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अग्निपुराण अध्याय १११

अग्निपुराण अध्याय १११    

अग्निपुराण अध्याय १११ में प्रयाग-माहात्म्य का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय १११

अग्निपुराणम् एकादशाधिकशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 111      

अग्निपुराण एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय १११                 

अग्निपुराणम् अध्यायः १११– प्रयागमाहात्म्यं

अथ एकादशाधिकशततमोऽध्यायः

अग्निरुवाच

वक्ष्ये प्रयागमाहात्म्यं भुक्तिमुक्तिप्रदं परं ।

प्रयागे ब्रह्मविष्ण्वाद्या देव मुनिवराः स्थिताः ॥१॥

सरितः सागराः सिद्धा गन्धर्वसराप्सस्तथा ।

तत्र त्रीण्यग्निकुण्डानि तेषां मध्ये तु जाह्नवी ॥२॥

वेगेन समतिक्रान्ता सर्वतीर्थतिरस्कृता ।

तपनस्य सुता तत्र त्रिषु लोकेषु विश्रुता ॥३॥

गङ्गायमुनयोर्मध्यं पृथिव्या जघनं स्मृतं ।

प्रयागं जघनस्यान्तरुपस्थमृषयो विदुः ॥४॥

अग्निदेव कहते हैंब्रह्मन् ! अब मैं प्रयाग का माहात्म्य बताता हूँ, जो भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला तथा उत्तम है। प्रयाग में ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता तथा बड़े-बड़े मुनिवर निवास करते हैं। नदियाँ, समुद्र, सिद्ध, गन्धर्व तथा अप्सराएँ भी उस तीर्थ में वास करती हैं। प्रयाग में तीन अग्निकुण्ड हैं। उनके बीच में गङ्गा सब तीर्थों को साथ लिये बड़े वेग से बहती हैं। वहाँ त्रिभुवन- विख्यात सूर्यकन्या यमुना भी हैं। गङ्गा और यमुना का मध्यभाग पृथ्वी का 'जघन' माना गया है और प्रयाग को ऋषियों ने जघन के बीच का 'उपस्थ 'भाग' बताया है ॥ १-४ ॥

प्रयागं सप्रतिष्ठानं कम्बलाश्वतरावुभौ ।

तीर्थं भोगवती चैव वेदी प्रोक्ता प्रजापतेः ॥५॥

तत्र वेदाश्च यज्ञाश्च मूर्तिमन्तः प्रयागके ।

स्तवनादस्य तीर्थस्य नामसङ्किर्तनादपि ॥६॥

मृत्तिकालम्भनाद्वापि सर्वपापैः प्रमुच्यते ।

प्रयागे सङ्गते दानं श्राद्धं जप्यादि चाक्षयं ॥७॥

प्रतिष्ठान (झूसी) सहित प्रयाग, कम्बल और अश्वतर नाग तथा भोगवती तीर्थ-ये ब्रह्माजी के यज्ञ की वेदी कहे गये हैं। प्रयाग में वेद और यज्ञ मूर्तिमान् होकर रहते हैं। उस तीर्थ के स्तवन और नाम – कीर्तन से तथा वहाँ की मिट्टी का स्पर्श करनेमात्र से भी मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। प्रयाग में गङ्गा और यमुना के संगम पर किये हुए दान, श्राद्ध और जप आदि अक्षय होते हैं ॥ ५-७ ॥

न देववचनाद्विप्र न लोकवचनादपि ।

मतिरुत्क्रमणीयान्ते प्रयागे मरणं प्रति ॥८॥

दशतीर्थसहस्राणि षष्टिकोट्यस्तथापराः ।

तेषां सान्निध्यमत्रैव प्रयागं परमन्ततः ॥९॥

वासुकेर्भोगवत्यत्र हंसप्रपतनं परं ।

गवां कोटिप्रदानाद्यत्त्र्यहं स्नानस्य तत्फलं ॥१०॥

प्रयागे माघमासे तु एवमाहुर्मनीषिणः ।

सर्वत्र सुलभा गङ्गा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा ॥११॥

गङाद्वारे प्रयागे च गङ्गासागरसङ्गमे ।

अत्र दानाद्दिवं याति राजेन्द्रो जायतेऽत्र च ॥१२॥

ब्रह्मन् ! वेद अथवा लोक- किसी के कहने से भी अन्त में प्रयागतीर्थ के भीतर मरने का विचार नहीं छोड़ना चाहिये । प्रयाग में साठ करोड़, दस हजार तीर्थों का निवास है; अतः वह सबसे श्रेष्ठ है। वासुकि नाग का स्थान, भोगवती तीर्थ और हंसप्रपतन-ये उत्तम तीर्थ हैं। कोटि गोदान से जो फल मिलता है, वही इनमें तीन दिनों तक स्नान करनेमात्र से प्राप्त हो जाता है। प्रयाग में माघमास में मनीषी पुरुष ऐसा कहते हैं कि 'गङ्गा सर्वत्र सुलभ हैं; किंतु गङ्गाद्वार, प्रयाग और गङ्गासागर संगम-इन तीन स्थानों में उनका मिलना बहुत कठिन है।' प्रयाग में दान देने से मनुष्य स्वर्ग में जाता है और इस लोक में आने पर राजाओं का भी राजा होता है ॥ ८-१२ ॥

वटमूले सङ्गमादौ मृतो विष्णुपुरीं व्रजेत् ।

उर्वशीपुलिनं रम्यं तीर्थं सन्ध्यावतस्तथा ॥१३॥

कोटीतीर्थञ्चाश्वमेधं गङ्गायमुनमुत्तमं ।

मानसं रजसा हीनं तीर्थं वासरकं परं ॥१४॥

अक्षयवट के मूल के समीप और संगम आदि में मृत्यु को प्राप्त हुआ मनुष्य भगवान् विष्णु के धाम में जाता है। प्रयाग में परम रमणीय उर्वशी - पुलिन, संध्यावट, कोटितीर्थ, दशाश्वमेध घाट, गङ्गा- यमुना का उत्तम संगम, रजोहीन मानसतीर्थ तथा वासरक तीर्थ-ये सभी परम उत्तम हैं । १३-१४ ॥

इत्याग्नेये महापुराणे प्रयागमाहात्म्यं नाम एकादशाधिकशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'प्रयाग-माहात्म्य वर्णन' नामक एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१११॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 112 

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