एकादशमुख हनुमत्कवचम्

एकादशमुख हनुमत्कवचम्

हनुमानजी की कवच श्रृंखला में इससे पूर्व आपने एकमुख हनुमत्कवचम्, पंचमुख हनुमत्कवचम्, सप्तमुख हनुमत्कवचम् पढ़ा । अब इस श्रृंखला में एकादशमुख हनुमत्कवचम् दिया जा रहा है। इसके पाठ से हनुमानजी का प्रत्यक्ष दर्शन साधक को प्राप्त हो सकता है।

एकादशमुखहनुमत्कवचम्

एकादश मुखी हनुमान कवच

Ekadash mukha Hanuman kavach

महात्मा अगस्त जी अर्द्धांगिनी श्रीमती लोपामुद्रा ने उनसे एक अभिलाषा कही थी जिसके उत्तर में उन्होंने सृष्टि विधायक श्रीब्रह्माजी के द्वारा कथित यह कवच बताया था। उनके अनुसार वाद-विवाद, भयानक कष्ट, ग्रह भय, जल, सर्प, दुर्भिक्ष, भयंकर राज्य शस्त्र भय से भय नहीं रहता है और तीनों संध्याओं में इसका पाठ करने से निःसन्देह अभीष्ट लाभ होता है। इस कवच को विभिषण ने छन्दोबद्ध किया था व श्री गरुड़ जी ने लेखन करवाया था। मान्यता है कि 'ये पठियन्ति भक्तया च सिद्धयस्तत्करे स्थिताः' अर्थात् जो इसका पाठ करेगा उसके हाथ में सिद्धियाँ निवास करेंगी। इस आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि सिद्धियाँ प्राप्त करने वाले साधक को यह पाठ अवश्य करना चाहिये।

एकादश मुखी हनुमद् कवचम्

अथ श्री एकादशमुख हनुमत्कवचम् ॥

अब ग्यारह मुख वाले हनुमान जी का कवच कहता हूँ ।

उक्तं चागास्ति संहितायाम् ॥

यह कवच अगस्त संहिता में कहा गया है।

लोपामुद्रोवाच ॥

कुम्भोद्भव दयासिन्धो कृतं हनुमतः प्रभोः ।

यन्त्र मन्त्रादिकं सर्वं त्वन्मुखोदीरितं मया ॥

लोपामुद्रा ने कहा- हे दया के सिन्धु (सागर), हे कुम्भ से उत्पन्न होने वाले प्रभु! आपने अपने श्री मुख से हनुमान जी के यन्त्र मन्त्रादिक मुझको बताये हैं।

दया कुरुमपि प्राणनाथ वेदितुमुत्सहे।

कवचं वायु पुत्रस्य एकादश मुखात्मनः ॥

अब कृपा करके हे प्राणनाथ मुझे ग्यारह मुख वाले श्रीहनुमानजी का कवच बतायें।

इत्येवं वचनं श्रुत्वा प्रियायाः प्रश्रयान्वितम् ।

 वक्तुं प्रचक्रमे तत्र लोपा मुद्रां प्रति प्रभुः ॥

अपनी प्रिय पत्नी के इस प्रकार के शब्द श्रवण करके उन्होंने लोपामुद्रा से इस भाँति से कहा।

अगस्त्य उवाच: ॥

नमस्कृत्वा रामदूतं हनुमन्तं महामतिम् ।

ब्रह्म प्रोक्तं तु कवचं श्रृणु सुन्दरि सादरात् ॥

अगस्त जी ने कहा- हे सुन्दरी! ब्रह्माजी के द्वारा कहा गया रामदूत श्रीहनुमानजी का एकादश मुख वाला कवच उन्हें नमस्कार करके तुम्हें सुनाता हूँ।

सनन्दनाय च महच्चतुरानन भाषितम् ।

कवचं कामदं दिव्यं रक्षः कुल निबर्हणम् ॥

यह कवच चार मुख वाले श्रीब्रह्माजी ने श्रीसनन्दनादि से कहा था। यह अभीष्ट प्रदाता है, दिव्य है व इससे रक्षा होती है।

सर्व सम्पत्तप्रदं पुण्यं मत्यनां मधुर स्वरे ॥

समस्त प्रकार की सम्पत्तियाँ प्रदान करता है। यह पुण्यकारी कवच है जो कि मधुर स्वर से कहा गया था।

