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- पञ्चमुखिहनुमत्कवचम्
- पंचमुखहनुमत्कवचम्
- पञ्चमुखि वीरहनूमत्कवचम्
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श्री रामचरित
मानस
द्वितीय सोपान
(अयोध्याकांड)
सखा समुझि अस
परिहरि मोहू। सिय रघुबीर चरन रत होहू॥
कहत राम गुन
भा भिनुसारा। जागे जग मंगल सुखदारा॥
हे सखा! ऐसा
समझ,
मोह को त्यागकर सीताराम के चरणों में प्रेम करो। इस प्रकार
राम के गुण कहते-कहते सबेरा हो गया! तब जगत का मंगल करनेवाले और उसे सुख देनेवाले
राम जागे।
सकल सौच करि
राम नहावा। सुचि सुजान बट छीर मगावा॥
अनुज सहित सिर
जटा बनाए। देखि सुमंत्र नयन जल छाए॥
शौच के सब
कार्य करके (नित्य) पवित्र और सुजान राम ने स्नान किया। फिर बड़ का दूध मँगाया और
छोटे भाई लक्ष्मण सहित उस दूध से सिर पर जटाएँ बनाईं। यह देखकर सुमंत्र के नेत्रों
में जल छा गया।
हृदयँ दाहु
अति बदन मलीना। कह कर जोर बचन अति दीना॥
नाथ कहेउ अस
कोसलनाथा। लै रथु जाहु राम कें साथा॥
उनका हृदय
अत्यंत जलने लगा, मुँह मलिन (उदास) हो गया। वे हाथ जोड़कर अत्यंत दीन वचन
बोले - हे नाथ! मुझे कोसलनाथ दशरथ ने ऐसी आज्ञा दी थी कि तुम रथ लेकर राम के साथ
जाओ,
बनु देखाइ
सुरसरि अन्हवाई। आनेहु फेरि बेगि दोउ भाई॥
लखनु रामु सिय
आनेहु फेरी। संसय सकल सँकोच निबेरी॥
वन दिखाकर,
गंगा स्नान कराकर दोनों भाइयों को तुरंत लौटा लाना। सब संशय
और संकोच को दूर करके लक्ष्मण, राम, सीता को फिरा लाना।
दो० - नृप अस
कहेउ गोसाइँ जस कहइ करौं बलि सोइ।
करि बिनती
पायन्ह परेउ दीन्ह बाल जिमि रोइ॥ 94॥
महाराज ने ऐसा
कहा था,
अब प्रभु जैसा कहें, मैं वही करूँ; मैं आपकी बलिहारी हूँ। इस प्रकार से विनती करके वे राम के
चरणों में गिर पड़े और बालक की तरह रो दिया॥ 94॥
तात कृपा करि
कीजिअ सोई। जातें अवध अनाथ न होई॥
मंत्रिहि राम
उठाइ प्रबोधा। तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा॥
(और कहा -) हे तात! कृपा करके वही कीजिए जिससे अयोध्या अनाथ न हो। राम ने
मंत्री को उठाकर धैर्य बँधाते हुए समझाया कि हे तात! आपने तो धर्म के सभी
सिद्धांतों को छान डाला है।
सिबि दधीच
हरिचंद नरेसा। सहे धरम हित कोटि कलेसा॥
रंतिदेव बलि
भूप सुजाना। धरमु धरेउ सहि संकट नाना॥
शिबि,
दधीचि और राजा हरिश्चंद्र ने धर्म के लिए करोड़ों (अनेकों)
कष्ट सहे थे। बुद्धिमान राजा रंतिदेव और बलि बहुत-से संकट सहकर भी धर्म को पकड़े
रहे (उन्होंने धर्म का परित्याग नहीं किया)।
धरमु न दूसर
सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना॥
मैं सोइ धरमु
सुलभ करि पावा। तजें तिहूँ पुर अपजसु छावा॥
वेद,
शास्त्र और पुराणों में कहा गया है कि सत्य के समान दूसरा
धर्म नहीं है। मैंने उस धर्म को सहज ही पा लिया है। इस (सत्यरूपी धर्म) का त्याग
करने से तीनों लोकों में अपयश छा जाएगा।
संभावित कहुँ
अपजस लाहू। मरन कोटि सम दारुन दाहू॥
तुम्ह सन तात
बहुत का कहउँ। दिएँ उतरु फिरि पातकु लहऊँ॥
प्रतिष्ठित
पुरुष के लिए अपयश की प्राप्ति करोड़ों मृत्यु के समान भीषण संताप देनेवाली है। हे
तात! मैं आप से अधिक क्या कहूँ! लौटकर उत्तर देने में भी पाप का भागी होता हूँ।
दो० - पितु पद
गहि कहि कोटि नति बिनय करब कर जोरि।
चिंता कवनिहु
बात कै तात करिअ जनि मोरि॥ 95॥
आप जाकर पिता
के चरण पकड़कर करोड़ों नमस्कार के साथ ही हाथ जोड़कर बिनती करिएगा कि हे तात! आप
मेरी किसी बात की चिंता न करें॥ 95॥
तुम्ह पुनि
पितु सम अति हित मोरें। बिनती करउँ तात कर जोरें॥
सब बिधि सोइ
करतब्य तुम्हारें। दुख न पाव पितु सोच हमारें॥
आप भी पिता के
समान ही मेरे बड़े हितैषी हैं। हे तात! मैं हाथ जोड़कर आप से विनती करता हूँ कि
आपका भी सब प्रकार से वही कर्तव्य है जिसमें पिता हम लोगों के सोच में दुःख न
पाएँ।
सुनि रघुनाथ
सचिव संबादू। भयउ सपरिजन बिकल निषादू॥
पुनि कछु लखन
कही कटु बानी। प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी॥
रघुनाथ और
सुमंत्र का यह संवाद सुनकर निषादराज कुटुंबियों सहित व्याकुल हो गया। फिर लक्ष्मण
ने कुछ कड़वी बात कही। प्रभु राम ने उसे बहुत ही अनुचित जानकर उनको मना किया।
सकुचि राम निज
सपथ देवाई। लखन सँदेसु कहिअ जनि जाई॥
कह सुमंत्रु
पुनि भूप सँदेसू। सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू॥
राम ने
सकुचाकर,
अपनी सौगंध दिलाकर सुमंत्र से कहा कि आप जाकर लक्ष्मण का यह
संदेश न कहिएगा। सुमंत्र ने फिर राजा का संदेश कहा कि सीता वन के क्लेश न सह
सकेंगी।
जेहि बिधि अवध
आव फिरि सीया। होइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया॥
नतरु निपट
अवलंब बिहीना। मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना॥
अतएव जिस तरह
सीता अयोध्या को लौट आएँ, तुमको और राम को वही उपाय करना चाहिए। नहीं तो मैं बिल्कुल
ही बिना सहारे का होकर वैसे ही नहीं जीऊँगा जैसे बिना जल के मछली नहीं जीती।
दो० - मइकें
ससुरें सकल सुख जबहिं जहाँ मनु मान।
तहँ तब रहिहि
सुखेन सिय जब लगि बिपति बिहान॥ 96॥
सीता के मायके
(पिता के घर) और ससुराल में सब सुख हैं। जब तक यह विपत्ति दूर नहीं होती,
तब तक वे जब जहाँ जी चाहें, वहीं सुख से रहेंगी॥ 96॥
बिनती भूप
कीन्ह जेहि भाँती। आरति प्रीति न सो कहि जाती॥
पितु सँदेसु
सुनि कृपानिधाना। सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना॥
राजा ने जिस
तरह (जिस दीनता और प्रेम से) विनती की है, वह दीनता और प्रेम कहा नहीं जा सकता। कृपानिधान राम ने पिता
का संदेश सुनकर सीता को करोड़ों (अनेकों) प्रकार से सीख दी।
सासु ससुर गुर
प्रिय परिवारू। फिरहु त सब कर मिटै खभारू॥
सुनि पति बचन
कहति बैदेही। सुनहु प्रानपति परम सनेही॥
(उन्होंने कहा -) जो तुम घर लौट जाओ, तो सास, ससुर, गुरु, प्रियजन एवं कुटुंबी सबकी चिंता मिट जाए। पति के वचन सुनकर
जानकी कहती हैं - हे प्राणपति! हे परम स्नेही! सुनिए।
प्रभु करुनामय
परम बिबेकी। तनु तजि रहति छाँह किमि छेंकी॥
प्रभा जाइ कहँ
भानु बिहाई। कहँ चंद्रिका चंदु तजि जाई॥
हे प्रभो! आप
करुणामय और परम ज्ञानी हैं। (कृपा करके विचार तो कीजिए) शरीर को छोड़कर छाया अलग
कैसे रोकी रह सकती है? सूर्य की प्रभा सूर्य को छोड़कर कहाँ जा सकती है?
