मारुति कवच
इस नारदपुराणोक्त मारुति कवच में हनुमानजी को प्रत्येक श्लोकों के द्वारा नमस्कार किया गया है और उन्हें राम का बाण कहकर सम्बोधित भी किया है । इस कल्याणकारी कवच का जो भी साधक प्रतिदिन ब्राह्ममुहूर्त में पाठ करता है, उसकी समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं । जो प्राणी इस कवच को अष्टगन्ध से लिखकर अपने गले या अपनी दाहिनी भुजा में धारण करता है । उसे हर कार्य में सफलता प्राप्त होती है । यदि एक लाख बार श्रद्धा एवं भक्ति से इस कवच का पाठ करके इसे सिद्ध कर लिया जाय तो असाध्य कार्य भी सिद्ध हो जाते हैं । इसमें संशय नहीं हैं ।
मारुति कवचम्
Maruti kavach
मारुति कवच स्तोत्रम्
बृहन्नारदीयपुराण पूर्वभाग अथाष्टसप्ततितमोऽध्यायः
श्रीहनुमत्कवचम्
मारुति कवचं
सनत्कुमार उवाच ।
कार्तवीर्यस्य कवचं कथितं ते
मुनीश्वर ।
मोहविध्वंसनं जैत्रं मारुतेः कवचं शृणु
॥ १॥
यस्य सन्धारणात्सद्यः सर्वे
नश्यन्त्युपद्रवाः ।
भूतप्रेतारिजं दुःखं नाशमेति न
संशयः ॥ २॥
सनत्कुमार बोले—मुनीश्वर ! कार्तवीर्य का कवच तो मैंने सुना दिया। अब हनुमान् का कवच सुनो,
जो मोहनाशक तथा विजयदायक है और जिसके धारण करने से शीघ्र ही समस्त
उपद्रवों और भूत, प्रेत तथा शत्रुजन्य दुःखों का नाश हो जाता
है
एकदाहं गतो द्रष्टुं रामं रमयतां वरम्
।
आनन्दवनिकासंस्थं ध्यायन्तं
स्वात्मनः पदम् ॥ ३॥
एक समय रमण करने वालों में श्रेष्ठ
राम को देखने के लिए मैं गया। वे आनंदवन में बैठकर अपने लोक (वैकुण्ठ) का स्मरण कर
रहे थे।
तत्र रामं रमानाथं पूजितं
त्रिदशेश्वरैः ।
नमस्कृत्य तदादिष्टमासनं स्थितवान्
पुरः ॥ ४॥
उन देवपूजित रमानाथ राम को प्रणाम
कर मैं उनके आदेशानुसार आसनासीन हुआ।
तत्र सर्वं मया वृत्तं रावणस्य
वधान्तकम् ।
पृष्टं प्रोवाच राजेन्द्रः श्रीरामः
स्वयमादरात् ॥ ५॥
ततः कथान्ते भगवान्मारुतेः कवचं ददौ
।
तब मैंने रावणवध संबन्धी वृत्तान्त
उनसे पूछा। पूछने पर राजशिरोमणि राम ने स्वयं आदर- पूर्वक सब कुछ कह सुनाया और कथा
के अन्त में मुझे हनुमान् का कवच प्रदान किया ।
मह्यं तत्ते प्रवक्ष्यामि न
प्रकाश्यं हि कुत्रचित् ॥ ६॥
भविष्यदेतन्निर्द्दिष्टं बालभावेन
नारद ।
श्रीरामेणाञ्जनासूनोर्भुक्तिमुक्तिप्रदायकम्
॥ ७॥
वही कवच मैं तुम्हें बता रहा हूँ।
इसे यत्र-तत्र नहीं प्रकाशित करना । नारद ! श्रीराम ने हनुमान् के इस
भुक्ति-मुक्तिदायक कवच को बालभाव से मुझे बतलाया था । ( यह इस तरह है--)
श्री मारुति कवचम्
अथ कवचम् ।
हनुमान् पूर्वतः पातु दक्षिणे
पवनात्मजः ।
पातु प्रतीच्यामक्षघ्नः सौम्ये
सागरतारकः ॥ ८॥
