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कर्मकाण्ड

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ब्राह्मणगीता १३

ब्राह्मणगीता १३

आप पठन व श्रवण कर रहे हैं - भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेशीत ब्राह्मण और ब्राह्मणी के मध्य का संवाद ब्राह्मणगीता। पिछले अंक में ब्राह्मणगीता १२ को पढ़ा अब उससे आगे ब्राह्मणगीता १३ में ब्राह्मणरूप धारी धर्म और जनक का ममत्व त्यागविषयक संवाद का वर्णन हैं ।

ब्राह्मणगीता १३

ब्राह्मणगीता १३

ब्राह्मणेन स्वभार्यांप्रति ममतावर्जनस्य पुरुषार्थसाधनतायां दृष्टान्ततया ब्राह्मणजनकसंवादानुवादः।। 1 ।।

ब्राह्मणि उवाच।

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।

ब्राह्मणस्य च संवादं जनकस्य च भामिनि।।         

ब्राह्मणं जनको राजा सन्नं कस्मिंश्चिदागसि।

विषये मे न वस्तव्यमिति शिष्ट्यर्थमब्रवीत्।।       

इत्युक्तः प्रत्युवाचाथ ब्राह्मणो राजसत्तमम्।

आचक्ष्व विषयं राजन्यावांस्तव वशे स्थितः।।       

सोऽन्यस्य विषये राज्ञो वस्तुमिच्छाम्यहं विभो।

वचस्ते कर्तुमिच्छामि यथाशास्त्रं महीपते।।

इत्युक्तस्तु तदा राजा ब्राह्मणेन यशस्विना।

मुहुरुष्णं विनिःस्वस्य न किञ्चित्प्रत्यभाषत।।         

तमासीनं ध्यायमानं राजानममितौजसम्।

कश्मलं सहसाऽगच्छद्भानुमन्तमिव ग्रहः।। 

समाश्वास्य ततो राजा विगते कश्यमे तदा।

ततो मूहूर्तादिव तं ब्राह्मणं वाक्यमब्रवीत्।।

पितृपैतामहे राज्ये वश्ये जनपदे सति।

विषयं नाधिगच्छामि विचिन्वन्पृथिवीमहम्।।       

नाध्यगच्छं यदा पृथ्व्यां मिथिला मार्गिता मया।

नाध्यगच्छं यदा तस्यां स्वप्रजा मार्गिता मया।।     

नाध्यगच्छं यदा तस्यां तदा मे कश्मलोऽभवत्।

ततो मे कश्मलस्यान्ते मतिः पुनरुपस्थिता।।         

तदा न विषयं मन्ये सर्वो वा विषयो मम।

आत्माऽपि चायं न मम सर्वा वा पृथिवी मम।।      

यथा मम तथाऽन्येषामिति मन्ये द्विजोत्तम।

उष्यतां यावदुत्साहो भुज्यतां यावदिष्यते।।

ब्राह्मण उवाच। 

पितृपैतामहे राज्ये वश्ये जनपदे सति।

ब्रूहि कां मतिमास्थाय ममत्वं वर्जितं त्वया।।        

कां वै बुद्धिं समाश्रित्य सर्वो वै विषयस्तव।

नावैषि विषयं येन सर्वो वा विषयस्तव।।  

जनक उवाच।   

अन्तवन्त इहारम्भा विदिताः सर्वकर्मसु।

नाध्यगच्छमहं तस्मान्ममेदमिति यद्भवेत्।।

कस्येदमिति कस्य स्वमिति वेदवचस्तथा।

नाध्यगच्छमहं बुद्ध्या ममेदमिति यद्भवेत्।।        

एतां बुद्धिं समाश्रित्य ममत्वं वर्जितं मया।

शृणु बुद्धिं च यां ज्ञात्वा सर्वत्र विषयो मम।।         

नाहमात्मार्थमिच्छामि गन्धान्घ्राणगतानपि।

तस्मान्मे निर्जिता भूमिर्वशे तिष्ठति नित्यदा।।       

नाहमात्मार्थमिच्छामि रसानास्येऽपि वर्ततः।

आपो मे निर्जितास्तस्माद्वशे तिष्ठन्ति नित्यदा।।     

नाहमात्मार्थमिच्छामि रूपं ज्योतिश्च चक्षुषः।

तस्मान्मे निर्जितं ज्योतिर्वशे तिष्ठति नित्यदा।।      

नाहमात्मार्थमिच्छामि स्पर्शांस्त्वचि गताश्च ये।

तस्मान्मे निर्जितो वायुर्वशे तिष्ठति नित्यदा।।       

नाहमात्मार्थमिच्छामि शब्दाञ्श्रोत्रगतानपि।

आकाशं मे जितं तस्माद्वशे तिष्ठति नित्यदा।।        

नाहमात्मार्थमिच्छामि मनो नित्यं मनोन्तरे।

मनो मे निर्जितं तस्माद्वशे तिष्ठति नित्यदा।।         

देवेभ्यश्च पितृभ्यश्च भूतेभ्योऽतिथिभिः सह।

