अग्निपुराण अध्याय १०८

अग्निपुराण अध्याय १०८    

अग्निपुराण अध्याय १०८ में भुवनकोश-वर्णन के प्रसंग में भूमण्डल के द्वीप आदि का परिचय का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय १०८

अग्निपुराणम् अष्टाधिकशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 108     

अग्निपुराण एक सौ आठवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय १०८               

अग्निपुराणम् अध्यायः १०८ – भुवनकोषः

अथ अष्टाधिकशततमोऽध्यायः

अग्निरुवाच

जम्बूप्लक्षाह्वयौ द्वीपौ शाल्मलिश्चापरो महान् ।

कुशः क्रौञ्चस्तथा शाकः पुष्करश्चेति सप्तमः ॥१॥

एते द्वीपाः समुद्रैस्तु सप्त सप्तभिरावृताः ।

लवणेक्षुसुरासर्पिर्दधिदुग्धजलैः समं ॥२॥

जम्बूद्वीपो द्वीपमध्ये तन्मध्ये मेरुरुच्छ्रितः ।

चतुरशीतिसाहस्रो भूयिष्ठः षोडशाद्विराट् ॥३॥

द्वात्रिंशन्मूर्ध्नि विस्तरात्षोडशाधः सहस्रवान् ।

भूयस्तस्यास्य शैलोऽसौ कर्णिकाकारसंस्थितः ॥४॥

हिमवान् हेमकूटश्च निषधश्चास्य दक्षिणे ।

नीलः श्वेतश्च शृङ्गो च उत्तरे वर्षपर्वताः ॥५॥

लक्षप्रमाणौ द्वौ मध्ये दशहीनास्तथापरे ।

सहस्रद्वितयोछ्रायास्तावद्विस्तारिणश्च ते ॥६॥

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! जम्बू, प्लक्ष, महान् शाल्मलि, कुश, क्रौञ्च, शाक और सातवाँ पुष्कर- ये सातों द्वीप चारों ओर से खारे जल, इक्षुरस, मदिरा, घृत, दधि, दुग्ध और मीठे जल के सात समुद्रों से घिरे हुए हैं। जम्बूद्वीप उन सब द्वीपों के मध्य में स्थित है और उसके भी बीचों-बीच में मेरुपर्वत सीना ताने खड़ा है। उसका विस्तार चौरासी हजार योजन है और यह पर्वतराज सोलह हजार योजन पृथिवी में घुसा हुआ है। ऊपरी भाग में इसका विस्तार बत्तीस हजार योजन है। नीचे की गहराई में इसका विस्तार सोलह हजार योजन है। इस प्रकार यह पर्वत इस पृथिवीरूप कमल की कर्णिका के समान स्थित है। इसके दक्षिण में हिमवान्, हेमकूट और निषध तथा उत्तर में नील, श्वेत और शृङ्गी नामक वर्षपर्वत हैं। उनके बीच के दो पर्वत (निषध और नील) एक-एक लाख योजनतक फैले हुए हैं। दूसरे पर्वत उनसे दस-दस हजार योजन कम हैं। वे सभी दो-दो सहस्त्र योजन ऊँचे और इतने ही चौड़े हैं ॥ १-६ ॥

