श्रीदेवीरहस्य पटल ८
रुद्रयामलतन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्यम्
के पटल ८ में जप और पारायण विधि के विषय में बतलाया गया है।
रुद्रयामलतन्त्रोक्तं श्रीदेवीरहस्यम् अष्टमः पटल: पारायण-जपविधिः
Shri Devi Rahasya Patal 8
रुद्रयामलतन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य आठवाँ
पटल
रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्यम्
अष्टम पटल
श्रीदेवीरहस्य पटल ८ पारायण-जप विधि
अथाष्टमः पटल:
जपसाधनप्रकार:
श्री भैरव उवाच
अधुना कथयिष्यामि जपसाधनमुत्तमम् ।
येन साधितमात्रेण मन्त्रसिद्धिः
प्रजायते ॥ १ ॥
गुरुपादप्रसादेन श्रीविद्या यदि
लभ्यते ।
पुरस्क्रियाजपेनैव चेत्तां साधयितुं
क्षमः ॥ २ ॥
वाग्मी धनी जयी शूर इह भोगी स
भूपतिः ।
परत्र साधको देवि भवेद् भैरवसन्निभः
॥३॥
सुदिने शुभनक्षत्रे प्रातः कृत्यं विधाय
च।
स्वगृहं स्वगुरुं नीत्वा नत्वा पादौ
महेश्वरि ॥४॥
प्रक्षाल्य पूजायतने श्रीचक्रं
पूजयेच्छिवे ।
सिन्दूरेण लिखेत् त्र्यस्त्रं गुरुं
तत्र निवेशयेत् ॥ ५ ॥
जप साधन- प्रकार-श्री भैरव ने कहा
कि हे पार्वति! अब मैं उत्तम जपसाधन का वर्णन करूँगा,
जिसके साधन से ही मन्त्रसिद्धि मिलती है। गुरुपादप्रसाद से यदि
श्रीविद्या मिलती है तो उसके पुरश्चरण से साधक वाग्मी, धनी,
विजयी, शूरवीर, राजा के
समान, ऐहिक सुख का भोग करता है। परलोक में साधक भैरव के समान
होता है, शुभ दिन एवं शुभ नक्षत्र में प्रातः कृत्य करके
अपने गुरु को अपने घर पर ले आये। गुरु के नख और पैरों को धोकर पूजागृह में लाकर
श्रीचक्र में पूजन करे। सिन्दूर से त्रिकोण मण्डल बना कर उस पर गुरु को बैठाये ।।
१-५ ।।
श्रीदेवीरहस्य आठवाँ पटल- गुरुपूजामन्त्रः
तारं शिवत्रयं देवि गुरवे
पदमुच्चरेत् ।
विश्वमन्ते महादेवि गुरुमन्त्रोऽयमुत्तमः
॥६॥
अनेन मूलमन्त्रेण गुरुं सम्पूजयेत्
सुधीः ।
मातृकाभिः समं देवि यथास्थानेषु
पार्वति ॥७॥
गुरुपूजा मन्त्रजप-तार= ॐ, शिवत्रयः = ह्रां ह्रां ह्रां, गुरवे, विश्व= नमः के योग से बने 'ॐ ह्रां ह्रां गुरवे नमः'
उत्तम मन्त्र से गुरु का पूजन करे । गुरु शरीर में यथा- स्थान
मातृकाओं का पूजन करे।
गन्धाक्षतप्रसूनाद्यैर्द्रव्यैर्देवि
शुभाम्बरैः ।
गुरुं सन्तोषयेत्तत्र दक्षिणाभिः कुलामृतैः
॥८॥
यह पूजन गन्धाक्षतपुष्प आदि द्रव्य
और शुभ्र वस्त्र से करे। कुलामृत, दक्षिणा आदि
से गुरु को सन्तुष्ट करे।
तदाज्ञां शिरसादाय जपाय साधकोत्तमः
।
रवौ प्रातर्महादेवि गुरुं नत्वा च
साधकः ॥९॥
प्राङ्मुखः प्रणतो भूत्वा
जपेदष्टोत्तरं शतम् ।
शिवशक्त्योः पृथग् देवि जपं
सम्पाद्य साधकः ॥ १० ॥
गुरु की आज्ञा शिरोधार्य करके
रविवार के प्रातः काल में साधकोत्तम गुरु को प्रणाम करके पूरब तरफ मुख करके प्रणत
होकर एक सौ आठ बार मन्त्र का जप करे। शिव और शक्ति दोनों मन्त्रों का जप अलग- अलग
