अग्निपुराण अध्याय १०९

अग्निपुराण अध्याय १०९    

अग्निपुराण अध्याय १०९ में तीर्थ माहात्म्य का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय १०९

अग्निपुराणम् नवाधिकशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 109     

अग्निपुराण एक सौ नौवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय १०९                

अग्निपुराणम् अध्यायः १०९ – तीर्थमाहात्म्यम्

अथ नवाधिकशततमोऽध्यायः

अग्निरुवाच

माहात्म्यं सर्वतीर्थानां वक्ष्ये यद्भक्तिमुक्तिदं ।

यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्चैव सुसंयतं ॥१॥

विद्या तपश्च कीर्तिश्च स तीर्थफलमश्नुते ।

प्रतिग्राहादुपावृत्तो लघ्वाहारो जितेन्द्रियः ॥२॥

निष्पापस्तीर्थयात्री तु सर्वयज्ञफलं लभेत् ।

अनुपोष्य त्रिरात्रीणि तीर्थान्यनभिगम्य च ॥३॥

अदत्वा काञ्चनं गाश्च दरिद्रो नाम जायते ।

तीर्थाभिगमने तत्स्याद्यद्यज्ञेनाप्यते फलं ॥४॥

अग्निदेव कहते हैं- अब मैं सब तीर्थों का माहात्म्य बताऊँगा, जो भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। जिसके हाथ, पैर और मन भलीभाँति संयम में रहें तथा जिसमें विद्या, तपस्या और उत्तम कीर्ति हो, वही तीर्थ के पूर्ण फल का भागी होता है। जो प्रतिग्रह छोड़ चुका है, नियमित भोजन करता और इन्द्रियों को काबू में रखता है, वह पापरहित तीर्थयात्री सब यज्ञों का फल पाता है। जिसने कभी तीन राततक उपवास नहीं किया; तीर्थों की यात्रा नहीं की और सुवर्ण एवं गौ का दान नहीं किया, वह दरिद्र होता है। यज्ञ से जिस फल की प्राप्ति होती है, वही तीर्थ- सेवन से भी मिलता है  ॥ १-४ ॥

पुष्करं परमं तीर्थं सान्निध्यं हि त्रिसन्ध्यकं ।

दशकोटिसहस्राणि तीर्थानां विप्र पुष्करे ॥५॥

ब्रह्मा सह सुरैरास्ते मुनयः सर्वमिच्छवः ।

देवाः प्राप्ताः सिद्धिमत्र स्नाताः पितृसुरार्चकाः ॥६॥

अश्वमेधफलं प्राप्य ब्रह्मलोकं प्रयान्ति ते ।

कार्त्तिक्यामन्नदानाच्च निर्मलो ब्रह्मलोकभाक् ॥७॥

पुष्करे दुष्करं गन्तुं पुष्करे दुष्करं तपः ।

दुष्करं पुष्करे दानं वस्तुं चैव सुदुष्करं ॥८॥

तत्र वासाज्जपच्छ्राद्धात्कुलानां शतमुद्धरेत् ।

जम्बुमार्गं च तत्रैव तीर्थन्तण्डुलिकाश्रमं ॥९॥

ब्रह्मन् ! पुष्कर श्रेष्ठ तीर्थ है। वहाँ तीनों संध्याओं के समय दस हजार कोटि तीर्थों का निवास रहता है। पुष्कर में सम्पूर्ण देवताओं के साथ ब्रह्माजी निवास करते हैं। सब कुछ चाहनेवाले मुनि और देवता वहाँ स्नान करके सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। पुष्कर में देवताओं और पितरों की पूजा करनेवाले मनुष्य अश्वमेधयज्ञ का फल प्राप्त करके ब्रह्मलोक में जाते हैं। जो कार्तिक की पूर्णिमा को वहाँ अन्नदान करता है, वह शुद्धचित्त होकर ब्रह्मलोक का भागी होता है। पुष्कर में जाना दुष्कर है, पुष्कर में तपस्या का सुयोग मिलना दुष्कर है, पुष्कर में दान का अवसर प्राप्त होना भी दुष्कर है और वहाँ निवास का सौभाग्य होना तो अत्यन्त ही दुष्कर है। वहाँ निवास, जप और श्राद्ध करने से मनुष्य अपनी सौ पीढ़ियों का उद्धार करता है। वहीं जम्बूमार्ग तथा तण्डुलिकाश्रम तीर्थ भी हैं ॥ ५-९ ॥

