अद्भुत रामायण सर्ग ७
अद्भुत रामायण सर्ग ७ में नारदजी को
गानविद्या का प्राप्त होने वर्णन किया गया है।
अद्भुत रामायणम् सप्तम: सर्गः
Adbhut Ramayan sarga 7
अद्भुत रामायण सातवाँ सर्ग
अद्भुतरामायण सप्तम सर्ग
अद्भुत रामायण सर्ग ७ - नारद गानविद्या
अथ अद्भुत रामायण सर्ग ७
गानबंधुः पुनः प्राह नारदं
मुनिसत्तमम् ।
एते किन्नरसंघा वै विद्याध्राप्सरसां
गणाः ।। १ ।।
मुनिश्रेष्ठ नारदजी से फिर (से)
कहने लगे- "ये किन्नरों के संघ तथा विद्याधर एवं अप्सराओं के गण ॥ १ ॥
गानाचार्यमुलकं मां
गानशिक्षार्थमागताः ।
तपसा नैव शक्त्या वा गान विद्या
तपोधन ॥ २ ॥
गानाचार्य (मुझ) उलूक के पास
गानविद्या की शिक्षा के लिए आये हैं। हे तपोधन ! गानविद्या तप से या शक्ति से नहीं
आती ॥ २ ॥
तस्माच्छ्रमणे युक्तश्च मत्तस्त्वं
गानमाप्नुहि ॥
एवमुक्तो मुनि स्तस्मै प्रणिपत्य
जगौ यथा ॥ ३ ॥
अतः श्रम करके तुम मुझसे गानविद्या
प्राप्त करो। " इस प्रकार कहे जाने पर मुनि उससे प्रणाम करके ( जिस प्रकार )
गाने लगे,
॥ ३ ॥
तच्छृणुष्व मुनिश्रेष्ठ वासुदेवं
नमस्य च ॥
उलूकेनैवमुक्तस्तु नारदो मुनिसत्तमः
॥ ४ ॥
हे मुनि ! वह सुनो। वासुदेव को
नमस्कार करके उलूक के इस प्रकार के वचन सुन मुनिश्रेष्ठ नारद ॥ ४ ॥
शिक्षाक्रमेण संयुक्तस्तत्र
गानमशिक्षत ।
गानबंधुस्तमाहेदं त्यक्त- लज्जो
भवाधुना ॥ ५ ॥
शिक्षाक्रम से संयुक्त होकर वहाँ
गान सीखने लगे । तब गानबन्धु ने (उनसे ) कहा -
"अब लज्जा का त्याग कर दो ।। ५ ।।
स्त्रीसंगमे तथा गीतेक्षुतेऽन्वाख्यानसंगमे
।
व्यवहारे च धान्यानामर्थानां च तथैव
च ॥ ६ ॥
स्त्री-संगम में,
गीत में, छींक आने पर, अन्वाख्यान
प्रसंग में, धान्य तथा अर्थ के व्यवहार में, ॥ ६ ॥
आयव्यये तथा नित्यं त्यक्तलज्जस्तु
वै भवेत् ॥
न कुण्ठितेन गूढेन नित्यं
प्रावरणादिभिः ॥ ७ ॥
आय तथा व्यय में हमेशा लज्जा छोड़
देनी चाहिए। कुण्ठित मन से मूढ़ भाव से अथवा प्रावरण आदि से ढके हुए (मुँह से) ।।
७ ।।
हस्तविक्षेपभावेन व्यादितास्येन चैव
हि ॥
निर्यातजिह्वायोगेन न गेयं च कथंचन
॥ ८ ॥
हाथ फैलाकर या सिकोड़कर,
मुँह बहुत फैलाकर, जिह्वा भींचकर कभी गाना
नहीं चाहिए ॥ ८ ॥
स्वांगं निरीक्षमाणेन परमप्रेक्षता
तथा ॥