इत्यर्थं सर्व एवेति समारम्भा भवन्ति वै।। 

ततः प्रहस्य जनकं ब्राह्मणः पुनरब्रवीत्।

त्वज्जिज्ञासार्थमद्येह विद्धि मां धर्ममागतम्।।        

त्वमस्य ब्रह्मिनाभस्य दुर्वारस्यानिवर्तिनः।

सत्वनेमिनिरुद्धस्य चक्रस्यैकः प्रवर्तकः।।    

।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि ब्राह्मणगीता १३ त्र्यस्त्रिंशोऽध्यायः।। 33 ।।

 

ब्राह्मणगीता १३ हिन्दी अनुवाद  

ब्राह्मण ने कहा- भामिनि! इसी प्रसंग में एक ब्राह्मण और राजा जनक के संवादरूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। एक समय राजा जनक ने किसी अपराध में पकड़े हुए ब्राह्मण को दण्ड देते हुए कहा- ब्रह्मन्! आप मेरे देश से बाहर चले जाइये। यह सुनकर ब्राह्मण ने उस श्रेष्ठ राजा को उत्तर दिया- महाराज! आपके अधिकार में जितना देश है, उसकी सीमा बताइये। सामर्थ्यशाली नरेश! इस बात को जानकर मैं दूसरे राजा के राज्य में निवास करना चाहता हूँ और शास्त्र के अनुसार आपकी आज्ञा का पालन करना चाहता हूँ। उस यशस्वी ब्राह्मण के ऐसा कहने पर राजा जनक बार-बार गरम उच्छ्वास लेने लगे, कुछ जवाब न दे सके। वे अमित तेजस्वी राजा जनक बैठे हुए विचार कर रहे थे, उस समय उनको उसी प्रकार मोह ने सहसा घेर लिया जैसे राहु ग्रह सूर्य को घेर लेता है। जब राजा जनक विश्राम कर चुके और उनके मोह का नाश हो गया, तब थोड़ी देर चुप रहने के बाद वे ब्राह्मण से बोले। जनक ने कहा- ब्रह्मन्! यद्यपि बाप-दादों के समय से ही मिथिला प्रान्त के राज्य पर मेरा अधिकार है, तथापि जब मैं विचार दृष्टि से देखता हूँ तो सारी पृथ्वी में खोजने पर भी कहीं मुझे अपना देश नहीं दिखायी देता। जब पृथ्वी पर अपने राज्य का पता न पा सका तो मैंने मिथिला में खोज की। जब वहाँ से भी निराशा हुई तो अपनी प्रजा पर अपने अधिकार का पता लगाया, किंतु उन पर भी अपने अधिकार का निश्चय न हुआ, तब मुझे मोह हो गया। फिर विचार के द्वारा उस मोह का नाश होने पर मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि कहीं भी मेरा राज्य नहीं है अथवा सर्वत्र मेरा ही राज्य है। एक दृष्टि से यह शरीर भी मेरा नहीं है और दूसरी दृष्टि से यह सारी पृथ्वी ही मेरी है। यह जिस तरह मेरी है, उसी तरह दूसरों की भी है- ऐसा मैं मानता हूँ। इसलिये द्विजोत्तम! अब आपकी जहाँ इच्छा हो, रहिये एवं जहाँ रहें, उसी स्थान का उपभोग कीजिये। ब्राह्मण ने कहा- राजन्! जब बाप-दादों के समय से ही मिथिला प्रान्त के राज्य पर आपका अधिकार है, तब बताइये किस बुद्धि का आश्रय लेकर आपने इसके प्रति अपनी ममता को त्याग दिया है? किस बुद्धि का आश्रय लेकर आप सर्वत्र अपना ही राज्य मानते हैं और किस तरह कहीं भी अपना राज्य नहीं समझेते एवं किस तरह सारी पृथ्वी को ही अपना देश समझते हैं? जनक ने कहा- ब्राह्मन्! इस संसार में कर्मों के अनुसार प्राप्त होने वाली सभी अवस्थाएँ आदि अन्तवाली हैं, यह बात मुझे अच्छी तरह मालूम है। इसलिये मुझे ऐसी कोई वस्तु नहीं प्रतीत होती जो मेरी हो सके। वेद भी कहता है- यह वस्तु किसकी है? यह किसका धन है?* (अर्थात् किसी का नहीं है)इसलिये जब मैं अपनी बुद्धि से विचार करता हूँ, तब कोई भी वस्तु ऐसी नहीं जान पड़ती, जिससे अपनी कह सकें। इसी बुद्धि का आश्रय लेकर मैंने मिथिला के राज्य से अपना ममत्व हटा लिया है। अब जिस बुद्धि का आश्रय लेकर मैं सर्वत्र अपना ही राज्य समझता हूँ, उसको सुनो।

