ताराष्टक
जो मनुष्य
भक्ति-युक्त होकर इस तारा स्तोत्र अथवा ताराष्टक अथवा नीलसरस्वती स्तोत्र अथवा
महोग्रताराष्टक स्तोत्र का पाठ करता है, उसे सभी सिद्धियाँ मिल जाती हैं,
उसके सभी शत्रुओं का नाश होता है, वह सर्वशास्त्रवेत्ता हो जाता है। उसे अक्षय
लक्ष्मी प्राप्त होती हैं और उनके सारे मनोरथ सिद्ध नहीं होते हैं।
तारास्तोत्रं अथवा ताराष्टकं अथवा श्रीनीलसरस्वतीस्तोत्रम् अथवा महोग्रताराष्टकस्तोत्रं
Taraashtakam
मातर्नीलसरस्वति
प्रणमतां सौभाग्यसम्पत्प्रदे
प्रत्यालीढपदस्थिते
शवहृदि स्मिताननाम्भोरुहे ।
फुल्लेन्दीवरलोचने
त्रिनयने
कर्त्री कपालोत्पले
खडगश्चादधती
त्वमेव शरणं त्वामीश्वरीमाश्रये ॥ १ ॥
प्रणाम करने
वाले भक्तों को सौभाग्य-सम्पत्ति प्रदान करने वाली, शव के हृदय पर बायाँ पैर आगे और दाहिना पैर पीछे रख कर
वीरासन पर विराजमान भगवति मन्दस्मितकमलानने, विकसित- कमलनयने, त्रिनयने! छुरी, कपाल, नील कमल और खड्गधारण करने वाली,
हे नीलसरस्वति मातः ! तुम्हीं मेरी शरण हो,
इसलिए मैं तुम स्वामिनी का आश्रय लेता हूँ ।। १ ।।
वाचामीश्वरि
भक्तकल्पलतिके सर्वार्थसिद्धिश्वरि
गद्य -
प्राकृत पद्यजातरचना - सर्वार्थसिद्धिप्रदे ।
नीलेन्दीवर
लोचनत्रययुते कारुण्यवारान्निधे
सौभाग्यामृतवर्द्धनेन
कृपया सिञ्चत्वमस्मादृशम् ॥ २ ॥
वाणी की
अधिष्ठात्री देवि ! भक्तों को अभीष्ट देने वाली कल्पलते ! सर्वार्थसिद्धियों की
स्वामिनि ! गद्य और प्राकृत पद्य रचना में सर्वार्थसिद्धि देने वाली,
नीले कमलों के समान तीन नेत्रों वाली,
करुणापारावारे ! हे मातः, तुम मेरे सौभाग्यामृत को बढ़ाते हुए अपनी करुणा-दृष्टि से मेरे
जैसे दीन की ओर देखो ।। २ ।।
खर्वे
गर्वसमूह-पूरिततनौ सर्पादिवेषोज्ज्वले
व्याघ्रत्वक
परिवीत सुन्दर कटि-व्याधूत- घण्टाङ्किते ।
सद्यः
कृत्तगलद्-रजःपरिमिलन- मुण्डद्वयीमूर्द्धज-
ग्रन्थि
श्रेणि- नृमुण्डदाम-ललिते भीमे भयं नाशय ॥ ३ ॥
गायत्रीस्वरूपिणि
अथवा कुबेरनिधिरूपे, अपने जवानी के उमङ्ग से परिपूर्ण शरीर में,
श्वेत सर्पों के लिपटे रहने के कारण उज्ज्वल वेष धारिणि,
व्याघ्रचर्माम्बर से आवृत कटि में,
मनोहरक्षुद्रघण्टिका के शब्दों से विराजमान और सद्यः काटे
गये रक्तानुलिप्त दो मुण्डों के केश की ग्रन्थि से युक्त,
नृमुण्डमाला धारण करने से अत्यन्त सुशोभित,
हे भीमे ! भय को दूर करो ॥ ३ ॥
मायानङ्ग-विकाररूप-ललना
बिन्द्वर्द्धचन्द्राम्बिके
हूँ फट्कारमयि
त्वमेव शरणं मन्त्रात्मिके मादृशः ।
मूर्तिस्ते
जननि त्रिधामघटिता स्थूलातिसूक्ष्मा
परा वेदानां
नहि गोचरा कथमपि प्राज्ञैर्नुतामाश्रये ॥ ४ ॥
माया बीज
(ह्रीं) कामबीज क्रीं इस पर बिन्द्वर्ध रूप अर्द्धचन्द्र देने से 'ह्रीं क्रीं' हुआ, तदनन्तर हुं फट्' लगा देने से 'ह्रीं क्रीं हूँ फट् स्वरूप मन्त्रात्मिके ! मेरे-जैसे अनाथ को तुम्हीं शरण
देने वाली हो। हे मातः ! स्थूल, अतिसूक्ष्म तथा परा रूप से तुम तीन प्रकार की हो,
तुम्हें वेद भी जानने में असमर्थ हैं । इस प्रकार उपासक
प्राज्ञों से किसी-किसी प्रकार नमन की जाने वाली मातः ! मैं तुम्हारा आश्रय ग्रहण
करता हूँ ॥४॥
त्वत्पादाम्बुजसेवया
सुकृतिनो गच्छन्ति सायुज्यतां
तस्याः श्रीः
परमेश्वर - त्रिनयन-ब्रह्मादि साम्यात्मनः ।
संसाराम्बुधि-मज्जनेऽपटुतनुर्देवेन्द्रमुख्यान्
सुरान्
मातस्त्वत्पदसेवने
हि विमुखान् किं मन्दधीः सेवते ॥५॥
हे मातः !
