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अग्निपुराण अध्याय ८६
अग्निपुराण
अध्याय ८६ में निर्वाण – दीक्षा के अन्तर्गत विद्याकला के
शोधन की विधि का वर्णन है।
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Agni puran chapter 86
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अग्नि पुराण अध्याय ८६
अग्निपुराणम् अध्यायः ८६ विद्याविशोधनविधानम्
अथ षडशीतितमोऽध्यायः
ईश्वर उवाच
सन्धानमथ
विद्यायाः प्राचीनकलया सह ।
कुर्वीत
पूर्ववत् कृत्वा तत्त्वं वर्णय तद्यथा ।। १ ।।
ओं हों
क्षीमिति सन्धानं ।
रागश्च
शुद्धविद्या च नियतिः कलया सह ।
कालो माया
तथाऽविद्या तत्त्वानामिति सप्तकं ।। २ ।।
रलवाः शषसाः
वर्णाः षड् विद्यायां प्रकीर्त्तिताः।
पदानि
प्रणवादीनि एकविंशतिसङ्ख्यया ।। ३ ।।
ओं नमः शिवाय
सर्वप्रभवे हं शिवाय ईशानमूर्द्धाय तत्पुरुषवक्त्राय अघोरहृदयाय वामदेवगुह्याय
सद्योजातमूर्त्तये ओं नमो नमो गुह्यातिगुह्याय गोप्त्रे अनिधनाय सर्वाधिपाय ज्योतीरूपाय
परमेश्वराय भावेन ओं व्योम । ओं रूद्राणां भुवनानाञ्च स्वरूपमथ कथ्यते ।
भगवान् शिव
कहते हैं- स्कन्द ! पूर्ववर्तिनी कला-प्रतिष्ठा के साथ विद्याकला का संधान करे तथा
पूर्ववत् उसमें तत्त्व-वर्ण आदि का चिन्तन भी करे। उसके लिये मन्त्र इस प्रकार है
- ॐ हां ह्रीं हूं हां - यह संधान-मन्त्र है। राग, शुद्ध विद्या, नियति,
कला, काल, माया तथा
अविद्या-ये सात तत्त्व तथा र, ल, व,
श, ष, स ये छ वर्ण
विद्याकला के अन्तर्गत बताये गये हैं। प्रणव आदि इक्कीस पद भी उसी के अन्तर्गत
हैं।
'ॐ नमः शिवाय सर्वप्रभवे शिवाय ईशानमूर्ध्न तत्पुरुषवक्त्राय अघोरहृदयाय
वामदेवगुह्याय सद्योजातमूर्तये ॐ नमो नमः गुह्यातिगुह्याय गोष् अनिधनाय
सर्वयोगाधिकृताय सर्वयोगाधिपाय ज्योतीरूपाय परमेश्वराय अचेतन अचेतन व्योमन्
व्योमन् ।'- ये इक्कीस पद हैं ॥ १-३ ॥
प्रथमो
वामदेवः स्यात्ततः सर्वभवोद्भवः ।। ४ ।।
वज्रदेहः
प्रभुर्द्धाता क्रमविक्रमसुप्रभाः।
वटुः
प्रशान्तनामा च परमाक्षरसञ्ज्ञकः ।। ५ ।।
शिवश्च सशिवो
बभ्रुरक्षयः शम्भुरेव च ।
अदृष्टरूपनामानौ
तथाऽन्यो रूपवर्द्धनः ।। ६ ।।
मनोन्मनो
महावीर्य्यश्चित्राड्गस्तदनन्तरं ।
कल्याण इति
विज्ञेयाः पञ्चविंशतिसङ्ख्यया ।। ७ ।।
अब रुद्रों और
भुवनों का स्वरूप बताया जाता है— प्रमथ, वामदेव, सर्वदेवोद्भव,
भवोद्भव, वज्रदेह, प्रभु