और चाँदनी चंद्रमा को त्यागकर कहाँ जा सकती है?
पतिहि प्रेममय
बिनय सुनाई। कहति सचिव सन गिरा सुहाई॥
तुम्ह पितु
ससुर सरिस हितकारी। उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी॥
इस प्रकार पति
को प्रेममयी विनती सुनाकर सीता मंत्री से सुहावनी वाणी कहने लगीं - आप मेरे पिता
और ससुर के समान मेरा हित करनेवाले हैं। आपको मैं बदले में उत्तर देती हूँ,
यह बहुत ही अनुचित है।
दो० - आरति बस
सनमुख भइउँ बिलगु न मानब तात।
आरजसुत पद कमल
बिनु बादि जहाँ लगि नात॥ 97॥
किंतु हे तात!
मैं आर्त्त होकर ही आपके सम्मुख हुई हूँ, आप बुरा न मानिएगा। आर्यपुत्र (स्वामी) के चरणकमलों के बिना
जगत में जहाँ तक नाते हैं सभी मेरे लिए व्यर्थ हैं॥ 97॥
पितु बैभव
बिलास मैं डीठा। नृप मनि मुकुट मिलित पद पीठा॥
सुखनिधान अस
पितु गृह मोरें। पिय बिहीन मन भाव न भोरें॥
मैंने पिता के
ऐश्वर्य की छटा देखी है, जिनके चरण रखने की चौकी से सर्वशिरोमणि राजाओं के मुकुट
मिलते हैं (अर्थात बड़े-बड़े राजा जिनके चरणों में प्रणाम करते हैं) ऐसे पिता का
घर भी,
जो सब प्रकार के सुखों का भंडार है,
पति के बिना मेरे मन को भूलकर भी नहीं भाता।
ससुर चक्कवइ
कोसल राऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ॥
आगें होइ जेहि
सुरपति लेई। अरध सिंघासन आसनु देई॥
मेरे ससुर
कोसलराज चक्रवर्ती सम्राट हैं, जिनका प्रभाव चौदहों लोकों में प्रकट है,
इंद्र भी आगे होकर जिनका स्वागत करता है और अपने आधे
सिंहासन पर बैठने के लिए स्थान देता है,
ससुरु एतादृस
अवध निवासू। प्रिय परिवारु मातु सम सासू॥
बिनु रघुपति
पद पदुम परागा। मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा॥
ऐसे (ऐश्वर्य
और प्रभावशाली) ससुर; (उनकी राजधानी) अयोध्या का निवास;
प्रिय कुटुंबी और माता के समान सासुएँ - ये कोई भी रघुनाथ
के चरण कमलों की रज के बिना मुझे स्वप्न में भी सुखदायक नहीं लगते।
अगम पंथ
बनभूमि पहारा। करि केहरि सर सरित अपारा॥
कोल किरात
कुरंग बिहंगा। मोहि सब सुखद प्रानपति संगा॥
दुर्गम रास्ते,
जंगली धरती, पहाड़, हाथी, सिंह, अथाह तालाब एवं नदियाँ; कोल, भील, हिरन और पक्षी - प्राणपति (रघुनाथ) के साथ रहते ये सभी मुझे
सुख देनेवाले होंगे।
दो० - सासु
ससुर सन मोरि हुँति बिनय करबि परि पायँ।
मोर सोचु जनि
करिअ कछु मैं बन सुखी सुभायँ॥ 98॥
अतः सास और
ससुर के पाँव पड़कर, मेरी ओर से विनती कीजिएगा कि वे मेरा कुछ भी सोच न करें;
मैं वन में स्वभाव से ही सुखी हूँ॥ 98॥
प्राननाथ
प्रिय देवर साथा। बीर धुरीन धरें धनु भाथा॥
नहिं मग श्रमु
भ्रमु दुख मन मोरें। मोहि लगि सोचु करिअ जनि भोरें॥
वीरों में
अग्रगण्य तथा धनुष और (बाणों से भरे) तरकस धारण किए मेरे प्राणनाथ और प्यारे देवर
साथ हैं। इससे मुझे न रास्ते की थकावट है, न भ्रम है और न मेरे मन में कोई दुःख ही है। आप मेरे लिए
भूलकर भी सोच न करें।
सुनि सुमंत्रु
सिय सीतलि बानी। भयउ बिकल जनु फनि मनि हानी॥
नयन सूझ नहिं
सुनइ न काना। कहि न सकइ कछु अति अकुलाना॥
सुमंत्र सीता
की शीतल वाणी सुनकर ऐसे व्याकुल हो गए जैसे साँप मणि खो जाने पर। नेत्रों से कुछ
सूझता नहीं, कानों से सुनाई नहीं देता। वे बहुत व्याकुल हो गए,
कुछ कह नहीं सकते।
राम प्रबोधु
कीन्ह बहु भाँती। तदपि होति नहिं सीतलि छाती॥
जतन अनेक साथ
हित कीन्हे। उचित उतर रघुनंदन दीन्हे॥
राम ने उनका
बहुत प्रकार से समाधान किया। तो भी उनकी छाती ठंडी न हुई। साथ चलने के लिए मंत्री
ने अनेकों यत्न किए (युक्तियाँ पेश कीं), पर रघुनंदन राम (उन सब युक्तियों का) यथोचित उत्तर देते गए।
मेटि जाइ नहिं
राम रजाई। कठिन करम गति कछु न बसाई॥
राम लखन सिय
पद सिरु नाई। फिरेउ बनिक जिमि मूर गवाँई॥
राम की आज्ञा
मेटी नहीं जा सकती। कर्म की गति कठिन है, उस पर कुछ भी वश नहीं चलता। राम,
लक्ष्मण और सीता के चरणों में सिर नवाकर सुमंत्र इस तरह
लौटे जैसे कोई व्यापारी अपना मूलधन (पूँजी) गँवाकर लौटे।
दो० - रथु
हाँकेउ हय राम तन हेरि हेरि हिहिनाहिं।
देखि निषाद
बिषादबस धुनहिं सीस पछिताहिं॥ 99॥
सुमंत्र ने रथ
को हाँका,
घोड़े राम की ओर देख-देखकर हिनहिनाते हैं। यह देखकर निषाद
लोग विषाद के वश होकर सिर धुन-धुनकर (पीट-पीटकर) पछताते हैं॥ 99॥
जासु बियोग
बिकल पसु ऐसें। प्रजा मातु पितु जिइहहिं कैसें॥
बरबस राम
सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए॥
जिनके वियोग
में पशु इस प्रकार व्याकुल हैं, उनके वियोग में प्रजा, माता और पिता कैसे जीते रहेंगे?
