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कर्मकाण्ड

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ब्राह्मणगीता ११

ब्राह्मणगीता ११

आप पठन व श्रवण कर रहे हैं - भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेशीत ब्राह्मण और ब्राह्मणी के मध्य का संवाद ब्राह्मणगीता। पिछले अंक में ब्राह्मणगीता १० को पढ़ा अब उससे आगे ब्राह्मणगीता ११ में अलर्क के ध्यानयोग का उदाहरण देकर पितामहों का परशुरामजी को समझाना और परशुरामजी का तपस्या के द्वारा सिद्धि प्राप्त करना का वर्णन हैं ।

ब्राह्मणगीता ११

ब्राह्मणगीता ११

परशुरामंप्रति तत्पितृभिः क्षत्रियवधान्निवर्तनायालर्कोपाख्यानकथनम्।। 1 ।।

रामेण तच्छ्रवणाद्धिंसातो निवर्त्य तपश्चरणम्।। 2 ।।

पितर ऊचुः।     

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।

श्रुत्वा च तत्तथा कार्यं भवता द्विजसत्तम।। 

अलर्को नाम राजर्षिरभवत्सुमहातपाः।

धर्मज्ञः सत्यवादी च महात्मा सुदृढव्रतः।।  

स सागरान्तां धनुषा विनिर्जित्य महीमिमाम्।

कृत्वा सुदुष्करं कर्म मनः सूक्ष्मे समादधे।।  

स्थितस्य वृक्षमूलेऽथ तस्य चिन्ता बभूव ह।

उत्सृय सुमहद्राज्यं सूक्ष्मं प्रति महामते।।   

अलर्क उवाच।   

मनसो मे बलं जातं मनो जित्वा ध्रुवो जयः।

अन्यत्र बाणानस्यामि शत्रुभिः परिवारितः।।         

यदिदं चापलात्कर्म सर्वान्मर्त्यांश्चिकीर्षति।

मनः प्रति सुतीक्ष्णाग्रानहं मोक्ष्यामि सायकान्।।    

मन उवाच।     

नेमे बाणास्तरिष्यन्ति मामलर्क कथञ्चन।

तवैव मर्म भेत्स्यन्ति भिन्नमर्मा मरिष्यसि।।         

अन्यान्बाणान्समीक्षस्व यैस्त्वं मां सूदयिष्यसि।

तत्छ्रुत्वा स विचिन्त्याथ ततो वचनमब्रवीत्।।       

आघ्राय सुबहून्गन्धांस्तानेव प्रतिगृध्यति।

तस्माद्ध्राणं प्रति शरान्प्रतिमोक्ष्याम्यहं शितान्।।   

घ्राण उवाच।    

नेमे बाणास्तरिष्यन्ति मामलर्क कथञ्चन।

तवैव मर्म भेत्स्यन्ति भिन्नमर्मा मरिष्यसि।।         

अन्यान्याणान्समीक्षस्व यैस्त्वं मां सूदयिष्यसि।

तच्छ्रुत्वा स विचिन्त्याथ ततो वचनमब्रवीत्।।      

इयं स्वादून्रसान्भुक्त्वा तानेव प्रति गृध्यति।

तस्माज्जिह्वां प्रति शरान्प्रतिमोक्ष्याम्यहं शितान्।। 

जिह्वोवाच।    

नेमे वाणास्तरिष्यन्ति मामलर्क कथञ्चन।

तवैव मर्म भेत्स्यन्ति ततो हास्यसि जीवितम्।।      

अन्यान्वाणान्समीक्षस्व यैस्त्वं मां सूदयिष्यसि।

तच्छ्रुत्वा स विचिन्त्याथ ततो वचनमब्रवीत्।।      

