निर्गुण्डी
डी०पी०कर्मकाण्ड
के
तन्त्र श्रृंखला में काकचण्डीश्वरकल्पतन्त्र
में औषिधीयों के विषय में कहा गया है। काकचण्डीश्वरकल्पतन्त्रम्
के इस भाग में निर्गुण्डी या निर्गुण्डीकल्प को कहा गया है।
निर्गुण्डी कल्प
Nirgundi kalpa
काक चण्डीश्वर
कल्पतन्त्रम्
अथ निर्गुण्डीकल्पः
शृणु देवि
प्रवक्ष्यामि चौषधिं परमाद्भुताम् ।
धनधान्यकरी
देवि आयुरारोग्यवर्धनीम् ॥ १ ॥
हे देवि ! अति
अद्भुत औषधि का वर्णन करता हूँ, जो कि धन-धान्य को बढ़ाने वाली है,
तथा आयु और स्वास्थ्य-समृद्धि को बढ़ाने वाली है ॥
१॥
शान्तिपुष्टिकरी
देवि साक्षादेवस्वरूपिणी ।
निर्गुण्डीति
समाख्याता सर्वलोकसुखावहा ॥ २ ॥
शान्ति और
पुष्टि को करने वाली, अधिक क्या ? साक्षात् देव स्वरूप वाली ही है,
निर्गुण्डी नामक वह सभी प्राणियों को सुख देनेवाली है ॥ २ ॥
तस्याहं
सम्प्रवक्ष्यामि प्रयोगं शृणु सुन्दरि !
हे सुन्दरि !
उसका मैं प्रयोग कह रहा हूं, उसे सुनो।
निर्गुण्डीमूलमुद्धृत्य
पुष्यार्क शोभने दिने ॥ ३ ॥
रविवार के दिन
पुष्य नक्षत्र वाले अच्छे दिन में निर्गुण्डी के मूल को उखाड़ कर ॥ ३॥
निर्गुण्डोमूलचूर्ण
तु गवां सर्पिः पलाष्टकम् ।
घृतं चैव तथा
क्षौद्रं षोडशं क्षीरकं तथा ॥ ४ ॥
स्निग्धभाण्डे
समालोड्य धान्यराशी निधापयेत् ।
निर्गुण्डी
मूल का चूर्ण, गोघृत आठ पल घृत और क्षौद्र (मधु ) तथा षोडश (पल) दुग्ध को चिकने किये हुए
पात्र में अच्छी प्रकार मिलाकर अनाज के ढेर में रख देवें ॥ ४-५ ॥
पूर्णे मासे
तदुद्धृत्य सुदिने पुण्यसंयुते ॥ ५॥
बिडालपदमात्रं
तु मासमात्रं प्रदापयेत्।
बलीपलितनिर्मुक्तो
जीवेद्वर्षशतत्रयम् ॥ ६ ॥
एक मास पूर्ण
होने पर पुष्य युक्त उत्तम दिन में उसे उखाड़ कर विडाल पद (१ कर्ष ) प्रमाण में एक
मास तक देवे तो वली-पलित से रहित तीन सौ वर्ष तक जीवित रहता है ।। ६ ।।
निर्गुण्डीमूलमादाय
योऽजामूत्रेण संपिवेत् ।
नखदन्तं च
केशाश्च सप्तरात्रात् पतन्ति हि ॥ ७ ॥
निर्गुण्डी के
मूल को लेकर के जो मनुष्य बकरी के मूत्र से पान करता है उसके नख,
दाँत और केश सात रात में गिर पड़ते हैं ।। ७ ।।
मासमात्रप्रयोगेण
नाग्निना दह्यते नरः ।
तस्य
मूत्रपुरीषेण शुल्वं भवति काञ्चनम् ॥ ८ ॥
एक मास इसके
प्रयोग से मनुष्य अग्नि से नहीं जलता है और उसके मूत्र और मल से ताम्र स्वर्ण हो
