गीता माहात्म्य
ब्रह्मपुराण के अनुसार मार्गशीर्ष
शुक्ल एकादशी का बहुत बड़ा महत्व है। द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने इसी दिन
अर्जुन को भगवद् गीता का उपदेश दिया था। इसीलिए यह तिथि गीता जयंती के नाम से भी
प्रसिद्ध है और इस एकादशी को मोक्षदा एकादशी कहते है। भगवान ने अर्जुन को निमित्त
बनाकर,
विश्व के मानव मात्र को गीता के ज्ञान द्वारा जीवनाभिमुख बनाने का
चिरन्तन प्रयास किया है। वाराहपुराण में गीता के माहात्म्य को कहा गया है।
गीता माहात्म्य
Geeta mahatmya
गीता माहात्म्य श्रीवाराहपुराण
अथ श्री गीता माहात्म्य प्रारम्भः
धरोवाच
भगवन्परमेशान भक्तिरव्यभिचारिणी ।
प्रारब्धं भुज्यमानस्य कथं भवति हे
प्रभो ।।१।।
श्री पृथ्वी देवी ने पूछाः हे भगवन
! हे परमेश्वर ! हे प्रभो ! प्रारब्धकर्म को भोगते हुए मनुष्य को एकनिष्ठ भक्ति
कैसे प्राप्त हो सकती है?
श्रीविष्णुरुवाच
प्रारब्धं भुज्यमानो हि गीताभ्यासरतः
सदा ।
स मुक्तः स सुखी लोके कर्मणा
नोपलिप्यते ।।२।।
श्री विष्णु भगवान बोलेः प्रारब्ध
को भोगता हुआ जो मनुष्य सदा श्रीगीता के अभ्यास में आसक्त हो वही इस लोक में मुक्त
और सुखी होता है तथा कर्म में लेपायमान नहीं होता।
महापापादिपापानि गीताध्यानं करोति
चेत् ।
क्वचित्स्पर्शं न कुर्वन्ति
नलिनीदलमम्बुवत् ।।३।।
जिस प्रकार कमल के पत्ते को जल
स्पर्श नहीं करता उसी प्रकार जो मनुष्य श्रीगीता का ध्यान करता है उसे महापापादि
पाप कभी स्पर्श नहीं करते।
गीतायाः पुस्तकं यत्र पाठः
प्रवर्तते।
तत्र सर्वाणि तीर्थानि प्रयागादीनि
तत्र वै।।४।।
जहाँ श्रीगीता की पुस्तक होती है और
जहाँ श्रीगीता का पाठ होता है वहाँ प्रयागादि सर्व तीर्थ निवास करते हैं।
सर्वे देवाश्च ऋषयो योगिनः
पन्नगाश्च ये।
गोपालबालकृष्णोsपि नारदध्रुवपार्षदैः ।।
सहायो जायते शीघ्रं यत्र गीता
प्रवर्तते ।।५।।
जहाँ श्रीगीता प्रवर्तमान है वहाँ
सभी देवों, ऋषियों, योगियों,
नागों और गोपालबाल श्रीकृष्ण भी नारद, ध्रुव
आदि सभी पार्षदों सहित जल्दी ही सहायक होते हैं।
यत्रगीताविचारश्च पठनं पाठनं
श्रुतम् ।
तत्राहं निश्चितं पृथ्वि निवसामि
सदैव हि ।।६।।
जहाँ श्री गीता का विचार,
पठन, पाठन तथा श्रवण होता है वहाँ हे पृथ्वी ! मैं अवश्य निवास करता हूँ।
गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि गीता मे
चोत्तमं गृहम् ।
गीताज्ञानमुपाश्रित्य
त्रींल्लोकान्पालयाम्यहंम् ।।७।।
मैं श्रीगीता के आश्रय में रहता हूँ,
श्रीगीता मेरा उत्तम घर है और श्रीगीता के ज्ञान का आश्रय करके मैं
तीनों लोकों का पालन करता हूँ।
गीता मे परमा विद्या ब्रह्मरूपा न
संशयः।
अर्धमात्राक्षरा नित्या
स्वनिर्वाच्यपदात्मिका ।।८।।
श्रीगीता अति अवर्णनीय पदोंवाली,
