शनि रक्षा स्तवः
श्री शनि रक्षा स्तवः अथवा श्री शनैश्चर स्तवराज स्तोत्र का पाठ साधक के इर्द-गिर्द एक सुरक्षा घेरा बना देता है जिसके की हर समय, हर परिस्थिति में उसकी रक्षा करते रहता है । इसके नियमित पाठ करने से शनि की क्रूर दृष्टि को शांत करता है तथा मानसिक शांति, स्वास्थ्य और समृद्धि, जीवन में रुकावटें, रोग, आर्थिक संकट या पारिवारिक क्लेश, संतान प्राप्ति, धन की वृद्धि, दुर्भाग्य, विवाद, रोग को दूर करता है और लंबी आयु प्रदान करता है।
श्री शनिरक्षा स्तवः
श्रीशनिरक्षास्तव को ही भविष्य
पुराण में श्री शनैश्चर स्तवराज स्तोत्र के नाम से वर्णित है। यह स्तोत्र अत्यंत
प्रभावशाली एवं चमत्कारी माना गया है। जो भी साधक इस स्तोत्र का श्रद्धा और
नियमपूर्वक पाठ करता है, उसे शारीरिक,
मानसिक और ग्रहजन्य सभी प्रकार की पीड़ाओं से मुक्ति मिलती है।
यह स्तोत्र विशेष रूप से उन लोगों
के लिए उपयोगी है जो शनि की साढ़ेसाती, ढैया,
महादशा या शनि के किसी भी अशुभ प्रभाव से पीड़ित हैं। इसे “रामबाण उपाय” के रूप में भी माना गया है, विशेषतः उन लोगों के लिए जो लंबे समय से असाध्य रोगों से जूझ रहे हैं।
श्रीशनिरक्षास्तवः
श्रीशनिरक्षास्तवः नामक स्तोत्र की
पूर्वपीठिका का हिस्सा है, जो नारद मुनि
के कथन से शुरू होता है। शनिदेव की यह स्तुति सभी बाधाओं को दूर करने के लिए एक
शक्तिशाली प्रार्थना है।
गणपति का ध्यान करने के बाद,
राजा युधिष्ठिर ने शनिदेव का एक उत्कृष्ट स्तोत्र रचा। इस स्तोत्र
को "श्रीशनिरक्षास्तवः" के नाम से जाना जाता है, और
इसकी रचना युधिष्ठिर ने शनि की कृपा प्राप्त करने और उनसे अपने शरीर के विभिन्न
अंगों की रक्षा के लिए प्रार्थना करते हैं, जैसे कि सिर,
आँखें और हृदय।
शनि रक्षा स्तवः
Shani raksha stav
श्रीशनिरक्षास्तवः
श्री शनैश्चर स्तवराज स्तोत्र
शनि रक्षा स्तव
॥ पूर्वपीठिका ॥
नारद उवाच –
ध्यात्वा गणपतिं राजा धर्मराजो
युधिष्ठिरः ।
धीरः शनैश्चरस्येमं चकार
स्तवमुत्तमम ॥
नारद बोले –
राजा युधिष्ठिर ने गणपति का ध्यान करके धैर्यपूर्वक शनैश्चर (शनि
देव) की यह उत्तम स्तुति की।
॥ मूलपाठः ॥
॥ विनियोगः ॥
ॐ अस्य श्रीशनिस्तवराजस्य
सिन्धुद्वीप ऋषिः । गायत्री छन्दः । श्रीशनैश्चर देवता । श्रीशनैश्चरप्रीत्यर्थे
पाठे विनियोगः ॥
॥ ऋष्यादिन्यासः ॥
सिन्धुद्वीपर्षये नमः शिरसि ।
गायत्रीछन्दसे नमः मुखे ।
श्रीशनैश्चरदेवतायै नमः हृदि ।
श्रीशनैश्चरप्रीत्यर्थे विनियोगाय
नमः सर्वाङ्गे ॥
श्री शनैश्चर स्तवराज स्तोत्र
॥ स्तवः ॥
शिरो मे भास्करिः पातु भालं
छायासुतोऽवतु ।
कोटराक्षो दृशौ पातु शिखिकण्ठनिभः
श्रुती ॥ १ ॥
सूर्यदेव मेरे मस्तक की,
छायापुत्र (शनि) ललाट की, कोटराक्ष दोनों
आँखों की और शिखि-कंठ कानों की रक्षा करें।
घ्राणं मे भीषणः पातु मुखं बलिमुखोऽवतु
।
स्कन्धौ संवर्तकः पातु भुजौ मे
भयदोऽवतु ॥ २ ॥
भीषण स्वरूपधारी मेरे नाक की,
बलिमुख मुख की, संवर्तक दोनों कंधों की और
भयदो (भय को दूर करने वाले) भुजाओं की रक्षा करें।
सौरिर्मे हृदयं पातु नाभिं
शनैश्चरोऽवतु ।