भारतं प्रथमं वर्षन्ततः किम्पुरुषं स्मृतं ।

हरिवर्सन्तथैवान्यन्मेरोर्दक्षिणतो द्विज ॥७॥

रम्यकं चोत्तरे वर्षं तथैवान्यद्धिरण्मयं ।

उत्तराः कुरवश्चैव यथा वै भारतं तथा ॥८॥

नवसाहस्रमेकैकमेतेषां मुनिसत्तम ।

इलावृतञ्च तन्मध्ये सौवर्णा मेरुरुछ्रितः ॥९॥

मेरोश्चतुर्दिशन्तत्र नवसाहस्रविस्तृतं ।

इलावृतं महाभाग चत्वारश्चात्र पर्वताः ॥१०॥

विष्कम्भा रचिता मेरोर्योजनायुतविस्तृताः ।

पूर्वेण मन्दरो नाम दक्षिणे गन्धमादनः ॥११॥

विपुलः पश्चिमे पार्श्वे सुपार्श्वश्चोत्तरे स्मृतः ।

कदम्बस्तेषु जम्बुश्च पिप्पलो बट एव च ॥१२॥

एकादशशतायामाः पादपा गिरिकेतवः ।

जम्बूद्वीपेति सञ्ज्ञा स्यात्फलं जम्बा गजोपमं ॥१३॥

जम्बूनदीरसेनास्यास्त्विदं जाम्बूनदं परं ।

सुपार्श्वः पूर्वतो मेरोः केतुमालस्तु पश्चिमे ॥१४॥

वनं चैत्ररथं पूर्वे दक्षिणे गन्धमादनः ।

वैभ्राजं पश्चिमे सौम्ये नन्दनञ्च सरांस्यथ ॥१५॥

अरुणोदं महाभद्रं संशितोदं समानसं ।

शिताभश्चक्रमुञ्जाद्याः पूर्वतः केशराचलाः ॥१६॥

दक्षिणेन्द्रेस्त्रिकूटाद्याः शिशिवासमुखा जले ।

शङ्खकूटादयः सौम्ये मेरौ च ब्रह्मणः पुरी ॥१७॥

चतुर्दशसहस्राणि योजनानाञ्च दिक्षु च ।

इन्द्रादिलोकपालानां समन्तात्ब्रह्मणः पुरः ॥१८॥

विष्णुपादात्प्लावयित्वा चन्द्रं स्वर्गात्पतन्त्यपि ।

पूर्वेण शीता भद्राश्वाच्छैलाच्छैलाद्गतार्णवं ॥१९॥

तथैवालकनन्दापि दक्षिणेनैव भारतं ।

प्रयाति सागरं कृत्वा सप्तभेदाथ पश्चिमं ॥२०॥

द्विजश्रेष्ठ ! मेरुपर्वत के दक्षिण की ओर पहला वर्ष भारतवर्ष है तथा दूसरा किम्पुरुषवर्ष और तीसरा हरिवर्ष माना गया है। उत्तर की ओर रम्यक, हिरण्मय और उत्तरकुरुवर्ष है, जो भारतवर्ष के ही समान है। मुनिप्रवर! इनमें से प्रत्येक का विस्तार नौ-नौ हजार योजन है तथा इन सबके बीच में इलावृतवर्ष है, जिसमें सुवर्णमय सुमेरु पर्वत खड़ा है। महाभाग ! इलावृतवर्ष सुमेरु के चारों ओर नौ- नौ हजार योजनतक फैला हुआ है। इसके चारों ओर चार पर्वत हैं। ये चारों पर्वत मानो सुमेरु को धारण करनेवाले ईश्वर निर्मित आधार स्तम्भ हों। इनमें से मन्दराचल पूर्व में, गन्धमादन दक्षिण में, विपुल पश्चिम पार्श्व में और सुपार्श्व उत्तर में है । ये सभी पर्वत दस-दस हजार योजन विस्तृत हैं। इन पर्वतों पर ग्यारह ग्यारह सौ योजन विस्तृत कदम्ब, जम्बू, पीपल और वट के वृक्ष हैं, जो इन पर्वतों की पताकाओं के समान प्रतीत होते हैं। इनमें से जम्बूवृक्ष ही जम्बूद्वीप के नाम का कारण है। उस जम्बूवृक्ष के फल हाथी के समान विशाल और मोटे होते हैं। इसके रस से जम्बूनदी प्रवाहित होती है। इसी से परम उत्तम जाम्बूनद-सुवर्ण का प्रादुर्भाव होता है। मेरु के पूर्व में भद्राश्ववर्ष और पश्चिम में केतुमाल वर्ष है। इसी प्रकार उसके पूर्व की ओर चैत्ररथ, दक्षिण की ओर गन्धमादन, पश्चिम की ओर वैभ्राज और उत्तर की ओर नन्दन नामक वन है। इसी तरह पूर्व आदि दिशाओं में अरुणोद, महाभद्र, शीतोद और मानस-ये चार सरोवर हैं। सिताम्भ तथा चक्रमुञ्ज आदि (भूपद्म की कर्णिकारूप) मेरु के पूर्व दिशावर्ती केसर स्थानीय अचल हैं। दक्षिण में त्रिकूट आदि, पश्चिम में शिखिवास- प्रभृति और उत्तर दिशा में शङ्खकूट आदि इसके केसराचल हैं। सुमेरु पर्वत के ऊपर ब्रह्माजी की पुरी है। उसका विस्तार चौदह हजार योजन है। ब्रह्मपुरी के चारों ओर सभी दिशाओं में इन्द्रादि लोकपालों के नगर हैं। इसी ब्रह्मपुरी से श्रीविष्णु के चरणकमल से निकली हुई गङ्गानदी चन्द्रमण्डल को आप्लावित करती हुई स्वर्गलोक से नीचे उतरती हैं। पूर्व में शीता (अथवा सीता) नदी भद्राश्वपर्वत से निकलकर एक पर्वत से दूसरे पर्वत पर जाती हुई समुद्र में मिल जाती है। इसी प्रकार अलकनन्दा भी दक्षिण दिशा की ओर भारतवर्ष में आती है और सात भागों में विभक्त होकर समुद्र में मिल जाती है ॥ ७२० ॥

