पञ्चमुखि वीरहनूमत्कवचम्

पञ्चमुखि वीरहनूमत्कवचम्

इससे पूर्व आपने श्रीसुदर्शनसंहिता, श्रीमद आनन्दरामायणान्तर्गत, नारद पुराण तथा श्रीएकमुखीहनुमत्कवचम् पढ़ा । अब इसी क्रम में पञ्चमुखि वीरहनूमत्कवचम् दिया जा रहा है । जिसे की सुदर्शनसंहिता से लिया गया है ।

श्रीपञ्चमुखि वीरहनूमत्कवचम्

पंचमुखि वीर हनुमत् कवचम्

Panchamukhi Veer Hanumat kavacham

यह अत्यधिक तीव्र व शीघ्र प्रभावी कवच है जो दुर्लभ ग्रन्थ 'सुदर्शन संहिता' से लिया गया है। यह संहिता ग्रन्थ हनुमान जी साधकों के लिये एक कल्पवृक्ष के समान है। जिस प्रकार महामाया आद्य भवानी कालिका जी का पूर्ण संहिता ग्रन्थ 'महाकाल संहिता' है उसी प्रकार से यह ग्रन्थ भी हनुमत् उपासना का पूर्ण संहिता ग्रन्थ है पर दुर्भाग्य कि दोनों महाग्रन्थ आज दुर्लभ हो चुके हैं।

इस कवच का एक पाठ करने से शत्रुओं का नाश होता है। दो पाठ करने से कुटुम्ब की वृद्धि होती है। तीन पाठ करने से धन लाभ होता है। चार पाठ करने से रोगों का शमन होता है। पाँच पाठ करने से वशीकरण होता है। छह पाठ करने से महामोहन होता है। सात पाठ करने से सौभाग्य उदय होता है। आठ पाठ करने से अभिलाषा पूर्ण होती है। नव पाठ करने से राज्य सुखोपभोग होता है। दस पाठ करने से ज्ञान दृष्टि बढ़ती है। ग्यारह पाठ करने से क्या है जो नहीं होता है ।

पंचमुखी वीर हनुमान कवच

दाहिने हाथ में जल, अक्षत, पुष्प सुगन्धि लेकर निम्नलिखित विनियोग मन्त्र का पाठ करके वसुंधरा पर डाल दें।

अथ श्रीपञ्चमुखि वीरहनूमत्कवचम्

॥ विनियोग मन्त्रः ॥

"ॐ अस्य श्री पञ्च मुख हनुमन्मन्त्रस्य ब्रह्मा ऋर्षिः गायत्री छन्दः, श्री पञ्च मुख विराट हनुमान देवता, ह्रीं बीजम्, श्रीं शक्तिः क्रौं कीलकम्, कूं कवचम्, क्रैं अस्त्राय फट् मम सकल कार्यार्थ सिद्धयर्थे जपे । पाठे विनियोगः ॥

॥ कवचम् 

ईश्वर उवाच: 

अथ ध्यानं प्रवक्ष्यामि श्रृणु सर्वाङ्गिसुन्दरम् ।

यत्कृतं देव देवेशि ध्यानं हनुमतः प्रियम ॥ १ ॥

ईश्वर ने कहा- हे सर्वाङ्ग सुन्दरी ! देवताओं के भी देवता श्री शिवजी ने अपने प्रिय हनुमानजी का जिस प्रकार ध्यान (साधन) किया था वह मैं तुम्हें बताता हूँ । जरा सावधानी से श्रवण करना।

पंचवक्त्रं महाभीमं त्रिपञ्च नयनैर्युतम् ।

बाहुभिर्दशभिर्युक्तं सर्वकामार्थसिद्धिदम् ॥ २ ॥

पाँच मुख वाले महा भयंकर पन्द्रह नेत्र वाले दस भुजा युक्त श्रीहनुमानजी भक्तों की समस्त कामनाएं पूर्ण करते हैं।

पूर्व तु वानर वक्त्रं कोटि सूर्यसमप्रभम् ।

दंष्ट्राकरालवदनं भृकुटी कुटिलेक्षणम् ॥ ३ ॥

पूर्व दिशा वाला मुख करोड़ों भास्करों के समान उज्जवल कान्तिमयी है। इनके दाँत भयंकर हैं। क्रोध के कारण इनकी भृकुटि चढ़ी हुई है। इनका श्री मुख वानर स्वरूपा है।