भाग्यवान् लोग तुम्हारे चरण-रज की सेवा करने से सायुज्य पदवी प्राप्त करते हैं।
विष्णु,
ब्रह्मा तथा शिव में उसी देवी की श्री विद्यमान हैं,
किन्तु हे मातः ! संसाररूपी समुद्र में डूबते हुए मूर्ख मन्दधी
प्राणी तुम्हारी सेवा से विमुख रहने वाले इन्द्रादि देवताओं की व्यर्थ में सेवा
करते रहते हैं ।। ५ ।।
मातस्त्वत्पदपङ्कजद्वयरजो
मुद्राङ्ककोटीरिण-
स्ते देवा
जयसङ्गरे विजयिनो निशःङ्कमङ्के गताः ।
देवोऽहं भुवने
न मे सम इति स्पर्द्धा वहन्तः परा-
स्तत्तुल्यां
नियतं यथाशुचिरवी नाशं व्रजन्ति स्वयम् ॥ ६ ॥
हे मातः!
तुम्हारे दोनों चरण-कमल के रज की मुद्रा से अङ्कित देवगण जब संग्राम में विजयी हो
गये और तुम्हारी शरण में रहने से सर्वथा निःशङ्क हो गये तब उन्हें गर्व हो गया कि
हम देवता हैं और हमारे समान अन्य कोई नहीं है, ऐसी स्पर्धा करते हुए वे जिस समय तुम्हारी समता करने लगे,
उसी समय वे इस प्रकार नष्ट हो गये,
जिस प्रकार वर्षा काल में सूर्य अदृश्य हो जाते हैं ॥ ६ ॥
त्वन्नामस्मरणात्
पलायनपरा द्रष्टुं च शक्ता न ते
भूत-प्रेत-पिशाच-राक्षसगणा
यक्षाश्च नागाधिपाः ।
दैत्या
दानव-पुङ्गवाश्च खचरा व्याघ्रादिका जन्तवो
डाकिन्यः
कुपितान्तकश्च मनुजो मातः क्षणं भूतले ॥७॥
हे मातः !
तुम्हारे नाम-स्मरण मात्र से क्षण मात्र में भूत, प्रेत, पिशाच, राक्षस, यक्ष, सर्प, दैत्य, दानव, आकाशचारी, व्याघ्रादिक जन्तु एवं डाकिनी बहुत क्या कहें,
कुपित मृत्यु के समान भयानक मनुष्य भी बहुत दूर भाग जाते
हैं और तुम्हारे नाम लेने वाले की ओर वे देख भी नहीं सकते ।। ७ ।।
लक्ष्मीः
सिद्धिगणश्च पादुकमुखाः सिद्धास्तथा वैरिणां
स्तम्भश्चाऽपि
वराङ्गने गजघटास्तम्भस्तथा मोहनम् ।
मातस्त्वत्पदसेवया
खलु नृणां सिद्धयन्ति ते ते गुणाः
क्लान्तः
कान्तमनोभवश्च भवति क्षुद्रोऽपि वाचस्पतिः ॥ ८ ॥
हे मातः !
तुम्हारे चरण कमल की सेवा से मनुष्यों के कौन-कौन मनोरथ सिद्ध नहीं होते,
उसे लक्ष्मी प्राप्त हो जाती हैं,
सभी सिद्धियाँ मिल जाती हैं, उसके वैरियों का तथा वैरियों के हस्ति-समूहों का स्तम्भन हो
जाता है,
वह सब को मोहित कर लेता है, कुरूप भी तुम्हारी सेवा से कामदेव के समान कान्तिमान् हो
जाता है और मूर्ख भी वाचस्पति हो जाता है ॥ ८ ॥
लभते कवितां
विद्यां सर्वशास्त्रार्थविद् भवेत् ।
लक्ष्मीमनश्वरां
प्राप्य भुक्त्वा भोगान् यथेप्सितान् ॥१०॥
कीर्ति कान्ति
च नैरुज्यं प्राप्यान्ते मोक्षमाप्नुयात् ॥११॥
जो मनुष्य
पवित्र होकर नियम से भक्ति-युक्त हो इस पुण्यप्रद ताराष्टक का पाठ प्रातः,
मध्याह्न तथा सायङ्काल में करता है,
उसे कविता और विद्या प्राप्त होती है और वह
सर्वशास्त्रवेत्ता हो जाता है। उसे कभी नष्ट न होने वाली लक्ष्मी प्राप्त होती हैं
और मनो-- भिलषित भोग प्राप्त होते रहते हैं। वह कीर्त्ति,
कान्ति तथा नैरुज्य प्राप्त कर अन्त में मुक्त हो जाता है
।। ९-११ ।।
इति श्रीबृहन्नीलतन्त्रे तारास्तोत्रं अथवा ताराष्टकं अथवा श्रीनीलसरस्वतीस्तोत्रम् अथवा महोग्रताराष्टकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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