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ताराकवचम् अथवा उग्रताराकवचम्
Tara kavach
ईश्वर उवाच
कोटितन्त्रेषु
गोप्या हि विद्यातिभयमोचिनी।
दिव्यं हि
कवचं तस्याः शृणुष्व सर्वकामदम् ॥ १ ॥
ईश्वर
बोले- हे पार्वति ! करोड़ों मन्त्रों में
गोपनीय जो विद्या अत्यन्त भय से मनुष्यों को मुक्त करती है वह भगवती तारा का दिव्य
कवच है,
उसके पाठ से सारी कामनाएँ पूर्ण होती हैं,
अतः तुम उसे सुनो ॥ १ ॥
ताराकवचम् विनियोगः
ॐ अस्य ताराकवचस्याऽक्षोभ्य
ऋषिस्त्रिष्टुप्छन्दो भगवती तारादेवता सर्वमन्त्र सिद्धये विनियोगः ।
तारा कवच के
पाठ से पूर्व 'ॐ ताराकवचस्य'
से लेकर 'सर्वं मन्त्रसिद्धये विनियोगः पर्यन्त मन्त्र पढ़ कर जल को पृथ्वी पर गिरा देना चाहिए।
तारा कवच भावार्थ सहित
ॐ प्रणवो मे
शिरः पातु ब्रह्मारूपा महेश्वरी ।
ह्रींकारः
पातु ललाटे बीजरूपा महेश्वरी ॥ २ ॥
ॐ प्रवण,
जो ब्रह्मरूपा महेश्वरी का रूप है,
मेरे शिर की रक्षा करे, ह्रींकार जो महेश्वरी का बीज मन्त्र स्वरूप
है, वह मेरे ललाट की रक्षा करे ॥ २ ॥
स्त्रींकारः
पातु वदने लज्जारूपा महेश्वरी ।
हूँकारः पातु
हृदये भवानीशक्तिरूपधृक् ।। ३ ।।
स्त्रींकार जो
महेश्वरी का लज्जा स्वरूप है, वह मेरे मुख की रक्षा करे, भवानी की शक्ति को धारण करने वाला हूँकार मेरे हृदय की रक्षा
करे ।। ३ ।।
फट्कारः पातु
सर्वाङ्ग सर्वसिद्धिफलप्रदा ।
खर्वा मां
पातु देवेशी भ्रूमध्ये सर्वसिद्धिदा ॥ ४ ॥
सर्वसिद्धिफलप्रदा
भगवती देवेशी का फट्कार स्वरूप में सर्वाङ्ग की रक्षा करे,
और सम्पूर्ण सिद्धियों को देने वाली देवेशी,
जो गायत्री- स्वरूपा अथवा कुबेर की निधिस्वरूपा है वह दोनों
ध्रुवों के मध्य-भाग की रक्षा करे ॥ ४ ॥
नीला मां पातु
देवेशी गण्डयुग्मे भयापहा ।
लम्बोदरी सदा
पातु कर्णयुग्मं भयापहा ॥ ५ ॥
भयहरण करने
वाली देवेशी नीला मेरे दोनों गण्डस्थलों की रक्षा करें । भयानहा लम्बोदरी देवी
सर्वदा मेरे दोनों कानों की रक्षा करें ॥ ५॥
व्याघ्रचर्मावृतकटिः
पातु देवी शिवप्रिया ।
पीनोन्नतस्वनी
पातु पार्श्वयुग्मे महेश्वरी ॥ ६ ॥
कटिप्रदेश में
व्याघ्रचर्म धारण करने वाली शिवप्रिया मेरी रक्षा करें। मोटे और ऊँचे स्तनों वाली महेश्वरी
मेरे दोनों पार्श्व की रक्षा करें ॥६॥
रक्तवर्तुलनेत्रा
च कटिदेशे सदाऽवतु ।
ललजिह्वा सदा
पातु नाभौ मां भुवनेश्वरी ॥ ७ ॥
रक्त और गोल
नेत्र वाली मेरे कटिप्रदेश की रक्षा करें। लपलपाती जीभवाली भुवनेश्वरी मेरी नाभि
की रक्षा करें ॥ ७ ॥
कराळास्या सदा
पातु लिङ्गे देवी हरप्रिया ।
पिङ्गोग्रैकजटा
पातु जङ्घायां विघ्ननाशिनी ॥ ८ ॥
करालमुख वाली
हरप्रिया देवी सर्वदा मेरे लिङ्ग की रक्षा करें, पिङ्गाग्रभाग जटा वाली विघ्ननाशिनी जङ्घा की रक्षा करें ॥ ८
॥
खड्गहस्ता
महादेवी जानुचक्रे महेश्वरी ।
नीलवर्णा सदा
पातु जानुनी सर्वदा मम ॥ ९ ॥
हाथ में खड्ग
धारण करने वाली महादेवी महेश्वरी मेरे जानुचक्र की रक्षा करें। नीलवर्ण वाली
सर्वदा मेरे दोनों जानुओं की रक्षा करें ।। ९ ।।