जाता है ॥ ८ ॥
निर्गुण्डीमूलमादाय
तिलतैलेन भक्षयेत् ।
अष्टादशविधान्
कुष्ठान् नाशयेदेकमासतः ॥ ९ ॥
निर्गुण्डी के
मूल को ग्रहण करके तिल तैल से एक मास तक सेवन करें तो एक मास में १८ प्रकार के
कुष्ट नष्ट होते हैं ॥९॥
निर्गुण्डीमूलमादाय
घृतेन सह यः पिबेत् ।
मासमात्रप्रयोगेण
स स्यादाकाशगो ध्रुवम् ॥ १० ॥
निर्गुण्डी के
जड़ को ग्रहण करके घृत के साथ एक मास तक प्रयोग करने से मनुष्य आकाशगामी निश्चित
रूप से हो जाता है ॥ १० ॥
पुष्यर्क्षे
ग्राहयेत् प्रातर्निर्गुण्डीमूलजां त्वचम् ।
शुष्कां
कृत्वा विचूयथ कर्षे कर्षे भजेत् सदा ।। ११ ।।
पुष्य नक्षत्र
में प्रातःकाल निर्गुण्डी के जड़ की छाल को ग्रहण करें,
उसे सुखाकर चूर्ण बनाकर कर्ष मात्र परिमाण में सदा सेवन
करें ॥। ११ ॥
अजामूत्रप्रलेपेन
षण्मासादमरो भवेत् ।
वर्षमात्रप्रयोगेण
शिवतुल्यो भवेन्नरः ।। १२ ।।
बकरी के मूत्र
के प्रलेप से ६ मास में अमर (देवता) हो जाता है तथा एक वर्ष के प्रयोग से शिव सदृश
हो जाता है।।१२।।
अर्धवर्षमिदं
चाज्यैर्लिहेत् स्यात् पूर्ववत्फलम् ।
तच्चूर्ण
त्रिफला मुण्डी भृङ्गी निम्बगुडूचिके ॥ १३ ॥
बचा इमाः समा
कृत्वा मध्वाज्याभ्यां लिहेत् पलम् ।
गुडेन तु
विपाच्यैतत् पीतं सम्यग्विरेककृत् ॥ १४ ॥
इसको ६ मास तक
घी के साथ चाटने से भी पूर्ववत् फल होता है। निर्गुण्डी चूर्ण,
त्रिफला, मुण्डी, भृंगी, निम्ब, गुडूची, और बच को समान भाग में लेकर चूर्णकर घृत और मधु से एक पल
परिमाण में चाटे । गुड़ के साथ पकाकर इसका पान करने से अच्छी प्रकार विरेचन करने
वाली होती है ।। १३-१४ ॥
निर्यान्ति
कृमयस्तस्य मुखादपि गुदादपि ।
राजयक्ष्मादिरोगांश्च
सप्ताहेन विनाशयेत् ।। १५ ।।
उसके मुख और
गुदा से क्रिमि निकलते हैं और राजयक्ष्मा आदि रोग एक सप्ताह सेवन करने से नष्ट
होते हैं।।१५।।
मासत्रये जरां
हन्ति जीवेद्वर्षशतत्रयम् ।
तीन मास
प्रयोग से वृद्धावस्था को नष्ट करती है और तीन सौ वर्ष तक की आयु होती है।
निर्गुण्डीमूलमादाय
छायाशुष्कं विचूर्णयेत् ॥ १६ ॥
निर्गुण्डी के
मूल को ग्रहण करके छाया में सुखाकर चूर्ण बनाये ।। १६ ।।
सप्ताहं गोजले
भुक्तं हन्ति सर्वान् गदानपि ।
इसे एक सप्ताह
तक गोजल ( गोमूत्र ) से भक्षण करने से सभी रोगों को नष्ट करता है।
अष्टादशपलं
चैतच्चूर्ण द्वादश सर्पिषः ।। १७ ।।