करे।
षडङ्गं मूलमन्त्रस्य दशांशेन जपेत्ततः ।
ततो देवि जपेन्मन्त्री छन्दोमुनिमनुं
ततः ॥ ११ ॥
मूल मन्त्र का दशांश षड्गों का जप
करे। इसके बाद साधक छन्द और ऋषि मन्त्र का जप करें।
ततो देवि जयी जप्त्वा होमं कुर्याद्
दशांशतः ।
तर्पयित्वा दशांशेन मार्जयेत्
तद्दशांशतः ॥ १२ ॥
भोजयित्वा दशांशेन
जपसिद्धिर्भवेत्ततः ।
जपात् सिद्धिर्जपात् सिद्धिर्जपात्
सिद्धिर्महेश्वरि ।। १३ ।।
तब जयी का जप करके दशांश हवन करे।
हवन का दशांश तर्पण और तर्पण का दशांश मार्जन और मार्जन का दशांश ब्राह्मणभोजन
करावे। इस प्रकार के पुरश्चरण से मन्त्र सिद्ध होता है। हे महेश्वरि जप से सिद्धि
होती है,
जप से सिद्धि होती है, जप से सिद्धि होती है।
न स्तवान्नार्चनाद्ध्यानात्
सिद्धिर्भवति तादृशी ।
पारायणजपेनास्ति यादृशी मन्त्रिणां
शिवे ॥१४॥
इसके समान सिद्धि न स्तोत्रपाठ से,
न अर्चन से और न ही ध्यान से होती है। पारायण जप के समान किसी दूसरी
विधि से सिद्धि नहीं होती है ।
श्रीदेवीरहस्य पटल ८- पारायणजपविधिप्रश्न:
श्रीदेव्युवाच
भगवन् परमेशान साधकानां हितेच्छया ।
परायणजपं ब्रूहि यद्यहं तव वल्लभा
।। १५ ।।
पारायण जपविधिविषयक प्रश्न—
श्रीदेवी ने कहा कि हे भगवन्! परमेशान साधकों के हित के लिये पारायण
जपविधि का वर्णन कीजिये, यदि आप मुझे अति प्रिय मानते हों ।।
१५ ।।
श्रीदेवीरहस्यम् अष्टम पटल- पारायणजपनिर्णयः
श्रीभैरव उवाच
देवि पारायणं वक्ष्ये विद्याजपफलाप्तये
।
येन सिद्धियुतो मन्त्री
भवेद्वैरवसन्निभः ॥ १६ ॥
पारायण जपनिरूपण-श्री भैरव ने कहा
कि हे देवि! विद्या जप फलप्राप्ति के लिये मैं पारायण का वर्णन करता हूँ। पारायण
जप से साधक सिद्धि प्राप्त करके भैरव- तुल्य हो जाता है।
असंख्याताश्च विख्याताः पारायणजपाः
प्रिये ।
तेषां तत्त्वं परं वक्ष्ये येन
ब्रह्ममयो भवेत् ॥ १७॥
हे प्रिये! पारायण जप अगणित प्रकार
के विख्यात है। अतः उनके उस परम तत्त्व का वर्णन करता हूँ,
जिससे साधक ब्रह्ममय हो जाता है।
पारायणस्तु स जपः सम्यग् यद्
ब्रह्मचिन्तनम् ।
तस्यैव सगुणस्यात्र चिन्तनं
घटिकाजपः ॥१८॥
जैसे सम्यक् ब्रह्म का चिन्तन होता
है,
वैसे ही पारायण जप होता है। इसमें सगुण ब्रह्म का चिन्तन प्रत्येक
घटि के जप से होता है।
द्विविधोऽयं जपो देवि सगुणो
निर्गुणस्तथा ।
सिद्ध: साध्य इति स्मृत्वा जपेत्
पारायणं मनुम् ।१९।।
पारायण जप दो प्रकार का होता है,
एक सगुण और दूसरा निर्गुण । मन्त्र का सिद्ध, साध्य
का निर्णय करके पारायण जप करना चाहिये।
कलेर्युगारम्भदिने दिनेशो हल्लेखबीजेऽभ्युदितो
बभूव ।
तदादि नित्यं घटिकैकमानात्
प्रत्यक्षरं याति दिने दिनेऽर्कः ॥ २० ॥
कलियुग के आरम्भ दिवस में 'ह्रीं' बीज में सूर्य का उदय हुआ। उस दिन से
प्रारम्भ होकर एक-एक घटि के मान से प्रत्येक अक्षर व्यतीत होता है। इस क्रम से
प्रत्येक अक्षर को सूर्य पार करता है।
