अग्निपुराण अध्याय ११२
अग्निपुराण
अध्याय ११२ में वाराणसी माहात्म्य का वर्णन है।
अग्निपुराणम् द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 112
अग्निपुराण एक सौ बारहवाँ अध्याय
अग्नि पुराण अध्याय ११२
अग्निपुराणम् अध्यायः ११२ – वाराणसीमाहात्म्यम्
अथ द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः
अग्निरुवाच
वाराणसी परं
तीर्थं गौर्यै प्राह महेश्वरः ।
भुक्तिमुक्तिप्रदं
पुण्यं वसतां गृणतां हरिं ॥१॥
अग्निदेव कहते
हैं- वाराणसी परम उत्तम तीर्थ है। जो वहाँ श्रीहरि का नाम लेते हुए निवास करते हैं, उन सबको वह भोग और मोक्ष प्रदान करता है।
महादेवजी ने पार्वती से उसका माहात्म्य इस प्रकार बतलाया है ॥ १ ॥
रुद्र उवाच
गौरीक्षेत्रं
न मुक्तं वै अविमुक्तं ततः स्मृतं ।
जप्तं तप्तं
दत्तममविमुक्ते विलाक्षयं ॥२॥
अश्मना चरणौ
हत्वा वसेत्काशीन्न हि त्यजेत् ।
हरिश्चन्द्रं
परं गुह्यं गुह्यमाम्नातकेश्वरं ॥३॥
जप्येश्वरं
परं गुह्यं गुह्यं श्रीपर्वतं तथा ।
महालयं परं
गुह्यं भृगुश्चण्डेश्वरं तथा ॥४॥
केदारं परमं
गुह्यमष्टौ सन्त्यविमुक्तके ।
गुह्यानां
परमं गुह्यमविमुक्तं परं मम ॥५॥
द्वियोजनन्तु
पूर्वं स्याद्योजनार्धं तदन्यथा ।
वरणा च नदी चासीत्तयोर्मध्ये
वाराणसी ॥६॥
अत्र स्नानं
जपो होमो मरणं देवपूजनं ।
श्राद्धं दानं
निवासश्च यद्यत्स्याद्भुक्तिमुक्तिदं ॥७॥
महादेवजी
बोले- गौरि ! इस क्षेत्र को मैंने कभी मुक्त नहीं किया—सदा ही वहाँ निवास किया है, इसलिये यह 'अविमुक्त' कहलाता
है। अविमुक्त क्षेत्र में किया हुआ जप, तप, होम और दान अक्षय होता है। पत्थर से दोनों पैर तोड़कर बैठ रहे, परंतु काशी कभी न छोड़े। हरिश्चन्द्र, आम्रातकेश्वर, जप्येश्वर, श्रीपर्वत, महालय,
भृगु, चण्डेश्वर और केदारतीर्थ-ये आठ अविमुक्त
क्षेत्र में परम गोपनीय तीर्थ हैं। मेरा अविमुक्त क्षेत्र सब गोपनीयों में भी परम
गोपनीय है। वह दो योजन लंबा और आधा योजन चौड़ा है। 'वरणा'
और 'नासी' (असी) - इन दो
नदियों के बीच में 'वाराणसीपुरी' है।
इसमें स्नान, जप, होम, मृत्यु, देवपूजन, श्राद्ध,
दान और निवास-जो कुछ होता है, वह सब भोग एवं
मोक्ष प्रदान करता है॥ २-७ ॥
इत्याग्नेये
महापुराणे वाराणसीमाहात्म्यं नाम द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'वाराणसी माहात्म्यवर्णन' नामक एक सौ बारहवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ ११२ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 113
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