नागकुण्डलधर्त्री
च पातु पादयुगे ततः ।
नागहारधरा
देवी सर्वाङ्गं पातु सर्वदा ॥ १० ॥
नागों का
कुण्डल धारण करने वाली देवी मेरे दोनों पैरों की रक्षा करें,
नागों का हार धारण करने वाली देवी सर्वदा मेरे सर्वाङ्गों
की रक्षा करें ॥ १० ॥
न गाङ्गधरा
देवी पातु पाण्डवदेशतः ।
चतुर्भुजा सदा
पातु गमने शत्रुनाशिनी ॥ ११ ॥
अङ्गों में
नाग धारण करने वाली देवी वन में हमारी रक्षा करें, चार भुजा वाली शत्रुनाशिनी देवी यात्राकाल में हमारी रक्षा
करें ॥११॥
खड्गहस्ता
महादेवी पातु मां विजयप्रदा ।
नीलाम्बरधरा
देवी पातु मां विघ्ननाशिनी ।। १२ ॥
खड्गहस्ता,
विजयप्रदा महादेवी मेरी रक्षा करें,
नीलाम्बर धारण करने वाली विघ्ननाशिनी देवी मेरी रक्षा करें
।। १२ ।।
कर्तृस्ता सदा
पातु विवादे शत्रुमध्यतः ।
ब्रह्मरूपधरा
देवी सङ्ग्रामे पातु सर्वदा ।। १३ ।।
शत्रु से
विवाद होने पर छुरी हाथ में धारण करने वाली देवी मेरी सदा रक्षा करें।
ब्रह्मरूपधारिणी संग्राम में मेरी सर्वदा रक्षा करें ॥१३॥
नागकङ्कणधर्त्री
च भोजने पातु सर्वदा ।
शवकर्णा
महादेवी शयने पातु सर्वदा ॥ १४ ॥
नागों का
कङ्कण धारण करने वाली देवी भोजन काल में हमारी रक्षा करें। कानों में शव का आभूषण
धारण करने वाली देवी शयन काल में हमारी रक्षा करें ।। १४ ।।
वीरासनधरा
देवी निद्रायां पातु सर्वदा ।। १५ ।।
वीरासन से
स्थित रहने वाली देवी निद्रा में हमारी रक्षा करें ।१५।
धनुर्बाणधरा
देवी पातु मां विघ्नसङ्कुले ।
नागाश्चितकटिः
पातु देवी मां सर्वकर्मसु ।। १६ ।।
विघ्न उपस्थित
होने पर धनुषबाण धारण करने वाली देवी हमारी रक्षा करें। नागों की करधनी से विभूषित
देवी सभी कर्मों में हमारी रक्षा करें ॥ १६ ॥
छिन्नमुण्डधरा
देवी कानने सर्वदाऽवतु |
चितामध्यस्थिता
देवी मारणे पातु सर्वदा ।। १७ ।।
छिन्नमुण्डमाला
वाली देवी वन में हमारी रक्षा करें, चितामध्य में रहने वाली देवी मारते समय हमारी रक्षा करें ॥
१७ ॥
द्वीपिचर्मधरा
देवी पुत्र- दार-धनादिषु ।
अलङ्कारान्विता
देवी पातु मां हरवल्लभा ।। १८ ।।
चित्ते का
चर्म धारण करने वाली देवी मेरे पुत्र, दार और धन की रक्षा करें। अलङ्कारों को धारण करने वाली
हरवल्लभा मेरी रक्षा करें ।। १८ ।।
रक्ष रक्ष
नदीकुञ्जे हूँ हूँ हूँ फट्समन्विते ।
बीजरूपा
महादेवी पर्वते पातु सर्वदा ।। १९ ।।
हूँ हूँ हूँ
फट् समन्विते देवि ! आप नदी और कुञ्ज में हमारी रक्षा करो। बीजरूपा महादेवी पर्वत
पर हमारी रक्षा करें ।। १९ ।।
मणिधरि
वज्रिणी देवी महाप्रतिसरे तथा ।
रक्ष रक्ष सदा
हूँ हूँ ॐ ह्रीं स्वाहा महेश्वरी ॥२०॥
मणिधरि
वज्रिणी देवी महान् यात्राकाल में हमारी रक्षा करें । हूँ हूँ ॐ ह्रीं स्वाहा
स्वरूपा महेश्वरी मेरी सर्वदा रक्षा करें ॥ २० ॥
पुष्पकेतुराजार्हते
कानने पातु सर्वदा ।
ॐ वज्रपुष्पे
हूँ फट् च पाण्डवे पातु सर्वदा ॥२१॥
पुष्पकेतु
राजा से पूजी जाने वाली देवी कानन में हमारी रक्षा करें । ॐ वज्रपुष्पे हूँ फट्
स्वरूपा देवी पाण्डवस्थान में हमारी रक्षा करें ।। २१ ।।
पुष्पे !