नवार्णमन्त्रावलिमेति सूर्यो
मध्यन्दिने सायमथ प्रभाते ।
त्रिभागमाद्यन्तरयोस्तथान्ते विधाय
मन्त्रस्य जपेन्मुमुक्षुः ॥ २१ ॥
नवार्ण मन्त्रावलि में सूर्य
मध्याह्न,
तब सायं तब प्रभात काल में रहता हैं। मुमुक्षु इस प्रकार दिनों का
तीन भाग करके अर्थात् मध्याह्न से शाम तक, शाम से प्रभात तक
और प्रभात से मध्याह्न तक के तीन भागों में मन्त्रजप करे।
एकादिपञ्चाशतिवर्णपङ्क्त्या संयोज्य
मन्त्रस्य नवाक्षराणि ।
घटीप्रमाणा: कुलमातृकाया भवन्ति
वर्णा मनुराजसिद्धौ ॥ २२ ॥
इक्यावन वर्णों के साथ नवार्ण के नव
अक्षरों को जोड़कर साठ घटि की प्रत्येक घटि में कुलमातृकाओं की स्थिति होने से
मन्त्रराज सिद्ध होता है।
आई विभूषितां कृत्वा मातृकां
हंसभूषिताम् ।
मूलविद्यां जपेन्मन्त्री
शिवशक्तिमयीं शिवे ॥ २३ ॥
मन्त्र के साथ 'आई' लगाकर मातृका के साथ हंस जोड़कर शिव-शक्तिमयी विद्या
का जप साधक करे। त्र्यक्षरी बाला मन्त्र 'ऐं क्लीं सौः'
की उपविधि निम्न प्रकार की होगी इसी प्रकार की विधि अन्य मन्त्रों
की भी होगी-
- ऐं क्लीं सौ अ आई हंसः
- ऐं क्लीं सौ आ आई हंसः
- ऐं क्लीं सौ इ आई हंसः
- ऐं क्लीं सौ ई आई हंसः
- ऐं क्लीं सौ उ आई हंसः
- ऐं क्लीं सौ ऊ आई हंसः
- ऐं क्लीं सौ ऋ आई हंसः
- ऐं क्लीं सौ ॠ आई हंसः
- ऐं क्लीं सौ लृ आई हंस:
- ऐं क्लीं सौ लॄ आई हंसः
- ऐं क्लीं सौ ए आई हंस:
- ऐं क्लीं सौ ऐं आई हंसः
- ऐं क्लीं सौ ओ आई हंसः
- ऐं क्लीं सौ औ आई हंसः
- ऐं क्लीं सौ अं आई हंसः
- ऐं क्लीं सौ अ: आई हंसः
- ऐं क्लीं सौ काई हंस:
- ऐं क्लीं सौ खाई हंसः
- ऐं क्लीं सौ गाई हंसः
- ऐं क्लीं सौ घाई हंसः
- ऐं क्लीं सौ ङाई हंसः
- ऐं क्लीं सौ चाई हंस:
- ऐं क्लीं सौ छाई हंसः
- ऐं क्लीं सौ जाई हंसः
- ऐं क्लीं सौ झाई हंस:
- ऐं क्लीं सौ ञाई हंसः
- ऐं क्लीं सौ टाई हंस:
- ऐं क्लीं सौ ठाई हंसः
- ऐं क्लीं सौ डाई हंस:
- ऐं क्लीं सौ ढाई हंस
- ऐं क्लीं सौ णाई हंस:
- ऐं क्लीं सौ ताई हंसः
- ऐं क्ली सी थाई हंसः
- ऐं क्लीं सौ दाई हंसः
- ऐं क्लीं सौ धाई हंस:
- ऐं क्लीं सौ नाई हंसः
- ऐं क्लीं सौ पाई हंसः
- ऐं क्लीं सौ फाई हंस:
- ऐं क्लीं सौ बाई हंसः
- ऐं क्लीं सौ भाई हंसः
- ऐं क्लीं सौ माई हंस:
- ऐं क्लीं सौ याई हंसः
- ऐं क्लीं सौ राई हंस:
- ऐं क्लीं सौ लाई हंस:
- ऐं क्लीं सौ वाई हंसः
- ऐं क्लीं सौ शाई हंसः
- ऐं क्लीं सौ षाई हंसः
- ऐं क्लीं सौ साई हंसः
- ऐं क्लीं सौ हाई हंस
- ऐं क्लीं सौ लाई हंसः
- ऐं क्लीं सौ क्षाई हंसः
- ऐं क्लीं सौ ऐं आई हंसः
- ऐं क्लीं सौ ह्रीं आई हंसः
- ऐं क्लीं सौ क्लीं आई हंसः
- ऐं क्लीं सौ चां आई हंसः
- ऐं क्लीं सौ मुं आई हंस:
- ऐं क्लीं सौ डा आई हंसः
- ऐं क्लीं सौ यै आई हंसः
- ऐं क्लीं सौ विं आई हंसः
- ऐं क्लीं सौ च्चें आई हंसः
इस जप के लिये १२ बजे दिन से १२