अस्यैव दक्षिणं वक्त्रं नारसिंहं महाद्भुतम् ।

अत्युग्रतेजोवपुष भीषणं भयनाशनम् ॥ ४ ॥

इस श्री मुख के दक्षिण की तरफ वाला मुख श्री नरसिंह स्वरूपा है जो कि भीषण भयों का भी नाश कर देता है। यह अति उग्र, शीघ्र प्रभावी, महा भयंकर व महा अद्भुत स्वरूप है।

पश्चिमे गारुडं वक्त्रं वक्रतुंडंमहाबलम् ।

सर्वनागप्रशमनं विषभूतादिकृन्तनम् ॥ ५ ॥

इनके पश्चिम की तरफ वाला श्री मुख श्री गरुड़ स्वरूपा है जिनकी चौंच टेढ़ी है एवं यह महा बलशाली हैं। यह समस्त नागों का अन्त कर देते हैं। इनकी कृपा से विषों व भूतों का समापन होता है ।

उत्तर सौकरं वक्त्रं कृष्णदीप्तनभोमपम् ।

पाताले सिहं बेतालं ज्वररोगादिकृन्तनम् ॥ ६ ॥

इनसे उत्तर की तरफ वाला श्री मुख सौकर स्वरूपा है जो कि आकाश के समान देदीप्यमान है। यह नीले रंग वाले हैं जो कि पाताल, सिंह, बेताल, ज्वर व अन्य रोगों का विनाश करते हैं।

उर्ध्वं हयाननं घोरं दानवांतकरं परम् ।

येन वक्त्रेण विप्रेन्द्र ताटकाख्यम् महासुरम ॥ ७ ॥

ऊपर की तरफ वाले श्री मुख हयानन के समान है जो कि घोर दानवों का भी अन्त कर देते हैं। हे विप्र श्रेष्ठ ! इसी स्वरूप से महाबली तारकासुर का वध किया था।

दुर्गते शरणं तस्य सर्वशत्रुहरं परम् ।

ध्यात्वा पंचमुखं रुद्रं हनुमन्तं दयानिधिम् ॥ ८ ॥

जब अत्यधिक दुर्गति हो रही होती है तब इनकी शरण में आने से समस्त शत्रुओं का संहार होता है, दुर्गति का अन्त होता है। इनकी दया की निधि प्राप्त होती है यदि रुद्र स्वरूप पंच मुख वाले श्री हनुमानजी का ऐसा ध्यान किया जाये।

खड्गं त्रिशुलं खट्वांगं पाशमंकुशपर्वतम् ।

मुष्टौ तु कोमोदकौ वृक्षं धारयन्तं कमंडलुम् ॥ ९ ॥

खड़ग, त्रिशुल, खटवांग, पाश, अंकुश, पर्वत, मुष्टि, कौमोदकी, कमण्डल का धारण किया हुआ है।

भिदिपालं ज्ञानमुद्रां दसवि मुनि पुंगव ।

एतान्यायुधजालानि धारयन्तं भजाम्यहम ॥ १० ॥

प्रेतासनोपविष्टं तं सर्वाभूषण भूषितम् ।

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगंधानुलेपनम् ॥ ११ ॥

भिदिपाल, ज्ञानमुद्राओं को प्रदर्शित करते हुए समस्त आभरणों से विभूषित श्री हनुमान जी जो कि श्वासन पर बैठे हुए हैं। इन्होंने माला एवं दिव्य गंधादि धारण कर रखी है। ऐसे स्वरूप का मैं ध्यान करता हूँ।

सर्वैश्वर्यमयं देवं हनुमद् विश्वतोमुखम् ।

पंचास्यमच्युतमनेकविचित्रवर्णं वक्त्रं संशखविभृतं कपिराजवीर्यम् ।

पीताम्बरादिमुकुटैरपि शोभितांगं पिंगाक्षमञ्चनिसुतं ह्यनिशं स्मरामि ॥ १२ ॥

समस्त ऐश्वर्यों के साथ पीताम्बर एवं मुकुट से सुशोभित, कवि श्रेष्ठ, जिनके माथे पर चन्द्र सोभायमान है। ऐसे पीले नेत्रों वाले श्री हनुमान जी का मैं स्मरण करता हूँ ।

मर्कटस्य महोत्साहं सर्वशोक विनाशनम् ।

शत्रु संहरमाम रक्ष श्रिय दापयम हरिम् ॥ १३ ॥

ऐसे हनुमानजी ! आप बहुत उत्साही हैं और आप समस्त शोकों का शमन करते हैं। आप मेरे शत्रुओं का संहार कीजिये व मेरी रक्षा कीजिये ।

