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ईश्वर उवाच
नगरग्रामदुर्गाद्या
गृहप्रासादवृद्धये ।
एकाशीतिपदैर्वस्तुं
पूजयेत्सिद्धये ध्रुवं ॥१॥
प्रागास्या
दशधा नाड्यास्तासां नामानि च ब्रुवे ।
शान्ता यशोवती
कान्ता विशाला प्राणवाहिनी ॥२॥
सती वसुमती
नन्दा सुभद्राथ मनोरमा ।
उत्तरा
द्वादशान्याश्च एकाशीत्यङ्घ्रिकारिका ॥३॥
हरिणी सुप्रभा
लक्ष्मीर्विभूतिर्विमला प्रिया ।
जया ज्वाला
विशोका च स्मृतास्तत्रपादतः ॥४॥
भगवान् शंकर
कहते हैं- स्कन्द ! नगर, ग्राम तथा दुर्ग आदि में गृहों और प्रासादों की वृद्धि हो, इसकी सिद्धि के लिये इक्यासी पदों का वास्तुमण्डल बनाकर उसमें वास्तु
देवता की पूजा अवश्य करनी चाहिये। (दस रेखा पश्चिम से पूर्व की ओर और दस दक्षिण से
उत्तर की ओर खींचने पर इक्यासी पद तैयार होते हैं।) पूर्वाभिमुखी दस रेखाएँ दस
नाडियों की प्रतीकभूता हैं। उन नाडियों के नाम इस प्रकार बताये गये हैं- शान्ता,
यशोवती, कान्ता, विशाला,
प्राणवाहिनी, सती, वसुमती,
नन्दा, सुभद्रा और मनोरमा उत्तराभिमुख प्रवाहित
होनेवाली दस नाडियाँ और हैं, जो उक्त नौ पदों को इक्यासी
पदों में विभाजित करती हैं; उनके नाम ये हैं-हरिणी, सुप्रभा, लक्ष्मी, विभूति,
विमला, प्रिया, जया,
(विजया) ज्वाला और विशोका । सूत्रपात करने से ये रेखामयी नाडियाँ
अभिव्यक्त होकर चिन्तन का विषय बनती हैं। १-४ ॥
ईशाद्यष्टाष्टकं
दिक्षु यजेदीशं धनञ्जयं ।
शक्रमर्कं तथा
सत्यं भृशं व्योम च पूर्वतः ॥५॥
हव्यवाहञ्च
पूर्वाणि वितथं भौममेव च ।
कृतान्तमथ
गन्धर्वं भृगं मृगञ्च दक्षिणे ॥६॥
पितरं
द्वारपालञ्च सुग्रीवं पुष्पदन्तकं ।
वरुणं
दैत्यशेषौ च यक्ष्माणं पश्चिमे सदा ॥७॥
रोगाहिमुख्यो
भल्लाटः सौभाग्यमदितिर्दितिः ।
नवान्तः पदगो
ब्रह्मा पूज्योर्धे च षडङ्घिगाः ॥८॥
ईश आदि आठ-आठ
देवता 'अष्टक' हैं, जिनका चारों दिशाओं में पूजन करना चाहिये । (पूर्वादि चार दिशाओं के पृथक्
पृथक् अष्टक हैं।) ईश, घन (पर्जन्य), जय
( जयन्त), शक्र (इन्द्र), अर्क (आदित्य
या सूर्य), सत्य, भृश और व्योम (आकाश )
- इन आठ देवताओं का वास्तुमण्डल में पूर्व दिशा के पदों में पूजन करना चाहिये।
हव्यवाह (अग्नि), पूषा, वितथ, सौम (सोमपुत्र गृहक्षत ), कृतान्त (यम), गन्धर्व, भृङ्ग (भृङ्गराज) और मृग-इन आठ देवताओं की
दक्षिण दिशा के पदों में अर्चना करनी चाहिये। पितर, द्वारपाल
(या दौवारिक), सुग्रीव, पुष्पदन्त,
वरुण, दैत्य (असुर), शेष
(या शोष) और यक्ष्मा (पापयक्ष्मा ) - इन आठों का सदा पश्चिम दिशा के पदों में पूजन
करने की विधि है। रोग, अहि (नाग), मुख्य,
भल्लाट, सोम, शैल (ऋषि),
अदिति और दिति-इन आठों की उत्तर दिशा के पदों में पूजा होनी चाहिये।
वास्तुमण्डल के मध्यवर्ती नौ पदों में ब्रह्माजी पूजित होते हैं और शेष अड़तालीस