मधुनः
षोडशपलमेकीकृत्य विधानतः ।
संस्थापयेद्धान्यराशौ
मासादूर्ध्वं समुद्धरेत् ॥ १८ ॥
यह चूर्ण १८
पल,
घृत १२ पल और मधु १६ पल इन सबको विधान पूर्वक इकट्ठा करके
धान्यराशि में रक्खे और एक मास से ऊपर होने पर निकाले ।। १७-१८ ॥
समभ्यर्च्य
गुरुं देवं पूजयेश्च विधानतः ।
ब्राह्मणांश्च
कुमारीश्च भोजयेत् पण्डितानपि ॥ १९ ॥
गुरु की
पूजाकर,
देवताओं की विधि से पूजा करे तथा ब्राह्मण,
कुमारी और पण्डितों को भोजन करावें ।। १९ ।।
गृहीत्वा
विजने देशे शुचिर्भूत्वा समाहितः ।
बिडालपदमात्रं
तु भोजयेन्नियतो नरः ॥ २० ॥
अहन्यहनि
भोक्तव्यं मासमेकं निरन्तरम् ।
फिर उसको
ग्रहण करके एकान्त देश में पवित्र और एकाग्र होकर विडालपद (कर्ष) के प्रमाण में
नियम से प्रतिदिन एक मास तक सेवन करे ।।२०।।
ततो मासे
व्यतिक्रान्ते सोऽयं भवति सुन्दरः ॥ २१ ॥
फिर एक मास
व्यतीत होने पर वह सुन्दर हो जाता है ।। २१ ।
पीवरस्कन्धगात्रश्च
भवेत् कुलिशसन्निभः ।
वलीपलितनिर्मुक्तो
दीर्घजीवी भवेन्नरः ॥ २२ ॥
मांसलकन्धे से
युक्त शरीर वज्र के समान हो जाता है तथा वली और पलित से रहित मनुष्य दीर्घजीवी
होता है ।। २२ ।।
भवत्येवाक्षयं
रेतो रन्तुं स्यात् स्त्रीशतं क्षमः ।
प्रकामं भोजनं
तस्य भवेद् भोक्तव्यमन्वहम् ॥ २३ ॥
उसका अक्षय
वीर्य हो जाता है तथा सैकड़ों स्त्रियों के साथ रमण करने में समर्थ होता है तथा
प्रतिदिन उसे बहुत अधिक भोजन करना चाहिए ।। २३ ।।
विकारा मनसः
शाम्यन्त्यक्षयः स च वर्धते ।
मन के विकार
शान्त होते हैं, और बिना क्षीण हुए वह बढ़ता है।
यः
प्रस्थचूर्ण निर्गुण्या गोमूत्रेण पिवेन्नरः ॥ २४ ॥
जो एक प्रस्थ
परिमित निर्गुण्डी का चूर्ण गोमूत्र के साथ पान करता है ।
दसरात्रप्रयोगेण
कुष्ठान्यष्टादशापि च ।
नाशयेच्च
महादेवि ! वायुर्मेधमिवाम्बरम् ॥ २५ ॥
इसके दसरात्रि
तक प्रयोग करने से हे महादेवि ! जैसे वायु बादल का भेदन करता है उसी तरह अठारह
प्रकार के कुष्ठ नष्ट होते हैं ।। २५ ।।
अजामूत्रेण निर्गुण्ड्याधूर्णमेवं
च यो भजेत् ।
नखाः केशाश्च
दन्ताश्च सप्ताहान्निपतन्ति हि ॥ २६ ॥
बकरी के मूत्र
से निर्गुण्डी का चूर्ण इस प्रकार से जो भक्षण करता है उसके नख,
केश और दन्त एक सप्ताह में गिर पड़ते हैं ।। २६ ।।
द्विसप्ताहप्रयोगेण
जायन्ते ते पुनर्नवाः ।
न चाग्निना