पुष्पे ! महापुष्पे ! पातु पुत्रान् महेश्वरि ! ।
ॐ
स्वाहाशक्तिसंयुक्ता दारान् रक्षतु सर्वदा ॥ २२ ॥
पुष्पे,
हे पुष्पे, हे महापुष्पे ! हे महेश्वरि, मेरे पुत्रों की रक्षा करो। स्वाहा शक्ति से संयुक्त देवी
मेरी स्त्री की रक्षा करें।।२२।।
ॐ
पवित्रवज्रभूमे हूँ फट् स्वाहा-समन्विता ।
पूरिका पातु
मां देवी सर्वविघ्नविनाशिनी ॥२३॥
ॐ
पवित्रवज्रभूमे ! हुँफट् स्वाहा-समन्विते देवी, चारों ओर मेरी रक्षा करें । सम्पूर्ण विघ्नों का नाश करने
वाली और कार्यों को पूर्ण करने वाली पूरिका देवी मेरी रक्षा करें ।। २३ ।।
आसुरेखे
वज्ररेखे हूँ फट् स्वाहा-समन्विता ।
पाताले पातु
मां देवी नागिनी मानसञ्चिता ॥२४॥
असुरेखे,
वज्ररेखे हुँ फट् स्वाहा-समन्विता नागिनी मनसा देवी पाताल
में हमारी रक्षा करें ॥ २४ ॥
ह्रींकारी
पातु पूर्वे मां शक्तिरूपा महेश्वरी ।
स्त्रींकारी
दक्षिणे पातु स्त्रीरूपा परमेश्वरी ॥ २५ ॥
पूर्व में ह्रींकारी,
शक्तिस्वरूपा माहेश्वरी हमारी रक्षा करें । स्त्रींकारी
स्त्रीरूपा परमेश्वरी दक्षिण दिशा में हमारी रक्षा करें ।। २५ ।।
हूँस्वरूपा
महामाया पातु मां क्रोधरूपिणी ।
कस्वरूपा
महामाया पश्चिमे पातु सर्वदा ॥ २६ ॥
हूँस्वरूपा
क्रोधरूपिणी महामाया हमारी रक्षा करें । कस्वरूपा महमाया देवी पश्चिम में हमारी
रक्षा करें ॥२६॥
उत्तरे पातु
मां देवी ढस्वरूपा हरप्रिया ।
मध्ये मां
पातु देवेशी हुँस्वरूपा नगात्मजा ॥२७॥
ढकारस्वरूपा
हरप्रिया देवी उत्तर में मेरी रक्षा करें । हूँस्वरूपा नागत्मजा देवी मध्य में
हमारी रक्षा करें ॥ २७॥
नीलवर्णा सदा
पातु सर्वत्र वाग्भवी सदा ।
तारिणी पातु भवने
सर्वैश्वर्यप्रदायिनी ॥ २८ ॥
नीलवर्णा
सरस्वती देवी हमारी सर्वदा रक्षा करें। ऐश्वर्यप्रदायिनी तारिणी देवी भवन में
हमारी रक्षा करें ॥२८॥
विद्यादानरता
देवी पातु वक्त्रे सरस्वती ।
शास्त्रे वादे
च सङ्ग्रामे जले च विषमे गिरौ ॥२९॥
विद्या-दान
में निरत रहने वाली सरस्वती देवी मुख में, शास्त्र में, शास्त्रार्थं में, सङ्ग्राम में, जल में तथा विषमस्थल में हमारी रक्षा करें ॥२९॥
भीमरूपा सदा
पातु श्मशाने भयनाशिनी ।
भूतप्रेतालये
घोरे दुर्गे मामीषणाऽवतु ॥ ३० ॥
भयनाशिनी भीमा
देवी श्मशान में हमारी रक्षा करें । भीषणा देवी भूत-प्रेत युक्त स्थान में तथा घोर
सङ्कट में हमारी रक्षा करें ॥ ३० ॥
पातु नित्यं
महेशानी सर्वत्र शिवदूतिका ।
कवचस्य च
माहात्म्यं नाऽहं वर्षशतैरपि ॥३१॥
शक्नोमि
कथितुं देवि ! भवेत्तस्य फलं तु यत् ।
पुत्रदारेषु
बन्धूनां सर्वदेशे च सर्वदा ॥ ३२ ॥
न विद्यते भयं