राम ने जबरदस्ती सुमंत्र को लौटाया। तब आप गंगा के तीर पर
आए।
मागी नाव न
केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
चरन कमल रज
कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥
राम ने केवट
से नाव माँगी, पर वह लाता नहीं। वह कहने लगा - मैंने तुम्हारा मर्म (भेद) जान लिया। तुम्हारे
चरण कमलों की धूल के लिए सब लोग कहते हैं कि वह मनुष्य बना देनेवाली कोई जड़ी है,
छुअत सिला भइ
नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई॥
तरनिउ मुनि
घरिनी होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥
जिसके छूते ही
पत्थर की शिला सुंदरी स्त्री हो गई (मेरी नाव तो काठ की है)। काठ पत्थर से कठोर तो
होता नहीं। मेरी नाव भी मुनि की स्त्री हो जाएगी और इस प्रकार मेरी नाव उड़ जाएगी,
मैं लुट जाऊँगा (अथवा रास्ता रुक जाएगा,
जिससे आप पार न हो सकेंगे और मेरी रोजी मारी जाएगी) (मेरी
कमाने-खाने की राह ही मारी जाएगी)।
एहिं
प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू॥
जौं प्रभु पार
अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥
मैं तो इसी
नाव से सारे परिवार का पालन-पोषण करता हूँ। दूसरा कोई धंधा नहीं जानता। हे प्रभु!
यदि तुम अवश्य ही पार जाना चाहते हो तो मुझे पहले अपने चरण-कमल पखारने (धो लेने)
के लिए कह दो।
छं० - पद कमल
धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।
मोहि राम
राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौं॥
बरु तीर
मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न
तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥
हे नाथ! मैं
चरण कमल धोकर आप लोगों को नाव पर चढ़ा लूँगा; मैं आपसे कुछ उतराई नहीं चाहता। हे राम! मुझे आपकी दुहाई और
दशरथ की सौगंध है, मैं सब सच-सच कहता हूँ। लक्ष्मण भले ही मुझे तीर मारें,
पर जब तक मैं पैरों को पखार न लूँगा,
तब तक हे तुलसीदास के नाथ! हे कृपालु! मैं पार नहीं
उतारूँगा।
सो० - सुनि
केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन
चितइ जानकी लखन तन॥ 100॥
केवट के प्रेम
में लपेटे हुए अटपटे वचन सुनकर करुणाधाम राम जानकी और लक्ष्मण की ओर देखकर हँसे॥ 100॥
कृपासिंधु
बोले मुसुकाई। सोइ करु जेहिं तव नाव न जाई॥
बेगि आनु जल
पाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू॥
कृपा के
समुद्र राम केवट से मुसकराकर बोले - भाई! तू वही कर जिससे तेरी नाव न जाए। जल्दी
पानी ला और पैर धो ले। देर हो रही है, पार उतार दे।
जासु नाम
सुमिरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा॥
सोइ कृपालु
केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा॥
एक बार जिनका
नाम स्मरण करते ही मनुष्य अपार भवसागर के पार उतर जाते हैं और जिन्होंने
(वामनावतार में) जगत को तीन पग से भी छोटा कर दिया था (दो ही पग में त्रिलोकी को
नाप लिया था), वही कृपालु राम (गंगा से पार उतारने के लिए) केवट का निहोरा कर रहे हैं!
पद नख निरखि
देवसरि हरषी। सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी॥
केवट राम
रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा॥
प्रभु के इन
वचनों को सुनकर गंगा की बुद्धि मोह से खिंच गई थी (कि ये साक्षात भगवान होकर भी
पार उतारने के लिए केवट का निहोरा कैसे कर रहे हैं)। परंतु (समीप आने पर अपनी
उत्पत्ति के स्थान) पदनखों को देखते ही (उन्हें पहचानकर) देवनदी गंगा हर्षित हो
गईं। (वे समझ गईं कि भगवान नरलीला कर रहे हैं, इससे उनका मोह नष्ट हो गया; और इन चरणों का स्पर्श प्राप्त करके मैं धन्य होऊँगी,
यह विचारकर वे हर्षित हो गईं।) केवट राम की आज्ञा पाकर
कठौते में भरकर जल ले आया।
अति आनंद उमगि
अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा॥
बरषि सुमन सुर
सकल सिहाहीं। एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं॥
अत्यंत आनंद
और प्रेम में उमंगकर वह भगवान के चरणकमल धोने लगा। सब देवता फूल बरसाकर सिहाने लगे
कि इसके समान पुण्य की राशि कोई नहीं है।
दो० - पद
पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि
प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥ 101॥
चरणों को धोकर
और सारे परिवार सहित स्वयं उस जल (चरणोदक) को पीकर पहले (उस महान पुण्य के द्वारा)
अपने पितरों को भवसागर से पार कर फिर आनंदपूर्वक प्रभु राम को गंगा के पार ले गया॥
101॥
उतरि ठाढ़ भए
सुरसरि रेता। सीय रामु गुह लखन समेता॥
केवट उतरि
दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥
निषादराज और
लक्ष्मण सहित सीता और राम (नाव से) उतरकर गंगा की रेत (बालू) में खड़े हो गए। तब
केवट ने उतरकर दंडवत की। (उसको दंडवत करते देखकर) प्रभु को संकोच हुआ कि इसको कुछ
दिया नहीं।
पिय हिय की
सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥
कहेउ कृपाल
लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥
पति के हृदय
की जाननेवाली सीता ने आनंद भरे मन से अपनी रत्न जड़ित अँगूठी (अंगुली से) उतारी।
कृपालु राम ने केवट से कहा, नाव की उतराई लो। केवट ने व्याकुल होकर चरण पकड़ लिए।
नाथ आजु मैं
काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा॥
बहुत काल मैं
कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥
(उसने कहा -) हे नाथ! आज मैंने क्या नहीं पाया! मेरे दोष,
दुःख और दरिद्रता की आग आज बुझ गई है। मैंने बहुत समय तक
मजदूरी की। विधाता ने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूरी दे दी।
अब कछु नाथ न
चाहिअ मोरें। दीन दयाल अनुग्रह तोरें॥
फिरती बार
मोहि जो देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा॥
हे नाथ! हे
दीनदयाल! आपकी कृपा से अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। लौटती बार आप मुझे जो कुछ देंगे,
वह प्रसाद मैं सिर चढ़ाकर लूँगा।
दो० - बहुत
कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ।
बिदा कीन्ह
करुनायतन भगति बिमल बरु देइ॥ 102॥
प्रभु राम,
लक्ष्मण और सीता ने बहुत आग्रह (या यत्न) किया,
पर केवट कुछ नहीं लेता। तब करुणा के धाम भगवान राम ने
निर्मल भक्ति का वरदान देकर उसे विदा किया॥ 102॥
तब मज्जनु करि
रघुकुलनाथा। पूजि पारथिव नायउ माथा॥
सियँ सुरसरिहि
कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरउबि मोरी॥
फिर रघुकुल के
स्वामी राम ने स्नान करके पार्थिव पूजा की और शिव को सिर नवाया। सीता ने हाथ
जोड़कर गंगा से कहा - हे माता! मेरा मनोरथ पूरा कीजिएगा।
पति देवर सँग
कुसल बहोरी। आइ करौं जेहिं पूजा तोरी॥
सुनि सिय बिनय
प्रेम रस सानी। भइ तब बिमल बारि बर बानी॥
जिससे मैं पति
और देवर के साथ कुशलतापूर्वक लौट आकर तुम्हारी पूजा करूँ। सीता की प्रेम रस में
सनी हुई विनती सुनकर तब गंगा के निर्मल जल में से श्रेष्ठ वाणी हुई -
सुनु रघुबीर
प्रिया बैदेही। तब प्रभाउ जग बिदित न केही॥
लोकप होहिं
बिलोकत तोरें। तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरें॥
हे रघुवीर की
प्रियतमा जानकी! सुनो, तुम्हारा प्रभाव जगत में किसे नहीं मालूम है?
