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गीता माहात्म्य अध्याय ९
इससे पूर्व आपने श्रीमद्भगवद्गीता
के नवम अध्याय पढ़ा। नवें अध्याय को राजगुह्ययोग कहा गया है,
अर्थात् यह अध्यात्म विद्या विद्याराज्ञी है और यह गुह्य ज्ञान
सबमें श्रेष्ठ है। राजा शब्दका एक अर्थ मन भी था। अतएव मन की दिव्य शक्तिमयों को
किस प्रकार ब्रह्ममय बनाया जाय, इसकी युक्ति ही राजविद्या
है। इस क्षेत्र में ब्रह्मतत्व का निरूपण ही प्रधान है, उसी
से व्यक्त जगत का बारंबार निर्माण होता है। वेद का समस्त कर्मकांड यज्ञ, अमृत, और मृत्यु, संत और असंत,
और जितने भी देवी देवता है, सबका पर्यवसान
ब्रह्म में है। लोक में जो अनेक प्रकार की देवपूजा प्रचलित है, वह भी अपने अपने स्थान में ठीक है, समन्वय की यह
दृष्टि भागवत आचार्यों को मान्य थी, वस्तुत: यह उनकी बड़ी
शक्ति थी। इसी दृष्टिकोण का विचार या व्याख्या दसवें अध्याय में पाई जाती है। इसका
नाम विभूतियोग है। इसका सार यह है कि लोक में जितने देवता हैं, सब एक ही भगवान, की विभूतियाँ हैं, मनुष्य के समस्त गुण और अवगुण भगवान की शक्ति के ही रूप हैं। बुद्धि से इन
छुटभैए देवताओं की व्याख्या चाहे ने हो सके किंतु लोक में तो वह हैं ही। कोई पीपल
को पूज रहा है। कोई पहाड़ को कोई नदी या समुद्र को, कोई
उनमें रहनेवाले मछली, कछुओं को। यों कितने देवता हैं,
इसका कोई अंत नहीं। विश्व के इतिहास में देवताओं की यह भरमार
सर्वत्र पाई जाती है। भागवतों ने इनकी सत्ता को स्वीकारते हुए सबको विष्णु का रूप
मानकर समन्वय की एक नई दृष्टि प्रदान की। इसी का नाम विभूतियोग है। जो सत्व जीव
बलयुक्त अथवा चमत्कारयुक्त है, वह सब भगवान का रूप है। इतना
मान लेने से चित्त निर्विरोध स्थिति में पहुँच जाता है।
“सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति
मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ
विसृजाम्यहम् ॥ ७ ॥„
अब यहाँ गीता के इस अध्याय ९ का माहात्म्य
अर्थात् इसके पढ़ने सुनने की महिमा के विषय में पढेंगे।
गीता माहात्म्य - अध्याय ९
भगवान शिव कहते हैं:- पार्वती अब
मैं आदरपूर्वक नौवें अध्याय के माहात्म्य का वर्णन करुँगा,
तुम स्थिर होकर सुनो।
नर्मदा के तट पर माहिष्मती नाम की
एक नगरी है, वहाँ माधव नाम के एक ब्राह्मण
रहते थे, जो वेद-वेदांगों के तत्वज्ञ और समय-समय पर आने वाले
अतिथियों के प्रेमी थे, उन्होंने विद्या के द्वारा बहुत धन
कमाकर एक महान यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ किया, उस यज्ञ में बलि
देने के लिए एक बकरा मंगाया गया, जब उसके शरीर की पूजा हो
गयी, तब सबको आश्चर्य में डालते हुए उस बकरे ने हँसकर उच्च
स्वर से कहाः "ब्राह्मण! इन बहुत से यज्ञों द्वारा क्या लाभ है? इनका फल तो नष्ट हो जाने वाला तथा ये जन्म, जरा और
मृत्यु के भी कारण हैं, यह सब करने पर भी मेरी जो वर्तमान
दशा है इसे देख लो," बकरे के इस अत्यन्त कौतूहल जनक वचन
को सुनकर यज्ञ मण्डप में रहने वाले सभी लोग बहुत ही विस्मित हुए, तब वे यजमान ब्राह्मण हाथ जोड़ अपलक नेत्रों से देखते हुए बकरे को प्रणाम
करके आदर के साथ पूछने लगे।
ब्राह्मण बोलेः- आप किस जाति के थे?