अविनाशी, अर्धमात्रा तथा अक्षरस्वरूप, नित्य, ब्रह्मरूपिणी और परम श्रेष्ठ मेरी विद्या है
इसमें सन्देह नहीं है।
चिदानन्देन कृष्णेन प्रोक्ता
स्वमुखतोऽर्जुनम् ।
वेदत्रयी परानन्दा
तत्त्वार्थज्ञानसंयुता ।।९।।
वह श्रीगीता चिदानन्द श्रीकृष्ण ने
अपने मुख से अर्जुन को कही हुई तथा तीनों वेदस्वरूप, परमानन्दस्वरूप तथा तत्त्वरूप पदार्थ के ज्ञान से युक्त है।
योऽष्टादशजपो नित्यं नरो
निश्चलमानसः।
ज्ञानसिद्धिं स लभते ततो याति परं
पदम् ।।१०।।
जो मनुष्य स्थिर मन वाला होकर नित्य
श्री गीता के १८ अध्यायों का जप-पाठ करता है वह ज्ञानस्थ सिद्धि को प्राप्त होता
है और फिर परम पद को पाता है।
पाठेऽसमर्थः संपूर्णे ततोऽर्धं पाठमाचरेत्
।
तदा गोदानजं पुण्यं लभते नात्र
संशयः।।११।।
संपूर्ण पाठ करने में असमर्थ हो तो
आधा पाठ करे, तो भी गाय के दान से होने वाले
पुण्य को प्राप्त करता है, इसमें सन्देह नहीं।
त्रिभागं पठमानस्तु गंगास्नानफलं
लभेत् ।
षडंशं जपमानस्तु सोमयागफलं लभेत् ।।१२।।
तीसरे भाग का पाठ करे तो गंगास्नान
का फल प्राप्त करता है और छठवें भाग का पाठ करे तो सोमयाग का फल पाता है।
एकाध्यायं तु यो नित्यं पठते
भक्तिसंयुतः।
रूद्रलोकमवाप्नोति गणो भूत्वा
वसेच्चिरम ।।१३।।
जो मनुष्य भक्तियुक्त होकर नित्य एक अध्याय का
भी पाठ करता है, वह रुद्रलोक को प्राप्त होता है
और वहाँ शिवजी का गण बनकर चिरकाल तक निवास करता है।
अध्याये श्लोकपादं वा नित्यं यः
पठते नरः।
स याति नरतां यावन्मन्वन्तरं
वसुन्धरे ।।१४।।
हे पृथ्वी ! जो मनुष्य नित्य एक
अध्याय एक श्लोक अथवा श्लोक के एक चरण का पाठ करता है वह मन्वंतर तक मनुष्यता को
प्राप्त करता है।
गीताया श्लोकदशकं सप्त पंच
चतुष्टयम् ।
द्वौ त्रीनेकं तदर्धं वा श्लोकानां
यः पठेन्नरः।।१५।।
चन्द्रलोकमवाप्नोति वर्षाणामयुतं
ध्रुवम् ।
गीतापाठसमायुक्तो मृतो मानुषतां
व्रजेत् ।।१६।।
जो मनुष्य गीता के दस,
सात, पाँच, चार, तीन, दो, एक या आधे श्लोक का
पाठ करता है वह अवश्य दस हजार वर्ष तक चन्द्रलोक को प्राप्त होता है। गीता के पाठ
में लगे हुए मनुष्य की अगर मृत्यु होती है तो वह (पशु आदि की अधम योनियों में न
जाकर) पुनः मनुष्य जन्म पाता है।
गीताभ्यासं पुनः कृत्वा लभते
मुक्तिमुत्तमाम् ।
गीतेत्युच्चारसंयुक्तो म्रियमाणो
गतिं लभेत् ।।१७।।
(और वहाँ) गीता का पुनः अभ्यास करके
उत्तम मुक्ति को पाता है। ‘गीता‘ ऐसे उच्चार के साथ जो मरता है वह सदगति को पाता है।
गीतार्थश्रवणासक्तो महापापयुतोऽपि
वा ।
वैकुण्ठं समवाप्नोति विष्णुना सह
मोदते ।।१८।।
गीता का अर्थ तत्पर सुनने में तत्पर
बना हुआ मनुष्य महापापी हो तो भी वह वैकुण्ठ को प्राप्त होता है और विष्णु के साथ
आनन्द करता है।
गीतार्थं ध्यायते नित्यं कृत्वा
कर्माणि भूरिशः।