तुम्हारे (कृपा दृष्टि से) देखते ही लोग लोकपाल हो जाते
हैं। सब सिद्धियाँ हाथ जोड़े तुम्हारी सेवा करती हैं।
तुम्ह जो हमहि
बड़ि बिनय सुनाई। कृपा कीन्हि मोहि दीन्हि बड़ाई॥
तदपि देबि मैं
देबि असीसा। सफल होन हित निज बागीसा॥
तुमने जो
मुझको बड़ी विनती सुनाई, यह तो मुझ पर कृपा की और मुझे बड़ाई दी है। तो भी हे देवी!
मैं अपनी वाणी सफल होने के लिए तुम्हें आशीर्वाद दूँगी।
दो० -
प्राननाथ देवर सहित कुसल कोसला आइ।
पूजिहि सब
मनकामना सुजसु रहिहि जग छाइ॥ 103॥
तुम अपने
प्राणनाथ और देवर सहित कुशलपूर्वक अयोध्या लौटोगी। तुम्हारी सारी मनःकामनाएँ पूरी
होंगी और तुम्हारा सुंदर यश जगत भर में छा जाएगा॥ 103॥
गंग बचन सुनि
मंगल मूला। मुदित सीय सुरसरि अनुकूला॥
तब प्रभु
गुहहि कहेउ घर जाहू। सुनत सूख मुखु भा उर दाहू॥
मंगल के मूल
गंगा के वचन सुनकर और देवनदी को अनुकूल देखकर सीता आनंदित हुईं। तब प्रभु राम ने
निषादराज गुह से कहा कि भैया! अब तुम घर जाओ! यह सुनते ही उसका मुँह सूख गया और
हृदय में दाह उत्पन्न हो गया।
दीन बचन गुह
कह कर जोरी। बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी॥
नाथ साथ रहि
पंथु देखाई। करि दिन चारि चरन सेवकाई॥
गुह हाथ
जोड़कर दीन वचन बोला - हे रघुकुल शिरोमणि! मेरी विनती सुनिए। मैं नाथ (आप) के साथ
रहकर,
रास्ता दिखाकर, चार (कुछ) दिन चरणों की सेवा करके -
जेहिं बन जाइ
रहब रघुराई। परनकुटी मैं करबि सुहाई॥
तब मोहि कहँ
जसि देब रजाई। सोइ करिहउँ रघुबीर दोहाई॥
हे रघुराज!
जिस वन में आप जाकर रहेंगे, वहाँ मैं सुंदर पर्णकुटी (पत्तों की कुटिया) बना दूँगा। तब
मुझे आप जैसी आज्ञा देंगे, मुझे रघुवीर (आप) की दुहाई है,
मैं वैसा ही करूँगा।
सहज सनेह राम
लखि तासू। संग लीन्ह गुह हृदयँ हुलासू॥
पुनि गुहँ
ग्याति बोलि सब लीन्हे। करि परितोषु बिदा तब कीन्हे॥
उसके
स्वाभाविक प्रेम को देखकर राम ने उसको साथ ले लिया, इससे गुह के हृदय में बड़ा आनंद हुआ। फिर गुह (निषादराज) ने
अपनी जाति के लोगों को बुला लिया और उनका संतोष कराके तब उनको विदा किया।
दो० - तब
गनपति सिव सुमिरि प्रभु नाइ सुरसरिहि माथ।
सखा अनुज सिय
सहित बन गवनु कीन्ह रघुनाथ॥ 104॥
तब प्रभु
रघुनाथ गणेश और शिव का स्मरण करके तथा गंगा को मस्तक नवाकर सखा निषादराज,
छोटे भाई लक्ष्मण और सीता सहित वन को चले॥ 104॥
तेहि दिन भयउ
बिटप तर बासू। लखन सखाँ सब कीन्ह सुपासू॥
प्रात
प्रातकृत करि रघुराई। तीरथराजु दीख प्रभु जाई॥
उस दिन पेड़
के नीचे निवास हुआ। लक्ष्मण और सखा गुह ने (विश्राम की) सब सुव्यवस्था कर दी।
प्रभु राम ने सबेरे प्रातःकाल की सब क्रियाएँ करके जाकर तीर्थों के राजा प्रयाग के
दर्शन किए।
सचिव सत्य
श्रद्धा प्रिय नारी। माधव सरिस मीतु हितकारी॥
चारि पदारथ
भरा भँडारू। पुन्य प्रदेस देस अति चारू॥
उस राजा का
सत्य मंत्री है, श्रद्धा प्यारी स्त्री है और वेणीमाधव-सरीखे हितकारी मित्र हैं। चार पदार्थों
(धर्म,
अर्थ, काम और मोक्ष) से भंडार भरा है और वह पुण्यमय प्रांत ही उस
राजा का सुंदर देश है।
छेत्रु अगम
गढ़ु गाढ़ सुहावा। सपनेहुँ नहिं प्रतिपच्छिन्ह पावा॥
सेन सकल तीरथ
बर बीरा। कलुष अनीक दलन रनधीरा॥
प्रयाग
क्षेत्र ही दुर्गम, मजबूत और सुंदर गढ़ (किला) है,
जिसको स्वप्न में भी (पापरूपी) शत्रु नहीं पा सके हैं।
संपूर्ण तीर्थ ही उसके श्रेष्ठ वीर सैनिक हैं, जो पाप की सेना को कुचल डालनेवाले और बड़े रणधीर हैं।
संगमु सिंहासनु
सुठि सोहा। छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा॥
चवँर जमुन अरु
गंग तरंगा। देखि होहिं दुख दारिद भंगा॥
(गंगा,
यमुना और सरस्वती का) संगम ही उसका अत्यंत सुशोभित सिंहासन
है। अक्षयवट छत्र है, जो मुनियों के भी मन को मोहित कर लेता है। यमुना और गंगा की
तरंगें उसके (श्याम और श्वेत) चँवर हैं, जिनको देखकर ही दुःख और दरिद्रता नष्ट हो जाती है।
दो० - सेवहिं
सुकृती साधु सुचि पावहिं सब मनकाम।
बंदी बेद
पुरान गन कहहिं बिमल गुन ग्राम॥ 105॥
पुण्यात्मा,
पवित्र साधु उसकी सेवा करते हैं और सब मनोरथ पाते हैं। वेद
और पुराणों के समूह भाट हैं, जो उसके निर्मल गुणगणों का बखान करते हैं॥ 105॥
को कहि सकइ
प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ॥
अस तीरथपति
देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा॥
पापों के
समूहरूपी हाथी के मारने के लिए सिंह रूप प्रयागराज का प्रभाव (महत्त्व-माहात्म्य)
कौन कह सकता है। ऐसे सुहावने तीर्थराज का दर्शन कर सुख के समुद्र रघुकुल श्रेष्ठ
राम ने भी सुख पाया।
कहि सिय लखनहि
सखहि सुनाई। श्री मुख तीरथराज बड़ाई॥
करि प्रनामु
देखत बन बागा। कहत महातम अति अनुरागा॥
उन्होंने अपने
श्रीमुख से सीता, लक्ष्मण और सखा गुह को तीर्थराज की महिमा कहकर सुनाई।
