणगगनमात्रा चार्दितं यस्य नाम

प्रभवति बहुभूत्यै गीतिमार्गैकधाम ।

सुरगणगणनायां कुण्डली यस्य शक्ति-

स्तदिह परमरूपं चिन्तनीयं हताशैः ।। १४०।।

जिसका नाम, कानरूपी आकाश में पड़ते ही दुखों को दूर करता है और बहुत प्रकार के ऐश्वर्य को जन्म देता है । जो नीतिमार्ग का एकमात्र धाम है । देवताओं के समूह की गणना में जिसकी शक्ति, कुण्डली रूप से महत्त्वपूर्ण है। हताशजनों द्वारा कामाख्या देवी के इसी श्रेष्ठरूप का चिन्तन किया जाना चाहिये ॥ १४० ॥

रविशशियुतकर्णा कुंकुमापीतवर्णा

मणिकनकविचित्रा लोलकर्णा त्रिनेत्रा ।

अभयवरदहस्ता साक्षसूत्रप्रशस्ता

प्रणतसुरनरेशा सिद्धकामेश्वरी सा ।। १४१ ।।

उन देवी के कानों में सूर्य और चन्द्रमा, कुण्डल की भाँति स्थित हैं । वे कुंकुम की लालीयुक्त, पीतवर्ण (केशरिया रङ्गः) की हैं, वे मणि और सोने से सजी, चञ्चल कानोंवाली तथा तीन नेत्रों से युक्त हैं। वे अभय और वरद मुद्रा में स्थित, और रुद्राक्षमाला से युक्त हाथों से सुशोभित हैं। उन सिद्ध कामेश्वरी को देवता और राजागण नम्रतापूर्वक प्रणाम करते हैं ॥ १४१ ॥

अरुणकमलसंस्था रक्तपद्मासनस्था

नवतरुणशरीरा मुक्तकेशी सुहारा ।

शवहृदि पृथुतुंगस्तन्ययुग्मा मनोज्ञा

शिशुरविसमवस्त्रा सर्वकामेश्वरी सा ।। १४२ ।।

वे सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाली देवी, लालकमल के आसन पर लालपद्म पर ही पद्मासन में विराजमान हैं। वे नये तरुण शरीर वाली हैं। उनके केश खुले हैं। वे सुन्दर हार धारण की हुई, शव के हृदय पर विराजमान हैं। उनके दोनों स्तन, पुष्ट और ऊँचे हैं। वे सुन्दरी, बालरवि के समान अरुण (लाल) आभावाला वस्त्रधारण की हैं ।। १४२ ॥

विपुलविभवदात्री स्मेरवक्त्रा सुकेशी

ललितनखरदन्ता सामिचन्द्रावनम्रा ।

मनसिजदृषदिस्था योनिमुद्रालसन्ती

पवनगमनशक्ता संश्रुतस्थान भागा ।। १४३ ।।

कामदेव के हृषद् में स्थित, वे बहुत अधिक विभव देनेवाली, मुस्कुराते मुखवाली, सुन्दर केशवाली, सुन्दर नख और दाँतों तथा अर्धचन्द्र से युक्त, योनिमुद्रा से शोभायमान, पवन के समान गतिवाली, परम स्थान की अधिकारिणी हैं ।। १४३ ॥

चिन्त्या चैवं विद्युदग्निप्रकाशा धर्मार्थाद्यं साधकैर्वाञ्छितार्थैः ।

कल्प्यन्त त्रीण्यस्तदं सम्यगर्थं वेताल त्वं भैरव श्रीप्रतिष्ठम् ।। १४४।।

विद्युत् तथा अग्नि के समान प्रकाश वाली वे देवी, धर्म-अर्थ आदि प्रयोजनों को चाहने वाले साधकों के द्वारा चिन्तनीय हैं। हे वेताल और हे भैरव ! तुम दोनों श्रीप्रदायक, श्रेष्ठ, श्रेष्ठता देने वाली उस देवी के मन्त्र-तन्त्र और कल्प (पूजा विधान) तीनों के विषय में सुनो ॥१४४॥

तस्मिन्नर्थं मण्डलं यद्धि पश्चात् कार्यं चैतच्चन्दनैः पुष्पयुक्तैः ।

पर्यायो यो लेखने पूर्वमुक्तो देवीतन्त्रे सोऽत्र पूर्वं विधेयः ।। १४५ ।।

उसकी पूजा में सर्वप्रथम चन्दन और पुष्पों से एक मण्डल बनाना चाहिये। इसकी विधि और लेखन क्रम पहले ही देवीतन्त्र में कहा गया है। उसी के अनुसार सर्वप्रथम साधक द्वारा मण्डल बनाना चाहिये ॥ १४५ ।।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे कामाख्यामाहात्म्यनाम द्विषष्टितमोऽध्यायः ।। ६२ ।।

॥ श्रीकालिकापुराण में कामाख्यामाहात्म्य नामक बासठवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥६२ ॥

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 63

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