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गीता माहात्म्य अध्याय १२

गीता माहात्म्य अध्याय १२

इससे पूर्व आपने श्रीमद्भगवद्गीता के बारहवां अध्याय पढ़ा। १२वें अध्याय में भक्ति-योग (साकार और निराकार रूप से भगवत्प्राप्ति) का वर्णन है।

अब यहाँ गीता के इस अध्याय १२ का माहात्म्य अर्थात् इसके पढ़ने सुनने की महिमा के विषय में पढेंगे।

गीता माहात्म्य अध्याय १२

गीता माहात्म्य - अध्याय १२

श्रीमहादेवजी कहते हैं:पार्वती! दक्षिण दिशा में कोल्हापुर नामक एक नगर है, जो सब प्रकार के सुखों का आधार, सिद्ध-महात्माओं का निवास स्थान तथा सिद्धि प्राप्ति का क्षेत्र है, वह भगवती लक्ष्मी की प्रधान पीठ है, वह पौराणिक प्रसिद्ध तीर्थ भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है, वहाँ करोड़ो तीर्थ और शिवलिंग हैं, रुद्र गया भी वहाँ है, वह विशाल नगर लोगों में बहुत विख्यात है।

एक दिन कोई युवक पुरुष नगर में आया, वह कहीं का राजकुमार था, उसके शरीर का रंग गोरा, नेत्र सुन्दर, कंधे मोटे, छाती चौड़ी तथा भुजाएँ बड़ी-बड़ी थीं, नगर में प्रवेश करके सब ओर महलों की शोभा निहारता हुआ वह देवेश्वरी महालक्ष्मी के दर्शन करने की इच्छा से मणिकण्ठ तीर्थ में गया और वहाँ स्नान करके उसने पितरों का तर्पण किया, फिर महामाया महालक्ष्मी जी को प्रणाम करके भक्ति पूर्वक स्तुति करना आरम्भ किया।

राजकुमार बोलाः- जिसके हृदय में असीम दया भरी हुई है, जो समस्त कामनाओं को पूर्ण करती है तथा अपने कटाक्ष मात्र से सारे जगत की रचना, पालन और संहार करती है, उस जगत की माता महालक्ष्मी की जय हो, जिस शक्ति के सहारे उसी के आदेश के अनुसार ब्रह्मा सृष्टि रचते हैं, भगवान विष्णु जगत का पालन करते हैं तथा भगवान शिव अखिल विश्व का संहार करते हैं, उस सृष्टि पालन और संहार की शक्ति से सम्पन्न भगवती का मैं भजन करता हूँ।

योगीजन तुम्हारे चरणकमलों का चिन्तन करते रहते हैं, तुम अपनी स्वाभाविक सत्ता से ही हमारे समस्त इन्द्रिय विषयों को जानती हो, तुम्हीं कल्पनाओं को तथा उसका संकल्प करने वाले मन को उत्पन्न करती हो, इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति ये सब तुम्हारे ही रूप हैं, तुम परमज्ञान रूपी हो तुम्हारा स्वरूप निष्काम, निर्मल, नित्य, निराकार, निरंजन, अनन्त, तथा निरामय है, तुम्हारी महिमा का वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता है?

जो षट्चक्रों का भेदन करके अन्तःकरण के बारह स्थानों में विहार करती हैं, अनाहत, ध्वनि, बिन्दु, नाद और कला ये जिसके स्वरूप हैं, उस माता महालक्ष्मी को मैं प्रणाम करता हूँ, हे माता! तुम अपने मुख रूपी पूर्ण चन्द्रमा से प्रकट होने वाली अमृत की वर्षा करती हो, तुम्हीं परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी नामक वाणी हो, मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ, तुम जगत की रक्षा के लिए अनेक रूप धारण किया करती हो,तुम्हीं ब्राह्मी, वैष्णवी, तथा माहेश्वरी शक्ति हो, वाराही, महालक्ष्मी, नरसिंही, कौमारी, चण्डिका, जगत को पवित्र करने वाली लक्ष्मी, सावित्री, चन्द्रकला तथा रोहिणी भी तुम्हीं हो, हे परमेश्वरी! तुम भक्तों का मनोरथ पूर्ण करने के लिए कल्पलता के समान हो, कृपा करके मुझ पर प्रसन्न हो।

इस प्रकार स्तुति करने पर भगवती महालक्ष्मी अपना साक्षात् स्वरूप धारण करके बोलीं - 'राजकुमार! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, तुम कोई वरदान माँगो।'