दह्यतेऽसौ न जले म्रियतेऽपि च ॥ २७ ॥
दो सप्ताह तक
प्रयोग करने से वे फिर नवीन हो जाते हैं और वह अग्नि से न जलता है और न जल में ही
मरता है।।२७।।
तद्देहस्पर्शनाल्लोहः
स्वर्ण भवति तत्क्षणात् ।
उसके देह के
स्पर्श करने से लोह उसी समय स्वर्ण हो जाता है।
चतुरसप्ताह
योगेन सिद्धिराकाशगामिनी ॥ २८ ॥
चार सप्ताह के
प्रयोग से अकाश में गमन करने की सिद्धि होती है ॥२८॥
निर्गुण्डीचूर्णमादाय
घृतेन सह संपिवेत् ।
कृष्णवर्णो
नरो यस्तु स्वर्णतेजाः स जायते ।। २९ ।।
निर्गुण्डी के
चूर्ण को घृत के साथ पान करने से कृष्ण वर्ण का व्यक्ति स्वर्ण के समान कान्तिवाला
होता है ।।२९।।
निर्गुण्डी
चूर्णमादाय पिबेद् गोपयसा पुमान् ।
सप्तरात्रप्रयोगेण
स्यात् किन्नरसमध्वनिः ॥ ३० ॥
निर्गुण्डी के
चूर्ण को गौ के दुग्ध के साथ सेवन करने से मनुष्य किन्नर के समान गला वाला होता है
॥ ३० ॥
निर्गुण्डीचूर्णमादाय
पिवेच्छिशिरवारिणा ।
सप्तरात्रप्रयोगेण
वलवीर्य प्रवर्धते ।। ३१ ।।
निर्गुण्डी-चूर्ण
को शीतल जल से सात रात तक प्रयोग करने से बल और वीर्य बढ़ता है ।। ३१।।
चतुस्सप्ताहयोगेन
वर्धते तेज उत्तमम् ।
चार सप्ताह
प्रयोग करने से उत्तम तेज की वृद्धि होती है।
निर्गुण्डीमूलमुद्धृत्य
गृहे संस्थापयेद् बुधः ॥ ३२ ॥
नश्यन्ति
सर्वविघ्नाश्च गृहे नागाश्च सर्वदा ।
निर्गुण्डी की
जड़ को उखाड़कर विद्वान् घर में रक्खे, इससे सभी विघ्न नष्ट होते हैं तथा घर में सर्प नहीं रहते
हैं ॥ ३२ ॥
अथ निर्गुण्डी भक्षणमन्त्रः
ह्रीं हुं फट्
स्वाहा । अनेनाष्टोत्तरशतं जपेत् ।
निर्गुण्डी
भक्षण करने का मन्त्र ॐ ह्रीं इससे १०८ बार जप करें।
ॐ नमो
नानारूपाय शान्तपापाय कुबेराय स्वाहा ।
इति मन्त्रेण
सप्तवारमभिमन्त्र्य निर्गुण्डी भक्षयेत् ।
मन्त्र से सात
वार अभिमंत्रित करके निर्गुण्डी का भक्षण करें।
पाष्टिकं च
सगोक्षीरं मुष्टिकोदनभक्षणम् ।
भूगृद्दान्ते
स्थितिर्मासपर्यन्तं भक्षयस्त्विदम् ॥ ३३ ॥
इसको भक्षण
करते हुए एक मास तक पष्टिक ( साठी चावल ) का भात मुष्टिक (मुट्ठी) प्रमाण में लेकर
गोदुग्ध के साथ भक्षण करे तथा पृथ्वी के गर्भगृह में वास करे ।। ३३ ।।
इति काकचण्डीश्वरकल्पतन्त्रम्
निर्गुण्डीकल्पः ॥
आगे जारी पढ़ें ............ निम्बकल्प
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