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कर्मकाण्ड

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ब्राह्मणगीता ९

ब्राह्मणगीता ९

आप पठन व श्रवण कर रहे हैं - भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेशीत ब्राह्मण और ब्राह्मणी के मध्य का संवाद ब्राह्मणगीता। पिछले अंक में ब्राह्मणगीता ८ को पढ़ा अब उससे आगे ब्राह्मणगीता ९ में ज्ञानी पुरुष की स्थिति तथा अध्वर्यु और यति का संवाद[यह अध्याय क्षेपक हो तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि इसमें बात कही गयी है कि बुद्धि और इन्द्रियों में राग द्वेश के रहते हुए भी विद्वान् कर्मों में लिप्त नहीं होता और यज्ञ में पशु हिंसा का दोष नही लगता। किंतु यह कथन युक्ति विरुद्ध है।] का वर्णन हैं । 

ब्राह्मणगीता ९

ब्राह्मणगीता ९

कृष्णेनार्जुनंप्रति यागीयहिंसाया अधर्म्यत्वाभावप्रतिपादकाध्वर्युयतिसंवादानुवादः।। 1 ।।

ब्राह्मण उवाच। 

गन्धान्न जिघ्रामि रासान्न वेद्मि

रूपं न पश्यामि न च स्पृशामि।

न चापि शब्दान्विविधाञ्शृणोमि

न चापि सङ्कल्पमुपैमि कञ्चित्।। 

अर्थानिष्टान्कामयते स्वभावः

सर्वान्द्वेष्यान्प्रद्विषते स्वभावः।

कामद्वेषानुद्भवतः स्वभावा-

त्प्राणापानौ जन्तुदेहान्निवेश्य।।    

तेभ्यश्चान्यांस्तेषु नित्यांश्च भावा-

न्भूतात्मानं अक्षयेऽहं शरीरे।

तस्मिंस्तिष्ठन्नास्मि सक्तः कथंचि-

त्कामक्रोधाभ्यां जरया मृत्युना च।।         

अकामयानस्य च सर्वकामा-

नविद्विषाणस्य च सर्वदोषान्।

न मे स्वभावेषु भवन्ति लेपा-

स्तोयस्य बिन्दोरिव पुष्करेषु।।    

नित्यस्य चैतस्य भवन्ति नित्या

निरीक्ष्यमाणस्य बहून्स्वभावान्।

न सज्जते कर्मसु भोगजालं

दिवीव सूर्यस्य मयूखजालम्।।     

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।

अध्वर्युयतिसंवादं तं निबोध यशस्विनि।।  

प्रोक्ष्यमाणं पशुं दृष्ट्वा यज्ञकर्मण्यथाब्रवीत्।

यतिरध्वर्युमासीनो हिंसोयमिति कुत्सयन्।।

तमध्वर्युः प्रत्युवाच नायं छागो विनश्यति।

श्रेयसा योक्ष्यते जन्तुर्यज्ञाच्छ्रुतिरियं तथा।।

यो ह्यस्य पार्थिवो भागः पृथिवीं स गमिष्यति।

यदस्य वारिजं किञ्चिदपस्तत्सम्प्रवेक्ष्यति।। 

सूर्यं चक्षुर्दिशः श्रोत्रे प्राणोऽस्य दिवमेव च।

आगमे वर्तमानस्य नमे दोषोस्ति कश्चन।।  

यतिरुवाच।      

प्राणैर्वियोगे च्छागस्य यदि श्रेयः प्रपश्यसि।

छागार्थे वर्तते यज्ञो भवतः किं प्रयोजनम्।।

अनु त्वां मन्यते माता अनु त्वां मन्यते पिता।

मन्त्रविज्ञानमुन्नीय परिवर्ते विशेषतः।।     

एवमेवानुमन्येरंस्तान्भवान्द्रष्टुमर्हति।

तेषामनुमतिं श्रुत्वा शक्या कर्तुं विचारणा।।

अध्वर्युरुवाच।   

प्राणा अप्यस्य च्छागस्य प्रापितास्ते स्वयोनिषु।

शरीरं केवलं शिष्टं निश्चेष्टमिति मे मतिः।। 

इन्धनस्य तु तुल्येन शरीरेणि विचेतसा।

हिंसा हि यष्टुकामानामिन्धनं पशुसंज्ञितम्।।

अहिंसा सर्वधर्माणामिति वृद्धानुशासनम्।

यदहिंस्रं भवेत्कर्म तत्कार्यमिति विद्महे।।   

अहिंसेति प्रतिज्ञेयं यदि वक्ष्याम्यतः परम्।

शक्यं बहुविधं वक्तुं भवता कार्यदूषणम्।।  

अहिंसा सर्वभूतानां नित्यमस्मासु रोचते।

प्रत्यक्षतः साधयामो न परोक्षमुपास्महे।।   

अध्वर्यरुवाच।   

भूमेर्गन्धगुणान्भुङ्क्ष्व पिबस्यापोमयान्रसान्।

ज्योतिषां पश्यते रूपं स्पृशस्यनिलजान्गुणान्।।      

शृणोष्याकाशजाञ्शब्दान्मनसा मन्यसे मतिम्।

सर्वाण्येतानि भूतानि प्राणा इति च मन्यसे।।        

प्राणादाने निवृत्तोसि हिंसायां वर्तते भवान्।

नास्ति चेष्टा विना हिंसां किं वा त्वं मन्यसे द्विज।।  

यतिरुवाच।      

अक्षरं च क्षरं चैव द्वैधीभावोऽयमात्मनः।

अक्षरं तत्र सद्भावः स्वभावः क्षर उच्यते।। 