एकादशमुख हनुमत्कवचम्

अथ विनियोग मन्त्रः ॥

अब विनियोग मन्त्र कहता हूँ ।

ॐ अस्य श्री ऐकादश मुखि हनुमत्कवच मन्त्रस्य सनन्दन ऋषिः, प्रसन्नात्मा एकादशमुखि श्री हनुमान देवता, अनुष्टुप छन्दः, वायु सुत बीजम् मम सकल कार्यार्थे प्रमुखतः मम प्राण शक्ति वर्द्धनार्थे जपे । पाठे विनियोगः ॥

अथ हृदयादि न्यासः ॥

अब हृदय न्यास कहता हूँ।

ॐ स्फ्रें हृदयाय नमः ॥

ॐ स्फ्रें शिरसे स्वाहा ॥

ॐ स्फ्रें शिखायै वषट् ॥

ॐ स्फ्रें कवचाय हुम् ॥

ॐ स्फ्रें नेत्रत्रयाय वषट् ॥

ॐ स्फ्रें कवचाय हुम् ॥

अथ करन्यासः ॥

अब कर न्यास कहता हूँ।

ॐ स्फ्रें बीज शक्तिधृक् पातु शिरो में पवनात्मजा अंगुष्ठाभ्यां नमः ॥ १ ॥

ॐ क्रौं बीजात्मानथनयोः पातु मां वानरेश्वरः तर्जनीभ्यां नमः ।। २ ।।

ॐ क्षं बीज रूप कर्णों मे सीता शोक विनाशनः मध्यमाभ्यां नमः ॥ ३ ॥

ॐ ग्लौं बीज वाच्यो नासां में लक्ष्मण प्राण प्रदायकः अनामिकाभ्यां नमः ॥ ४ ॥

ॐ व बीजार्थश्च कण्ठं मे अक्षय क्षय कारकः कनिष्ठिकाभ्यां नमः ॥ ५ ॥

ॐ रां बीज वाच्यो हृदयं पातु में कपिनायकः करतल करपृष्ठाभ्यां नमः ॥ ६ ॥

एकादशमुख हनुमत्कवचम्

अब कवच कहता हूँ ।

अथ कवचम् ॥

ॐ व बीजं कीर्तितः पातु बाहु में चाञ्जनी सुतः ।

ॐ ह्रां बीजं राक्षसेन्द्रस्य दर्पहा पातु चोर दम् ॥

'वं' बीज की कीर्तिमयी अंजनी के पुत्र मेरी दोनों बाहों की रक्षा करें। ऊँ 'ह्रां' बीजमयी राक्षसों का अहंकार नष्ट करने वाले मेरे उदर की रक्षा करें।

सौमं बीज मयी मध्यं में पातु लंका विदाहकः ।

ह्रीं बीज धरो गुह्यं मे पातु देवेन्द्र वन्दितः ॥

'सौं' बीज मयी लंका को अग्नि से जलाने वाले मेरी नाभि की रक्षा करें । 'ह्रीं' बीजधारी देवताओं के राजा द्वारा वन्दित मेरे गुप्तांग की रक्षा करें ।

रं बीजात्मा सदा पातु चोरु में वार्धिलंघनः ।

सुग्रीव सचिवः पातु जानुनी मे मनोजवः ॥

'' बीज की आत्मा वाले वाघि लंघन मेरे घुटनों की रक्षा करें। सुग्रीव के सचिव मनोजव मेरे जानुओं की रक्षा करें।

आपाद् मस्तकं पातु रामदूतो महाबलः ।

पूर्वे वानर वक्त्रोमां चाग्नेय्यां क्षत्रियान्त कृत् ॥

महाबलशाली श्रीरामजी के दूत मेरे पूरे शरीर की रक्षा करें। पूर्व दिशा में वानर के श्री मुख वाले, अग्नि दिशा में क्षत्रिय के श्री मुख वाले ।

दक्षिणे नारसिंहस्तु नेऋत्यां गण नायकः ।

वारुण्यां दिशि मामव्यात्खग वक्त्रो हरीश्वरः ॥

दक्षिण दिशा में नरसिंह के श्री मुख वाले, नैऋत्य कोण वाली दिशा गणेश के श्री मुख वाले पश्चिम दिशा में हरीश्वर के से श्री मुख वाले ।