न गायेदूर्ध्वबाहुश्चनोर्ध्वदृष्टिः
कथंचन ।। ९ ।।
किसी दूसरे की ओर देखे बिना,
अपने अंग का निरीक्षण करते हुए, भुजा उठाकर या
ऊपर की ओर दृष्टि करके कभी गाना नहीं चाहिए ।। ९ ।।
हासो भयं क्षुधा कंप: शोकोऽन्यस्य
स्मृतिस्तृषा ॥
नैतानि सप्तरूपाणि गानयोगे महामते ॥
१० ॥
हे महामति ! गानयोग में हास्य,
भय, क्षुधा, कंप,
शोक, किसी दूसरे की स्मृति और प्यास – ये सात नहीं होने चाहिए ॥ १० ॥
कहस्तेन शस्येत तालसंघट्टनं मुने ।
क्षुधार्तेन भयार्तेन तृषार्तेन
तथैव च ॥ ११ ॥
हे मुनि ! एक हाथ से ताल देकर गाना
उचित नहीं ( माना जाता ) । उसी प्रकार भूख-प्यास तथा भय से व्याकुल मनुष्य को ॥ ११
॥
गानयोगो न कर्तव्यो नांधकारे कथंचन
।।
एव- मादीनि योग्यानि कर्तव्यानि
महामुने ।। १२ ॥
गान नहीं करना चाहिए । तथा अंधकार
में तो कभी भी गाना उचित नहीं है । हे महामुनि ! ये सब ( गान के बारे में ) योग्य
कर्तव्य है" ॥ १२ ॥
एवमुक्तः स भगवान्नारदो विधिरक्षणे
॥
अशिक्षत तथा गीतं
दिव्यवर्षसहस्त्रकम् ॥ १३ ॥
नारदजी को (गानविद्या की ) विधि-
रक्षा के संबंध में इस प्रकार प्रशिक्षित किया गया और बाद में वे (भगवान नारद)
सहस्र दिव्य वर्षों तक गानविद्या सीखते रहे ॥ १३ ॥
ततः समस्तसंपन्नो गीत प्रस्तावका-
दिषु ॥
विपच्यादिषु संपन्न : सर्वस्वरवि
भागवित् ।। १४ ।।
तब गीत की प्रस्तावना आदि के संबंध
में समग्र ( विद्या का ) संपादन करके वीणा आदि (बजाने) में नारद संपन्न हुए तथा
सर्व स्वरों के विभाग को (उन्होंने) जान लिया ।। १४ ।।
अयुतानि च षट्त्रंशत्सहस्त्राणि
शतानि च ।।
स्वराणां भेदयोगेन
ज्ञातवान्मुनिसत्तमः ।। १५ ।।
४६००० हज़ार स्वर-भेदों का ज्ञान भी
उस मुनिश्रेष्ठ नारद ने प्राप्त कर लिया ।। १५ ।।
ततो गंधर्वसंधारच किन्नराणां तथा गणाः
।
मुनिना सह संयुक्ताः
प्रीतियुक्तास्तु तेऽभवन् ।। १६ ।।
तब गंधर्वों के संघ तथा किन्नरों के
गण मुनि का संपर्क प्राप्त होने से प्रसन्न हुए ।। १६ ॥
बंधुं मुनिः प्राह प्राप्य
गानमनुत्तमम् ॥
त्वां समासाद्य संपनं त्वं हि
गीतविशारदः ।। १७ ।।
श्रेष्ठ गान (विद्या) को प्राप्त
करके मुनि ने गानबंधु से कहा, "तुमको
मिलकर (गानविद्या से) मैं संपन्न हुआ हूँ । तुम सचमुच बड़े गाम- विशारद हो ! ॥ १७
॥