जीवन्मुक्तः स विज्ञेयो देहांते
परमं पदम् ।।१९।।
अनेक कर्म करके नित्य श्री गीता के
अर्थ का जो विचार करता है उसे जीवन्मुक्त जानो। मृत्यु के बाद वह परम पद को पाता
है।
गीतामाश्रित्य बहवो भूभुजो जनकादयः।
निर्धूतकल्मषा लोके गीता याताः परं
पदम् ।।२०।।
गीता का आश्रय करके जनक आदि कई राजा
पाप रहित होकर लोक में यशस्वी बने हैं और परम पद को प्राप्त हुए हैं।
गीतायाः पठनं कृत्वा माहात्म्यं नैव
यः पठेत् ।
वृथा पाठो भवेत्तस्य श्रम एव
ह्युदाहृतः।।२१।।
श्रीगीता का पाठ करके जो माहात्म्य
का पाठ नहीं करता है उसका पाठ निष्फल होता है और ऐसे पाठ को श्रमरूप कहा है।
एतन्माहात्म्यसंयुक्तं गीताभ्यासं
करोति यः।
स तत्फलमवाप्नोति दुर्लभां
गतिमाप्नुयात् ।।२२।।
इस माहात्म्य सहित श्रीगीता का जो
अभ्यास करता है वह उसका फल पाता है और दुर्लभ गति को प्राप्त होता है।
सूत उवाच
माहात्म्यमेतद् गीताया मया प्रोक्तं
सनातनम् ।
गीतान्ते पठेद्यस्तु यदुक्तं तत्फलं
लभेत् ।।२३।।
सूत जी बोलेः गीता का यह सनातन
माहात्म्य मैंने कहा। गीता पाठ के अन्त में जो इसका पाठ करता है वह उपर्युक्त फल
प्राप्त करता है।
इति श्रीवाराहपुराणे
श्रीमद्गीतामाहात्म्यं संपूर्णम् ।
इति श्रीवाराहपुराण में श्रीमद्
गीता माहात्म्य संपूर्ण।।
गीता माहात्म्य
गीता माहात्म्य २
शौनक उवाच
गीतायाश्चैव माहात्म्यं यथावत्सूत
मे वद ।
पुराणमुनिना प्रोक्तं व्यासेन
श्रुतिनोदितम् ।।१।।
शौनक ऋषि बोलेः हे सूत जी ! अति
पूर्वकाल के मुनि श्री व्यासजी के द्वारा कहा हुआ तथा श्रुतियों में वर्णित
श्रीगीताजी का माहात्म्य मुझे भली प्रकार कहिए।
सूत उवाच
पृष्टं वै भवता यत्तन्महद् गोप्यं
पुरातनम् ।
न केन शक्यते वक्तुं
गीतामाहात्म्यमुत्तमम् ।।२।।
सूत जी बोलेः आपने जो पुरातन और
उत्तम गीतामाहात्म्य पूछा, वह अतिशय गुप्त है।
अतः वह कहने के लिए कोई समर्थ नहीं है।
कृष्णो जानाति वै सम्यक्
क्वचित्कौन्तेय एव च ।
व्यासो वा व्यासपुत्रो वा
याज्ञवल्क्योऽथ मैथिलः।।३।।
गीता माहात्म्य को श्रीकृष्ण ही भली
प्रकार जानते हैं, कुछ अर्जुन जानते
हैं तथा व्यास, शुकदेव, याज्ञवल्क्य और
जनक आदि थोड़ा-बहुत जानते हैं।
अन्ये श्रवणतः श्रृत्वा लोके
संकीर्तयन्ति च ।
तस्मात्किंचिद्वदाम्यद्य व्यासस्यास्यान्मया
श्रुतम् ।।४।।
दूसरे लोग कर्णोपकर्ण सुनकर लोक में
वर्णन करते हैं। अतः श्रीव्यासजी के मुख से मैंने जो कुछ सुना है वह आज कहता हूँ।
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः
शास्त्रसंग्रहैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य
मुखपद्माद्विनिःसृता ।।५।।
जो अपने आप श्रीविष्णु भगवान के
मुखकमल से निकली हुई है गीता अच्छी तरह कण्ठस्थ करना चाहिए। अन्य शास्त्रों के
संग्रह से क्या लाभ?