पदों में से आधे में अर्थात् चौबीस पदों में वे देवता पूजनीय हैं, जो अकेले छः पदों पर अधिकार रखते हैं। [ब्रह्माजी के चारों ओर एक-एक करके
चार देवता षट्पदगामी हैं-जैसे पूर्व में मरीचि(या अर्यमा),
दक्षिण में विवस्वान्, पश्चिम में मित्र देवता
तथा उत्तर में पृथ्वीधर ।] ॥ ५-८ ॥
ब्रह्मेशान्तरकोष्ठस्थ
मायाख्यान्तु पद्द्वये ।
तदधश्चापवत्साख्यं
केन्द्रन्तरेषु षट्पदे ॥९॥
मरीचिकाग्निमध्ये
तु सविता द्विपदस्थितः ।
सावित्री तदधो
द्व्यंशे विवस्वान् षट्पदे त्वधः ॥१०॥
पितृब्रह्मान्तरे
विष्णुमिन्दुमिन्द्रं त्वधो जयं ।
वरुणब्रह्मणोर्मध्ये
मित्राख्यं षट्पदे यजेत् ॥११॥
रोगब्रह्मान्तरे
नित्यं द्विपञ्च रुद्रदासकम् ।
तदधो
द्व्यङ्घ्रिगं यक्ष्म षट्सौम्येषु धराधरं ॥१२॥
चरकीं
स्कन्दविकटं विदारीं पूतनां क्रमात् ।
जम्मं पापं
पिलिपिच्छं यजेदीशादिवाह्यतः ॥१३॥
ब्रह्माजी तथा
ईश के मध्यवर्ती कोष्ठकों में जो दो पद हैं, उनमें 'आप' की तथा
नीचेवाले दो पदों में 'आपवत्स' की पूजा
करे। इसके बाद छः पदों में मरीचि की अर्चना करे। मरीचि और अग्नि के बीच में जो
कोणवर्ती दो पद हैं, उनमें सविता की स्थिति है और उनसे
निम्नभाग के दो पदों में सावित्र तेज या सावित्री की। उसके नीचे छः पदों में
विवस्वान् विद्यमान हैं। पितरों और ब्रह्माजी के बीच के दो पदों में विष्णु-इन्दु
स्थित हैं। और नीचे के दो पदों में इन्द्र- जय विद्यमान हैं,
इनकी पूजा करे। वरुण तथा ब्रह्मा के मध्यवर्ती छः पदों में मित्र देवता का यजन
करे। रोग तथा ब्रह्मा के बीचवाले दो पदों में रुद्र रुद्रदास की पूजा करे और नीचे के
दो पदों में यक्ष्म की। फिर उत्तर के छः पदों में धराधर (पृथ्वीधर ) - का यजन करे।
फिर मण्डल के बाहर ईशानादि कोणों के क्रम से चर की, स्कन्द, बिदारीविकट, पूतना, जम्भ,
पापा (पापराक्षसी) तथा पिलिपिच्छ (या
पिलिपित्स) – इन बालग्रहों की पूजा करे ॥ ९-१३ ॥
एकाशीपदं
वेश्म मण्डपश्च शताङ्घ्रिकः ।
पूर्ववद्देवताः
पूज्या ब्रह्मा तु षोडशांशके ॥१४॥
मरीचिश्च
विवस्वांश्च मित्रं पृथ्वीधरस्तथा ।
दशकोष्ठस्थिता
दिक्षु त्वन्ये बेशादिकोणगाः ॥१५॥
दैत्यमाता
तथेशाग्नी मृगाख्यौ पितरौ तथा ।
पापयक्ष्मानिलौ
देवाः सर्वे सार्धांशके स्थिताः ॥१६॥
यह इक्यासी
पदवाले वास्तुचक्र का वर्णन हुआ। एक शतपद-मण्डप भी होता है। उसमें भी पूर्ववत्
देवताओं की पूजा का विधान है। शतपदचक्र के मध्यवर्ती सोलह पदों में ब्रह्माजी की
पूजा करनी चाहिये। ब्रह्माजी के पूर्व आदि चार दिशाओं में स्थित मरीचि, विवस्वान्, मित्र तथा
पृथ्वीधर की दस-दस पदों में पूजा का विधान है। अन्य जो ईशान आदि कोणों में स्थित
देवता हैं, जैसे दैत्यों की माता दिति और ईश; अग्नि तथा मृग (पूषा) और पितर तथा पापयक्ष्मा और अनिल