तदनंतर प्रणाम करके, वन और बगीचों को देखते हुए और बड़े प्रेम से माहात्म्य कहते
हुए -
एहि बिधि आइ
बिलोकी बेनी। सुमिरत सकल सुमंगल देनी॥
मुदित नहाइ
कीन्हि सिव सेवा। पूजि जथाबिधि तीरथ देवा॥
इस प्रकार राम
ने आकर त्रिवेणी का दर्शन किया, जो स्मरण करने से ही सब सुंदर मंगलों को देनेवाली है। फिर
आनंदपूर्वक (त्रिवेणी में) स्नान करके शिव की सेवा (पूजा) की और विधिपूर्वक तीर्थ
देवताओं का पूजन किया।
तब प्रभु
भरद्वाज पहिं आए। करत दंडवत मुनि उर लाए॥
मुनि मन मोद न
कछु कहि जाई। ब्रह्मानंद रासि जनु पाई॥
(स्नान, पूजन आदि सब करके) तब प्रभु राम भरद्वाज के पास आए। उन्हें दंडवत करते हुए ही
मुनि ने हृदय से लगा लिया। मुनि के मन का आनंद कुछ कहा नहीं जाता। मानो उन्हें
ब्रह्मानंद की राशि मिल गई हो।
दो० - दीन्हि
असीस मुनीस उर अति अनंदु अस जानि।
लोचन गोचर
सुकृत फल मनहुँ किए बिधि आनि॥ 106॥
मुनीश्वर
भरद्वाज ने आशीर्वाद दिया। उनके हृदय में ऐसा जानकर अत्यंत आनंद हुआ कि आज विधाता
ने (सीता और लक्ष्मण सहित प्रभु राम के दर्शन कराकर) मानो हमारे संपूर्ण पुण्यों
के फल को लाकर आँखों के सामने कर दिया॥ 106॥
कुसल प्रस्न
करि आसन दीन्हे। पूजि प्रेम परिपूरन कीन्हे॥
कंद मूल फल
अंकुर नीके। दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के॥
कुशल पूछकर
मुनिराज ने उनको आसन दिए और प्रेम सहित पूजन करके उन्हें संतुष्ट कर दिया। फिर
मानो अमृत के ही बने हों, ऐसे अच्छे-अच्छे कंद, मूल, फल और अंकुर लाकर दिए।
सीय लखन जन
सहित सुहाए। अति रुचि राम मूल फल खाए॥
भए बिगतश्रम
रामु सुखारे। भरद्वाज मृदु बचन उचारे॥
सीता,
लक्ष्मण और सेवक गुह सहित राम ने उन सुंदर मूल-फलों को बड़ी
रुचि के साथ खाया। थकावट दूर होने से राम सुखी हो गए। तब भरद्वाज ने उनसे कोमल वचन
कहे -
आजु सुफल तपु
तीरथ त्यागू। आजु सुफल जप जोग बिरागू॥
सफल सकल सुभ
साधन साजू। राम तुम्हहि अवलोकत आजू॥
हे राम! आपका
दर्शन करते ही आज मेरा तप, तीर्थ सेवन और त्याग सफल हो गया। आज मेरा जप,
योग और वैराग्य सफल हो गया और आज मेरे संपूर्ण शुभ साधनों
का समुदाय भी सफल हो गया।
लाभ अवधि सुख
अवधि न दूजी। तुम्हरें दरस आस सब पूजी॥
अब करि कृपा
देहु बर एहू। निज पद सरसिज सहज सनेहू॥
लाभ की सीमा
और सुख की सीमा (प्रभु के दर्शन को छोड़कर) दूसरी कुछ भी नहीं है। आपके दर्शन से
मेरी सब आशाएँ पूर्ण हो गईं। अब कृपा करके यह वरदान दीजिए कि आपके चरण कमलों में
मेरा स्वाभाविक प्रेम हो।
दो० - करम बचन
मन छाड़ि छलु जब लगि जनु न तुम्हार।
तब लगि सुखु
सपनेहुँ नहीं किएँ कोटि उपचार॥ 107॥
जब तक कर्म,
वचन और मन से छल छोड़कर मनुष्य आपका दास नहीं हो जाता,
तब तक करोड़ों उपाय करने से भी,
स्वप्न में भी वह सुख नहीं पाता॥ 107॥
सुनि मुनि बचन
रामु सकुचाने। भाव भगति आनंद अघाने॥
तब रघुबर मुनि
सुजसु सुहावा। कोटि भाँति कहि सबहि सुनावा॥
मुनि के वचन
सुनकर,
उनकी भाव-भक्ति के कारण आनंद से तृप्त हुए भगवान राम (लीला
की दृष्टि से) सकुचा गए। तब (अपने ऐश्वर्य को छिपाते हुए) राम ने भरद्वाज मुनि का
सुंदर सुयश करोड़ों (अनेकों) प्रकार से कहकर सबको सुनाया।
सो बड़ सो सब
गुन गन गेहू। जेहि मुनीस तुम्ह आदर देहू॥
मुनि रघुबीर
परसपर नवहीं। बचन अगोचर सुखु अनुभवहीं॥
(उन्होंने कहा -) हे मुनीश्वर! जिसको आप आदर दें, वही बड़ा है और वही सब गुणसमूहों का घर है। इस प्रकार राम
और मुनि भरद्वाज दोनों परस्पर विनम्र हो रहे हैं और अनिर्वचनीय सुख का अनुभव कर
रहे हैं।
यह सुधि पाइ
प्रयाग निवासी। बटु तापस मुनि सिद्ध उदासी॥
भरद्वाज आश्रम
सब आए। देखन दसरथ सुअन सुहाए॥
यह (राम,
लक्ष्मण और सीता के आने की) खबर पाकर प्रयाग निवासी
ब्रह्मचारी, तपस्वी, मुनि,
सिद्ध और उदासी सब दशरथ के सुंदर पुत्रों को देखने के लिए
भरद्वाज के आश्रम पर आए।
राम प्रनाम
कीन्ह सब काहू। मुदित भए लहि लोयन लाहू॥
देहिं असीस
परम सुखु पाई। फिरे सराहत सुंदरताई॥
राम ने सब
किसी को प्रणाम किया। नेत्रों का लाभ पाकर सब आनंदित हो गए और परम सुख पाकर
आशीर्वाद देने लगे। राम के सौंदर्य की सराहना करते हुए वे लौटे।
दो० - राम
कीन्ह बिश्राम निसि प्रात प्रयाग नहाइ।
चले सहित सिय
लखन जन मुदित मुनिहि सिरु नाइ॥ 108॥
राम ने रात को
वहीं विश्राम किया और प्रातःकाल प्रयागराज का स्नान करके और प्रसन्नता के साथ मुनि
को सिर नवाकर सीता, लक्ष्मण और सेवक गुह के साथ वे चले॥ 108॥
राम सप्रेम
कहेउ मुनि पाहीं। नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं॥
मुनि मन बिहसि
राम सन कहहीं। सुगम सकल मग तुम्ह कहुँ अहहीं॥
(चलते समय) बड़े प्रेम से राम ने मुनि से कहा - हे नाथ! बताइए हम किस मार्ग से