बजकर २४ मिनट तक प्रथम घटि १२.२४ से १२.४८ तक दूसरी घटी और दूसरे दिन के ११.३६ से
१२ बजे तक साठवीं घटी होती हैं।
पञ्चनादान् परित्यज्य यो जपेत्
षोडशाक्षरम् ।
पञ्चषष्ट्यक्षरीमूलान्
पञ्चनादात्मको भवेत् ॥ २४ ॥
पञ्च नादों को छोड़कर जो षोडशाक्षरी
विद्या का जप करता है, उसे पैंसठ अक्षरों
के साथ मूल विद्या का जप करना चाहिये। इससे उसका जप पञ्चनादात्मक होता है।
षोडशाक्षरी विद्या के सोलह वर्णों
के साथ 'ल क्ष' को छोड़कर 'अ' से 'ह' तक के ४९ वर्णों को
जोडने से पैंसठ अक्षर होते हैं। इसके जप के अक्षर होते हैं-अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ ए ऐ
ओ औ अं अः क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह
श्री क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं सकल ह्रीं । इनमें आई हसः मिलाकर जप करना
चाहिये।
आदितो देवि विद्यादौ विद्यामध्ये तदग्रतः
।
विद्यान्तेऽपि त्यजेद्विद्यां
शिवरूपां शिवो भवेत् ॥ २५ ॥
प्रारम्भ से विद्या के पहले,
विद्या के बीच में और विद्या के आगे एवं पूरी विद्या के अन्त में
मातृकाओं को लगाकर जो जप करता है, वह शिवस्वरूप स्वयं शिव हो
जाता है।
शहके विश्वरूपोऽपि सूर्योऽकारे
तदोदितः ।
तदा प्रभृति लोकेऽस्मिन् मातृकासु वरेद्रविः
॥ २६ ॥
श ह क के विश्वरूप होने पर भी सूर्य
का उदय 'अ'कार में होता है। इसके बाद आ इ ई से ल क्ष तक की
मातृकाओं में सूर्य विचरता है।
वासनावशतस्त्र्यक्षो वह्नितेजोमयो
भवेत् ।
लक्ष्मीं प्राप्य शिवो मन्त्री
सौभाग्यान्तां यथाक्रमम् ॥ २७ ॥
वासनावश त्र्यक्ष शिव अग्नि तेजरूप
हो जाते हैं। इससे शिव मन्त्र का साधक वैभव और सौभाग्य प्राप्त करता है।
पयोदविद्यया विद्यामाई पल्लवितां
क्रमात् ।
हंसान्तां सञ्जपेद् देवि मन्त्री
मातृकया सदा ॥ २८ ॥
अं से लेकर हं तक की मातृकाओं को आई
और हंस से पल्लवित करके मन्त्रजप करना चाहिये।
अयं पारायणो नाम जप: सिद्धिप्रदः
कलौ ।
महाश्रीषोडशीविद्यामष्टभूतिमयीं
पराम् ॥२९॥
कलियुग में यह नाम पारायाण जप
सिद्धिप्रदायक है। महा श्री षोड़शी विद्या अष्ट भूतिमयी परा विद्या है।
वेदादिभूतां प्रजपेन्मातृकाभिः
कुलाश्रयः ।
इदं रहस्य परमं पारायणजपात्मकम् ।
ब्रह्मविद्यालयोत्थानं नाख्येयं
ब्रह्मवादिभिः ॥ ३० ॥
वैदिक मन्त्रों का जप भी कुलाश्रय
से मातृकाओं के साथ किया जा सकता है। यह पारायण जपात्मक परम रहस्य ब्रह्मविद्या का
लय और उत्थान है। ब्रह्मवादियों को भी इसे नहीं बताना चाहिये।। १६-३०।।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये पारायणजपविधि-निरूपणं नामाष्टमः पटलः ॥८ ॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में पारायणजपविधिनिरूपण नामक अष्टम पटल पूर्ण हुआ।
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 9
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