राजपुत्र बोलाः- माँ! मेरे पिता राजा बृहद्रथ अश्वमेध नामक महान यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे, वे दैवयोग से रोगग्रस्त होकर स्वर्गवासी हो गये, इसी बीच में बँधे हुए मेरे यज्ञ सम्बन्धी घोड़े को, जो समूची पृथ्वी की परिक्रमा करके लौटा था, किसी ने रात्रि में बँधन काट कर कहीं अन्यत्र पहुँचा दिया, उसकी खोज में मैंने कुछ लोगों को भेजा था, किन्तु वे कहीं भी उसका पता न पाकर जब खाली हाथ लौट आये हैं, तब मैं गुरु की आज्ञा लेकर तुम्हारी शरण में आया हूँ, हे देवी! यदि तुम मुझ पर प्रसन्न हो तो मेरे यज्ञ का घोड़ा मुझे मिल जाये, जिससे यज्ञ पूर्ण हो सके, तभी मैं अपने पिता का ऋण उतार सकूँगा, शरणागतों पर दया करने वाली जगजननी माता लक्ष्मी! जिससे यज्ञ पूर्ण हो सके।

भगवती लक्ष्मी ने कहाः- राजकुमार! मेरे मन्दिर के दरवाजे पर एक ब्राह्मण रहते हैं, जो लोगों में सिद्धसमाधि के नाम से विख्यात हैं, वह मेरी आज्ञा से तुम्हारा सब काम पूरा कर देंगे, महालक्ष्मी के इस प्रकार कहने पर राजकुमार उस स्थान पर आया, जहाँ सिद्धसमाधि रहते थे, उनके चरणों में प्रणाम करके राजकुमार चुपचाप हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया।

तब ब्राह्मण ने कहाः- 'तुम्हें माता जी ने यहाँ भेजा है, अच्छा, देखो, अब मैं तुम्हारा सारा अभीष्ट कार्य सिद्ध करता हूँ,' इस प्रकार कहकर मन्त्र द्वारा ब्राह्मण ने सब देवताओं को पुकारा, राजकुमार ने देखा, उस समय सब देवता हाथ जोड़े थर-थर काँपते हुए वहाँ उपस्थित हो गये, तब उन श्रेष्ठ ब्राह्मण ने समस्त देवताओं से कहा 'देवगण! इस राजकुमार का अश्व, जो यज्ञ के लिए निश्चित हो चुका था, रात में देवराज इन्द्र ने चुराकर अन्यत्र पहुँचा दिया है, उसे शीघ्र ले आओ।'

तब देवताओं ने ब्राह्मण के कहने से यज्ञ का घोड़ा लाकर दे दिया, इसके बाद उन्होंने उन्हे जाने की आज्ञा दी, देवताओं का आकर्षण देखकर तथा खोये हुए अश्व को पाकर राजकुमार ने ब्राह्मण के चरणों में प्रणाम करके कहाः 'महर्षि! आपका यह सामर्थ्य आश्चर्यजनक है, आप ही ऐसा कार्य कर सकते हैं, दूसरा कोई नहीं, हे ब्रह्मन्! मेरी प्रार्थना सुनिये, मेरे पिता राजा बृहद्रथ अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ करके दैवयोग से मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं, अभी तक उनका शरीर तपाये हुए तेल में सुखाकर मैंने रख छोड़ा है, आप उन्हें पुनः जीवित कर दीजिए।'

ब्राह्मण ने मुस्कराकर कहाः- 'चलो, वहाँ यज्ञ मण्डप में तुम्हारे पिता मौजूद हैं,' तब सिद्धसमाधि ने राजकुमार के साथ वहाँ जाकर जल अभिमन्त्रित किया और उसे शव के मस्तक पर रखा, उसके रखते ही राजा सचेत होकर उठ बैठे फिर उन्होंने ब्राह्मण को देखकर पूछाः 'धर्मस्वरूप! आप कौन हैं?' तब राजकुमार ने महाराज से पहले का सारा हाल कह सुनाया, राजा ने अपने को पुनः जीवनदान देने वाले ब्राह्मण को नमस्कार किया।

राजा ने पूछाः- '' हे ब्राह्मण! किस पुण्य से आपको यह अलौकिक शक्ति प्राप्त हुई है?"

ब्राह्मण ने मधुर वाणी में कहाः- 'हे राजन! मैं प्रतिदिन आलस्यरहित होकर गीता के बारहवें अध्याय का जप करता हूँ, उसी से मुझे यह शक्ति मिली है, जिससे तुम्हें जीवन प्राप्त हुआ है,' यह सुनकर ब्राह्मणों सहित राजा ने उन महर्षि से उन से गीता के बारहवें अध्याय का अध्ययन किया, उसके माहात्म्य से उन सबकी सद्गति हो गयी।

श्री महादेवजी ने कहा:- हे प्रिय! इसी प्रकार अनेक जीव भी गीता के बारहवें अध्याय का पाठ करके परम मोक्ष को प्राप्त हो चुके हैं।

शेष जारी................ गीता माहात्म्य - अध्याय १३

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