स्पृष्ट्वा त्वग्विविधान्स्पर्शांस्तानेव प्रतिगृध्यति।

तस्मात्त्वचं पाटयिष्ये विविधैः कङ्कपत्रिभिः।।      

त्वगुवाच।        

नेमे बाणास्तरिष्यन्ति मामलर्क कथञ्चन।

तवैव मर्म भेत्स्यन्ति भिन्नमर्मा मरिष्यसि।।         

अन्यान्बाणान्समीक्षस्व यैस्त्वं मां सूदयिष्यसि।

तच्छ्रुत्वा स विचिन्त्याथ ततो वचनमब्रवीत्।।      

श्रुत्वा तु विविधाञ्शब्दांस्तानेव प्रतिगृध्यति।

तस्माच्छ्रोत्रं प्रति शरान्प्रति मुञ्चाम्यहं शितान्।।    

श्रोत्रमुवाच।     

नेमे बाणास्तरिष्यन्ति मामलर्क कथञ्चन।

तवैव मर्म भेत्स्यन्ति ततो हास्यति जीवितम्।।      

अन्यान्बाणान्समीक्षस्व यैस्त्वं मां सूदयिष्यसि।

तच्छ्रुत्वा स विचिन्त्याथ ततो वचनमब्रवीत्।।      

दृष्ट्वा रूपाणि बहुशस्तान्येव प्रतिगृध्यति।

तस्माच्चक्षुर्हनिष्यामि निशितैः सायकैरहम्।।         

चक्षुरुवाच।      

नेमे बाणास्तरिष्यन्ति मामलर्क कथञ्चन।

तवैव मर्म भेत्स्यन्ति भिन्नमर्मा मरिष्यसि।।         

अन्यान्बाणान्समीक्षस्व यैस्त्वं मां सूदयिष्यति

तच्छ्रुत्वा स विचिन्त्याथ ततो वचनमब्रवीत्।।      

इयं निष्ठा बहुविधा प्रज्ञया त्वद्यवस्यति।

तस्माद्बुद्धिं प्रति शरान्प्रतिमोक्ष्याम्यहं शितान्।।   

बुद्धिरुवाच।     

नेमे बाणास्तरिष्यन्ति मामलर्क कथञ्चन।

तवैव मर्म भेत्स्यन्ति भिन्नमर्मा मरिष्यसि।

अन्यान्बाणान्समीक्षस्व यैस्त्वं मां सूदयिष्यसि।।     

पितर ऊचुः।     

ततोऽलर्कस्तपो घोरं तत्रैवास्थाय दुष्करम्।

नाध्यगच्छत्परं शक्त्या बाणमेतेषु सप्तसु।। 

सुसमाहितचेतास्तु स ततोऽचिन्तयत्प्रभुः।

स विचिन्त्य चिरं कालमलर्को द्विजसत्तम।

नाध्यगच्छत्परं श्रेयो योगान्मतिमतांवरः।।

स एकाग्रं मनः कृत्वा निश्चलो योगमास्थितः।

इन्द्रियाणि जघानाशु बाणेनैकेन वीर्यवान्।।         

योगेनात्मानमाविश्य सिद्धिं परमिकां गतः।

विस्मितश्चापि राजर्षिरिमां गाथां जगाद ह।।        

अहो कष्टं यदस्माभिः सर्वं बाह्यमनुष्ठितम्।

भोगतृष्णासमायुक्तैः पूर्वं राज्यमुपासितम्।

इति पश्चान्मया ज्ञातं योगान्नास्ति परं सुखम्।।      

इति त्वमनुजानीहि राम मा क्षत्रियान्वधीः।

तषो घोरमुपातिष्ठ ततः श्रेयोऽभिपत्स्यसे।। 

इत्युक्तः पितृभिः सोथ तपो घोरं समास्थितः।

जामदग्न्यो महाभागे सिद्धिं च परमां गतः।।        

।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि ब्राह्मणगीता ११एकत्रिंशोऽध्यायः।। 31 ।। 

 