ध्वांक्षशत्रो महाप्राज्ञ किमवाप्यं
करोमि ते ।
गानबंधुस्ततः प्राह नारदं मुनि
पुंगवम् ॥ १८ ॥
हे महाबुद्धिशाली उलूक (कौओं के
शत्रु) ! मैं तुम्हारा क्या प्रिय करूँ?" तब गानबंधु ने नारद मुनि से कहा- ॥१८॥
ब्रह्मणो दिवसे ब्रह्मन्मनवः
स्युश्चतुर्दश ॥
ततस्त्रैलोक्यसंप्लावो भविष्यति
महामुने ।। १९ ।।
"हे ब्रह्मन् ! ब्रह्मा के एक
दिन में चौदह मनु होंगे । बाद में हे महामुने ! तीनों लोक का नाश होगा ।। १९ ॥
तावन्मे स्याद्यशोभागस्तावन्मे परमं
शुभम् ।
मनसाध्यापितं मे
स्याद्दाक्षिण्यान्मुनिसत्तमः ॥ २० ॥
तब तक मेरा यश बना रहे,
मेरा परम कल्याण हो । हे मुनिसत्तम ! आपकी कृपा से मुझे मन से ही
शिक्षा की प्राप्ति हो" ।। २० ।।
उलूकं प्राह देवर्षिः सर्वं तेऽस्तु
मनोगतम् ॥
अतीते कल्पसंयोगे गरुडस्त्वं
भविष्यसि ।। २१ ।।
देवर्षि ने उलूक से कहा-
"तुम्हारी सारी मनोकामनाएँ पूर्ण हों ! एक कल्प बीतने पर तुम गरुड़ बनोगे ॥
२१ ॥
गुणगानादच्युतस्य सायुज्यं तस्य
लप्स्यसे ।
स्वस्ति तेस्तु महाप्राज्ञ
गमिष्यामि प्रसीद मे ॥ २२ ॥
विष्णु के गुणगान से तुम (उनके)
सायुज्य को प्राप्त करोगे । हे महाप्राज्ञ ! तुम्हारा कल्याण हो ! मैं जाता हूँ ।
मुझ पर प्रसन्न होइए" ।। २२ ।।
एवमुक्त्वा ययौ विप्रो जेतुं
तुंबुरुमुत्तमम् ।।
तुंबुरोश्च गृहाभ्याशे ददर्श
विकृताकृतीन् ॥ २३ ॥
ऐसा कहकर विप्र (नारदजी) तुंबुरु को
जीतने के लिए चल पड़े । तुंबुरु के घर के पास उन्होंने विकृत आकृति वाले (लोग)
देखे ।। २३ ।।
कृत्तबाहूरुपादांश्च कृतनासा-
क्षिवक्षसः ॥
कृतोत्तमांगांगुलींश्च
छिन्नभिन्नकलेवरान् ॥ २४ ॥
कटे हुए हाथ,
जंघा और पैर वाले, कटी हुई नाक, आँख एवं वक्षःस्थल वाले, कटे हुए मस्तक तथा उँगलियों
वाले और छिन्न-भिन्न शरीर वाले ॥ २४ ॥
पुंसः स्त्रियश्च
विकृतान्ददर्शायुतशो बहून् ॥
नारदेन च ते प्रोक्ताः के यूयं
कृतविग्रहाः ॥ २५ ॥
हजारों विकलांग स्त्री-पुरुषों को
नारद ने देखा । नारद ने उनसे पूछा - "कटे शरीर वालो ! तुम सब कौन हो ?
" ॥ २५ ॥
नारदं प्रोचुरपि ते त्वया कृतांगका
वयम् ॥
वयं रागाश्च रागिण्योगानेन
भिन्नसंधिना ॥ २६ ॥
उन्होंने भी नारद से कहा- “आपके द्वारा काटे गये अंगवाले हम सब (विविध) राग- (एवं) रागिनियाँ हैं !