जाएँ। मुनि मन में हँसकर राम से कहते हैं कि आपके लिए सभी मार्ग सुगम हैं।
साथ लागि मुनि
सिष्य बोलाए। सुनि मन मुदित पचासक आए॥
सबन्हि राम पर
प्रेम अपारा। सकल कहहिं मगु दीख हमारा॥
फिर उनके साथ
के लिए मुनि ने शिष्यों को बुलाया। (साथ जाने की बात) सुनते ही चित्त में हर्षित
हो कोई पचास शिष्य आ गए। सभी का राम पर अपार प्रेम है। सभी कहते हैं कि मार्ग
हमारा देखा हुआ है।
मुनि बटु चारि
संग तब दीन्हे। जिन्ह बहु जनम सुकृत सब कीन्हे॥
करि प्रनामु
रिषि आयसु पाई। प्रमुदित हृदयँ चले रघुराई॥
तब मुनि ने
(चुनकर) चार ब्रह्मचारियों को साथ कर दिया, जिन्होंने बहुत जन्मों तक सब सुकृत (पुण्य) किए थे। रघुनाथ
प्रणाम कर और ऋषि की आज्ञा पाकर हृदय में बड़े ही आनंदित होकर चले।
ग्राम निकट जब
निकसहिं जाई। देखहिं दरसु नारि नर धाई॥
होहिं सनाथ
जनम फलु पाई। फिरहिं दुखित मनु संग पठाई॥
जब वे किसी
गाँव के पास होकर निकलते हैं, तब स्त्री-पुरुष दौड़कर उनके रूप को देखने लगते हैं। जन्म
का फल पाकर वे (सदा के अनाथ) सनाथ हो जाते हैं और मन को नाथ के साथ भेजकर (शरीर से
साथ न रहने के कारण) दुःखी होकर लौट आते हैं।
दो० - बिदा
किए बटु बिनय करि फिरे पाइ मन काम।
उतरि नहाए
जमुन जल जो सरीर सम स्याम॥ 109॥
तदनंतर राम ने
विनती करके चारों ब्रह्मचारियों को विदा किया; वे मनचाही वस्तु (अनन्य भक्ति) पाकर लौटे। यमुना के पार
उतरकर सबने यमुना के जल में स्नान किया, जो राम के शरीर के समान ही श्याम रंग का था॥ 109॥
सुनत तीरबासी
नर नारी। धाए निज निज काज बिसारी॥
लखन राम सिय
सुंदरताई। देखि करहिं निज भाग्य बड़ाई॥
यमुना के
किनारे पर रहनेवाले स्त्री-पुरुष (यह सुनकर कि निषाद के साथ दो परम सुंदर सुकुमार
नवयुवक और एक परम सुंदरी स्त्री आ रही है) सब अपना-अपना काम भूलकर दौड़े और
लक्ष्मण,
राम और सीता का सौंदर्य देखकर अपने भाग्य की बड़ाई करने
लगे।
अति लालसा
बसहिं मन माहीं। नाउँ गाउँ बूझत सकुचाहीं॥
जे तिन्ह महुँ
बयबिरिध सयाने। तिन्ह करि जुगुति रामु पहिचाने॥
उनके मन में
(परिचय जानने की) बहुत-सी लालसाएँ भरी हैं। पर वे नाम-गाँव पूछते सकुचाते हैं। उन
लोगों में जो वयोवृद्ध और चतुर थे; उन्होंने युक्ति से राम को पहचान लिया।
सकल कथा तिन्ह
सबहि सुनाई। बनहि चले पितु आयसु पाई॥
सुनि सबिषाद
सकल पछिताहीं। रानी रायँ कीन्ह भल नाहीं॥
उन्होंने सब
कथा सब लोगों को सुनाई कि पिता की आज्ञा पाकर ये वन को चले हैं। यह सुनकर सब लोग
दुःखित हो पछता रहे हैं कि रानी और राजा ने अच्छा नहीं किया।
तेहि अवसर एक
तापसु आवा। तेजपुंज लघुबयस सुहावा॥
कबि अलखित गति
बेषु बिरागी। मन क्रम बचन राम अनुरागी॥
उसी अवसर पर
वहाँ एक तपस्वी आया, जो तेज का पुंज, छोटी अवस्था का और सुंदर था। उसकी गति कवि नहीं जानते (अथवा
वह कवि था जो अपना परिचय नहीं देना चाहता)। वह वैरागी के वेष में था और मन,
वचन तथा कर्म से राम का प्रेमी था।
दो० - सजल नयन
तन पुलकि निज इष्टदेउ पहिचानि।
परेउ दंड जिमि
धरनितल दसा न जाइ बखानि॥ 110॥
अपने इष्टदेव
को पहचानकर उसके नेत्रों में जल भर आया और शरीर पुलकित हो गया। वह दंड की भाँति
पृथ्वी पर गिर पड़ा, उसकी (प्रेमविह्वल) दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता॥ 110॥
राम सप्रेम
पुलकि उर लावा। परम रंक जनु पारसु पावा॥
मनहुँ प्रेमु
परमारथु दोऊ। मिलत धरें तन कह सबु कोऊ॥
राम ने प्रेमपूर्वक
पुलकित होकर उसको हृदय से लगा लिया। (उसे इतना आनंद हुआ) मानो कोई महादरिद्री
मनुष्य पारस पा गया हो। सब कोई (देखनेवाले) कहने लगे कि मानो प्रेम और परमार्थ
(परम तत्त्व) दोनों शरीर धारण करके मिल रहे हैं।
बहुरि लखन
पायन्ह सोइ लागा। लीन्ह उठाइ उमगि अनुरागा॥
पुनि सिय चरन
धूरि धरि सीसा। जननि जानि सिसु दीन्हि असीसा॥
फिर वह
लक्ष्मण के चरणों लगा। उन्होंने प्रेम से उमंगकर उसको उठा लिया। फिर उसने सीता की
चरण धूलि को अपने सिर पर धारण किया। माता सीता ने भी उसको अपना बच्चा जानकर
आशीर्वाद दिया।
कीन्ह निषाद
दंडवत तेही। मिलेउ मुदित लखि राम सनेही॥
पिअत नयन पुट
रूपु पियुषा। मुदित सुअसनु पाइ जिमि भूखा॥
फिर निषादराज
ने उसको दंडवत की। राम का प्रेमी जानकर वह उस (निषाद) से आनंदित होकर मिला। वह
तपस्वी अपने नेत्ररूपी दोनों से राम की सौंदर्य-सुधा का पान करने लगा और ऐसा
आनंदित हुआ जैसे कोई भूखा आदमी सुंदर भोजन पाकर आनंदित होता है।
ते पितु मातु
कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे॥
राम लखन सिय
रूपु निहारी। होहिं सनेह बिकल नर नारी॥
(इधर गाँव की स्त्रियाँ कह रही हैं -) हे सखी! कहो तो,
वे माता-पिता कैसे हैं, जिन्होंने ऐसे (सुंदर सुकुमार) बालकों को वन में भेज दिया
है। राम,