ब्राह्मणगीता ११हिन्दी अनुवाद

पितरों ने कहा- ब्राह्मणश्रेष्ठ! इसी विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है, उसे सुनकर तुम्हें वैसा ही आचरण करना चाहिये। पहले की बात है, अलर्क नाम से प्रसिद्ध एक राजर्षि थे, जो बड़े ही तपस्वी, धर्मज्ञ, सत्यावादी, महात्मा और दृढ़प्रतिज्ञ थे। उन्होंने अपने धनुष की सहायता से समुद्र पर्यन्त इस पृथ्वी को जीतकर अत्यन्त दुष्कर पराक्रम कर दिखाया था। इसके पश्चात् उनका मन सूक्ष्मतत्त्व की खोज में लगा। महामते! वे बड़े-बड़े कर्मों का आरम्भ त्याग कर एक वृक्ष के नीचे जा बैठे और सूक्ष्मतत्त्व की खोज के लिये इस प्रकार चिन्ता करने लगे। अलर्क कहने लगे- मुझे मन से ही बल प्राप्त हुआ है, अत: वही सबसे प्रबल है। मन को जीत लेने पर ही मुझे स्थायी विजय प्राप्त हो सकती है। मैं इन्द्रियरूपी शत्रुओं से घिरा हुआ हूँ, इसलिये बाहर के शत्रुओं पर हमला न करके इन भीतरी शत्रुओं को ही अपने बाणों का निशाना बनाऊँगा। यह मन चंचलता के कारण भी मनुष्यों से तरह-तरह के कर्म कराता है, अत: अब मैं मन पर ही तीखे बाणों का प्रहार करूँगा। मन बोला- अलर्क! तुम्हारे ये बाण मुझे किसी तरह नहीं बींध सकते। यदि इन्हें चलाओंगे तो ये तुम्हारे ही मर्मस्थानों को चीर डालेंगे और मर्म स्थानों के चीरे जाने पर तुम्हारी ही मृत्यु होगी, अत: तुम अन्य प्रकार के बाणों का विचार करो, जिनसे तुम मुझे मार सकोगे। यह सुनकर अलर्क ने थोड़ी देर तक विचार किया, इसके बाद वे (नासिका को लक्ष्य करके) बोले। अलर्क ने कहा- मेरी यह नासिका अनेक प्रकार की सुगन्धियों का अनुभव करके भी फिर उन्हीं की इच्छा करती है, इसलिये इन तीखे बाणों से मैं इस नासिका पर ही छोडूँगा। नासिका बोली- अलर्क! ये बाण मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। इनसे तो तुम्हारे ही मर्म विदीर्ण होंगे और मर्म स्थानों का भेदन हो जाने पर तुम्हीं मरोगे, अत: तुम दूसरे प्रकार के बाणों का अनुसंधान करो, जिससे तुम मुझे मार सकोगे। नासिका का यह कथन सुनकर अलर्क कुछ देर विचार करने के पश्चात् (जिह्वा को लक्ष्य करके) कहने लगे। अलर्क ने कहा- यह रसना स्वादिष्ट रसों का उपभोग करके फिर उन्हें ही पाना चाहती है। इसलिये अब इसी के ऊपर अपने तीखे सायकों का प्रहार करूँगा। जिह्वा बोली- अलर्क! ये बाण मुझे किसी प्रकार नहीं छेद सकते। ये तो तुम्हारे ही मर्म स्थानों को बींधेंगे। मर्म स्थानों के बिंध जाने पर तुम्हीं मरोगे। अत: दूसरे प्रकार के बाणों का प्रबन्ध सोचो, जिनकी सहायता से तुम मुझे मार सकोगे। यह सुनकर अलर्क कुछ देर तक सोचते विचारते रहे, फिर (त्वचा पर कुपित होकर) बोले। अलर्क ने कहा- यह त्वचा नाना प्रकार के स्पर्शों का अनुभव करके फिर उन्हीं की अभिलाषा किया करती है, अत: नाना प्रकार के बाणों से मारकर इस त्वचा को ही विदीर्ण कर डालूँगा। त्वचा बोली- अलर्क! ये बाण किसी प्रकार मुझे अपना निशाना नहीं बना सकते। ये तो तुम्हारा ही मर्म विदीर्ण करेंगे और मर्म विदीर्ण होने पर तुम्हीं मौत के मुख में पड़ोगे। मुझे मारने के लिये तो दूसरी तरह के बाणों की व्यवस्था सोचो, जिनसे तुम मुझे मार सकोगे।