जब भिन्न सन्धान से ।। २६ ।।
भवता गीयते यहि तर्ह्यवस्थेदृशी हि
नः ॥
पुनस्तुंबुरुगान
च्छिन्नभिन्नप्ररोहणम् ।। २७ ।।
आप गाते हैं,
तब हमारी यह दशा हो जाती है । फिर तुंबुरु अपने गान से हमारे
छिन्न-भिन्न शरीर (को) ॥२७॥
तुंबुरुर्जीवयत्येष त्वं भारयसि
नारद ॥
तदाश्चर्यं महद्दृष्ट्वा श्रुत्वा च
विस्मयान्वितः ॥ २८ ॥
जीवित करते हैं (और) हे नारद! तुम
मारते हो ।" उस महद् आश्चर्य को देखकर और सुनकर विस्मयान्वित होकर ॥२८॥
धिग्धिगुक्त्वा जगामाथ नारदोऽपि
जनार्दनम् ।
श्वेतद्वीपे स भगवान्नारदं प्राह
माधवः ॥ २९ ॥
'धिक्कार है, धिक्कार है!' ऐसा कहकर नारद भी जनार्दन (नारायण) के
पास गये । श्वेतद्वीप में भगवान माधव ने नारद से कहा- ।। २९ ।।
गानबंधौ च यद्गानं न चैतेनासि पारगः
॥
तुंबुरोः सदृशो नासि गानेगानेन नारद
॥ ३० ॥
"गानबंधु में जो गानविद्या है,
उसे प्राप्त कर तुम इस विषय में पारंगत नहीं हुए हो ! इस गान से हे
नारद! तुम तुंबुरु के समकक्ष योग्यता प्राप्त नहीं कर पाये हो ॥ ३० ॥
मनोवैवस्वतस्याहमष्टाविंशतिमे युये
।
द्वापरांते भविष्यामि
यदुवंशकुलोद्भवः ॥ ३१ ॥
वैवस्वत मनु के अट्ठाइसवें युग में
द्वापर के अंत में यदुवंश में मैं अवतार लूंगा ॥ ३१ ॥
देवक्यां वसुदेवस्य कृष्णनाम्ना
महामुने ॥
तदानीं मां समागम्य
स्मारयेतद्यथातथम् ।। ३२ ।।
हे महामुने ! वसुदेवजी का देवकी से
कृष्ण नामक पुत्र बनूँगा, उस समय मेरे पास
आकर तुम मुझे इस बात का यथातथ्य स्मरण कराना ।। ३२ ॥
तत्र त्वां गानसम्पन्नं करिष्यामि
महाव्रत ।
तुंबुरोश्च समं चैव तथातिशयसंयुतम्
॥३३॥
तब हे महाव्रती ! मैं तुम्हें
गानविद्या से संपन्न कर दूंगा । तुंबुरु के समान तथा उससे भी अधिक कुशल बना दूंगा
।। ३३ ।।
तावत्कालं यथायोगं देवगंधर्वयोनिषु
।
शिक्ष त्वं हि
यथान्यायमित्युक्त्वांतरधीयत ॥ ३४ ॥
तब तक यथायोग्य देव-गंधवों की
योनियों में तुम इसकी योग्य रूप से शिक्षा ग्रहण करो।" ऐसा कहकर भगवान
अन्तर्धान हो गये ।। ३४॥
ततो मुनिः प्रणम्यैनं वीणावादन
तत्परः ।
देवर्षिर्देवसंकाशः सर्वाभरणभूषितः
।। ३५ ।।
तब उन्हें प्रणाम करके वीणावादन के
लिए तत्पर देव-समान सर्व आभूषणों से आभूषित देवर्षि ॥ ३५ ॥
तपसां निधिरत्यर्थं वासुदेवपरायणः ।
स्कंधे विपंचीमाधाय सर्वलोकांश्चचार
सः ।। ३६ ।।
तपोनिधि अत्यन्त वासुदेवपरायण कंधे
पर वीणा धारण किये सब लोकों में विचरण करने लगे ।। ३६ ।।
वारुणं याम्यमाग्नेयमंद्र कौबेरमेव
च ॥
वायव्यं च तथैशानं संशयं प्राप्य
धर्मवित् ।। ३७ ।।
वरुण, यम, अग्नि, इन्द्र तथा कुबेर
की (दिशाओं में) तथा वायव्य और ईशान दिशा में द्विधाग्रस्त होते हुए यह धर्मवेत्ता