अब्धिञ्च चक्षुःसौम्याब्धिं भद्रोत्तरकुरूनपि ।

आनीलनिषधायामौ माल्यवद्गन्धमादनौ ॥२१॥

तयोर्मध्यगतो मेरुः कर्णिकाकारसंस्थितः ।

भारताः केतुमालाश्च भद्राश्वाः कुरवस्तथा ॥२२॥

पत्राणि लोकपद्मस्य मर्यादाशैलवाह्यतः ।

जठरो देवकूटश्च मर्यादापर्वतावुभौ ॥२३॥

तौ दक्षिणोत्तरायामावानीलनिषधायतौ ।

गन्धमादनकैलासौ पूर्ववचायतावुभौ ॥२४॥

अशीतियोजनायामावर्णवान्तर्व्यवस्थितौ ।

निषधः पारिपात्रश्च मर्यादापर्वतावुभौ ॥२५॥

चक्षु पश्चिम समुद्र में तथा भद्रा उत्तरकुरुवर्ष को पार करती हुई समुद्र में जा गिरती है। माल्यवान् और गन्धमादन पर्वत उत्तर तथा दक्षिण की ओर नीलाचल एवं निषध पर्वततक फैले हुए हैं। उन दोनों के बीच में कर्णिकाकार मेरुपर्वत स्थित है। मर्यादापर्वतों के बहिर्भाग में स्थित भारत, केतुमाल, भद्राश्व और उत्तरकुरुवर्ष - इस लोकपद्म के दल हैं। जठर और देवकूट-ये दोनों मर्यादापर्वत हैं। ये उत्तर और दक्षिण की ओर नील तथा निषध पर्वततक फैले हुए हैं। पूर्व और पश्चिम की और विस्तृत गन्धमादन एवं कैलास-ये दो पर्वत अस्सी हजार योजन विस्तृत हैं। पूर्व के समान मेरु के पश्चिम की ओर भी निषेध और पारियात्र नामक दो मर्यादापर्वत हैं, जो अपने मूलभाग से समुद्र के भीतर तक प्रविष्ट हैं ॥ २१ - २५ ॥

मेरोः पश्चिमदिग्भागे यथा पूर्वे तथा स्थितौ ।

त्रिशृङ्गो रुधिरश्चैव उत्तरौ वर्षपर्वतौ ॥२६॥

पूर्वपञ्चायतावेतावर्णवान्तर्व्यवस्थितौ ।

जाठराद्याश्च मर्यादाशैला मेरोश्चतुर्दिशं ॥२७॥

केशरादिषु या द्रोण्यस्तासु सन्ति पुराणि हि ।

लक्ष्मीविष्ण्वग्निसूर्यादिदेवानां मुनिसत्तम ॥२८॥

भौमानां स्वर्गधर्माणां न पापास्तत्र यान्ति च ।

उत्तर की ओर त्रिशृङ्ग और रुधिर नामक वर्षपर्वत हैं। ये दोनों पूर्व और पश्चिम की ओर समुद्र के गर्भ में व्यवस्थित हैं। इस प्रकार जठर आदि मर्यादापर्वत मेरु के चारों ओर सुशोभित होते हैं। ऋषिप्रवर! केसरपर्वतों के मध्य में जो श्रेणियाँ हैं, उनमें लक्ष्मी, विष्णु, अग्नि तथा सूर्य आदि देवताओं के नगर हैं। ये भौम होते हुए भी स्वर्ग के समान हैं। इनमें पापात्मा पुरुषों का प्रवेश नहीं हो पाता ॥ २६- २८अ ॥

भद्राश्वेऽस्ति हयग्रीवो वराहः केतुमालके ॥२९॥

भारते कूर्मरूपी च मत्स्यरूपः कुरुष्वपि ।

विश्वरूपेण सर्वत्र पूज्यते भगवान् हरिः ॥३०॥

किम्पुरुषाद्यष्टसु क्षुद्भीतिशोकादिकं न च ।

चत्तुर्विंशतिसाहस्रं प्रजा जीवन्त्यनामयाः ॥३१॥

कृतादिकल्पना नास्ति भौमान्यम्भांसि नाम्बुदाः ।

सर्वेष्वेतेषु वर्षेषु सप्त सप्त कुलाचलाः ॥३२॥

नद्यश्च शतशस्तेभ्यस्तीर्थभूताः प्रजज्ञिरे ।

भारते यानि नीर्थानि तानि तीर्थानि वच्मि ते ॥३३॥

श्रीविष्णुभगवान् भद्राश्ववर्ष में हयग्रीवरूप से, केतुमालवर्ष में वराहरूप से, भारतवर्ष में कूर्मरूप से तथा उत्तरकुरुवर्ष में मत्स्यरूप से निवास करते हैं। भगवान् श्रीहरि विश्वरूप से सर्वत्र पूजित होते हैं। किम्पुरुष आदि आठ वर्षों में क्षुधा, भय तथा शोक आदि कुछ भी नहीं है। उनमें प्रजाजन चौबीस हजार वर्षतक रोग-शोकरहित होकर जीवन व्यतीत करते हैं। उनमें कृत- त्रेतादि युगों की कल्पना नहीं होती; न उनमें कभी वर्षा ही होती है। उनमें केवल पार्थिव जल रहता है। इन सभी वर्षों में सात-सात कुलाचल पर्वत हैं और उनसे निकली हुई सैकड़ों तीर्थरूपा नदियाँ हैं। अब मैं भारतवर्ष में जो तीर्थ हैं, उनका तुम्हारे सम्मुख वर्णन करता हूँ ॥ २९-३३ ॥

इत्याग्नेये महापुराणे भुवनकोषः नाम अष्टाधिकशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'भुवनकोश का वर्णन' नामक एक सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १०८ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 109  

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