मैं अपनी नासिका में पहुँची हुई सुगन्ध को भी अपने सुख के लिये नहीं ग्रहण करना चाहता। इसलिये मैंने पृथ्वी को जीत लिया है और वह सदा ही मेरे वश में रहती है। मुख में पड़े हुए रसों का भी मैं अपनी तृप्ति के लिये नहीं आस्वादन करता चाहता, इसलिये जलतत्त्व पर भी मैं विजय पा चुका हूँ और वह सदा मेरे अधीन रहता है। मैं नेत्र के विषयभूत रूप और ज्योति का अपने सुख के लिये अनुभव नहीं करना चाहता, इसलिये मैंने तेज को जीत लिया है और वह सदा मेरे अधीन रहता है। तथा मैं त्वचा के संसर्ग से प्राप्त हुए स्पर्शजनित सुखों को अपने लिये नहीं चाहता, अत: मेरे द्वारा जीता हुआ वायु सदा मेरे वश में रहता है। मैं कानों में पड़े हुए शब्दों को भी अपने सुख के लिये नहीं ग्रहण करना चाहता, इसलिये वे मेरे द्वारा जीते हुए शब्द सदा मेरे अधीन रहते हैं। मैं मन में आये हुए मन्तव्य विषयों का भी अपने सुध के लिये अनुभव करना नहीं चाहता, इसलिये मेरे द्वारा जीता हुआ मन सदा मेरे वश में रहता है। मेरे समस्त कार्यों का आरम्भ देवता, पितर, भूत और अतिथियों के निमित्त होता है। जनक की ये बातें सुनकर वह ब्राह्मण हँसा और फिर कहने लगा- महाराज! आपको मालूम होना चाहिये कि मैं धर्म हूँ और आपकी परीक्षा लेने के लिये ब्राह्मण का रूप धारण करके यहाँ आया हूँ। अब मुझे निश्चय हो गया कि संसार में सत्त्वगुण रूप नेमि से घिरे हुए और कभी पीछे की ओर न लौटने वाले इस ब्रह्म प्राप्तिरूप दुर्निवार चक्र का संचालन करने वाले एकमात्र आप ही हैं

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में ब्राह्मणगीता १३ विषयक ३३ वाँ अध्याय पूरा हुआ।

शेष जारी...........ब्राह्मणगीता १४       

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