यस्माद्धर्ममयी गीता
सर्वज्ञानप्रयोजिका ।
सर्वशास्त्रमयी गीता तस्माद् गीता
विशिष्यते ।।६।।
गीता धर्ममय,
सर्वज्ञान की प्रयोजक तथा सर्व शास्त्रमय है, अतः
गीता श्रेष्ठ है।
संसारसागरं घोरं तर्तुमिच्छति यो
जनः।
गीतानावं समारूह्य पारं यातु सुखेन
सः।।७।।
जो मनुष्य घोर संसार-सागर को तैरना
चाहता है उसे गीतारूपी नौका पर चढ़कर सुखपूर्वक पार होना चाहिए।
गीताशास्त्रमिदं पुण्यं यः पठेत्
प्रयतः पुमान् ।
विष्णोः पदमवाप्नोति
भयशोकादिवर्जितः।।८।।
जो पुरुष इस पवित्र गीताशास्त्र को
सावधान होकर पढ़ता है वह भय, शोक आदि से
रहित होकर श्रीविष्णुपद को प्राप्त होता है।
गीताज्ञानं श्रुतं नैव
सदैवाभ्यासयोगतः।
मोक्षमिच्छति मूढात्मा याति
बालकहास्यताम् ।।९।।
जिसने सदैव अभ्यासयोग से गीता का
ज्ञान सुना नहीं है फिर भी जो मोक्ष की इच्छा करता है वह मूढात्मा,
बालक की तरह हँसी का पात्र होता है।
ये श्रृण्वन्ति पठन्त्येव
गीताशास्त्रमहर्निशम् ।
न ते वै मानुषा ज्ञेया देवा एव न
संशयः।।१०।।
जो रात-दिन गीताशास्त्र पढ़ते हैं
अथवा इसका पाठ करते हैं या सुनते हैं उन्हें मनुष्य नहीं अपितु निःसन्देह देव ही
जानें।
मलनिर्मोचनं पुंसां जलस्नानं दिने
दिने ।
सकृद् गीताम्भसि स्नानं
संसारमलनाशनम् ।।११।।
हर रोज जल से किया हुआ स्नान
मनुष्यों का मैल दूर करता है किन्तु गीतारूपी जल में एक बार किया हुआ स्नान भी संसाररूपी
मैल का नाश करता है।
गीताशास्त्रस्य जानाति पठनं नैव
पाठनम् ।
परस्मान्न श्रुतं ज्ञानं श्रद्धा न
भावना ।।१२।।
स एव मानुषे लोके पुरुषो
विड्वराहकः।
यस्माद् गीतां न जानाति
नाधमस्तत्परो जनः।।१३।।
जो मनुष्य स्वयं गीता शास्त्र का
पठन-पाठन नहीं जानता है, जिसने अन्य लोगों
से वह नहीं सुना है, स्वयं को उसका ज्ञान नहीं है, जिसको उस पर श्रद्धा नहीं है, भावना भी नहीं है,
वह मनुष्य लोक में भटकते हुए शूकर जैसा ही है। उससे अधिक नीच दूसरा
कोई मनुष्य नहीं है, क्योंकि वह गीता को नहीं जानता है ।
धिक् तस्य ज्ञानमाचारं व्रतं
चेष्टां तपो यशः।
गीतार्थपठनं नास्ति नाधमस्तत्परो जन
।।१४।।
जो गीता के अर्थ का पठन नहीं करता
उसके ज्ञान को, आचार को, व्रत
को, चेष्टा को, तप को और यश को धिक्कार
है। उससे अधम और कोई मनुष्य नहीं है।
गीतागीतं न यज्ज्ञानं
तद्विद्धयासुरसंज्ञकम् ।
तन्मोघं धर्मरहितं
वेदवेदान्तगर्हितम् ।।१५।।
जो ज्ञान गीता में नहीं गाया गया है
वह वेद और वेदान्त में निन्दित होने के कारण उसे निष्फल,
धर्मरहित और आसुरी जानें।
योऽधीते सततं गीतां दिवारात्रौ
यथार्थतः।
स्वपन्गच्छन्वदंस्तिष्ठञ्छाश्वतं