धाता, क्रम, विक्रम, सुप्रभ, बुद्ध, प्रशान्तनामा, ईशान, अक्षर, शिव सशिव,
बभ्रु, अक्षय, शम्भु, अदृष्टरूपनामा, रूपवर्धन, मनोन्मन,
महावीर, चित्राङ्ग तथा कल्याण – ये पचीस भुवन एवं रुद्र जानने चाहिये ।। ४-७॥
मन्त्रो
घोरामरौ वीजे नाड्यौ द्वे तत्र ते यथा ।
पूषा च
हस्तिजिह्वा च व्याननागौ प्रभञ्जनौ ।। ८ ।।
विषयो
रूपमेवैकमिन्द्रिये पादचक्षुषी ।
शब्दः
स्पर्शश्च रूपञ्च त्रय एते गुणाः स्मृता ।। ९ ।।
अवस्थाऽत्र
सुषुप्तिश्च रुद्रो देवस्तु कारणं ।
विद्यामध्यगतं
सर्वं भावयेद्भवनादिकं ।। १० ।।
ताडनं छेदनं
तत्र प्रवेशञ्चापि योजनं ।
आकृष्य ग्रहणं
कुर्याद्विद्यया हृत्प्रदेशतः ।। ११ ।।
विद्याकला में
अघोर - मन्त्र है, 'म' और 'र' बीज हैं, पूषा और हस्तिजिह्वा – दो नाड़ियाँ हैं, व्यान और नाद ये दो प्राणवायु हैं।
एकमात्र रूप ही विषय है। पैर और नेत्र दो इन्द्रियाँ हैं। शब्द, स्पर्श तथा रूप ये तीन गुण कहे गये हैं। सुषुति अवस्था है और रुद्रदेव
कारण हैं। भुवन आदि समस्त वस्तुओं को भावना द्वारा विद्या के अन्तर्गत देखे। इसके
लिये संधान मन्त्र है - ॐ हूं हैं हां।' तत्पश्चात्
रक्तवर्ण एवं स्वस्तिक के चिह्न से अङ्कित त्रिकोणाकार मण्डल का चिन्तन करे। शिष्य
के वक्ष में ताडन, कलापाश का छेदन, शिष्य
के हृदय में प्रवेश, उसके जीवचैतन्य का पाश-बन्धन से वियोजन
तथा हृदयप्रदेश से जीवचैतन्य एवं विद्याकला का आकर्षण और ग्रहण करे ॥ ८- ११ ॥
आत्मन्यारोप्य
सङगृह्य कलां कुण्डे निवेशयेत् ।
रुद्रं
कारणमावाह्य विज्ञाप्य च शिशुं प्रति ।। १२ ।।
पित्रोरावाहनं
कृत्वा हृदये ताडयेच्छिशुं ।
प्रविश्य
पूर्वमन्त्रेण तदात्मनि नियोजयेत् ।। १३ ।।
आकृष्यादाय
पूर्वोक्तविधिनाऽऽत्मनि योजयेत् ।
वामया योजयेद्
योनौ गृहीत्वा द्वादशान्ततः ।। १४ ।।
कुर्व्वीत
देहसम्पत्तिं जन्माधिकारमेव च ।
भोगं लयन्तथा
श्रोतः शुद्धितत्त्वविशोधनं ।। १५ ।।
निः
शेषमलकर्म्मादिपाशबन्धनिवृत्तये ।
निष्कृत्यैव
विधानेन यजेत शतमाहुतीः ।। १६ ।।
अस्त्रेण
पाशशैथिल्यं मलशक्तिं तिरोहितां ।
छेदनं
मर्द्दनं तेषां वर्त्तुलीकरणं तथा ।। १७ ।।
दाहं
तदक्षराभावं प्रायश्चित्तमथोदितं ।
रुद्राण्यावाहनं
पूजा रूपगन्धसमर्पणं ।। १८ ।।
ओं ह्रीं
रूपगन्धौ शुल्कं रुद्र गृहाण स्वाहा ।
जीवचैतन्य का
अपने आत्मा में आरोपण करके कलापाश का संग्रहण एवं कुण्ड में स्थापन भी पूर्वोक्त
पद्धति से करे। कारणरूप रुद्र देवता का आवाहन पूजन आदि करके शिष्य के प्रति