॥ अथ मूल मन्त्रः ॥

अब मूल मन्त्र कहते हैं-

ॐ हरिमर्कटमर्कटाय स्वाहा ॥

ॐ नमो भगवते पंचवदनाय पूर्वकपि मुखाय सकलशत्रु संहारणाय स्वाहा ॥

ॐ नमो भगवते पंच वदनाय दक्षिण मुखाय कराल वदनाय नरसिंहाय सकल भूत प्रेत प्रमथनाय स्वाहा ॥

ॐ नमो भगवते पंच वदनाय पश्चिम मुखायगरुडाय सकलविषहराय स्वाहा ॥

ॐ नमो भगवते पंचवदनाय उत्तर मुखाय आदि वराहाय सकलसम्पत्काराय स्वाहा ॥

ॐ नमो भगवते पंचवदनाय ऊर्ध्वमुखाय हयग्रीवाय सकल जनवशीकरणाय स्वाहा ॥

॥ अथ विनियोग मन्त्र ॥

अब विनियोग मन्त्र कहते हैं-

ॐ अस्य श्री पञ्चमुखिहनुमत्कवच स्तोत्र मंत्रस्य

श्रीरामचन्द्र ऋषिरनुष्टुपछंदः श्री सीता रामचन्द्रो देवता ॥

हनुमानति बीजम् ॥ वायुदेवता इति शक्तिः ॥

श्रीरामचन्द्रावर प्रसादसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ॥

॥ अथ करन्यासः ॥

अब कर न्यास कहते हैं-

ॐ हं हनुमान अंगुष्ठाभ्यां नमः ॥

ॐ वं वायु देवता तर्जनीभ्यां नमः ॥

ॐ अं अंजनि सुताय मध्यमाभ्यां नमः ॥

ॐ रं रामदूताय अनामिकाभ्यां नमः॥

ॐ हं हनुमते कनिष्ठिकाभ्यां नमः ॥

ॐ रुं रुद्र मूर्तये करतल कर पृष्ठाभ्यां नमः ॥

॥ अथ हृदयादिन्यासः ॥

अब हृदयादि न्यास कहते हैं-

ॐ हं हृदयाय नमः ॥

ॐ वं शिरसे स्वाहा ॥

ॐ अं शिखायै वषट् ॥

ॐ रं शिरसे स्वाहा ॥

ॐ हं त्रिनेत्राथ वौषट् ॥

ॐ रुं अस्त्राय फट् ॥

॥ अथ ध्यानम् विनियोग सहितम् ॥

अब विनियोग सहित ध्यान वर्णित है।

श्रीरामदूताय आंजनेयाय वायुपुत्राय महाबलाय - सीताशोकनिवारणाय महाबलप्रचण्डाय लंकापुरीदहनाय फाल्गुनसखाय कोलाहलसकलब्रह्मांडविश्वरूपाय सप्त-समुद्रान्तराललंघिताय पिंगलनयनामितविक्रमाय सूर्य- बिम्बफलसेवाधिष्ठित पराक्रमाय संजीवन्या अंगद- लक्ष्मणमहाकपिसैन्य प्राणदात्रेदशग्रीवविध्वंसनायरामेष्टाय सीतासह रामचन्द्र वरप्रसादाय षट्प्रयोगागमपंचमुखि- हनुमन्मन्त्रजपे विनियोगः॥

॥ अथ कवच मन्त्रः ॥

अब कवच का मन्त्र कहते हैं-

(अब बीज शक्ति युक्त अत्यधिक प्रभावशाली मन्त्र कहे गये हैं। इन्हें सावधानी से पढ़ें।)

ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय स्वाहा ।

ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय वं वं वं वं वं फट् स्वाहा ॥

ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय फं फं फं फं फं स्वाहा ॥

ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय खं खं खं खं खं मारणाय स्वाहा ॥

ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय ठं ठं ठं ठं ठं स्तंभनाय स्वाहा ॥

ॐ ह्री हरिमर्कटमर्कटाय डंडं डं डंडं आकर्षणाय सकलसम्पत्काराय

पंचमुखवीर हनुमते परयन्त्र-तंत्रोच्चाटनाय स्वाहा ॥

अथ दिग्बन्धनम् ।

ॐ कं खं गं घं, ङं चं छं, जं, झं, ञं टं ठं डं, णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं, मं,

यं, रं, लं, वं, शं, षं, सं, हं क्षं स्वाहा । इतिदिग्बन्धः ।

ॐ पूर्व कपिमुखाय पंचमुखहनुमते ठं ठं ठं ठं ठं सकलशत्रुसंहारणाय स्वाहा ॥

ॐ दक्षिणमुखे पंचमुखिहनुमते करालवदनाय नरसिंहाय ह्रां, ह्रां, ह्रां, ह्रां, ह्रां सकल भूत प्रेतदमनाय स्वाहा ॥