लक्ष्मण और सीता के रूप को देखकर सब स्त्री-पुरुष स्नेह से
व्याकुल हो जाते हैं।
दो० - तब
रघुबीर अनेक बिधि सखहि सिखावनु दीन्ह॥
राम रजायसु
सीस धरि भवन गवनु तेइँ कीन्ह॥ 111॥
तब राम ने सखा
गुह को अनेकों तरह से (घर लौट जाने के लिए) समझाया। राम की आज्ञा को सिर चढ़ाकर
उसने अपने घर को गमन किया॥ 111॥
पुनि सियँ राम
लखन कर जोरी। जमुनहि कीन्ह प्रनामु बहोरी॥
चले ससीय
मुदित दोउ भाई। रबितनुजा कइ करत बड़ाई॥
फिर सीता,
राम और लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर यमुना को पुनः प्रणाम किया और
सूर्यकन्या यमुना की बड़ाई करते हुए सीता सहित दोनों भाई प्रसन्नतापूर्वक आगे चले।
पथिक अनेक
मिलहिं मग जाता। कहहिं सप्रेम देखि दोउ भ्राता॥
राज लखन सब
अंग तुम्हारें। देखि सोचु अति हृदय हमारें॥
रास्ते में
जाते हुए उन्हें अनेकों यात्री मिलते हैं। वे दोनों भाइयों को देखकर उनसे
प्रेमपूर्वक कहते हैं कि तुम्हारे सब अंगों में राज चिह्न देखकर हमारे हृदय में
बड़ा सोच होता है।
मारग चलहु
पयादेहि पाएँ। ज्योतिषु झूठ हमारें भाएँ॥
अगमु पंथु
गिरि कानन भारी। तेहि महँ साथ नारि सुकुमारी॥
(ऐसे राजचिह्नों के होते हुए भी) तुम लोग रास्ते में पैदल ही चल रहे हो,
इससे हमारी समझ में आता है कि ज्योतिष शास्त्र झूठा ही है।
भारी जंगल और बड़े-बड़े पहाड़ों का दुर्गम रास्ता है। तिस पर तुम्हारे साथ
सुकुमारी स्त्री है।
करि केहरि बन
जाइ न जोई। हम सँग चलहिं जो आयसु होई॥
जाब जहाँ लगि
तहँ पहुँचाई। फिरब बहोरि तुम्हहि सिरु नाई॥
हाथी और
सिंहों से भरा यह भयानक वन देखा तक नहीं जाता। यदि आज्ञा हो तो हम साथ चलें। आप
जहाँ तक जाएँगे, वहाँ तक पहुँचाकर, फिर आपको प्रणाम करके हम लौट आवेंगे।
दो० - एहि
बिधि पूँछहिं प्रेम बस पुलक गात जलु नैन।
कृपासिंधु
फेरहिं तिन्हहि कहि बिनीत मृदु बैन॥ 112॥
इस प्रकार वे
यात्री प्रेमवश पुलकित शरीर हो और नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भरकर पूछते
हैं,
किंतु कृपा के समुद्र राम कोमल विनययुक्त वचन कहकर उन्हें
लौटा देते हैं॥ 112॥
जे पुर गाँव
बसहिं मग माहीं। तिन्हहि नाग सुर नगर सिहाहीं॥
केहि सुकृतीं
केहि घरीं बसाए। धन्य पुन्यमय परम सुहाए॥
जो गाँव और
पुरवे रास्ते में बसे हैं, नागों और देवताओं के नगर उनको देखकर प्रशंसा पूर्वक ईर्ष्या
करते और ललचाते हुए कहते हैं कि किस पुण्यवान ने किस शुभ घड़ी में इनको बसाया था,
जो आज ये इतने धन्य और पुण्यमय तथा परम सुंदर हो रहे हैं।
जहँ जहँ राम
चरन चलि जाहीं। तिन्ह समान अमरावति नाहीं॥
पुन्यपुंज मग
निकट निवासी। तिन्हहि सराहहिं सुरपुरबासी॥
जहाँ-जहाँ राम
के चरण चले जाते हैं, उनके समान इंद्र की पुरी अमरावती भी नहीं है। रास्ते के
समीप बसनेवाले भी बड़े पुण्यात्मा हैं - स्वर्ग में रहनेवाले देवता भी उनकी सराहना
करते हैं -
जे भरि नयन
बिलोकहिं रामहि। सीता लखन सहित घनस्यामहि॥
जे सर सरित
राम अवगाहहिं। तिन्हहि देव सर सरित सराहहिं॥
जो नेत्र भरकर
सीता और लक्ष्मण सहित घनश्याम राम के दर्शन करते हैं,
जिन तालाबों और नदियों में राम स्नान कर लेते हैं,
देवसरोवर और देवनदियाँ भी उनकी बड़ाई करती हैं।
जेहि तरु तर
प्रभु बैठहिं जाई। करहिं कलपतरु तासु बड़ाई॥
परसि राम पद
पदुम परागा। मानति भूमि भूरि निज भागा॥
जिस वृक्ष के
नीचे प्रभु जा बैठते हैं, कल्पवृक्ष भी उसकी बड़ाई करते हैं। राम के चरणकमलों की रज
का स्पर्श करके पृथ्वी अपना बड़ा सौभाग्य मानती है।
दो० - छाँह
करहिं घन बिबुधगन बरषहिं सुमन सिहाहिं।
देखत गिरि बन
बिहग मृग रामु चले मग जाहिं॥ 113॥
रास्ते में
बादल छाया करते हैं और देवता फूल बरसाते और सिहाते हैं। पर्वत,
वन और पशु-पक्षियों को देखते हुए राम रास्ते में चले जा रहे
हैं॥ 113॥
सीता लखन सहित
रघुराई। गाँव निकट जब निकसहिं जाई॥
सुनि सब बाल
बृद्ध नर नारी। चलहिं तुरत गृह काजु बिसारी॥
सीता और
लक्ष्मण सहित रघुनाथ जब किसी गाँव के पास जा निकलते हैं,
तब उनका आना सुनते ही बालक-बूढ़े,
स्त्री-पुरुष सब अपने घर और काम-काज को भूलकर तुरंत उन्हें
देखने के लिए चल देते हैं।
राम लखन सिय
रूप निहारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी॥
सजल बिलोचन
पुलक सरीरा। सब भए मगन देखि दोउ बीरा॥
राम,
लक्ष्मण और सीता का रूप देखकर,
नेत्रों का (परम) फल पाकर वे सुखी होते हैं। दोनों भाइयों
को देखकर सब प्रेमानंद में मग्न हो गए। उनके नेत्रों में जल भर आया और शरीर पुलकित
हो गए।
बरनि न जाइ
दसा तिन्ह केरी। लहि जनु रंकन्ह सुरमनि ढेरी॥
एकन्ह एक बोलि
सिख देहीं। लोचन लाहु लेहु छन एहीं॥
उनकी दशा
वर्णन नहीं की जाती। मानो दरिद्रों ने चिंतामणि की ढेरी पा ली हो। वे एक-एक को
पुकारकर सीख देते हैं कि इसी क्षण नेत्रों का लाभ ले लो।