तस्य नृपपूज्यो भवेच्च सः ।
शुचिर्भूत्वाऽशुचिर्वाऽपि
कवचं सर्वकामदम् ॥३३॥
प्रपठन् वा
स्मरन मर्त्यो दुःख-शोक-विवर्जितः ।
सर्वशास्त्रे
महेशानि ! कविराड् भवति ध्रुवम् ॥३४॥
शिवदूतिका
महेश्वरी हमारी नित्य रक्षा करें। हे देवि ! मैं इस तारा-कवच के माहात्म्य का
जितना फल होता है, उसे सैकड़ों वर्षों तक कहने में भी समर्थ नहीं हूँ । इस कवच
का पाठ करने वाले पुरुष के पुत्र, स्त्री और बन्धुओं को किसी भी स्थान में किसी प्रकार का भय
नहीं होता और वह राजपूज्य होता है, चाहे पवित्र रहे अथवा अपवित्र रहे,
किसी भी अवस्था में सम्पूर्ण अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले
इस कवच का पाठ करने वाला अथवा स्मरण करने वाला पुरुष दुःख,
शोक से रहित हो जाता है। और सम्पूर्ण शास्त्रों का वह ज्ञाता
तथा कवि-सम्राट् होता है ।।३१-३४।।
सर्ववागीश्वरो
मर्त्यो लोकवश्यो धनेश्वरः ।
रणे द्यूते
विवादे च जयस्तस्य भवेत् ध्रुवम् ॥३५॥
इस कवच का पाठ
करने वाला सर्वबागीश्वर, लोक को अपने वश में करने वाला कुबेर के समान धनवान् होता है
और युद्ध में, जुए में, विवाद में उसकी विजय निश्चित है ॥३५॥
पुत्र-पौत्रान्वितो
मर्त्यो विलासी सर्वयोषिताम् ।
शत्रवो दासतां
यान्ति सर्वेषां वन्तमः सदा ॥३६॥
वह
पुत्र-पौत्रादि से युक्त, सभी स्त्रियों का प्रिय होता है । उसके शत्रु उसके दास बन
जाते हैं और वह सर्वदा सबका प्रिय हो जाता है ॥३६॥
गर्वी खर्वी
भवत्येव वादी ज्वलति दर्शनात् ।
मृत्युश्च
वसतां याति दासस्तस्याऽवनीश्वरः ॥३७॥
इस कवच का पाठ
करने वाले पुरुष के दर्शन मात्र से अहङ्कारी का अहङ्कार तथा प्रतिपक्षी भस्म हो
जाते हैं । मृत्यु वश में हो जाती है और राजा लोग उसका दास बन जाते हैं ॥३७॥
प्रसङ्गात्
कथितं सर्व कवचं सर्वकामदम् ।
प्रपठन् वा
स्मरन् मर्त्यः शापानुग्रहणे क्षमः ॥ ३८ ॥
शिवजी कहते
हैं- हे देवि ! इस प्रकार मैंने प्रसंगवश सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला कवच
तुमसे कह दिया। इसका पाठ करने वाला अथवा स्मरण करने वाला पुरुष शापदान तथा अनुग्रह
दोनों कार्यों में समर्थ हो जाता है ॥३८॥
आनन्दवृन्द-सिन्धूनामधिपः
कविराड् भवेत् ।
सवयोगीश्वरो
मर्त्यो लोकबन्धुः सदा सुखी ॥ ३९ ॥
वह
आनन्दसमुद्र का स्वामी, कविराट्, योगीश्वर, लोक-बन्धु तथा सदा सुखी रहता है ॥ ३९ ॥
गुरोः
प्रसादमासाद्य विद्यां प्राप्य सुगोपिताम् ।
तत्राऽपि कवचं
देवि ! दुर्लभं भुवनत्रये ॥४०॥
गुरु को
प्रसन्न कर गुप्त-से गुप्त विद्या प्राप्त की जा सकती है । किन्तु हे देवि ! यह