ग्रहराजः कटिं पातु सर्वतो
रविनन्दनः ॥ ३ ॥
पादौ मन्दगतिः पातु कृष्णः
पात्वखिलं वपुः ।
सौरि मेरे हृदय की,
शनैश्चर नाभि की, ग्रहराज कमर की और रवि-पुत्र
(सूर्य पुत्र) सर्वांग की रक्षा करें। मंदगति (शनि) से चलने वाले मेरे पैरों की और
कृष्णवर्णीय मेरी सम्पूर्ण शरीर की रक्षा करें।
शनैश्चर स्तवराज स्तोत्र अथवा
श्रीशनिरक्षास्तवः महात्म्य
रक्षामेतां पठेन्नित्यं
सौरेर्नामबलैर्युताम् ॥ ४ ॥
सुखी पुत्री चिरायुश्च स भवेन्नात्र
संशयः ।
जो व्यक्ति इस रक्षा स्तोत्र का
नित्य पाठ करता है, वह सौरि (शनि) के
नामों के बल से सुरक्षित रहता है। वह व्यक्ति निःसंदेह सुखी, पुत्रवान और दीर्घायु होता है।
सौरिः शनैश्चरः कृष्णो नीलोत्पलनिभः
शनिः ॥ ५ ॥
शुष्कोदरो विशालाक्षो
र्दुनिरीक्ष्यो विभीषणः ।
शिखिकण्ठनिभो नीलश्छायाहृदयनन्दनः ॥
६ ॥
शनि देव का स्वरूप कृष्ण वर्ण है,
जो नील कमल के समान रंग वाले हैं। जिनका पेट अंदर धंसा हुआ है,
नेत्र विशाल हैं, जिन्हें देखना कठिन है,
जो अत्यंत भयानक हैं। जो शिखिकंठ (मोर की गर्दन) मोर की गर्दन के
समान रंग वाला, नीला और माता छाया के हृदय को आनंदित करने
वाला हैं।
कालदृष्टिः कोटराक्षः
स्थूलरोमावलीमुखः ।
दीर्घो निर्मांसगात्रस्तु शुष्को
घोरो भयानकः॥ ७ ॥
जिनकी दृष्टि काल जैसी,
नेत्र गड्ढेदार, मुख मोटे बालों से युक्त,
लम्बे, मांस रहित शरीर वाले, सूखे, भयानक और डरावने हैं।
नीलांशुः क्रोधनो रौद्रो
दीर्घश्मश्रुर्जटाधरः ।
मन्दो मन्दगतिः खंजो तृप्तः
संवर्तको यमः ॥ ८ ॥
ग्रहराजः कराली च सूर्यपुत्रो रविः
शशी ।
जो नीले वस्त्र धारण करने वाले,
क्रोधी, रौद्र स्वभाव के, लंबी दाढ़ी-मूंछ वाले, जटाधारी, मंद गति चलने वाले, लंगड़े (खंज), संतुष्ट और यम के समान विनाशकारी हैं। ग्रहों का राजा, भयभीत करने वाला और सूर्य पुत्र हैं।
कुजो बुधो गुरूः काव्यो भानुजः
सिंहिकासुतः ॥ ९ ॥
केतुर्देवपतिर्बाहुः कृतान्तो
नैऋतस्तथा ।
शशी मरूत्कुबेरश्च ईशानः सुर
आत्मभूः ॥ १० ॥
चंद्रमा,
मंगल, बुध, गुरु,
शुक्र, राहु, केतु,
भानुज (सूर्य के पुत्र) और सिंहिका के पुत्र (राहु), केतु, देवों के स्वामी बाहु (इंद्र), कृतांत (यमराज), नैऋत (दक्षिण दिशा का स्वामी),
चंद्रमा, वायु, कुबेर,
ईशान, ब्रह्मा- ये सब उनके साथ हैं।
विष्णुर्हरो गणपतिः कुमारः काम
ईश्वरः ।
कर्त्ता-हर्ता पालयिता राज्येशो
राज्यदायकः ॥ ११ ॥
विष्णु,
शिव, गणपति, कार्तिकेय,
कामदेव, ईश्वर, कर्त्ता,
संहारक, रक्षक, राज्य का
स्वामी और राज्य देने वाले हैं।
छायासुतः श्यामलाङ्गो धनहर्ता
धनप्रदः ।
क्रूरकर्मविधाता च सर्वकर्मावरोधकः ॥
१२ ॥
छाया के पुत्र,
श्याम वर्ण वाले, धन छीनने वाले और धन देने
वाले, क्रूर कर्म करने वाले और सभी कर्मों में बाधा डालने
वाले हैं।
तुष्टो रूष्टः कामरूपः कामदो
रविनन्दनः ।
ग्रहपीडाहरः शान्तो नक्षत्रेशो
ग्रहेश्वरः ॥ १३ ॥
प्रसन्न होने पर वर देने वाले,
रुष्ट होने पर पीड़ा देने वाले, इच्छित रूप
धारण करने वाले, काम फल देने वाले, रविपुत्र,
ग्रह पीड़ा का नाश करने वाले, शांत, नक्षत्रों और ग्रहों के अधिपति हैं।