रामहि देखि एक
अनुरागे। चितवत चले जाहिं सँग लागे॥
एक नयन मग छबि
उर आनी। होहिं सिथिल तन मन बर बानी॥
कोई राम को
देखकर ऐसे अनुराग में भर गए हैं कि वे उन्हें देखते हुए उनके साथ लगे चले जा रहे
हैं। कोई नेत्र मार्ग से उनकी छवि को हृदय में लाकर शरीर,
मन और श्रेष्ठ वाणी से शिथिल हो जाते हैं (अर्थात उनके शरीर,
मन और वाणी का व्यवहार बंद हो जाता है)।
दो० - एक देखि
बट छाँह भलि डासि मृदुल तृन पात।
कहहिं गवाँइअ
छिनुकु श्रमु गवनब अबहिंकि प्रात॥ 114॥
कोई बड़ की
सुंदर छाया देखकर, वहाँ नरम घास और पत्ते बिछाकर कहते हैं कि क्षण भर यहाँ
बैठकर थकावट मिटा लीजिए। फिर चाहे अभी चले जाइएगा, चाहे सबेरे॥ 114॥
एक कलस भरि
आनहिं पानी। अँचइअ नाथ कहहिं मृदु बानी॥
सुनि प्रिय
बचन प्रीति अति देखी। राम कृपाल सुसील बिसेषी॥
कोई घड़ा भरकर
पानी ले आते हैं और कोमल वाणी से कहते हैं - नाथ! आचमन तो कर लीजिए। उनके प्यारे
वचन सुनकर और उनका अत्यंत प्रेम देखकर दयालु और परम सुशील राम ने -
जानी श्रमित
सीय मन माहीं। घरिक बिलंबु कीन्ह बट छाहीं॥
मुदित नारि नर
देखहिं सोभा। रूप अनूप नयन मनु लोभा॥
मन में सीता
को थकी हुई जानकर घड़ी भर बड़ की छाया में विश्राम किया। स्त्री-पुरुष आनंदित होकर
शोभा देखते हैं। अनुपम रूप ने उनके नेत्र और मनों को लुभा लिया है।
एकटक सब
सोहहिं चहुँ ओरा। रामचंद्र मुख चंद चकोरा॥
तरुन तमाल बरन
तनु सोहा। देखत कोटि मदन मनु मोहा॥
सब लोग टकटकी
लगाए रामचंद्र के मुखचंद्र को चकोर की तरह (तन्मय होकर) देखते हुए चारों ओर
सुशोभित हो रहे हैं। राम का नवीन तमाल वृक्ष के रंग का (श्याम) शरीर अत्यंत शोभा
दे रहा है, जिसे देखते ही करोड़ों कामदेवों के मन मोहित हो जाते हैं।
दामिनि बरन
लखन सुठि नीके। नख सिख सुभग भावते जी के॥
मुनि पट
कटिन्ह कसें तूनीरा। सोहहिं कर कमलनि धनु तीरा॥
बिजली के-से
रंग के लक्ष्मण बहुत ही भले मालूम होते हैं। वे नख से शिखा तक सुंदर हैं,
और मन को बहुत भाते हैं। दोनों मुनियों के (वल्कल आदि)
वस्त्र पहने हैं और कमर में तरकस कसे हुए हैं। कमल के समान हाथों में धनुष-बाण
शोभित हो रहे हैं।
दो० - जटा
मुकुट सीसनि सुभग उर भुज नयन बिसाल।
सरद परब बिधु
बदन बर लसत स्वेद कन जाल॥ 115॥
उनके सिरों पर
सुंदर जटाओं के मुकुट हैं; वक्षःस्थल, भुजा और नेत्र विशाल हैं और शरद पूर्णिमा के चंद्रमा के
समान सुंदर मुखों पर पसीने की बूँदों का समूह शोभित हो रहा है॥ 115॥
बरनि न जाइ
मनोहर जोरी। सोभा बहुत थोरि मति मोरी॥
राम लखन सिय
सुंदरताई। सब चितवहिं चित मन मति लाई॥
उस मनोहर
जोड़ी का वर्णन नहीं किया जा सकता, क्योंकि शोभा बहुत अधिक है और मेरी बुद्धि थोड़ी है। राम,
लक्ष्मण और सीता की सुंदरता को सब लोग मन,
चित्त और बुद्धि तीनों को लगाकर देख रहे हैं।
थके नारि नर
प्रेम पिआसे। मनहुँ मृगी मृग देखि दिआ से॥
सीय समीप
ग्रामतिय जाहीं। पूँछत अति सनेहँ सकुचाहीं॥
प्रेम के
प्यासे (वे गाँवों के) स्त्री-पुरुष (इनके सौंदर्य-माधुर्य की छटा देखकर) ऐसे चकित
रह गए जैसे दीपक को देखकर हिरनी और हिरन (निस्तब्ध रह जाते हैं)! गाँवों की
स्त्रियाँ सीता के पास जाती हैं, परंतु अत्यंत स्नेह के कारण पूछते सकुचाती हैं।
बार बार सब
लागहिं पाएँ। कहहिं बचन मृदु सरल सुभाएँ॥
राजकुमारि
बिनय हम करहीं। तिय सुभायँ कछु पूँछत डरहीं॥
बार-बार सब
उनके पाँव लगतीं और सहज ही सीधे-सादे कोमल वचन कहती हैं - हे राजकुमारी! हम विनती
करती (कुछ निवेदन करना चाहती) हैं, परंतु स्त्री-स्वभाव के कारण कुछ पूछते हुए डरती हैं।
स्वामिनि
अबिनय छमबि हमारी। बिलगु न मानब जानि गवाँरी॥
राजकुअँर दोउ
सहज सलोने। इन्ह तें लही दुति मरकत सोने॥
हे स्वामिनी!
हमारी ढिठाई क्षमा कीजिएगा और हमको गँवारी जानकर बुरा न मानिएगा। ये दोनों
राजकुमार स्वभाव से ही लावण्यमय (परम सुंदर) हैं। मरकतमणि (पन्ने) और सुवर्ण ने
कांति इन्हीं से पाई है (अर्थात मरकतमणि में और स्वर्ण में जो हरित और स्वर्ण वर्ण
की आभा है वह इनकी हरिताभनील और स्वर्ण कांति के एक कण के बराबर भी नहीं है)।
दो० - स्यामल
गौर किसोर बर सुंदर सुषमा ऐन।
सरद सर्बरीनाथ
मुखु सरद सरोरुह नैन॥ 116॥
श्याम और गौर
वर्ण है,
सुंदर किशोर अवस्था है; दोनों ही परम सुंदर और शोभा के धाम हैं। शरद पूर्णिमा के
चंद्रमा के समान इनके मुख और शरद ऋतु के कमल के समान इनके नेत्र हैं॥ 116॥
श्री राम चरित
मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, सोलहवाँ विश्राम समाप्त॥
शेष
जारी....पढे श्रीरामचरित मानस- अयोध्याकांड मासपारायण,
सत्रहवाँ विश्राम
पूर्व पढ़े- रामचरितमानस बालकांड मासपारायण, पन्द्रहवाँ विश्राम
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