ॐ पश्चिममुखे गरुडासनाय पंचमुखिवीरहनुमते मं, मं, मं, मं, मं सकलविषहराय स्वाहा ॥

ॐ उत्तरमुखे आदि वराहाय लं, लं, लं, लं, लं नृसिंहायनीलकंठायपंचमुखिहनुमते स्वाहा ॥

ॐ उर्ध्वमुखाय हयग्रीवाय, रुं रुं रुं रुं रुं रुद्रमूर्तयेपंचमुखिहनुमते सकलजनवश्यकराय स्वाहा ॥

ॐ अन्जनीसुताय वायुपुत्रायमहाबलाय रामेष्ट- फाल्गुनसखाथ सीताशोकनिवारणाय लक्ष्मणप्राणरक्षकाय कपिसैन्यप्रकाशायदशग्रीवाभिमानदहनाय श्रीरामचन्द्रवर- प्रसादकाय महावीर्याप्रथमत्ब्रह्मांडनायकायपंचमुखहनुमते भूत-प्रेत-पिशाच-ब्रह्मराक्षस - शाकिनी - डाकिनी - अन्तरिक्षग्र हपरयन्त्र-परमयन्त्र-परतन्त्रसर्वग्रहोच्चाट नाय सकलशत्रु संहारणाय पंचमुखिहनुमद्वरप्रसादक सर्व रक्षकाय जं, जं, जं, जं, जं स्वाहा ॥

श्रीपञ्चमुखि वीरहनूमत्कवचम् फलश्रुतिः 

अब कवच के पाठ को करने से प्राप्त होने वाले लाभ व्यक्त करता हूं।

इदं कवचंपठित्वा तु महाकवचं पठेन्नरः ।

एकवारं पठेन्नित्यं सर्वशत्रु निवारणम् ॥ १४ ॥

यह महाकवच है। इस कवच को जो नर पढ़ता है। इसे एक बार जपने से समस्त शत्रुओं का निवारण होता है।

द्विवारं तु पठेन्नित्यं पुत्रपौत्रप्रवर्धनम् ।

त्रिवारं पठेत् नित्यं सर्वसंपत्करं परम् ॥ १५ ॥

प्रतिदिवस दो बार इसका पाठ करने से परिवार में पुत्र पौत्रादि की वृद्धि होती है। प्रतिदिन तीन बार पाठ करने से समस्त समपत्तियाँ प्राप्त होती हैं।

चतुर्वारं पठेन्नित्यं सर्वलोकवशीकरम् ।

पंचवारं पठेन्नित्यं सर्वरोगनिवारणम् ॥ १६ ॥

चार बार प्रतिदिन पाठ करने से समस्त रोगों का निवारण होता है। पाँच बार नित्य पाठ करने से समस्त लोकों का वशीकरण होता है।

षड्वारं तु पठेन्नित्यं सर्वदेव वशीकरम् ।

सप्तवारं पठेन्नित्यं सर्वकामार्थसिद्धिदम् ॥ १७ ॥

प्रतिदिन छः बार पाठ करने से समस्त देवों का आकर्षण होता है। सात बार नित्य पढ़ने से समस्त सौभाग्यों का उदय होता है।

अष्टवारं पठेन्नित्यं सर्व सौभाग्यदायकम् ।

नववारं पठेन्नित्यं सर्वैश्वर्य प्रदायकम् ॥ १८ ॥

नित्य आठ बार पाठ करने से अभिलाषा पूर्ण होती है। नव बार नित्य पाठ करने से राज्य के सुखादि का उपभोग मिलता है।

दशवारं च पठेन्नित्यं त्रैलोक्य ज्ञानदर्शनम् ।

एकादशं पठेन्नित्यं सर्वसिद्धिं लभेन्नरः ॥ १९ ॥

प्रतिदिवस दस बार इसका पाठ करने से त्रैलोक्य का ज्ञान प्राप्त होता है तथा प्रतिदिन ग्यारह बार पाठ करने से साधक के समस्त कार्य सिद्ध होते हैं (या सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। )

ईति: श्रीसुदर्शनसंहितान्तर्गतः पञ्चमुखि वीरहनूमत्कवचम् समाप्त ॥

(इतिअद्यानन्द यशपाल 'भारती' विरचिते हनुमद् पंचांगे श्री सुदर्शन संहितायां श्री राम भगवती सीता प्रोक्तं पञ्चमुखी श्री हनुमत्कवचं आयभाटीका सहितम् सम्पूर्णम् ॥ )

आगे पढ़ें- पञ्चमुखी हनुमत्कवचम्

Post a Comment

0 Comments