कर्णाश्रमं कोटितीर्थं नर्मदा चार्वुदं परं ।

तीर्थञ्चर्मण्वती सिन्धुः सोमनाथः प्रभासकं ॥१०॥

सरस्वत्यब्धिसङ्गश्च सागरन्तीर्थमुत्तमं ।

पिण्डारकं द्वारका च गोमती सर्वसिद्धिदा ॥११॥

भूमितीर्थं ब्रह्मतुङ्गं तीर्थं पञ्चनदं परं ।

भीमतीर्थं गिरीन्द्रञ्च देविका पापनाशिनी ॥१२॥

तीर्थं विनशनं पुण्यं नागोद्भेदमघार्दनं ।

तीर्थं कुमारकोटिश्च सर्वदानीरितानि च ॥१३॥

कुरुक्षेत्रं गमिष्यामि कुरुक्षेत्रे वसाम्यहं ।

य एवं सततं ब्रूयात्सोऽमलः प्राप्नुयाद्दिवं ॥१४॥

तत्र विष्ण्वादयो देवास्तत्र वासाद्धरिं व्रजेत् ।

सरस्वत्यां सन्निहित्यां स्नानकृद्ब्रह्मलोकभाक् ॥१५॥

पांशवोपि कुरुक्षेत्रे नयन्ति परमां गतिं ।

धर्मतीर्थं सुवर्णाख्यं गङ्गाद्वारमनुत्तमं ॥१६॥

तीर्थं कणखलं पुण्यं भद्रकर्णह्रदन्तथा ।

गङ्गासरस्वतीसङ्गं ब्रह्मावर्तमघार्दनं ॥१७॥

 ( अब अन्य तीर्थों के विषय में सुनो-) कण्वाश्रम, कोटितीर्थ, नर्मदा और अर्बुद (आबू) भी उत्तम तीर्थ हैं। चर्मण्वती (चम्बल), सिन्धु, सोमनाथ, प्रभास, सरस्वती समुद्र-संगम तथा सागर भी श्रेष्ठ तीर्थ हैं। पिण्डारक क्षेत्र, द्वारका और गोमती ये सब प्रकार की सिद्धि देनेवाले तीर्थ हैं। भूमितीर्थ, ब्रह्मतुङ्गतीर्थ और पञ्चनद (सतलज आदि पाँचों नदियाँ) भी उत्तम हैं। भीमतीर्थ, गिरीन्द्रतीर्थ, पापनाशिनी देविका नदी, पवित्र विनशनतीर्थ (कुरुक्षेत्र), नागोद्भेद, अघार्दन तथा कुमारकोटि तीर्थ-ये सब कुछ देनेवाले बताये गये हैं। 'मैं कुरुक्षेत्र जाऊँगा, कुरुक्षेत्र में निवास करूँगा' जो सदा ऐसा कहता है, वह शुद्ध हो जाता है और उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। वहाँ विष्णु आदि देवता रहते हैं। वहाँ निवास करने से मनुष्य श्रीहरि के धाम में जाता है। कुरुक्षेत्र में समीप ही सरस्वती बहती हैं। उसमें स्नान करनेवाला मनुष्य ब्रह्मलोक का भागी होता है। कुरुक्षेत्र की धूलि भी परम गति की प्राप्ति कराती है। धर्मतीर्थ, सुवर्णतीर्थ, परम उत्तम गङ्गाद्वार (हरिद्वार), पवित्र तीर्थ कनखल, भद्रकर्ण-हद, गङ्गा-सरस्वती-संगम और ब्रह्मावर्त - ये पापनाशक तीर्थ हैं ॥ १०- १७ ॥

भृगुतुङ्गञ्च कुब्जाम्रं गङ्गोद्भेदमघान्तकं ।

वाराणसी वरन्तीर्थमविमुक्तमनुत्तमं ॥१८॥

कपालमोचनं तीर्थन्तीर्थराजं प्रयागकं ।

गोमतीगङ्गयोः सङ्गं गङ्गा सर्वत्र नाकदा ॥१९॥

तीर्थं राजगृहं पुण्यं शालग्राममघान्तकं ।

वटेशं वामन्न्तीर्थं कालिकासङ्गमुत्तमं ॥२०॥

भृगुतुङ्ग, कुब्जाम्र तथा गङ्गोद्भेद-ये भी पापों को दूर करनेवाले हैं। वाराणसी (काशी) सर्वोत्तम तीर्थ है। उसे श्रेष्ठ अविमुक्त क्षेत्र भी कहते हैं । कपाल मोचनतीर्थ भी उत्तम है, प्रयाग तो सब तीर्थों का राजा ही है। गोमती और गङ्गा का संगम भी पावन तीर्थ है। गङ्गाजी कहीं भी क्यों न हों, सर्वत्र स्वर्गलोक की प्राप्ति करानेवाली हैं। राजगृह पवित्र तीर्थ है। शालग्राम तीर्थ पापों का नाश करनेवाला है। वटेश, वामन तथा कालिका संगम तीर्थ भी उत्तम हैं ॥ १८-२० ॥

लौहित्यं करतोयाख्यं शोणञ्चाथर्षभं परं ।

श्रीपर्वतं कोल्वगिरिं सह्याद्रिर्मलयो गिरिः ॥२१॥

गोदावरी तुङ्गभद्रा कावेरो वरदा नदी ।

तापी पयोष्णी रेवा च दण्डकारण्यमुत्तमं ॥२२॥

कालञ्जरं मुञ्जवटन्तीर्थं सूर्पारकं परं ।

मन्दाकिनी चित्रकूटं शृङ्गवेरपुरं परं ॥२३॥

अवन्ती परमं तीर्थमयोध्या पापनाशनी ।

नैमिषं परमं तीर्थं भुक्तिमुक्तिप्रदायकं ॥२४॥

लौहित्य - तीर्थ, करतोया नदी, शोणभद्र तथा ऋषभतीर्थ भी श्रेष्ठ हैं। श्रीपर्वत, कोलाचल, सह्यगिरि, मलयगिरि, गोदावरी, तुङ्गभद्रा, वरदायिनी कावेरी नदी, तापी, पयोष्णी, रेवा (नर्मदा) और दण्डकारण्य भी उत्तम तीर्थ हैं। कालंजर, मुञ्जवट, शूर्पारक, मन्दाकिनी, चित्रकूट और शृङ्गवेरपुर श्रेष्ठ तीर्थ हैं। अवन्ती भी उत्तम तीर्थ है। अयोध्या सब पापों का नाश करनेवाली है। नैमिषारण्य परम पवित्र तीर्थ है। वह भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है । २१-२४ ॥

इत्याग्नेये महापुराणे तीर्थयात्रा माहात्म्यं नाम नवाधिकशततमोऽध्यायः॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'तीर्थमाहात्म्य वर्णन' नामक एक सौ नौवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १०९ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 110  

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