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कर्मकाण्ड

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शनिरक्षास्तवः

शनिरक्षास्तवः

श्रीशनिरक्षास्तवः शनि के सम्बन्ध मे हमे पुराणों में अनेक आख्यान मिलते हैं। माता के छल के कारण पिता ने उसे शाप दिया। पिता अर्थात सूर्य ने कहा,"आप क्रूरतापूर्ण द्रिष्टि देखने वाले मंदगामी ग्रह हो जाये"। यह भी आख्यान मिलता है कि शनि के प्रकोप से ही अपने राज्य को घोर दुर्भिक्ष से बचाने के लिये राजा दशरथ उनसे मुकाबला करने पहुंचे तो उनका पुरुषार्थ देख कर शनि ने उनसे वरदान मांगने के लिये कहा। राजा दशरथ ने विधिवत स्तुति कर उसे प्रसन्न किया। पद्म पुराण में इस प्रसंग का सविस्तार वर्णन है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में शनि ने जगत जननी पार्वती को बताया है कि मैं सौ जन्मो तक जातक की करनी का फ़ल भुगतान करता हूँ। एक बार जब विष्णुप्रिया लक्ष्मी ने शनि से पूंछा कि तुम क्यों जातकों को धन हानि करते हो, क्यों सभी तुम्हारे प्रभाव से प्रताडित रहते हैं, तो शनि महाराज ने उत्तर दिया,"मातेश्वरी, उसमे मेरा कोई दोष नही है, परमपिता परमात्मा ने मुझे तीनो लोकों का न्यायाधीश नियुक्त किया हुआ है, इसलिये जो भी तीनो लोकों के अंदर अन्याय करता है, उसे दंड देना मेरा काम है"। एक आख्यान और मिलता है, कि किस प्रकार से ऋषि अगस्त ने जब शनि देव से प्रार्थना की थी, तो उन्होने राक्षसों से उनको मुक्ति दिलवाई थी। जिस किसी ने भी अन्याय किया, उनको ही उन्होने दंड दिया, चाहे वह भगवान शिव की अर्धांगिनी सती रही हों, जिन्होने सीता का रूप रखने के बाद बाबा भोले नाथ से झूठ बोलकर अपनी सफ़ाई दी और परिणाम में उनको अपने ही पिता की यज्ञ में हवन कुंड मे जल कर मरने के लिये शनि देव ने विवश कर दिया, अथवा राजा हरिश्चन्द्र रहे हों, जिनके दान देने के अभिमान के कारण सप्तनीक बाजार मे बिकना पडा और,श्मशान की रखवाली तक करनी पडी, या राजा नल और दमयन्ती को ही ले लीजिये, जिनके तुच्छ पापों की सजा के लिये उन्हे दर दर का होकर भटकना पडा, और भूनी हुई मछलियां तक पानी मै तैर कर भाग गईं, फ़िर साधारण मनुष्य के द्वारा जो भी मनसा, वाचा, कर्मणा, पाप कर दिया जाता है वह चाहे जाने मे किया जाय या अन्जाने में, उसे भुगतना तो पडेगा ही।

मत्स्य पुराण में महात्मा शनि देव का शरीर इन्द्र कांति की नीलमणि जैसी है, वे गिद्ध पर सवार है, हाथ मे धनुष बाण है एक हाथ से वर मुद्रा भी है,शनि देव का विकराल रूप भयावह भी है। शनि पापियों के लिये हमेशा ही संहारक हैं। पश्चिम के साहित्य मे भी अनेक आख्यान मिलते हैं,शनि देव के अनेक मन्दिर हैं,भारत में भी शनि देव के अनेक मन्दिर हैं, जैसे शिंगणापुर, वृंदावन के कोकिला वन,ग्वालियर के शनिश्चराजी,दिल्ली तथा अनेक शहरों मे महाराज शनि के मन्दिर हैं।

श्रीशनिरक्षास्तवः का पाठ साधक के इर्द-गिर्द एक सुरक्षा घेरा बना देता है जिसके की हर समय, हर परिस्थिति में उसकी रक्षा करते रहता है ।

शनिरक्षास्तवः

श्रीशनिरक्षास्तवः

॥ पूर्वपीठिका ॥

श्रीनारद उवाच ।

ध्यात्वा गणपतिं राजा धर्मराजो युधिष्ठिरः ।

धीरः शनैश्चरस्येमं चकार स्तवमुत्तमम् ॥

॥ मूलपाठः ॥

॥ विनियोगः ॥

ॐ अस्य श्रीशनिस्तवराजस्य सिन्धुद्वीप ऋषिः । गायत्री छन्दः ।

श्रीशनैश्चर देवता । श्रीशनैश्चरप्रीत्यर्थे पाठे विनियोगः ॥

॥ ऋष्यादिन्यासः ॥

शिरसि सिन्धुद्वीपर्षये नमः । मुखे गायत्रीछन्दसे नमः ।

हृदि श्रीशनैश्चरदेवतायै नमः ।

सर्वाङ्गे श्रीशनैश्चरप्रीत्यर्थे विनियोगाय नमः ॥

॥ स्तवः ॥

शिरो मे भास्करिः पातु भालं छायासुतोऽवतु ।

कोटराक्षो दृशौ पातु शिखिकण्ठनिभः श्रुती ॥

घ्राणं मे भीषणः पातु मुखं बलिमुखोऽवतु ।

स्कन्धौ संवर्तकः पातु भुजो मे भयदोऽवतु ॥

सौरिर्मे हृदयं पातु नाभिं शनैश्चरोऽवतु ।

ग्रहराजः कटिं पातु सर्वतो रविनन्दनः ॥

पादौ मन्दगतिः पातु कृष्णः पात्वखिलं वपुः ॥

॥ फलश्रुतिः ॥

रक्षामेतां पठेन्नित्यं सौरेर्नामाबलैर्युतम् ।

सुखी पुत्री चिरायुश्च स भवेन्नात्र संशयः ॥

  इति श्रीशनिरक्षास्तवः ॥

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