बन्धनकारी न होने के लिये उनसे प्रार्थना करे। पिता-माता का आवाहन आदि करके शिशु
(शिष्य) के हृदय में ताड़न करे। पूर्वोक्त विधि के अनुसार पहले अस्त्र- मन्त्र द्वारा
हृदय में प्रवेश करके जीवचैतन्य को कलापाश से विलग करे। फिर उसका आकर्षण एवं ग्रहण
करके अपने आत्मा में संयोजन करे। फिर वामा उद्भवमुद्रा द्वारा वागीश्वरीदेवी के
गर्भ में उसके स्थापित होने की भावना करे। इसके बाद देह-सम्पादन करे। जन्म, अधिकार, भोग, लय, स्रोतः शुद्धि, तत्त्वशुद्धि,
निःशेष मलकर्मादि के निवारण, पाश-बन्धन की
निवृत्ति एवं निष्कृति के हेतु स्वाहान्त अस्त्र-मन्त्र से सौ आहुतियाँ दे।
तदनन्तर अस्त्र-मन्त्र से पाश- बन्धन को शिथिल करना, मलशक्ति
का तिरोधान करना, कलापाश का छेदन, मर्दन,
वर्तुलीकरण, दाह, अकुराभाव-
सम्पादन तथा प्रायश्चित्त कर्म पूर्वोक्त रीति से करे। इसके बाद रुद्रदेव का आवाहन,
पूजन एवं रूप और गन्ध का समर्पण करे। उसके लिये मन्त्र इस प्रकार है
- ॐ हां रूपगन्धौ शुल्कं रुद्र गृहाण स्वाहा ।' ॥ १२- १८अ ॥
संश्राव्य
शाम्भवीमाज्ञां रुद्रं विसृज्य कारणं ।
विधायात्मनि
चैतन्यं पाशसूत्रे निवेशयेत् ।। १९ ।।
विन्दुं शिरसि
विन्यस्य विसृजेत् पितरौ ततः।
दद्यात्
पूर्णां विधानेन समस्तविधिपूरणीं ।। २० ।।
शंकरजी की
आज्ञा सुनाकर कारणस्वरूप रुद्रदेव का विसर्जन करे। इसके बाद जीवचैतन्य का आत्मा में
स्थापन करके उसे पाशसूत्र में निवेशित करे। फिर जलबिन्दु-स्वरूप उस चैतन्य का
शिष्य के सिर पर न्यास करके माता-पिता का विसर्जन करे। तत्पश्चात् समस्त विधि की
पूर्ति करनेवाली पूर्णाहुति का विधिवत् हवन करे ॥१९-२०॥
पूर्वोक्तविधिना
कार्य्यं विद्यायां ताडनादिकं ।
स्ववीजन्तु
विशेषः स्यादिति विद्या विशोधिता ।। २१ ।।
विद्या में
ताडन आदि कार्य पूर्वोक्त विधि से ही करना चाहिये। अन्तर इतना ही है कि उसमें
सर्वत्र अपने बीज का प्रयोग होगा। यह सब विधान पूर्ण करने से विद्याकला का शोधन
होता है ॥ २१ ॥
इत्यादिमहपुराणे
आग्नेये निर्व्वाणदिक्षायां विद्याशोधनं नाम षडशीतितमोऽध्यायः ॥८६॥
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'निर्वाण-दीक्षा के अन्तर्गत विद्याकला का शोधन नामक छियासीवाँ अध्याय पूरा
हुआ ॥ ८६ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 87
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