मोक्षमाप्नुयात् ।।१६।।
जो मनुष्य रात-दिन,
सोते, चलते, बोलते और
खड़े रहते हुए गीता का यथार्थतः सतत अध्ययन करता है वह सनातन मोक्ष को प्राप्त
होता है।
योगिस्थाने सिद्धपीठे शिष्टाग्रे
सत्सभासु च ।
यज्ञे च विष्णुभक्ताग्रे पठन्याति
परां गतिम् ।।१७।।
योगियों के स्थान में,
सिद्धों के स्थान में, श्रेष्ठ पुरुषों के आगे,
संतसभा में, यज्ञस्थान में और विष्णुभक्तों के
आगे गीता का पाठ करने वाला मनुष्य परम गति को प्राप्त होता है।
गीतापाठं च श्रवणं यः करोति दिने
दिने ।
क्रतवो वाजिमेधाद्याः कृतास्तेन
सदक्षिणाः।।१८।।
जो गीता का पाठ और श्रवण हर रोज
करता है उसने दक्षिणा के साथ अश्वमेध आदि यज्ञ किये ऐसा माना जाता है।
गीताऽधीता च येनापि भक्तिभावेन
चेतसा ।
तेन वेदाश्च शास्त्राणि पुराणानि च
सर्वशः।।१९।।
जिसने भक्तिभाव से एकाग्र,
चित्त से गीता का अध्ययन किया है उसने सर्व वेदों, शास्त्रों तथा पुराणों का अभ्यास किया है ऐसा माना जाता है।
यः श्रृणोति च गीतार्थं कीर्तयेच्च
स्वयं पुमान् ।
श्रावयेच्च परार्थं वै स प्रयाति
परं पदम् ।।२०।।
जो मनुष्य स्वयं गीता का अर्थ सुनता
है,
गाता है और परोपकार हेतु सुनाता है वह परम पद को प्राप्त होता है।
नोपसर्पन्ति तत्रैव यत्र गीतार्चनं
गृहे।
तापत्रयोद्भवाः पीडा नैव व्याधिभयं
तथा ।।२१।।
जिस घर में गीता का पूजन होता है
वहाँ (आध्यात्मिक, आधिदैविक और
आधिभौतिक) तीन ताप से उत्पन्न होने वाली पीड़ा तथा व्याधियों का भय नहीं आता है।
न शापो नैव पापं च दुर्गतिनं च
किंचन ।
देहेऽरयः षडेते वै न बाधन्ते कदाचन ।।२२।।
उसको शाप या पाप नहीं लगता,
जरा भी दुर्गति नहीं होती और छः शत्रु (काम, क्रोध,
लोभ, मोह, मद और मत्सर)
देह में पीड़ा नहीं करते।
भगवत्परमेशाने भक्तिरव्यभिचारिणी ।
जायते सततं तत्र यत्र गीताभिनन्दनम्
।।२३।।
जहाँ निरन्तर गीता का अभिनंदन होता
है वहाँ श्री भगवान परमेश्वर में एकनिष्ठ भक्ति उत्पन्न होती है।
स्नातो वा यदि वाऽस्नातः शुचिर्वा
यदि वाऽशुचिः।
विभूतिं विश्वरूपं च संस्मरन्सर्वदा
शुचिः।।२४।।
स्नान किया हो या न किया हो,
पवित्र हो या अपवित्र हो फिर भी जो परमात्म-विभूति का और विश्वरूप
का स्मरण करता है वह सदा पवित्र है।
सर्वत्र प्रतिभोक्ता च प्रतिग्राही
च सर्वशः।
गीतापाठं प्रकुर्वाणो न लिप्येत
कदाचन ।।२५।।
सब जगह भोजन करने वाला और सर्व
प्रकार का दान लेने वाला भी अगर गीता पाठ करता हो तो कभी लेपायमान नहीं होता।
यस्यान्तःकरणं नित्यं गीतायां रमते
सदा ।
सर्वाग्निकः सदाजापी क्रियावान्स च
पण्डितः।।२६।।