(रोग) - वे सब-के-सब डेढ़-डेढ़ पद में अवस्थित हैं ॥ १४-१६॥
यत्पाद्योकः
प्रवक्ष्यामि सङ्क्षेपेण क्रमाद्गुह ।
सदिग्विंशत्करैर्दैर्घ्यादष्टाविंशति
विस्तरात् ॥१७॥
शिशिराश्रयः
शिवाख्यश्च रुद्रहीनः सदोभयोः ।
रुद्रद्विगुणिता
नाहाः पृथुष्णोभिर्विना त्रिभिः ॥१८॥
स्याद्ग्रहद्विगुणं
दैर्घ्यात्तिथिभिश्चैव विस्तरात् ।
सावित्रः
सालयः कुड्या अन्येषां पृथक्स्त्रिंशांशतः ॥१९॥
कुड्यपृथुपजङ्घोच्चात्कुड्यन्तु
त्रिगुणोच्छयं ।
कुड्यसूत्रसमा
पृथ्वी वीथी भेदादनेकधा ॥२०॥
स्कन्द ! अब
मैं यज्ञ आदि के लिये जो मण्डप होता है, उसका संक्षेप से तथा क्रमशः वर्णन करूँगा। तीस हाथ लंबा और
अट्ठाईस हाथ चौड़ा मण्डप शिव का आश्रय है। लंबाई और चौड़ाई- दोनों में ग्यारह
ग्यारह हाथ घटा देने पर उन्नीस हाथ लंबा और सत्रह हाथ चौड़ा मण्डप शिव- संज्ञक
होता है। बाईस हाथ लम्बा और उन्नीस हाथ चौड़ा अथवा अठारह हाथ लम्बा तथा पन्द्रह
हाथ चौड़ा मण्डप हो तो वह सावित्र संज्ञावाला कहा गया है। अन्य गृहों का विस्तार
आंशिक होता है। दीवार की जो मोटी उपजङ्घा (कुर्सी) होती है, उसकी
ऊँचाई से दीवार की ऊँचाई तिगुनी होनी चाहिये। दीवार के लिये जो सूत से मान निश्चित
किया गया हो, उसके बराबर ही उसके सामने भूमि (सहन) होनी
चाहिये। वह वीथी के भेद से अनेक भेदवाली होती है ॥ १७- २० ॥
भद्रे
तुल्यञ्च वीथीभिर्द्वारवीथी विनाग्रतः ।
श्रीजयं
पृष्ठतो हीनं भद्रोयं पार्श्वयोर्विना ॥२१॥
गर्भपृथुसमा
वीथी तदर्धार्धेन वा क्वचित् ।
वीथ्यर्धेनोपवीथ्याद्यमेकद्वित्रिपुरान्वितम्
॥२२॥
सामान्यानाथ
गृहं वक्ष्ये सर्वेषां सर्वकामदं ।
एकद्वित्रिचतुःशालमष्टशालं
यथाक्रमात् ॥२३॥
एकं याम्ये च
सौमास्यं द्वे चेत्पश्चात्पुरोमुखम् ।
चतुःशालन्तु
साम्मुख्यात्तयोरिन्द्रेन्द्रमुक्तयोः ॥२४॥
शिवास्यमम्बुपास्यैष
इन्द्रास्ये यमसूर्यकं ।
प्राक्सौम्यस्थे
च दण्दाख्यं प्राग्याम्ये वातसञ्ज्ञकं ॥२५॥
आप्येन्दौ
गृहवल्याख्यं त्रिशूलं तद्विनर्धिकृत् ।
पूर्वशलाविहीनं
स्यात्सुक्षेत्रं वृद्धिदायकं ॥२६॥
'भद्र'
नामक प्रासाद में वीथियों के समान ही 'द्वारवीथी'
होती है; केवल वीथी का अग्रभाग द्वारवीथी में
नहीं होता है। 'श्रीजय' नामक प्रासाद में
जो द्वारवीथी होती है, उसमें वीथी का पृष्ठभाग नहीं होता है।
वीथी के पार्श्वभागों को द्वारवीथी में कम कर दिया जाय, तो
उससे उपलक्षित प्रासाद की भी 'भद्र' संज्ञा
ही होती है। गर्भ के विस्तार की ही भाँति वीथी का भी विस्तार होता है। कहीं-कहीं
उसके आधे या चौथाई भाग के बराबर भी होता है। वीथी के आधे मान से आदि का निर्माण
करना चाहिये। वह उपवीथी एक, दो या तीन पुरों से युक्त होता
है। अब अन्य साधारण गृहों के विषय में बताया जाता है; गृह का
