अग्निपुराण अध्याय १०६
अग्निपुराण
अध्याय १०६ में नगर आदि वास्तु का वर्णन है।
अग्निपुराणम् षडधिकशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 106
अग्निपुराण एक सौ छठा अध्याय
अग्नि पुराण अध्याय १०६
अग्निपुराणम् अध्यायः १०६ – नगरादिवास्तुः
अथ षडधिकशततमोऽध्यायः
ईश्वर उवाच
नगरादिकवास्तुश्च
वक्ष्ये राज्यादिवृद्धये ।
योजनं
योजनार्धं वा तदर्थं स्थानमाश्रयेत् ॥१॥
अभ्यर्च्य
वास्तु नगरं प्राकाराद्यन्तु कारयेत् ।
ईशादित्रिंशत्पदके
पूर्वद्वारं च सूर्यके ॥२॥
गन्धर्वाभ्यां
दक्षिणे स्याद्वारुण्ये पश्चिमे तथा ।
सौम्यद्वारं
सौम्यपदे कार्या हट्टास्तु विस्तराः ॥३॥
येनेभादि सुखं
गच्छेत्कुर्याद्द्वारं तु षट्करं ।
छिन्नकर्णं
विभिन्नञ्च चन्द्रार्धाभं पुरं न हि ॥४॥
वज्रसूचीमुखं
नेष्टं सकृद्द्वित्रिसमागमं ।
चापाभं
वज्रनागाभं पुरारम्भे हि शान्तिकृत् ॥५॥
भगवान् महेश्वर
कहते हैं— कार्तिकेय ! अब मैं राज्यादि की अभिवृद्धि के
लिये नगर – वास्तु का वर्णन करता हूँ। नगर-निर्माण के लिये एक योजन या आधी योजन
भूमि ग्रहण करे। वास्तु-नगर का पूजन करके उसको प्राकार से संयुक्त करे। ईशादि तीस
पदों में सूर्य के सम्मुख पूर्व द्वार, गन्धर्व के समीप
दक्षिण द्वार, वरुण के निकट पश्चिम द्वार और सोम के समीप
उत्तर द्वार बनाना चाहिये। नगर में चौड़े-चौड़े बाजार बनाने चाहिये। नगर द्वार छः
हाथ चौड़ा बनाना चाहिये, जिससे हाथी आदि सुखपूर्वक आ-जा
सकें। नगर छिन्नकर्ण, भग्न तथा अर्धचन्द्राकार नहीं होना चाहिये।
वज्र- सूचीमुख नगर भी हितकर नहीं है। एक, दो या तीन द्वारों से
युक्त धनुषाकार वज्रनागाभ नगर का निर्माण शान्तिप्रद है ॥ १-५ ॥
प्रार्च्य
विष्णु हरार्कादीन्नत्वा दद्याद्बलिं बली ।
आग्नेये
स्वर्णकर्मारान् पुरस्य विनिवेशयेत् ॥६॥
दक्षिणे
नृत्यवृत्तीनां वेश्यास्त्रीणां गृहाणि च ।
नटानाञ्चक्रिकादीनां
कैवर्तादेश्च नैर्ऋते ॥७॥
रथानामायुधानाञ्च
कृपाणाञ्च वारुणे ।
शौण्डिकाः
कर्माधिकृता वायव्ये परिकर्मणः ॥८॥
ब्राह्मणा
यतयः सिद्धाः पुण्यवन्तश्च चोत्तरे ।
फलाद्यादिविक्रयिण
ईशाने च वणिग्जनाः ॥९॥
पूर्वतश्च
बलाध्यक्षा आग्नेये विविधं बलं ।
स्त्रीणामादेशिनो
दक्षे काण्डारान्नैर्ऋते न्यसेत् ॥१०॥
पश्चिमे च
महामात्यान् कोषपालांश्च कारुकान् ।
उत्तरे
दण्डनाथांश्च नायकद्विजसङ्कुलान् ॥११॥
पूर्वतः
क्षत्रियान् दक्षे वैश्याञ्छून्द्रांश्च पश्चिमे ।
दिक्षु
वैद्यान् वाजिनश्च बलानि च चतुर्दिशं ॥१२॥
नगर के
आग्नेयकोण में स्वर्णकारों को बसावे, दक्षिण दिशा में नृत्योपजीविनी वाराङ्गनाओं के भवन हों ।
नैर्ऋत्यकोण में नट, कुम्भकार तथा केवट आदि के आवास स्थान
होने चाहिये। पश्चिम में रथकार, आयुधकार और खड्ग निर्माताओं का
निवास हो। नगर के वायव्यकोण में मद्य विक्रेता, कर्मकार तथा
भृत्यों का निवेश करे। उत्तर दिशा में ब्राह्मण, यति,
सिद्ध और पुण्यात्मा पुरुषों को बसावे । ईशानकोण में फलादि का
विक्रय करनेवाले एवं वणिग्जन निवास करें। पूर्व दिशा में सेनाध्यक्ष रहें ।
आग्नेयकोण में विविध सैन्य, दक्षिण में स्त्रियों को ललित
कला की शिक्षा देनेवाले आचार्यों तथा नैर्ऋत्यकोण में धनुर्धर सैनिकों को रखे।
पश्चिम में महामात्य, कोषपाल एवं कारीगरों को, उत्तर में दण्डाधिकारी, नायक तथा द्विजों को;
पूर्व में क्षत्रियों को, दक्षिण में वैश्यों को,
पश्चिम में शूद्रों को, विभिन्न दिशाओं में