पूर्व दिशा में हनुमान् मेरी रक्षा
करें। दक्षिण में पवनात्मज रक्षा करें। पश्चिम में अक्षघ्न और उत्तर में
समुद्रतारक रक्षा करें।
ऊर्ध्वं पातु कपिश्रेष्ठः
केसरिप्रियनन्दनः ।
अधस्ताद्विष्णुभक्तस्तु पातु मध्ये
च पावनिः ॥ ९॥
लङ्काविदाहकः पातु सर्वापद्भ्यो
निरन्तरम् ।
ऊपर कपिश्रेष्ठ केसरीप्रियनंदन,
नीचे विष्णुभक्त, मध्य में पवनसुत और समस्त
आपत्तियों से लंकादाहक सदा मेरी रक्षा करें।
सुग्रीवसचिवः पातु मस्तकं
वायुनन्दनः ॥ १०॥
भालं पातु महावीरो भ्रुवोर्मध्ये
निरन्तरम् ।
सुग्रीवसचिव मेरे मस्तक की रक्षा
करें। वायुनंदन भाल की और महावीर भौंहों के बीच की निरंतर रूप से रक्षा करें।
नेत्रे छायापहारी च पातु नः प्लवगेश्वरः
॥ ११॥
कपोलौ कर्णमूले च पातु
श्रीरामकिङ्करः ।
नासाग्रमञ्जनासूनुः पातु वक्त्रं
हरीश्वरः ॥ १२॥
छाया हरण करने वाले नेत्रों की,
कपीश्वर कपोलों की और श्रीरामकिंकर कर्णमूल की रक्षा करें।
अंजनीपुत्र नाक के अग्रभाग की तथा हरीश्वर मुख की रक्षा करें ।
पातु कण्ठे तु दैत्यारिः स्कन्धौ
पातु सुरारिजित् ।
भुजौ पातु महातेजाः करौ च चरणायुधः
॥ १३॥
दैत्यारि कण्ठ की और सुरारिजित्
स्कंधों की रक्षा करें । महतेजा बाँहों की और चरणायुध हाथों की रक्षा करें ।
नखान्नखायुधः पातु कुक्षौ पातु
कपीश्वरः ।
वक्षो मुद्रापहारी च पातु पार्श्वे
भुजायुधः ॥ १४॥
नखायुध नखों की और कपीश्वर पेट की
रक्षा करें। मुद्रापहारी छाती की और भुजायुध पार्श्व की रक्षा करें।
लङ्कानिभर्जनः पातु पृष्ठदेशे
निरन्तरम् ।
नाभिं श्रीरामभक्तस्तु कटिं पात्वनिलात्मजः
॥ १५॥
लंका के विध्वंसक मेरे पृष्ठदेश की
निरन्तर रूप से रक्षा करें। श्रीरामभक्त नाभि की और अनिलात्मज कमर की रक्षा करें ।
गुह्यं पातु महाप्राज्ञः सक्थिनी
अतिथिप्रियः ।
ऊरू च जानुनी पातु
लङ्काप्रासादभञ्जनः ॥ १६॥
गुह्य की रक्षा महाप्राज्ञ करें और
हड्डियों की अतिथिप्रिय । लंका के भवनों को नष्ट करने वाले ऊरुओं तथा जानुओं की
रक्षा करें।
जङ्घे पातु कपिश्रेष्ठो गुल्फौ पातु
महाबलः ।
अचलोद्धारकः पातु पादौ
भास्करसन्निभः ॥ १७॥
कपिश्रेष्ठ जंघाओं की और महाबल
गुल्फों (घुटने) की रक्षा करें । पर्वतोद्धारक चरणों की और सूर्य तुल्य अंगों की
रक्षा करें।
अङ्गानि पातु सत्त्वाढ्यः पातु
पादाङ्गुलीः सदा ।
मुखाङ्गानि महाशूरः पातु रोमाणि
चात्मवान् ॥ १८॥
सत्वाढ्य अंगुलियों की सदा रक्षा
करें और मुखाङ्गों की महासूर तथा आत्मवान् रोमों की रक्षा करें।
दिवारात्रौ त्रिलोकेषु
सदागतिसुतोऽवतु ।
स्थितं व्रजन्तमासीनं पिबन्तं
जक्षतं कपिः ॥ १९॥
त्रिलोकी में सदा गमन करने वाले