त्वचा की बात सुनकर अलर्क ने थोड़ी देर तक विचार किया, फिर (श्रोत को सुनाते हुए) कहा- अलर्क बोले- यह श्रोत्र बारंबार नाना प्रकार के शब्दों को सुनकर उन्हीं की अभिलाषा करता है, इसलिये मैं इन तीखे बाणों को श्रोत्र-इन्द्रिय के ऊपर चलाऊँगा। श्रोत्र ने कहा- अलर्क! ये बाण मुझे किसी प्रकार नहीं छेद सकते। ये तुम्हारे ही मर्म स्थानों को विदीर्ण करेंगे। तब तुम जीवन से हाथ धो बैठोगे। अत: तुम अन्य प्रकार के बाणों की खोज करो, जिनसे मुझे मार सकोगे। यह सुनकर अलर्क ने कुछ सोच विचार कर (नेत्र को सुनाते हुए) कहा। अलर्क बोल- यह आँख भी अनेकों बार विभिन्न रूपों का दर्शन करके पुन: उन्हीं को देखना चाहती है। अत: मैं इसे अपने तीखे तीरों से मार डालूँगा। आँख ने कहा- अलर्क! ये बाण मुझे किसी प्रकार नहीं छेद सकते। ये तुम्हारे ही मर्मस्थानों को बींध डालेंगे और मर्म विदीर्ण हो जाने पर तुम्हें ही तीवन से हाथ धोना पड़ेगा। अत: दूसरे प्रकार के सायकों का प्रबन्ध सोचो, जिनकी सहायता से तुम मुझे मार सकोगे। यह सुनकर अलर्क ने कुछ देर विचार करने के बाद (बुद्धि को लक्ष्य करके) यह बात कही। अलर्क ने कहा- यह बुद्धि अपनी ज्ञानशक्ति से अनेक प्रकार का निश्चय करती है, अत: इस बुद्धि पर ही अपने तीक्ष्ण सायकों का प्रहार करूँगा। बुद्धि बोली- अलर्क! ये बाण मेरा किसी प्रकार भी स्पर्श नहीं कर सकते। इनसे तुम्हारा ही मर्म विदीर्ण होगा और मर्म विदीर्ण होने पर तुम्हीं मरोगे। जिनकी सहायता से मुझे मार सकोगे, वे बाण तो कोई और ही हैं। उनके विषय में विचार करो। ब्राह्मण ने कहा- देवि! तदनन्तर अलर्क ने उसी पेड़ के नीचे बैठकर घोर तपस्या की, किंतु उसे मन बुद्धि सहित पाँचों इन्द्रियों को मारने योग्य किसी उत्तम बाण का पता न चला। तब वे सामर्थ्यशाली राजा एकाग्रचित होकर विचार करने लगे। विप्रवर! बहुत दिनों तक निरन्तर सोचने विचारने के बाद बुद्धिमानों में श्रेष्ठ राजा अलर्क को योग से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी साधन नहीं प्रतीत हुआ। वे मन को एकाग्र करके स्थिर आसन से बैठ गये और ध्यानयोग का साधन करने लगे। इस ध्यान योग रूप एक ही बाण से मारकर उन बलशाली नरेश ने समस्त इन्द्रियों को सहसा परास्त कर दिया। वे ध्यान योग के द्वारा आत्मा में प्रवेश करके परम सिद्धि (मोक्ष) को प्राप्त हो गये। इस सफलता से राजर्षि अलर्क को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने इस गाथा का गान किया- अहो! बड़े कष्ट की बात है कि अब तक मैं बाहरी कामों में ही लगा रहा और भोगों की तृष्णा से आबद्ध होकर राज्य की ही उपासना करता रहा। ध्यान योग से बढ़कर दूसरा कोई उत्तम सुख का साधन नहीं है, यह बात तो मुझे बहुत पीछे मालूम हुई है। (पितामहों ने कहा-) बेटा परशुराम! इन सब बातों को अच्छी तरह समझ कर तुम क्षत्रियों का नाश न करो। घोर तपस्या में लग जाओं, उसी से तुम्हें कल्याण प्राप्त होगा। अपने पितामहों के इस प्रकार कहने पर महान् सौभाग्यशाली जमदग्नि नन्दन परशुरामजी ने कठोर तपस्या की और इससे उन्हें परम दुर्लभ सिद्धि प्राप्त हुई।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व में ब्राह्मणगीता ११ विषयक ३१वाँ अध्याय पूरा हुआ।

शेष जारी...........ब्राह्मणगीता १२ 

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