जिसका चित्त सदा गीता में ही रमण
करता है वह संपूर्ण अग्निहोत्री, सदा जप
करनेवाला, क्रियावान तथा पण्डित है।
दर्शनीयः स धनवान्स योगी ज्ञानवानपि
।
स एव याज्ञिको ध्यानी सर्ववेदार्थदर्शकः।।२७।।
वह दर्शन करने योग्य,
धनवान, योगी, ज्ञानी,
याज्ञिक, ध्यानी तथा सर्व वेद के अर्थ को
जानने वाला है।
गीतायाः पुस्तकं यत्र नित्यं पाठे
प्रवर्तते ।
तत्र सर्वाणि तीर्थानि प्रयागादीनि
भूतले ।।२८।।
जहाँ गीता की पुस्तक का नित्य पाठ
होता रहता है वहाँ पृथ्वी पर के प्रयागादि सर्व तीर्थ निवास करते हैं।
निवसन्ति सदा गेहे देहेदेशे सदैव हि
।
सर्वे देवाश्च ऋषयो योगिनः
पन्नगाश्च ये ।।२९।।
उस घर में और देहरूपी देश में सभी
देवों,
ऋषियों, योगियों और सर्पों का सदा निवास होता
है।
गीता गंगा च गायत्री सीता सत्या
सरस्वती ।
ब्रह्मविद्या ब्रह्मवल्ली
त्रिसंध्या मुक्तगेहिनी ।।३०।।
अर्धमात्रा चिदानन्दा भवघ्नी
भयनाशिनी ।
वेदत्रयी पराऽनन्ता
तत्त्वार्थज्ञानमंजरी ।।३१।।
इत्येतानि जपेन्नित्यं नरो
निश्चलमानसः।
ज्ञानसिद्धिं लभेच्छीघ्रं तथान्ते
परमं पदम् ।।३२।।
गीता, गंगा, गायत्री, सीता, सत्या, सरस्वती, ब्रह्मविद्या,
ब्रह्मवल्ली, त्रिसंध्या, मुक्तगेहिनी, अर्धमात्रा, चिदानन्दा,
भवघ्नी, भयनाशिनी, वेदत्रयी,
परा, अनन्ता और तत्त्वार्थज्ञानमंजरी
(तत्त्वरूपी अर्थ के ज्ञान का भंडार) इस प्रकार (गीता के) अठारह नामों का स्थिर मन
से जो मनुष्य नित्य जप करता है वह शीघ्र ज्ञानसिद्धि और अंत में परम पद को प्राप्त
होता है।
यद्यत्कर्म च सर्वत्र गीतापाठं
करोति वै ।
तत्तत्कर्म च निर्दोषं कृत्वा
पूर्णमवाप्नुयात् ।।३३।।
मनुष्य जो-जो कर्म करे उसमें अगर
गीतापाठ चालू रखता है तो वह सब कर्म निर्दोषता से संपूर्ण करके उसका फल प्राप्त
करता है।
पितृनुद्दश्य यः श्राद्धे गीतापाठं
करोति वै ।
संतुष्टा पितरस्तस्य निरयाद्यान्ति
सदगतिम् ।।३४।।
जो मनुष्य श्राद्ध में पितरों को
लक्ष्य करके गीता का पाठ करता है उसके पितृ सन्तुष्ट होते हैं और नर्क से सदगति
पाते हैं।
गीतापाठेन संतुष्टाः पितरः
श्राद्धतर्पिताः।
पितृलोकं प्रयान्त्येव
पुत्राशीर्वादतत्पराः।।३५।।
गीतापाठ से प्रसन्न बने हुए तथा
श्राद्ध से तृप्त किये हुए पितृगण पुत्र को आशीर्वाद देने के लिए तत्पर होकर
पितृलोक में जाते हैं।
लिखित्वा धारयेत्कण्ठे बाहुदण्डे च
मस्तके ।
नश्यन्त्युपद्रवाः सर्वे
विघ्नरूपाश्च दारूणाः।।३६।।
जो मनुष्य गीता को लिखकर गले में,
हाथ में या मस्तक पर धारण करता है उसके सर्व विघ्नरूप दारूण
उपद्रवों का नाश होता है।
देहं मानुषमाश्रित्य चातुर्वर्ण्ये