स्थिरासनः स्थिरगतिर्महाकायो महाबलः
।
महाप्रभो महाकालः कालात्मा कालकालकः
॥ १४ ॥
स्थिर आसन और स्थिर गति वाले,
विशालकाय, बलशाली, अत्यंत
प्रभुता वाले, महाकाल स्वरूप, कालस्वरूप
और कालों के भी काल हैं।
आदित्यभयदाता च मृत्युरादित्यनंदनः
।
शतभिद्रुक्षदयिता
त्रयोदशितिथिप्रियः ॥ १५ ॥
सूर्य के भयप्रद स्वरूप अर्थात्
अंधकार का नाश करनेवाले, मृत्यु स्वरूप,
आदित्यनंदन, शतभिषा नक्षत्र और त्रयोदशी तिथि
प्रिय हैं।
तिथात्मा तिथिगणो नक्षत्रगणनायकः ।
योगराशिर्मुहूर्तात्मा कर्ता
दिनपतिः प्रभुः ॥ १६ ॥
उन्हें 'तिथात्मा', 'तिथिगणनायक', 'नक्षत्रगणनायक',
'योगराशि', 'मुहूर्तात्मा', 'कर्ता', 'दिनपति' और 'प्रभु' के रूप में संबोधित किया गया है।
शमीपुष्पप्रियः
श्यामस्त्रैलोक्याभयदायकः ।
नीलवासाः
क्रियासिन्धुर्नीलाञ्जनचयच्छविः ॥ १७ ॥
शमी पुष्पों को प्रिय मानने वाले,
श्यामवर्ण, तीनों लोकों को अभय देने वाले,
नीले वस्त्र धारण करने वाले, क्रियाशील और नील
अंजन जैसे चमकने वाले हैं।
सर्वरोगहरो देवः सिद्धो देवगणस्तुतः
।
अष्टोत्तरशतं नाम्नां
सौरेश्छायासुतस्य यः ॥ १८ ॥
सभी रोगों को हरने वाले,
सिद्ध और देवताओं द्वारा पूजित, सूर्य और छाया
के पुत्र (शनिदेव) के १०८ नाम हैं।
पठेन्नित्यं तस्य पीडा समस्ता
नश्यति ध्रुवम् ।
कृत्वा पूजां पठेन्मर्त्यो
भक्तिमान्यः स्तवं सदा ॥ १९ ॥
जो नित्य इस स्तोत्र का पाठ करता है,
उसकी सभी पीड़ाएँ निश्चित रूप से नष्ट होती हैं। जो मनुष्य पूजा करके
इस स्तव को श्रद्धा से पढ़ता है।
विशेषतः शनिदिने पीडा तस्य विनश्यति
।
जन्मलग्ने स्थितिर्वापि गोचरे
क्रूरराशिगे ॥ २० ॥
दशासु च गते सौरे तदा स्तवमिमं
पठेत् ।
विशेष रूप से शनिवार के दिन पाठ
करने से उसकी पीड़ा समाप्त होती है। यदि जन्म लग्न या गोचर में शनि क्रूर राशि में
हो और शनि की दशा चल रही हो, ऐसे समय में
यदि यह स्तोत्र पढ़ें।
पूजयेद्यः शनिं भक्त्या
शमीपुष्पाक्षताम्बरैः ॥ २१ ॥
विधाय लोहप्रतिमां नरो
दुःखाद्विमुच्यते ।
वाधा याऽन्यग्रहाणां च यः पठेत्तस्य
नश्यति ॥ २२ ॥
शमी पुष्प,
अक्षत (चावल), वस्त्र आदि से शनि की लोहे की
प्रतिमा बनाकर पूजन करें तो वह सभी दुखों से मुक्त हो जाता है। दूसरे ग्रहों की
पीड़ा भी उस पर नहीं रहती।
भीतो भयाद्विमुच्येत बद्धो मुच्येत
बन्धनात् ।
रोगी रोगाद्विमुच्येत नरः स्तवमिमं
पठेत् ॥ २४ ॥
पुत्रवान्धनवान् श्रीमान् जायते
नात्र संशयः ॥ २५ ॥
जो व्यक्ति इस स्तोत्र का पाठ करता
है,
वह भयभीत भय से, बंदी बंधन से और रोगी रोग से
मुक्त होता है तथा पुत्रवान, धनवान और ऐश्वर्यवान होता है
इसमें कोई संदेह नहीं है।
स्तवं निशम्य पार्थस्य
प्रत्यक्षोऽभूच्छनैश्चरः ।
दत्त्वा राज्ञे वरः कामं शनिश्चान्तर्दधे
तदा ॥ २६ ॥
जब अर्जुन (पार्थ) ने शनिदेव की
स्तुति (स्तवं) की, तो शनिदेव
प्रत्यक्ष हो गए। उन्होंने राजा को इच्छित वरदान देकर वे वहीं अंतर्धान हो गए।
॥ इतिश्री शनैश्चर स्तवराज स्तोत्र अथवा श्रीशनिरक्षास्तवः सम्पूर्णम् ॥

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