वायु के पुत्र दिन-रात मेरी रक्षा करें। उठते बैठते, चलते, पीते और खाते कपि मेरी रक्षा करें।
लोकोत्तरगुणः श्रीमान् पातु
त्र्यम्बकसम्भवः ।
प्रमत्तमप्रमत्तं वा शयानं
गहनेऽम्बुनि ॥ २०॥
प्रमत्त या अप्रमत्त होते हुए,
अथाह जल में डूबते हुए मुझे लोकोत्तर गुण वाले और शंकर से उत्पन्न
होने वाले श्रीमान् हनुमान् बचायें ।
स्थलेऽन्तरिक्षे ह्यग्नौ वा पर्वते
सागरे द्रुमे ।
सङ्ग्रामे सङ्कटे घोरे
विराड्रूपधरोऽवतु ॥ २१॥
स्थल पर,
अन्तरिक्ष में अग्नि में, पर्वत पर सागर में,
वृक्ष पर संग्राम में तथा घोर संकट में विराट्रूपधारी मेरी रक्षा करें
।
डाकिनीशाकिनीमारीकालरात्रिमरीचिकाः
।
शयानं मां विभुः पातु
पिशाचोरगराक्षसीः ॥ २२॥
डाकिनी,
शाकिनी, कालरात्रि, मरीचिका,
पिशाच, सर्प तथा राक्षसी से विभु मेरी रक्षा
करें ।
दिव्यदेहधरो
धीमान्सर्वसत्त्वभयङ्करः ।
साधकेन्द्रावनः शश्वत्पातु सर्वत एव
माम् ॥ २३॥
दिव्यदेहधारी,
साधकरक्षक, धीमान् तथा समस्त जीवों के लिये
भयंकर विभु सदा सब प्रकार से मेरी रक्षा करें।
यद्रूपं भीषणं दृष्ट्वा पलायन्ते
भयानकाः ।
स सर्वरूपः सर्वज्ञः
सृष्टिस्थितिकरोऽवतु ॥ २४॥
जिनके भीषण रूप को देख कर भयानक जीव
भाग जाते हैं, वे सर्वरूप, सर्वज्ञ तथा सृष्टि-स्थितिकारी मेरी रक्षा करें ।
स्वयं ब्रह्मा स्वयं विष्णुः
साक्षाद्देवो महेश्वरः ।
सूर्यमण्डलगः श्रीदः पातु
कालत्रयेऽपि माम् ॥ २५॥
स्वयं ब्रह्मा,
स्वयं विष्णु, साक्षात् महेश्वर, सूर्यमण्डलगामी तथा श्रीदायक तीनों काल में मेरी रक्षा करें।
यस्य शब्दमुपाकर्ण्य
दैत्यदानवराक्षसाः ।
देवा मनुष्यास्तिर्यञ्चः स्थावरा
जङ्गमास्तथा ॥ २६॥
सभया भयनिर्मुक्ता भवन्ति
स्वकृतानुगाः ।
यस्यानेककथाः पुण्याः श्रूयन्ते
प्रतिकल्पके ॥ २७॥
सोऽवतात्साधकश्रेष्ठं सदा रामपरायणः
।
जिनके शब्द सुनकर वैश्य,
दानव, राक्षस, देवता,
मनुष्य, पशु, पक्षी,
स्थावर एवम् जंगम भयभीत हो जाते हैं भक्तगणों का भय दूर हो जाता है
और प्रतिकल्प में जिनकी अनेक पवित्र कथायें सुनी जाती हैं, वे
रामपरायण देव सदा उत्तमसाधक की रक्षा करें।
वैधात्रधातृप्रभृति
यत्किञ्चिद्दृश्यतेऽत्यलम् ॥ २८॥
विद्धि व्याप्तं यथा
कीशरूपेणानञ्जनेन तत् ।
यो विभुः सोऽहमेषोऽहं स्वीयः
स्वयमणुर्बृहत् ॥ २९॥
धाता विधाता आदि जो कुछ देखे जाते
हैं,
वे कोशरूप अंजनिपुत्र से व्याप्त हैं । जो परमात्मा हैं, वही मैं हूँ और वही हनुमान् हैं। ये सूक्ष्म एवम् महान् भी हैं।
ऋग्यजुःसामरूपश्च
प्रणवस्त्रिवृदध्वरः ।
तस्मै स्वस्मै च सर्वस्मै
नतोऽस्म्यात्मसमाधिना ॥ ३०॥
ऋक्, यजु, प्रणव, त्रिवृत् एवम्