प्राणो जिह्वा मनः सत्त्वं सद्भावो रजसा सह।

भावैरेतैर्विमुक्तस्य निर्द्वन्द्वस्य निराशिषः।। 

समस्य सर्वभूतेषु निर्ममस्य जितात्मनः।

समन्तात्परिमुक्तस्य न भयं विद्यते क्वचित्।।         

अध्वर्युरुवाच।   

सद्भिरेवेह संवादः कार्यो मतिमतांवर।

भवतो हि मतं श्रुत्वा प्रतिभाति मतिर्मम।।

भगवन्भगवद्बुद्ध्या प्रतिबुद्धो ब्रवीम्यहम्।

व्रतं मन्त्रकृतं कर्तुर्नापराधोस्ति मे द्विज।।   

ब्राह्मण उवाच। 

उपपत्त्या यतिस्तूष्णीं वर्तमानस्ततः परम्।

अध्वर्युरपि निर्मोहः प्रचचार महामखे।।    

एवमेतादृशं मोक्षं सुसूक्ष्मं ब्राह्मणा विदुः।

विदित्वा चानुतिष्ठन्ति क्षेत्रज्ञेनार्थदर्शिना।। 

।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेदिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि ब्राह्मणगीता ९एकोनत्रिंशोऽध्यायः।। 29 ।। 


ब्राह्मणगीता ९ हिन्दी अनुवाद

ब्राह्मण कहते हैं- मैं न तो गन्ध को सूघँता हूँ, न रसों का आस्वादन करता हूँ, न रूप को देखता हूँ, न किसी वस्तु का स्पर्श करता हूँ, न नाना प्रकार के शब्दों को सुनता हूँ और न कोई संकल्प ही करता हूँ। स्वभाव ही अभीष्ट पदार्थों की कामना रखता है, स्वभाव ही सम्पूर्ण द्वेष्य वस्तुओं के प्रति द्वेष करता है। जैसे प्राण और अपान स्वभाव से ही प्राणियों के शरीरों में प्रविष्ट होकर अन्न पाचन आदि का कार्य करते रहते हैं, उसी प्रकार स्वभाव से ही राग और द्वेष की उत्पत्ति होती है। तात्पर्य यह कि बुद्धि आदि इन्द्रियाँ स्वभाव से ही पदार्थों में बर्ताव रही हैं। इन बाह्य इन्द्रियों और विषयों से भिन्न जो स्वप्न और सुषुप्ति के वासनामय विषय एवं इन्द्रियाँ हैं तथा उनमें भी जो नित्यभाव हैं, उनसे भी विलक्षण जो भूतात्मा है, उसको शरीर के भीतर योगीजन देख पाते हैं। उसी भूतात्मा में स्थित हुआ मैं कहीं किसी तरह भी काम, क्रोध, जरा और मृत्यु से ग्रस्त नहीं होता। मैं सम्पूर्ण कामनाओं में से किसी की कामना नहीं करता। समस्त दोषों से भी कभी द्वेष नहीं करता। जैसे कमल के पत्तों पर जल बिन्दु का लेप नहीं होता, उसी प्रकार मेरे स्वभाव में राग और द्वेष का स्पर्श नहीं है। जिनका स्वभाव बहुत प्रकार का है, उन इन्द्रिय आदि को देखने वाले इस नित्यस्वरूप आत्मा के लिये सब भोग अनित्य हो जाते हैं। अत: वे भोगसमुदाय उस विद्वान् को उसी प्रकार कर्मों में लिप्त नहीं कर सकते, जैसे आकाश में सूर्य की किरणों का समुदाय सूर्य को लिप्त नहीं कर सकता। यशस्विनि! इस विषय में अध्वर्यु यति के संवादरूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है, तुम उसे सुनो। किसी यज्ञ कर्म में पशु का प्रोक्षण होता देख वहीं बैठे हुए यति ने अध्वर्यु से उसकी निन्दा करते हुए कहा- यह हिंसा है (अत: इससे पाप होगा)। अध्वर्यु ने यति को इस प्रकार उत्तर दिया- यह बकरा नष्ट नहीं होगा। यदि पशुर्वै नीयमान:इत्यादि श्रुति सत्य है तो यह जीवन कल्याण का ही भागी होगा। इसके शरीर का जो पार्थिव भाग है, वह पृथ्वी में विलीन हो जायगा। इसका जो कुछ भी जलीय भाग हैं, वह जल में प्रविष्ट हो जायगा। नेत्र सूर्य में, कान दिशाओं में और प्राण आकाश में ही लय को प्राप्त होगा। शास्त्र की आज्ञा के अनुसार बर्ताव करने वाले मुझ को कोई दोष नहीं लगेगा। यति ने कहा- यदि तुम बकरे के प्राणों का वियोग हो जाने पर भी उसका कल्याण ही देखते हो, तब तो यह यज्ञ उस बकरे के लिये ही हो रहा है। तुम्हारा इस यज्ञ से क्या प्रयोजन है?। श्रुति कहती है पशो! इस विषय में तुझे तेरे भाई, पिता, माता और सखा की अनुमति प्राप्त होनी चाहिये।इस श्रुति के अनुसार विशेषत: पराधीन हुए इस पशु को ले जाकर इसके पिता माता आदि से अनुमति लो (अन्यथा तुझे हिंसा का दोष अवश्य प्राप्त होगा)।