तारा-कवच तीनों लोक में सर्वथा अप्राप्य है ॥४०॥
गुरुर्देवो
हरः साक्षात् पत्नी तस्य हरप्रिया ।
अभेदेन यजेद्
यस्तु तस्य सिद्धिरदूरतः ॥४१॥
जो अपने गुरु
को साक्षात् महेश्वर और गुरुपत्नी को पार्वती समझकर अभेद-बुद्धि से सेवा करता है,
उसे शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है ॥४१॥
मन्त्राचारा
महेशानि ! कथिताः पूर्वतः प्रिये ।।
नाभौ
ज्योतिस्तथा वक्त्रे हृदये परिचिन्तयेत् ॥४२॥
हे प्रिये,
हे महेशानि ! मन्त्र की सिद्धि के समस्त उपाय मैंने पहले कह
दिया है,
उस देवी का ध्यान नाभि, ज्योति में, मुख में तथा हृदयप्रदेश में करना चाहिए ॥४२॥
ऐश्वर्यं सुकवित्वं
च रुद्रश्च सिद्धिदायकः ।
तं दृष्ट्वा
साधकं देवि ! लज्जायुक्ता भवन्ति ते ॥४३॥
उसे
नित्यैश्वर्य की प्राप्ति होती है और भगवान् रुद्र उसे सिद्धि प्रदान करते हैं।
ऐसे साधक को देखकर अन्य लोग लज्जित हो जाते हैं ॥४३॥
स्वर्गे मर्त्ये
च पाताले ये देवाः सुरसत्तमाः ।
प्रशंसन्ति
सदा सर्वे तं दृष्ट्वा साधकोत्तमम् ॥४४॥
देवता तथा देवेन्द्र
सभी उस उत्तम साधक को देखकर स्वर्ग, मृत्युलोक तथा पाताल में उसकी प्रशंसा करते हैं ॥ ४४ ॥
विघ्नात्मानश्च
ये देवाः स्वर्गे मर्त्ये रसातले ।
प्रशंसन्ति
सदा सर्वे तं दृष्ट्वा साधकोत्तमम् ॥४५॥
हे देवि !
बहुत क्या कहें, विघ्न करने वाले देवता भी ऐसे उत्तम साधक को देखकर स्वर्ग,
मृत्युलोक तथा पाताळ लोक में सर्वत्र उसकी प्रशंसा करते हैं
।। ४५॥
इति ते कथितं
देवि ! मया सम्यक् प्रकीर्तितम् ।
भुक्ति-मुक्तिकरं
साक्षात् कल्पवृक्ष स्वरूपकम् ॥४६॥
हे देवि ! इस
प्रकार भोग, मोक्ष देने वाला साक्षात् कल्पवृक्ष के समान यह तारा-कवच अच्छी प्रकार से
मैंने तुमसे कहा ॥४६ ॥
आसाद्याद्य
गुरु प्रसाद्य य इदं कल्पद्रुमालम्बनं
मोहेनापि मदेन
वा न हि जनो जाडयेन वा मुह्यति ।
सिद्धोऽसौ भ्रुवि
सर्वदुःख-विपदां पारं प्रयात्यन्तके
मित्रं तस्य नृपश्च
देवि ! विपदो नश्यन्ति तस्याशु च ॥४७॥
जो गुरु को
प्रसन्न कर कल्पवृक्ष के समान मनोरथ को पूर्ण करने वाले इस कवच को प्राप्त कर लेता
है,
वह पुरुष मोह, मद अथवा जड़ता से कभी मोहित नहीं होता। वह सिद्ध समस्त
विपत्तियों को पार कर जाता है, और हे देवि ! राजा लोग उसके मित्र हो जाते हैं एवं शीघ्रता
से उसकी विपत्ति नष्ट हो जाती है ॥४७॥
तद्गात्रं
प्राप्य शस्त्राणि ब्रह्मास्त्रादीनि वै भुवि ।
तस्य गेहे
स्थिरा लक्ष्मीर्वाणी वक्त्रे वसेद् ध्रुवम् ॥ ४८ ॥
ब्रह्मास्त्र
जैसे भयानक शस्त्र उसके शरीर में निवास करते हैं, उसके घर में स्थिर लक्ष्मी और मुख में सर्वदा सरस्वती का