यज्ञ इनका रूप है । इनको, अपने को तथा सबको मैं आत्मसमाधि
रूप से प्रणाम करता हूँ ।
अनेकानन्तब्रह्माण्डधृते
ब्रह्मस्वरूपिणे ।
समीरणात्मने तस्मै
नतोऽस्म्यात्मस्वरूपिणे ॥ ३१॥
अनेक एवम् अनंत ब्रह्मांडधारी,
ब्रह्मरूपी तथा आत्मस्वरूपी पवनपुत्र को प्रणाम है।
नमो हनुमते तस्मै नमो मारुतसूनवे ।
नमः श्रीरामभक्ताय श्यामाय महते नमः
॥ ३२॥
नमो वानरवीराय सुग्रीवसख्यकारिणे ।
हनुमान् को नमस्कार है । वायु को
नमस्कार है । वानरवीर तथा सुग्रीव को मित्रता करा देने वाले को नमस्कार है।
लङ्काविदहनायाथ महासागरतारिणे ॥ ३३॥
सीताशोकविनाशाय राममुद्राधराय च ।
रावणान्तनिदानाय नमः
सर्वोत्तरात्मने ॥ ३४॥
लंकादाह करने वाले,
महासागर लांघने वाले, सीता का शोक हरने वाले,
राम की मुद्रिका धारण करने वाले, रावण के नाश
का कारण होने वाले और सर्वश्रेष्ठात्मा कहलाने वाले को नमस्कार है।
मेघनादमखध्वंसकारणाय नमो नमः ।
अशोकवनविध्वंसकारिणे जयदायिने ॥ ३५॥
वायुपुत्राय वीराय आकाशोदरगामिने ।
वनपालशिरश्छेत्रे
लङ्काप्रासादभञ्जिने ॥ ३६॥
ज्वलत्काञ्चनवर्णाय
दीर्घलाङ्गूलधारिणे ।
सौमित्रिजयदात्रे च रामदूताय ते नमः
॥ ३७॥
मेघनाद के यज्ञ को ध्वस्त करने वाले
को नमस्कार है । अशोक वन को उजाड़ने वाले, जयदायी,
वायुपुत्र, वीर, आकाशगामी,
वनरक्षकों के सिर फोड़ने वाले, लंका के भवनों
को विनष्ट करने वाले, जाज्वल्यमान सुवर्ण के समान कान्ति
वाले, लम्बी पूछ वाले, लक्ष्मण को विजय
दिलाने वाले, रामदुत को नमस्कार है ।
अक्षस्य वधकर्त्रे च
ब्रह्मशस्त्रनिवारिणे ।
लक्ष्मणाङ्गमहाशक्तिजातक्षतविनाशिने
॥ ३८॥
रक्षोघ्नाय रिपुघ्नाय भूतघ्नाय नमो
नमः ।
अक्षयकुमार का वध करने वाले
ब्रह्मशस्त्र का निवारण करने वाले, लक्ष्मण
के अंगों में महाशक्ति-प्रहार-जन्य व्रणों को छुड़ाने वाले, राक्षसों
को मारने वाले शत्रुओं को मारने वाले तथा भूतों के निहन्ता को नमस्कार है।
ऋक्षवानरवीरौघप्रासादाय नमो नमः ॥
३९॥
परसैन्यबलघ्नाय शस्त्रास्त्रघ्नाय
ते नमः ।
विषघ्नाय द्विषघ्नाय भयघ्नाय नमो
नमः ॥ ४०॥
रीछों,
वानरों तथा वीरों के समूह को प्रसन्न करने वाले, शत्रुसेना का नाश करने वाले तथा शस्त्रास्त्रों के विध्वंसक को नमस्कार
है। विषघ्न, शत्रुघ्न तथा भयघ्न को नमस्कार है ।
महारिपुभयघ्नाय भक्तत्राणैककारिणे ।
परप्रेरितमन्त्राणां मन्त्राणां
स्तम्भकारिणे ॥ ४१॥
पयःपाषाणतरणकारणाय नमो नमः ।
महाशत्रु के भय से मुक्त कराने वाले,
भक्तों का त्राण करने वाले, शत्रुप्रेरित
मन्त्रों का स्तंभन करने वाले और जल पर पाषाणों को तैराने वाले को नमस्कार है ।
बालार्कमण्डलग्रासकारिणे दुःखहारिणे