वायव्यां भैरव मुखः कौवेर्यां पातु में सदा ।

क्रोड़ास्यः पातु मां नित्य मीसान्यां रुद्र रूप धृक् ॥

वायव्य कोण की दिशा में भैरव से श्री मुख वाले, उत्तर दिशा में वाराह के से श्री मुख वाले ईशान दिशा में रुद्र के से श्री मुख वाले सर्वदा मेरी रक्षा करें।

रामस्तु पातु मां नित्यं सौम्य रूपी महाभुजः ।

एकादश मुखस्यैतद् दिव्यं वै कीर्तितं मया ॥

विशाल भुजाओं वाले सौम्य श्री स्वरूपा भगवान राम प्रतिदिन मेरी रक्षा करें। इस प्रकार से दिव्य एकादश मुखी कवच कहा है जो कि दिव्य है।

रक्षोघ्नं कामदं सौम्यं सर्व सम्पद् विधायकम् ।

पुत्रदं धनदं चौयं शत्रु सम्पतिमर्द्दनम् ॥

जो कि रक्षा करता है, कामना पूर्ण करता है, समस्त सम्पदाओं का दाता है, पुत्र देता है, धन देता है। शत्रुओं को व उनकी सम्पत्ति को नष्ट करता है ।

स्वर्गापवर्गदं दिव्यं चिन्तितार्थप्रदं शुभम् ।

एतत् कवचम ज्ञात्वा मन्त्र सिद्धिर्न जायते ॥

यह दिव्य कवच स्वर्गादि मोक्ष दायक है। सोची जाने वाली बातें पूर्ण करता है। इस कवच के बिना कभी भी मन्त्र सिद्ध नहीं होता है।

एकादशमुखी हनुमत्कवचम् फलश्रुति

अथ फलश्रुतिः ॥

अब कवच के पाठ से प्राप्त होने वाले लाभ कहता हूँ ।

चत्वारिंश सहस्त्राणि पठेच्छुद्धात्मना नरः ।

एक वारं पठेन्नित्यं कवच सिद्धिदं महत् ॥

साधक शुद्धात्मा होकर इसके चालीस हजार पाठ करे एवं एक बार नित्य पढ़ते रहने से यह कवच महत्वपूर्ण सिद्ध हो जाता है।

द्विवारं वा त्रिवारं वा पठेदायुष्माप्नुयात् ।

क्रमादेकादशादेवमावर्तन कृतात् सुधीः ॥

इसी प्रकार से दो बार, तीन बार या पढ़ते रहने से आयु बढ़ती है। इसके प्रतिदिन ११ या १२ पाठ करते रहने से।

वर्षान्ते दर्शनं साक्षाल्लभते नात्र संशयः ।

यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नेति पुरुषः ॥

ब्रह्मोदीप्तिमेताद्धि तवाऽग्रे कथितं महत् ॥

वर्ष की समाप्ति पर स्वयं हनुमान दर्शन देकर साक्षात होते हैं। इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये। जो जो कार्य की चिन्ता होती है वही वही काम पूर्ण हो जाते हैं। मैंने ब्रह्मा जी के द्वारा कहा गया कवच तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत किया है।

इत्येव मुक्तत्वा कवचं महर्षिस्तूष्णी वभूवेन्दुमुखी निरिक्ष्य ।

संहृष्ट चिताऽपि तदा तदीय पादौ ननामाऽति मुदास्व भर्तुः ॥

इस प्रकार से अपनी चन्द्र मुखी लोपामुद्रा को बताकर उसे देखकर मौन हो गये। इसके बाद प्रसन्नचित्त से उसने अगस्त्य जी को प्रणाम किया।

॥ इत्यगस्त्यसारसंहितायामेकादशमुखहनुमत्कवचं सम्पूर्णम् ॥

 (इति आद्यानन्द यशपाल 'भारती' विरचिते हनुमद् पाचांगे अगस्त संहितोक्त आयभा टीका सहिते श्री एकादश मुखी हनुमत्त कवचम् सम्पूर्णम् ॥ )

अगस्त ऋषि की स्त्री जो उन्होंने समस्त प्राणियों के उत्तम उत्तम अंगों को लेकर बनाई थी। निर्माण के पश्चात् यह स्त्री उन्होंने विदर्भ राज को सौप दी थी। जब यह स्त्री युवा हुई थी तब इसका विवाह अगस्त ऋषि के साथ कर दिया गया था। आकाश लोक में दक्षिण दिशा की तरफ अगस्त मंडल सितारा समूह के पास एक तारे का उदय होता है उसे भी लोपामुद्रा कहते हैं।

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