वैद्यों को और अश्वों तथा सेना को चारों ओर रखे ।। ६-१२ ॥
पूर्वेण
चरलिङ्ग्यादीञ्छ्मशानादीनि दक्षिणे ।
पश्चिमे
गोधनाद्यञ्च कृषिकर्तॄंस्तथोत्तरे ॥१३॥
न्यसेन्म्लेच्छांश्च
कोणेषु ग्रामादिषु तथा स्मृतिं ।
श्रियं
वैश्रवणं द्वारि पूर्वे तौ पश्यतां श्रियं ॥१४॥
देवादीनां
पश्चिमतः पूर्वास्यानि गृहाणि हि ।
पूर्वतः
पश्चिमास्यानि दक्षिणे चोत्तराननान् ॥१५॥
नाकेशविष्ण्वादिधामानि
रक्षार्थं नगरस्य च ।
निर्दैवतन्तु
नगरग्रामदुर्गगृहादिकं ॥१६॥
भुज्यते
तत्पिशाचाद्यै रोगाद्यैः परिभूयते ।
नगरादि सदैवं
हि जयदं भुक्तिमुक्तिदं ॥१७॥
राजा पूर्व में
गुप्तचरों, दक्षिण में
श्मशान, पश्चिम में गोधन और उत्तर में कृषकों का निवेश करे।
म्लेच्छों को दिक्कोणों में स्थान दे अथवा ग्रामों में स्थापित करे। पूर्व द्वार पर
लक्ष्मी एवं कुबेर की स्थापना करे। जो उन दोनों का दर्शन करते है, उन्हें लक्ष्मी ( सम्पत्ति) की प्राप्ति होती है। पश्चिम में निर्मित
देवमन्दिर पूर्वाभिमुख, पूर्व दिशा में स्थित पश्चिमाभिमुख
तथा दक्षिण दिशा के मन्दिर उत्तराभिमुख होने चाहिये। नगर की रक्षा के लिये इन्द्र
और विष्णु आदि देवताओं के मन्दिर बनवावे । देवशून्य नगर, ग्राम,
दुर्ग तथा गृह आदि का पिशाच उपभोग करते हैं और वह रोगसमूह से परिभूत
हो जाता है। उपर्युक्त विधि से निर्मित नगर आदि सदा जयप्रद और भोग-मोक्ष प्रदान
करनेवाले होते हैं ॥ १३ - १७ ॥
पूर्वायां
श्रीगृहं प्रोक्तमाग्नेय्यां वै महानसं ।
शनयं
दक्षिणस्यान्तु नैर्ऋत्यामायुधाश्रयं ॥१८॥
भोजनं
पश्चिमायान्तु वायव्यां धान्यसङ्ग्रहः ।
उत्तरे
द्रव्यसंस्थानमैशान्यां देवतागृहं ॥१९॥
चतुःशालं
त्रिशालं वा द्विशालं चैकशालकं ।
चतुःशालगृहाणान्तु
शालालिन्दकभेदतः ॥२०॥
शतद्वयन्तु
जायन्ते पञ्चाशत्पञ्च तेष्वपि ।
त्रिशालानि तु
चत्वारि द्विशालानि तु पञ्चधा ॥२१॥
वास्तु- भूमि की
पूर्व दिशा में शृङ्गार-कक्ष, अग्निकोण में पाकगृह (रसोईघर), दक्षिण में शयनगृह, नैर्ऋत्यकोण में शस्त्रागार, पश्चिम में भोजनगृह,
वायव्यकोण में धान्य-संग्रह, उत्तर दिशा में
धनागार तथा ईशानकोण में देवगृह बनवाना चाहिये। नगर में एकशाल, द्विशाल, त्रिशाल या चतुःशाल- गृह का निर्माण होना
चाहिये। चतुःशाल गृह के शाला और अलिन्द (प्राङ्गण) के भेद से दो सौ भेद होते हैं।
उनमें भी चतुःशाल गृह के पचपन, त्रिशाल – गृह के चार तथा
द्विशाल के पाँच भेद होते हैं ॥ १८ - २१ ॥
एकशालानि चत्वारि
एकालिन्दानि वच्मि च ।
अष्टाविंशदलिन्दानि
गृहाणि नगराणि च ॥२२॥
चतुर्भिः
सप्रभिश्चैव पञ्चपञ्चाशदेव तु ।
षडलिन्दानि
विंशैव अष्टाभिर्विंश एव हि ॥२३॥
अष्टालिन्दं
भवेदेवं नगरादौ गृहाणि हि ॥२४॥
एकशाल गृह के
चार भेद हैं। अब मैं अलिन्दयुक्त गृह के विषय में बतलाता हूँ, सुनिये। गृह- वास्तु तथा नगर वास्तु में
अट्ठाईस अलिन्द होते हैं। चार तथा सात अलिन्दों से पचपन, छ:
अलिन्दों से बीस तथा आठ अलिन्दों से भी बीस भेद होते हैं। इस प्रकार नगर आदि में
आठ अलिन्दों से युक्त वास्तु भी होता है ॥ २२-२४ ॥
इत्यागेनेये महापुराणे
नगरादिवास्तुर्नाम षडधिकशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'नगर आदि के वास्तु का वर्णन' नामक एक सौ छठा अध्याय
पूरा हुआ ॥ १०६ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 107
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