॥ ३७ ॥
गायमानो हरि सम्यग्वीणा वादविचक्षणः
॥
गंधर्वाप्सरसां संधैः
पूज्यमानस्ततस्ततः ॥ ३८ ॥
वीणा बजाने में चतुर,
हरि का सम्यक् गान करते हुए सर्वत्र गंधर्व एवं अप्सराओं के गुणों
से पूजित ॥ ३८ ॥
ब्रह्मलोकं समासाद्य
कस्मिश्चित्कालपर्यये ।
हाहा हूहूरच गंधर्वो
गीतवाद्यविशारदौ ।। ३९ ।।
कुछ काल बीतने पर ब्रह्मलोक को
प्राप्त हुए। (वहाँ) गीत वाद्य में निपुण 'हाहा'
और 'हूहू' नामक दो दिव्य
गंधर्व ।। ३९ ।।
ब्रह्मणो गायको दिव्यों नित्यं
गंधर्वसत्तमौ ॥
तत्र ताभ्यां समासाद्य गायमानो हरिं
विभुम् ॥ ४० ॥
ब्रह्मा के गायक थे । वहाँ उनके साथ
मिलकर भगवान विष्णु का गान करते हुए ।। ४० ॥
ब्रह्मणा च महातेजाः पूजितो
मुनिसत्तमः ।
तं प्रणम्य महात्मानं
सर्वलोकपितामहम् ।। ४१ ।।
महातेजस्वी मुनिश्रेष्ठ ब्रह्मा से
पूजित हुए । सर्वलोक के पितामह ऐसे उन महात्मा को प्रणाम करके ।। ४१ ॥
चचार च यथाकामं सर्वलोकेषु नारदः ।
पुनः कालेन महता गृहं प्राप्य च
तुम्बुरोः ॥ ४२ ॥
नारदजी सर्वलोक में यथेच्छ भ्रमण करने
लगे । बहुत समय के बाद फिर से तुंबुरु के घर को प्राप्त करके ॥ ४२ ॥
वीणामादाय
तत्रस्थस्तत्रस्थैरप्यलक्षितः ।
सुरकन्याश्च तत्रस्थाः षड्जाद्याः
सहधैवताः ।। ४३ ।।
वीणा लेकर वहाँ रहनेवालों से भी
अलक्षित होकर वहीं रहने लगे । धैवत सहित षड्ज आदि सुरकन्याएँ भी वहाँ रह रही थीं ॥
४३ ॥
व्रीडितो भगवान्दृष्ट्वा निर्गतश्च
स सत्वरम् ।
शिक्षयामास बहुशस्तत्र तत्र
महामुनिः ॥ ४४ ॥
(उन्हें) देख भगवान नारद लज्जित हो
गये और वहाँ से शीघ्र ही चले गये । महामुनि ने अनेक स्थानों पर विविध प्रकार से
शिक्षा दी ।। ४४ ।।
कालेऽतीते ततो विष्णुरवतीर्णो
जगन्मयः ।
देवक्यां वसुदेवस्य यादवोऽसौ
महाद्युतिः ।। ४५ ।।
समय बीतने पर जगत्प्रभु विष्णु ने
अवतार लिया । वसुदेव के वंश में देवकी की कोख से उस महातेजस्वी यादव ने जन्म लिया
।। ४५ ।।
सप्तस्वराङ्गना द्रष्टुं
गानविद्याविशा रदः ॥
ययौ रैवतके कृष्ण प्रणिपत्य
महामुनिः ॥ ४६ ॥
गानविद्या विशारद (नारदजी) सात
स्वरांगनाओं को देखने के लिए रैवतक पर्वत पर गये । (वहाँ) महामुनि (नारदजी) ने
श्रीकृष्ण को प्रणाम करके ।। ४६ ॥
व्यज्ञापयदशेषं तच्छ्वेतद्वीपे
त्वया पुरा ।
नारायणेन कथितं गानयोगार्थमुत्तमम्
।। ४७ ।।
संपूर्ण (वृत्तान्त का) निवेदन किया
कि पहले श्वेतद्वीप में आपने नारायण रूप से उत्तम गानयोग की प्राप्ति कराने के लिए
कहा था ॥ ४७ ॥
तच्छ्रुत्वा प्रहसन्कृष्णः प्राह
जांबवतीं मुदा ॥
एवं मुनिवरं भद्रे शिक्षयस्व
यथाविधि ॥ ४८ ॥