वैसा स्वरूप हो तो वह सबकी समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाला होता है। वह क्रमशः एक,
दो, तीन, चार और आठ
शालाओं से युक्त होता है। एक शालावाले गृह की शाला दक्षिणभाग में बनती है और उसका
दरवाजा उत्तर की ओर होता है। यदि दो शालाएँ बनानी हों तो पश्चिम और पूर्व में
बनवाये और उनका द्वार आमने-सामने पूर्व- पश्चिम की ओर रखे। चार शालाओंवाला गृह चार
द्वारों और अलिन्दों से युक्त होने के कारण सर्वतोमुख होता है। वह गृहस्वामी के
लिये कल्याणकारी है। पश्चिम दिशा की ओर दो शालाएँ हों तो उस द्विशाल गृह को 'यमसूर्यक' कहा गया है। पूर्व तथा उत्तर की ओर शालाएँ
हों तो उस गृह की 'दण्ड' संज्ञा है तथा
पूर्व-दक्षिण की ओर दो शालाएँ हों तो वह गृह 'वात' संज्ञक होता है। जिस तीन शालावाले गृह में पूर्व दिशा की ओर शाला न हो,
उसे 'सुक्षेत्र' कहा गया
है, वह बुद्धिदायक होता है*
॥ २१ - २६ ॥
* मत्स्यपुराण में एकशाल, द्विशाल, त्रिशाल और चतुःशाल गृह का परिचय इस प्रकार
दिया है जिसमें एक दिशा में एक ही शाला (कमरा) हो और अन्य दिशाओं में कोई कमरा न
होकर बरामदा मात्र हो, वह 'एकशाल गृह'
है। इसी तरह दो दिशाओं में दो कमरे और तीन दिशाओं में तीन कमरे तथा
चारों दिशाओं में चार कमरे होने पर उन घरों को क्रमश: 'द्विशाल',
'त्रिशाल' और 'चतुःशाल'
कहते हैं। चतुःशाल गृह में चारों और कमरे एवं चारों ओर दरवाजे होते
हैं और वे द्वार आमने-सामने बने होते हैं। अतः वह सर्वतोमुखगृह है और उसका नाम 'सर्वतोभद्र' है। यह देवालय तथा नृपालय दोनों में शुभ
होता है। पश्चिम में द्वार न हो (और अन्य तीन दिशाओं में हो तो उस गृह का विशेष
नाम है-'नन्द्यावर्त' यदि दक्षिण दिशा में
ही द्वार न हो तो उस भवन का नाम है-'वर्धमान' पूर्व द्वार से रहित होने पर उसका नाम 'स्वस्तिक'
होता है और उत्तर द्वार से रहित होने पर 'रुचक'
जब किसी एक दिशा में शाला (कमरा) ही न हो तो वह 'त्रिशाल गृह' है। इसके भी कई भेद हैं। जिस मकान के
भीतर उत्तर दिशा में कोई शाला न हो, वह त्रिशाल गृह 'धान्यक' कहलाता है। वह मनुष्यों के लिये क्षेमकारक
वृद्धिकारक तथा बहुपुत्र फलदायक होता है। यदि पूर्व दिशा में शाला न हो तो उस
त्रिशाल गृह को 'सुक्षेत्र' कहते हैं।
यह धन, यश और आयु को देनेवाला तथा शोक और मोह का नाश
करनेवाला होता है। यदि दक्षिण दिशा में शाला न हो तो उसको 'विशाल'
कहा गया है। वह मनुष्यों के लिये कुलक्षयकारी होता है तथा उसमें सब
प्रकार के रोगों का भय बना रहता है। यदि पश्चिम दिशा में कोई शाला न हो तो उस
त्रिशाल गृह को 'पक्षघ्न' कहते हैं। वह
मित्र, भाई-बन्धु तथा पुत्रों का मारक होता है और उसमें सब
प्रकार के भय प्राप्त होते रहते हैं।
अब