वास होता है ॥ ४८ ॥
इदं
कवचमज्ञात्वा तारां यो भजते नरः ।
अल्पायुर्निर्धनो
मूर्खो भवत्येव न संशयः ॥ ४९ ॥
जो इस कवच को
बिना जाने ही तारा की पूजा करता है, वह अल्पायु, निर्धन और मूर्ख हो जाता है, इसमें संशय नहीं ॥४९॥
लिखित्वा
धारयेद् यस्तु कण्ठ वा मस्तके भुजे ।
तस्य
सर्वार्थसिद्धिः स्याद् यद्यन्मनसि वर्तते ॥ ५०॥
जो इस कवच को
लिखकर शिर, कण्ठ अथवा हाथ में धारण करता है, वह मन में जो भी मनोरथ करता है वे सभी पूर्ण हो जाते हैं
॥५०॥
गोरोचन
कुङ्कुमेन रक्तचन्दनकेन वा ।
यावकैर्वा महेशानि
लिखेन् मन्त्रं विशेषतः ॥५१॥
हे महेश्वरि !
गोरोचन,
कुंकुम (रोरी ), रक्तचन्दन अथवा विशेष कर यावक (लाख) से तारा मन्त्र को
लिखना चाहिए ॥ ५१ ॥
अष्टम्यां
मङ्गल दिने चतुर्दश्यामथाऽपि वा ।
सन्ध्यायां
देवदेवेशि लिखेन् मन्त्रं समाहितः ॥ ५२॥
अष्टमी के दिन,
मङ्गलवार को, चतुर्दशी में या सन्ध्या काल में शुद्धचित्त हो तारामन्त्र
लिखना चाहिए ॥५२॥
मघायां
श्रवणायां वा रेवत्यां च विशेषतः ।
सिंहराशौ गते
चन्द्रे कर्कटस्थे दिवाकरे ॥ ५३॥
मीनराशौ गुरौ
याते वृश्चिकस्थे शनैश्चरे ।
लिखित्वा
धारयेद् यस्तु साधको भक्तिभावतः ।
अचिरात तस्य
सिद्धिः स्यान्नाऽत्र कार्या विचारणा ॥ ५४ ॥
मघा,
श्रवण विशेषकर रेवती नक्षत्र में,
सिंहराशि पर चन्द्रमा के रहने पर अथवा कर्क राशि के सूर्य
होने पर,
मीन राशि के बृहस्पति, वृश्चिक के शनि होने पर भक्तिभावपूर्वक साधक को तारा मन्त्र
लिख कर धारण करने से शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है,
इसमें विचार करने की आवश्यकता नहीं है ।।५३-५४ ॥
वादी मूकति
दूषकः स्तवयति क्षोणीपतिर्दासति
गर्वी खर्वति
सर्वविच्च जडति वैश्वानरः शीतति ।
आचाराद् भवसिद्धिरूपमपरं
सिद्धो भवेद् दुर्लभं
त्वां वन्दे
भव-भीति-मञ्जनकरीं नीलां गिरीश प्रियाम् ॥ ५५॥
तारा मन्त्र
को धारण करने से गर्वी का गर्व नष्ट हो जाता है, वह सर्ववेत्ता हो जाता है। उसके सामने वादी मूक हो जाते हैं,
निन्दा करने वाला स्तुति करने लगता है,
राजा लोग उसके दास हो जाते हैं,
अग्नि का भी तेज शान्त हो जाता है । तारा मन्त्र के
अनुष्ठान से संसार में शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है और प्रकार से सिद्ध होना
सर्वथा दुर्लभ है । मैं संसार के भय को मिटाने वाली महादेव की प्रिया ऐसी नीला को
नमस्कार करता हूँ ॥ ५५ ॥
इति तारा
रहस्ये नीलतन्त्रोक्तं परमरहस्यकमुग्रताराकवचं समाप्तम् ।
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