यह सुन हँसते हुए श्रीकृष्ण ने जांबवती
से प्रीतिपूर्वक कहा- "हे भद्रे ! इस मुनिवर्य को विधिपूर्वक सिखाओ" ।।
४८ ।।
वीणागानसमायोगे तथेत्याह च सा पतिम्
।
प्रहसंती यथायोगं शिक्षयामास तं
मुनिम् ।। ४९ ।।
'वीणागान का योग सिखाऊँ ? ठीक है' ऐसा जांबवती ने पति से कहा और हँसते-हँसते
उस मुनि को यथायोग्य शिक्षा दी ।। ४९ ।।
ततः संवत्सरे पूर्णे नारदं प्राह
केशवः ।
सत्याः समीपमागच्छ शिक्षस्व तथा
पुनः ॥ ५० ॥
बाद में एक वर्ष पूर्ण होने पर केशव
ने नारद से कहा- “अब सत्या के पास
जाओ! और फिर से सीखो !" मुनि ने सत्यभामा के पास जाकर प्रणाम किया ।। ५० ।।
तथेत्युक्त्वा सत्यभामां प्रणिपत्य
ययौ मुनिः ।
तया स शिक्षितो विद्वान्पूर्ण
संवत्सरे ततः ।। ५१ ।।
"बहुत अच्छा" कहकर प्रणाम
करके मुनि सत्यभामा के पास गये । इसने भी इस विद्वान् को शिक्षा दी । तब वर्ष
पूर्ण होने पर ।। ५१ ।।
वासुदेवनियुक्तोऽसौ रुक्मिण्याः
सदनं गतः ।
अंगनाभिस्तत्रत्याभिर्दासोभिर्मुनिसत्तमः
।। ५२ ॥
कृष्ण की आज्ञा से वह (नारदजी)
रुक्मिणी के भवन में गये । वहाँ की अनेक सुंदर स्त्रियों ने तथा दासियों ने ॥ ५२ ॥
उक्तोऽसौ गायमानोऽपि न स्वरं वेत्सि
वै मुने ।
ततः श्रमेण महता यावत्संवत्सरद्वयम्
॥५३॥
उनको कहा - "हे मुनि,
गाने पर भी तुम स्वर को नहीं जानते हो !" बाद में बहुत परिश्रम
से दो वर्ष तक ॥ ५३ ॥
शिक्षितोऽसौ तदा देव्या रुक्मिण्या-
धिजगौ मुनिः ।
न तु स्वरांगनाः प्राप तंत्रीयोगे
महामुनिः ॥ ५४ ॥
देवी रुक्मिणी से शिक्षा प्राप्त कर
मुनि गाने लगे । किन्तु महामुनि तंत्रीयोग में स्वरांगनाओं के समकक्ष योग्यता
प्राप्त न कर सके ।। ५४ ॥
आहूय कृष्णो भगवान्स्ययमेव
महामुनिम् ।
अशिक्षदमेयात्मा गानयोगमनुत्तमम् ।।
५५ ।।
तब अप्रमेय आत्मस्वरूप श्रीकृष्ण
भगवान ने स्वयं महामुनि को बुलाकर श्रेष्ठ गानयोग की शिक्षा दी ।। ५५ ।।
कृष्णदत्तेन गानेन तस्यायाताः
स्वतंगनाः ।
ब्रह्मानन्दः समभवन्नारदस्य च चेतसि
।। ५६ ।।
श्रीकृष्ण के द्वारा दी गई
गानविद्या से उन (नारदजी) को स्वरांगना प्राप्त हुई । और नारद के चित्त में
ब्रह्मानंद का स्फुरण हुआ ।। ५६ ।।
ततो द्वेषादयो दोषाः सर्वे अस्तं
गता द्विज ।
ईर्ष्या च तुंबुरो यासीन्नारदस्य च
सा गता ।। ५७ ।।
तब हे द्विज ! (नारदजी के) द्वेष
वग़ैरह सारे दोष अस्त हो गये । तथा नारदजी की तुंबुरु के प्रति जो ईर्ष्या थी,
वह दूर हो गई ॥ ५७ ॥
ततो ननतं देवर्षिः प्रणिपत्य
जनार्दनम् ।
उवाच च हृषीकेशः सर्वज्ञस्त्वं
महामुने ।। ५८ ।।
तब देवर्षि नारायण को प्रणाम करके
नाचने लगे और श्रीकृष्ण ने कहा - "हे महामुनि ! (अब) तुम सर्वज्ञ हो गये ॥५८