दिशाल घर का फल बताते हैं-दक्षिण-पश्चिम दिशाओं में ही दो शालाएँ हों (और अन्य दो
दिशाओं में न हों तो वह द्विशाल- गृह, धन-धान्यफलदायक, मानवों
के क्षेम की वृद्धि करनेवाला तथा पुत्ररूप फल देनेवाला है। यदि केवल पश्चिम और
उत्तर दिशाओं में ही दो शालाएँ हों तो उस गृह को 'यमसूर्य'
कहते हैं। वह राजा और अग्नि का भय देनेवाला है तथा मनुष्यों के कुल का
संहार करनेवाला होता है। यदि उत्तर और पूर्व में ही दो शालाएँ हों तो उस गृह का
नाम 'दण्ड' है। जहाँ 'दण्ड' हो, वहाँ अकाल मृत्यु का
भय प्राप्त होता है तथा शत्रुओं की ओर से भी भय की प्राप्ति होती है। पूर्व और
दक्षिण दिशाओं में ही शाला होने से जो द्विशाल गृह निर्मित हुआ है, उसकी 'धन' या 'बात' संज्ञा है वह शस्त्रभय तथा पराभव देनेवाला होता
है। पूर्व पश्चिम में दो शालाएँ हों तो उसकी 'चुली' संज्ञा है। वह मृत्यु की सूचक है। वह गृह स्त्रियों के लिये वैधव्यकारक
तथा अनेक भयदायक है। उत्तर-दक्षिण में ही दो शालाएं हों तो वह भी मनुष्य के लिये
भयदायक है। (द्रष्टव्य अध्याय २५४ के श्लोक सं० १ से १३ तक।)
याम्ये हीने
भवेच्छूली त्रिशालं वृद्धिकृत्परं ।
यक्षघ्नं
जलहीनौकः सुतघ्नं बहुशत्रुकृत् ॥२७॥
इन्द्रादिक्रमतो
वच्मि ध्वजाद्यष्टौ गृहाण्यहं ।
प्रक्षालानुस्रगावासमग्नौ
तस्य महानसं ॥२८॥
याम्ये
रसक्रिया शय्या धनुःशस्त्राणि रक्षसि ।
धनमुक्त्यम्वुपेशाख्ये
सम्यगन्धौ च मारुते ॥२९॥
सौम्ये धनपशू
कुर्यादीशे दीक्षावरालयं ।
स्वामिहस्तमितं
वेश्म विस्तारायामपिण्डिकं ॥३०॥
त्रिगुणं
हस्तसंयुक्तं कृत्वाष्टांशैहृतं तथा ।
तच्छेषोयं
स्थितस्तेन वायसान्तं ध्वजादिकं ॥३१॥
त्रयः
पक्षाग्निवेदेषु रसर्षिवसुतो भवेत् ।
सर्वनाशकरं
वेश्म मध्ये चान्ते च संस्थितं ॥३२॥
तस्माच्च नवमे
भागे शुभकृन्निलयो मतः ।
तन्मधे मण्डपः
शस्तः समो वा द्विगुणायतः ॥३३॥
यदि दक्षिण
दिशा में कोई शाला न हो (और अन्य दिशाओं में हो) तो उस घर की 'विशाल' संज्ञा है। वह
कुलक्षयकारी तथा अत्यन्त भयदायक होता है। जिसमें पश्चिम दिशा में ही शाला न बनी हो,
उस विशाल गृह को 'पक्षघ्न' कहते हैं। वह पुत्र - हानिकारक तथा बहुत-से शत्रुओं का उत्पादक होता है।
अब मैं पूर्वादि दिशाओं के क्रम से 'ध्वज'* आदि आठ गृहों का वर्णन करता
हूँ। (ध्वज, धूम, सिंह, श्वान, वृषभ, खर (गधा),
हाथी और काक ये ही आठों के नाम हैं।) पूर्व- दिशा में स्नान और
अनुग्रह (लोगों से कृपापूर्वक मिलने) के लिये घर बनावे। अग्निकोण में उसका रसोईघर
होना चाहिये। दक्षिण दिशा में रस-क्रिया तथा शय्या (शयन) - के लिये घर बनाना
चाहिये । नैर्ऋत्यकोण में शस्त्रागार रहे। पश्चिम दिशा में धन- रत्न आदि के लिये
कोषागार रखे। वायव्यकोण में सम्यक् अन्नागार स्थापित करे। उत्तर दिशा में धन और