पहले तुम्हें इस पशु के उन सम्बन्धियों से मिलना चाहिये। यदि वे भी ऐसा ही करने की अनुमति दे दें, तब उनका अनुमोदन सुनकर तदनुसार विचार कर सकते हो। तुमने इस छाग की इन्द्रियों उनके कारणों में विलीन कर दिया है। मेरे विचार से अब तो केवल इसका निश्चेष्ट शरीर ही अवशिष्ट रह गया है। यह चेतनाशून्य जड शरीर ईंधन ही समान है, उससे हिंसा के प्रायश्चित की इच्छा से यज्ञ करने वालों के लिये ईंधन ही पशु है (अत: जो काम ईधन से होता है, उसके लिये पशु हिंसा क्यों की जाय?)। वृद्ध पुरुषों का यह उपदेश है कि अहिंसा सब धर्मों में श्रेष्ठ है, जो कार्य हिंसा से रहित हो वही करने योग्य है, यही हमारा मत है। इसके बाद भी यदि मैं कुछ कहूँ तो यही कह सकता हूँ कि सबको यह प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिये कि मैं अंहिसा धर्म का पालन करूँगा।अन्यथा आपके द्वारा नाना प्रकार के कार्य दोष सम्पादित हो सकते हैं। किसी भी प्राणी की हिंसा न करना ही हमें सदा अच्छा लगता है। हम प्रत्यक्ष फल के साधक हैं, परोक्ष की उपासना नहीं करते हैं। अध्वर्यु ने कहा- यते! यह तो तुम मानते ही हो कि सभी भूतों में प्राण है, तो भी तुम पृथ्वी के गन्ध गुणों का उपभोग करते हो, जलमय रसों को पीते हो, तेज के गुण? रूप का दर्शन करते हो और वायु के गुण स्पर्श को छूते हो, आकाशजनित शब्दों को सुनते हो और मन से मति का मनन करते हो। एक ओर तो तुम किसी प्राणी के प्राण लेने के कार्य से निवृत्त हो और दूसरी ओर हिंसा में लगे हुए हो। द्विजवर! कोई भी चेष्टा हिंसा के बिना नहीं होती। फिर तुम कैसे समझते हो कि तुम्हारे द्वारा अहिंसा का ही पालन हो रहा है? यति ने कहा- आत्मा के रूप हैं- एक अक्षर और दूसरा क्षर। जिसकी सत्ता तीनों कालों में कभी नहीं मिटती वह सत्स्वरूप अक्षर (अविनाशी) कहा गया है तथा जिसका सर्वथा और सभी कालों में अभाव है, वह क्षर कहलाता है। प्राण, जिह्वा, मन और रजोगुण सहित सत्त्वगुण- ये रज अर्थात् माया सहित सद्भाव हैं। इन भावों से मुक्त निर्द्वन्द्व, निष्काम, समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रखने वाले, ममता रहित, जितात्मा तथा सब ओर से बन्धनशून्य पुरुष को कभी और कहीं भी भय नहीं होता। अध्वर्यु ने कहा- बुद्धिमान में श्रेष्ठ यते! इस जगत् में आप जैसे साधु पुरुषों के साथ ही निवास करना उचित है। आपका यह मत सुनकर मेरी बुद्धि में भी ऐसी ही प्रतीति हो रही है। भगवन! विप्रवर! मैं आपकी बुद्धि से ज्ञान सम्पन्न होकर यह बात कह रहा हूँ कि वेद मंत्रों द्वारा निश्चित किये हुए व्रत का ही मैं पालन कर रहा हूँ। अत: इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है। ब्राह्मण कहते हैं- प्रिये! अध्वर्यु की दी हुई युक्ति से वह यति चुप हो गया और फिर कुछ नहीं बोला। फिर अध्वर्यु भी मोहरहित होकर उस महायज्ञ में अग्रसर हुआ। इस प्रकार ब्राह्मण मोक्ष का ऐसा ही अत्यन्त सूक्ष्म स्वरूप बताते हैं और तत्त्दर्शी पुरुष के उपदेश के अनुसार उस मोक्ष धर्म को जानकर उसका अनुष्ठान करते हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व के ब्राह्मणगीता ९ विषयक २९वाँ अध्याय पूरा हुआ।

शेष जारी..............ब्राह्मणगीता १०

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