आपका स्वभाव और आचरण कैसा था? तथा जिस कर्म से
आपको बकरे की योनि प्राप्त हुई? यह सब मुझे बताइये।
बकरा बोलाः- ब्राह्मण ! मैं पूर्व
जन्म में ब्राह्मणों के अत्यन्त निर्मल कुल में उत्पन्न हुआ था,
समस्त यज्ञों का अनुष्ठान करने वाला और वेद-विद्या में प्रवीण था,
एक दिन मेरी स्त्री ने भगवती दुर्गा की भक्ति से विनम्र होकर अपने
बालक के रोग की शान्ति के लिए बलि देने के निमित्त मुझसे एक बकरा माँगा, तत्पश्चात् जब चण्डिका के मन्दिर में वह बकरा मारा जाने लगा, उस समय उसकी माता ने मुझे शाप दियाः "ओ ब्राह्मणों में नीच, पापी! तू मेरे बच्चे का वध करना चाहता है, इसलिए तू
भी बकरे की योनि में जन्म लेगा।"
द्विजश्रेष्ठ! तब कालवश मृत्यु को
प्राप्त होकर मैं बकरा हुआ, यद्यपि मैं पशु
योनि में पड़ा हूँ, तो भी मुझे अपने पूर्व-जन्मों का स्मरण
बना हुआ है, ब्राह्मण! यदि आपको सुनने की उत्कण्ठा हो तो मैं
एक और भी आश्चर्य की बात बताता हूँ, कुरुक्षेत्र नामक एक नगर
है, जो मोक्ष प्रदान करने वाला है, वहाँ
चन्द्र शर्मा नामक एक सूर्य-वंशी राजा राज्य करते थे, एक समय
जब सूर्य-ग्रहण लगा था।
राजा ने बड़ी श्रद्धा के साथ
कालपुरुष का दान करने की तैयारी की, उन्होंने
वेद-वेदांगो के पारगामी एक विद्वान ब्राह्मण को बुलवाया और पुरोहित के साथ वे
तीर्थ के पावन जल से स्नान करने को चले और दो वस्त्र धारण किये, फिर पवित्र और प्रसन्नचित्त होकर उन्होंने श्वेत चन्दन लगाया और बगल में
खड़े हुए पुरोहित का हाथ पकड़कर मनुष्यों से घिरे हुए अपने स्थान पर लौट आये। आने
पर राजा ने यथोचित्त विधि से भक्ति-पूर्वक ब्राह्मण को काल-पुरुष का दान किया।
तब काल-पुरुष का हृदय चीरकर उसमें
से एक पापात्मा चाण्डाल प्रकट हुआ फिर थोड़ी देर के बाद निन्दा भी चाण्डाली का रूप
धारण करके काल-पुरुष के शरीर से निकली और ब्राह्मण के पास आ गयी,
इस प्रकार चाण्डालों की वह जोड़ी आँखें लाल किये निकली और ब्राह्मण
के शरीर में हठात प्रवेश करने लगी, ब्राह्मण मन ही मन गीता
के नौवें अध्याय का जप करते थे और राजा चुपचाप यह सब कौतुक देखने लगे, ब्राह्मण के अन्तःकरण में भगवान गोविन्द शयन करते थे, वे उन्हीं का ध्यान करने लगे।
ब्राह्मण ने जब गीता के नौवें
अध्याय का जप करते हुए अपने भगवान का ध्यान किया, उस समय गीता के अक्षरों से प्रकट हुए विष्णु-दूतों द्वारा पीड़ित होकर वे
दोनों चाण्डाल भाग चले, उनका उद्योग निष्फल हो गया, इस प्रकार इस घटना को प्रत्यक्ष देखकर राजा के नेत्र आश्चर्य से चकित हो
उठे, उन्होंने ब्राह्मण से पूछाः "विप्रवर! इस भयंकर
आपत्ति को आपने कैसे पार किया? आप किस मन्त्र का जप तथा किस
देवता का स्मरण कर रहे थे? वह पुरुष तथा स्त्री कौन थी?
वे दोनों कैसे उपस्थित हुए? फिर वे शान्त कैसे
हो गये? यह सब मुझे बताइये।
ब्राह्मण ने कहाः- राजन! चाण्डाल का
रूप धारण करके भयंकर पाप ही प्रकट हुआ था तथा वह स्त्री निन्दा की साक्षात मूर्ति
थी,
मैं इन दोनों को ऐसा ही समझता हूँ, उस समय मैं
गीता के नवें अध्याय के मन्त्रों की माला जपता था, उसी का
माहात्म्य है कि सारा संकट दूर हो गया, महीपते! मैं नित्य ही
गीता के नौवें अध्याय का जप करता हूँ, उसी के प्रभाव से
ग्रह-जनित आपत्तियों के पार हो सका हूँ, यह सुनकर राजा ने
उसी ब्राह्मण से गीता के नवम अध्याय का अभ्यास किया, फिर वे
दोनों ही परम शान्ति (मोक्ष) को प्राप्त हो गये।
यह कथा सुनकर ब्राह्मण ने बकरे को
बन्धन से मुक्त कर दिया और गीता के नौवें अध्याय के अभ्यास से परम गति को प्राप्त
किया।.....
शेष जारी................ गीता माहात्म्य - अध्याय १०
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