तु भारते ।
न श्रृणोति पठत्येव
ताममृतस्वरूपिणीम् ।।३७।।
हस्तात्त्याक्तवाऽमृतं प्राप्तं
कष्टात्क्ष्वेडं समश्नुते ।
पीत्वा गीतामृतं लोके लब्ध्वा
मोक्षं सुखी भवेत् ।।३८।।
भरतखण्ड में चार वर्णों में मनुष्य
देह प्राप्त करके भी जो अमृतस्वरूप गीता नहीं पढ़ता है या नहीं सुनता है वह हाथ
में आया हुआ अमृत छोड़कर कष्ट से विष खाता है। किन्तु जो मनुष्य गीता सुनता है,
पढ़ता तो वह इस लोक में
गीतारूपी अमृत का पान करके मोक्ष प्राप्त कर सुखी होता है।
जनैः संसारदुःखार्तैर्गीताज्ञानं च
यैः श्रुतम् ।
संप्राप्तममृतं तैश्च गतास्ते सदनं
हरेः।।३९।।
संसार के दुःखों से पीड़ित जिन
मनुष्यों ने गीता का ज्ञान सुना है उन्होंने अमृत प्राप्त किया है और वे श्री हरि
के धाम को प्राप्त हो चुके हैं।
गीतामाश्रित्य बहवो भूभुजो जनकादयः।
निर्धूतकल्मषा लोके गतास्ते परमं
पदम् ।।४०।।
इस लोक में जनकादि की तरह कई राजा
गीता का आश्रय लेकर पापरहित होकर परम पद को प्राप्त हुए हैं।
गीतासु न विशेषोऽस्ति
जनेषूच्चावचेषु च ।
ज्ञानेष्वेव समग्रेषु समा
ब्रह्मस्वरूपिणी ।।४१।।
गीता में उच्च और नीच मनुष्य विषयक
भेद ही नहीं हैं, क्योंकि गीता
ब्रह्मस्वरूप है अतः उसका ज्ञान सबके लिए समान है।
यः श्रुत्वा नैव गीतार्थं मोदते
परमादरात् ।
नैवाप्नोति फलं लोके प्रमादाच्च
वृथा श्रमम् ।।४२।।
गीता के अर्थ को परम आदर से सुनकर
जो आनन्दवान नहीं होता वह मनुष्य प्रमाद के कारण इस लोक में फल नहीं प्राप्त करता
है किन्तु व्यर्थ श्रम ही प्राप्त करता है।
गीतायाः पठनं कृत्वा माहात्म्यं नैव
यः पठेत् ।
वृथा पाठफलं तस्य श्रम एव ही केवलम्
।।४३।।
गीता का पाठ करे जो माहात्म्य का
पाठ नहीं करता है उसके पाठ का फल व्यर्थ होता है और पाठ केवल श्रमरूप ही रह जाता
है।
एतन्माहात्म्यसंयुक्तं गीतापाठं
करोति यः।
श्रद्धया यः श्रृणोत्येव दुर्लभां
गतिमाप्नुयात् ।।४४।।
इस माहात्म्य के साथ जो गीता पाठ
करता है तथा जो श्रद्धा से सुनता है वह दुर्लभ गति को प्राप्त होता है।
माहात्म्यमेतद् गीताया मया प्रोक्तं
सनातनम् ।
गीतान्ते च पठेद्यस्तु यदुक्तं
तत्फलं लभेत् ।।४५।।
गीता का सनातन माहात्म्य मैंने कहा
है। गीता पाठ के अन्त में जो इसका पाठ करता है वह उपर्युक्त फल को प्राप्त होता
है।
इति श्रीवाराहपुराणोद्धृतं
श्रीमदगीतामाहात्म्यानुसंधानं समाप्तम्।।
इति श्रीवाराहपुराणान्तर्गत
श्रीमदगीतामाहात्म्यानुंसंधान समाप्त ।
शेष जारी................ गीता माहात्म्य - अध्याय 1

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