पशुओं को रखे तथा ईशानकोण में दीक्षा के लिये उत्तम भवन बनवावे। गृहस्वामी के हाथ से
नापे हुए गृह का जो पिण्ड है, उसकी लंबाई- चौड़ाई के हस्तमान
को तिगुना करके उसमें आठ- से भाग दे उस भाग का जो शेष हो, तदनुसार
यह ध्वज आदि आय स्थित होता है उसी से ध्वजादि काकान्त आय का ज्ञान होता है। दो,
तीन, चार, छ:, सात और आठ शेष बचे तो उसके अनुसार शुभाशुभ फल हो । यदि मध्य (पाँचवें) और
अन्तिम (काक) में गृह की स्थिति हुई तो वह गृह सर्वनाशकारी होता है। इसलिये आठ
भागों को छोड़कर नवम भाग में बना हुआ गृह शुभकारक होता है। उस नवम भाग में ही
मण्डप उत्तम माना गया है। उसकी लंबाई- चौड़ाई बराबर रहे अथवा चौड़ाई से लंबाई
दुगुनी रहे । २७ – ३३ ॥
* अपराजितपृच्छा (विश्वकर्म शास्त्र ६४ वें सूत्र)
के अनुसार पूर्वादि दिशाओं में प्रदक्षिणक्रम से रहनेवाले ध्वज आदि का उल्लेख इस
प्रकार मिलता है-
ध्वजो
धूमक्ष सिंह धानो वृषखरी गजः ।
ध्यासश्चेति
समुद्दिष्टाः प्राच्यादिषु प्रदक्षिणाः ॥
प्रत्यगाप्ये
चेन्दुयमे हट्ट एव गृहावली ।
एकैकभवनाख्यानि
दिक्ष्वष्टाष्टकसङ्ख्यया ॥३४॥
ईशाद्यदितिकान्तानि
फलान्येषां यथाक्रमं ।
भयं नारी
चलत्वं च जयो वृद्धिः प्रतापकः ॥३५॥
धर्मः कलिश्च
नैस्व्यञ्च प्राग्द्वारेष्वष्टसु ध्रुवं ।
दाहोऽसुखं
सुहृन्नाशो धननाशो मृतिर्धनं ॥३६॥
शिल्पित्वं
तनयः स्याच्च याम्यद्वारफलाष्टकम् ।
आयुःप्राव्राज्यशस्यानि
धनशान्त्यर्थसङ्क्षयाः ॥३७॥
शोषं भोगं
चापत्यञ्च जलद्वारफलानि च ।
रोगो
मदार्तिमुख्यत्वं चार्थायुः कृशता मतिः ॥
मानश्च
द्वारतः पूर्व उत्तरस्यां दिशि क्रमात् ॥३८॥
पूर्व से
पश्चिम की ओर तथा उत्तर से दक्षिण की ओर बाजार में ही गृहपङ्क्ति देखी जाती है।
एक- एक भवन के लिये प्रत्येक दिशा में आठ-आठ द्वार हो सकते हैं। इन आठों द्वारों के
क्रमशः फल भी पृथक्-पृथक् कहे जाते हैं। भय, नारी की चपलता, जय, वृद्धि, प्रताप, धर्म, कलह तथा निर्धनता - ये पूर्ववर्ती आठ द्वारों के अवश्यम्भावी फल हैं। दाह,
दुःख, सुहृत्राश, धननाश,
मृत्यु, धन, शिल्पज्ञान तथा
पुत्र की प्राप्ति – ये दक्षिण दिशा के आठ द्वारों के फल
हैं। आयु, संन्यास, सस्य, धन, शान्ति, अर्थनाश, शोषण, भोग एवं संतान की प्राप्ति ये पश्चिम द्वार के
फल हैं। रोग, मद, आर्ति, मुख्यता, अर्थ, आयु, कृशता और मान ये क्रमशः उत्तर दिशा के द्वार के फल हैं ।। ३४-३८ ॥
इत्याग्नेये
महापुराणे गृहादिवास्तुर्नाम पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'नगरगृह आदि की वास्तु-प्रतिष्ठा विधि का वर्णन' नामक
एक सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १०५ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 106
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