॥
प्राचीनगानयोगेन गायस्व मम सन्निधौ
।
एतत्ते प्रार्थितं प्राप्तं मम लोके
तथैव च ।। ५९ ।।
मेरे निकट तुम प्राचीन गानयोग से
गाओ ! तुम्हारी यह विनती(मेरे द्वारा) पूर्ण हुई है । उसी प्रकार मेरे लोक में।।
५९ ।।
नित्यं तुम्बुरुणा सार्द्धं गायस्व
च यथातथम् ।
एवमुक्तो मुनिस्तत्र यथायोगं चचार
सः ॥ ६० ॥
हमेशा तुंबुरु के साथ यथायोग्य गान
करो ।" इस प्रकार कहने पर मुनि यथायोग्य संचरण करने लगे ।। ६० ।
तथा संपूजयत्कृष्णं रुद्रं भुवन
नायकम् ।
तदा जगौ हरेस्तत्र नियोगाच्छंकरालये
॥ ६१ ॥
तथा भुवन के नायक श्रीकृष्ण का पूजन
किया । बाद में विष्णु की आज्ञा से शंकर के स्थान में जाकर गाने लगे ॥ ६१ ॥
रुक्मिण्या सत्यया सार्द्धं
जांबवत्या महामुनिः ।
कृष्णेन च द्विजश्रेष्ठ
श्रुतिजातिविशारदः ।। ६२ ।।
रुक्मिणी,
सत्यभामा, जांबवती तथा कृष्ण के साथ स्वर तथा
राग में निपुण द्विजश्रेष्ठ गाने लगे ।। ६२ ॥
एवं ते मुनिशार्दूल प्रोक्तो
गीतक्रमो मया ।
ब्राह्मणो वासुदेवाख्यं
गायमानोऽनिशं द्विज ।। ६३ ।।
हे मुनिश्रेष्ठ ! मैंने इस गीतक्रम
का आपसे वर्णन किया । हे द्विज ! वासुदेव के नाम को अहर्निश गाता हुआ ब्राह्मण ।।६३।।
हरेः सायुज्यमाप्नोति सर्वयज्ञफलं
लभेत् ।
अन्यथा नरकं गच्छेद्गायमानोऽन्यदेव
हि ॥ ६४ ॥
हरि का सायुज्य प्राप्त करता है ।
तथा सर्वं यज्ञों का फल पाता है । दूसरे (की कीर्ति) का गान करनेवाला नरक में जाता
है ॥ ६४ ॥
कर्मणा मनसा वाचा वासुदेवपरायणः ।
गायञ्छृण्वंस्तमाप्नोति तस्माच्कुष्ठः प्रियंवदः ।। ६५ ।।
मन, वचन और कर्म से वासुदेवपरायण होकर गानेवाला और श्रवण करनेवाला उनको
प्राप्त करता है। इससे वह प्रियभाषी और श्रेष्ठ माना जाता है ।। ६५ ॥
कथितमिदमपूर्वं जानकी जन्मपूर्व
श्रुति-सुखमतिगुह्यं स्नेहतस्तेऽतिवाह्यम् ।
कलुष कुलबिपक्षं भव्य - दानैकदक्षं
नृभिर विरतवंद्यं सर्वदेवाभिनंद्यम् ॥ ६६ ॥
इस अपूर्व,
कर्णप्रिय गूढ़ जानकी जन्म की पूर्व कथा मैंने आपसे स्नेह- पूर्वक
कही है । यह पापों के समूह का नाश करनेवाली, कल्याण करने में
एक मात्र चतुर, मनुष्यों के लिए वन्दनीय तथा सर्व देवताओं के
लिए अभिनन्दनीय है ।। ६६ ॥
इत्यायें श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये
आदिकाव्ये अद्भुतोत्तरकांडे नारवगान प्राप्तिवर्णनं सप्तमः सर्गः ॥ ७ ॥
॥ इति श्री वाल्मीकिविरचित रामायण
के अद्भुतोत्तर-काण्ड में नारदगान प्राप्ति नाम सप्तम सर्ग समाप्त ॥ ७ ॥
आगे जारी...........अद्भुत रामायण सर्ग 8
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