॥ ४२॥
नखायुधाय भीमाय दन्तायुधधराय च ।
विहङ्गमाय शर्वाय वज्रदेहाय ते नमः
॥ ४३॥
बालसूर्यमण्डल का ग्रास करने वाले,
दुःख हरने वाले, नख रूप आयुध वाले, भयंकर, दन्त रूप आयुधधारी, विहंगमरूप,
शिवरूप तथा वज्रदेह को नमस्कार है ।
प्रतिग्रामस्थितायाथ
भूतप्रेतवधार्थिने ।
करस्थशैलशस्त्राय रामशस्त्राय ते
नमः ॥ ४४॥
कौपीनवाससे तुभ्यं रामभक्तिरताय च ।
दक्षिणाशाभास्कराय सतां चन्द्रोदयात्मने
॥ ४५॥
प्रत्येक गाँव में रहने वाले,
भूत-प्रेतों का वध करने वाले, हाथों में पर्वत
तथा शस्त्र धारण करने वाले, राम के शस्त्ररूप, कौपीनधारी, रामभक्ति- निरत, दक्षिणदिशाभास्कर
और सज्जनों के लिये चन्द्ररूप को नमस्कार है ।
कृत्याक्षतव्यथाघ्नाय सर्वक्लेशहराय
च ।
स्वाम्याज्ञापार्थसङ्ग्रामसख्यसञ्जयकारिणे
॥ ४६॥
भक्तानां दिव्यवादेषु सङ्ग्रामे
जयकारिणे ।
किल्किलावुवकाराय घोरशब्दकराय च ॥
४७॥
सर्वाग्निव्याधिसंस्तम्भकारिणे
भयहारिणे ।
सदा वनफलाहारसन्तृप्ताय विशेषतः ॥
४८॥
महार्णवशिलाबद्धसेतुबन्धाय ते नमः ।
कृत्याकृत व्रणों की व्यथा को हरने
वाले,
समस्त क्लेशों का नाश करने वाले, स्वामी की
आज्ञा से अर्जुन के साथ संग्राम तथा मित्रता करने वाले भक्तों को महाविवाद तथा रण
में विजय दिलाने वाले, किलकिलाहट का शब्द करने वाले, घोर शब्द करने वाले, सकल अग्नियों एवम् व्याधियों का
स्तम्भन करने वाले, भयहारी, सदा वनीय
फलों के अहार से संतृप्त होने वाले, महासागर में शिलाखण्डों
से सेतु बाँधने वाले को नमस्कार है ।
मारुति कवच फलश्रुतिः
इत्येतत्कथितं विप्र मारुतेः कवचं
शिवम् ॥ ४९॥
यस्मै कस्मै न दातव्यं रक्षणीयं
प्रयत्नतः ।
अष्टगन्धैर्विलिख्याथ कवचं
धारयेत्तु यः ॥ ५०॥
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ जयस्तस्य पदे
पदे ।
विप्र ! यह हनुमान् का पवित्र कवच
मैंने बतला दिया । इसे जिस किसी को नहीं देना, यत्नपूर्वक
रक्षा करना। जो मनुष्य अष्टगन्धों से इस कवच को लिखकर कंठ या दक्षिण बाहु में धारण
करता है, उसकी विजय पग-पग पर होती है।
किं पुनर्बहुनोक्तेन साधितं
लक्षमादरात् ॥ ५१॥
प्रजप्तमेतत्कवचमसाध्यं चापि
साधयेत् ॥ ५२॥
बहुत कहने से क्या लाभ?
जो इस कवच का लाख बार पाठ करता है, वह असाध्य
को भी सिद्ध कर लेता है ।
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने तृतीयपादे हनुमत्कवचनिरूपणं नामाष्टसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७८॥
श्रीनारदीयपुराण के पूर्वार्ध में बृहदुपाख्यान युक्त तृतीयपाद में मारुतिकवच निरूपण नामक अठहत्तरवाँ अध्याय समाप्त ॥ ७८ ॥

Post a Comment