कालिका पुराण अध्याय ६५
कालिका पुराण
अध्याय ६५ में शारदा पूजन विधि का वर्णन है ।
कालिका पुराण अध्याय ६५
Kalika puran chapter 65
कालिकापुराणम् पञ्चषष्टितमोऽध्यायः शारदापूजनम्
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ६५
।।
श्रीभगवानुवाच ।।
शरत्काले पुरा
यस्मान्नवम्यां बोधिता सुरैः ।
शारदा सा
समाख्याता पीठे लोके च मानव ।। १ ।।
प्राचीनकाल
में देवी शरत्ऋतु में नवमी के दिन देवी-देवताओं द्वारा उद्बुद्ध की गईं,
इसी लिए मनुष्यलोक में एवं सिद्धक्षेत्रों में वे शारदा नाम
से प्रसिद्ध हुईं ॥ १॥
तस्यां तु
नेत्रबीजाख्यं मन्त्रं प्राक् प्रतिपादितम् ।
दुर्गातन्त्रं
च तन्मन्त्रमङ्गमन्त्रं पुरोदितम् ।
ताभ्यामेव तु
मन्त्राभ्यां पूजयेत् तां जगन्मयीम् ।।२।।
उनका नेत्रबीज
नामक मन्त्र पहले ही प्रतिपादित किया गया है। उनका दूसरा मन्त्र,
दुर्गातन्त्र के मन्त्रों में अङ्गमन्त्रों के रूप में इससे
पहले कहा जा चुका है। उन दोनों मन्त्रों से ही उस जगन्मयी का पूजन करना चाहिये ॥२॥
तृतीयं
पीठमन्त्रं तु शारदायाअनुत्तमम् ।
शृणुतं
चैकमनसा चतुर्वर्गप्रदायकम् ।।३।।
अब शारदा के
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष चारोंपुरुषार्थों को प्रदान करने वाले,
तीसरे पीठमन्त्र को एकाग्रमन से सुनो ॥ ३ ॥
चतुर्थस्वरसंयुक्तमुपान्तो
वह्निना युतः ।
कामराजं तथा
नान्तमुपान्तस्वरसंयुतम् ॥४॥
वह्निना चापि
सन्दीप्तः सर्वबिद्विन्दुसंयुतः ।
हादिः
समाप्तिसहित एतद्बीजं चतुर्थकम् ।। ५ ।।
चतुर्भिरभिः
कथितो मन्त्रोक्तैश्च षडक्षरैः ॥६॥
अयं तृतीयो
मन्त्रस्तु शारदायाः प्रकीर्तितः ।
अनेन पूजयेत्
पीठे सर्वसिद्धिमवाप्नुयात् ।।७।।
चतुर्थस्वर
(दीर्घ ईकार) युक्त उपान्तव्यञ्जन (ह) अग्नि (र्) से मिलकर ह्रीं कामराज (क्ली),
उपान्तस्वर से युक्त नान्त न के बाद आने वाला व्यञ्जन प वह्नि
(र) द्वारा सन्दीप्त (व्यक्त) तथा सभी चन्द्रबिन्दु समन्वित होकर समाप्ति (विसर्ग)
सहित पूर्ववर्ती वर्ण सः से बने चौथे बीज सः से मिलकर ह्रीं क्लीं प्रौं सः
यह चार अक्षरों वाला शारदा का तीसरा मन्त्र कहा गया है। इसमें यदि पीठ-पूजन किया
जाय तब पूजा करने वाला साधक, सभी सिद्धियों को प्राप्त करता है ॥४-७॥
रूपमस्याः
पुरा प्रोक्तं सिंहस्थंदशबाहुभिः ।
तत्र
पूजाक्रमं सम्यक् शृणुतं पुत्रकौ मम ॥८॥
हे मेरे दोनों
पुत्रों ! दशभुजाओं से युक्त हो, सिंह पर सवार, इस देवी के रूप का पहले ही वर्णन किया गया है। अब उनकी
पूजा-पद्धति को भलीभाँति मुझसे सुनो ॥८॥
चतुर्द्वारमण्डलं
तु कुर्यात् तत्र विभूतये ।
महामायामण्डलं
तु शारदायास्तु मण्डलम् ।। ९ ।।
वहाँ विभूति प्राप्ति
हेतु चार द्वारों वाला महामाया का मण्डल बनाना चाहिए। वही शारदा का भी मण्डल होता
है।।९॥
वैष्णवीतन्त्रकल्पोक्तैर्मन्त्रस्थानादिमार्जनम्
कृत्वा तु
नेत्रबीजेन मण्डलं प्रस्तरे लिखेत् ।। १० ।।
वैष्णवीतन्त्रकल्प
में वर्णितमन्त्रों से स्थानादि का मार्जन करके प्रस्तर पर नेत्रबीज से मण्डल
बनाये ॥ १० ॥
योनावष्टदलं
कृत्वा त्रिकोणं मध्यतो न्यसेत् ।
अयं विशेषः
कथितो वैष्णवीमण्डलात्पुनः ।। ११ ।।
योनिपीठ पर
अष्टदल बनाकर मध्य में त्रिकोण बनाये। वैष्णवीमण्डल से यही विशेष बात इस सम्बन्ध
में कही गई है ॥ ११ ॥
मण्डलोल्लेखनं
चैव तथा भूतापसारणम् ।
पात्रस्य
प्रतिपत्तिस्तु अमृतीकरणं तथा ।। १२ ।।
गन्धपुष्पाम्भसांक्षेप
आत्मासनप्रपूजनम् ।
प्राणायामश्च
त्रिविधो भूतिशुद्धिप्रवेशनम् ।। १३ ।।
दहनप्लवने चैव
पाणिकच्छपिका तथा ।
योगपीठस्य च
ध्यानं वैष्णवीतन्त्र भाषितम् ।। १४ ।।
इस सम्बन्ध
में मण्डल रचना, भूतों का अपसारण, पात्रों की प्रतिपत्ति, (स्थापना), अमृतीकरण, गन्धपुष्पादि का जल में डालना,
अपने आसन का पूजन तीन प्रकार के प्राणायाम,
भूतशुद्धि, पूजागृह में प्रवेश, दहन, प्लवन पाणिकच्छपिकामुद्रा का प्रदर्शन,
योगपीठ का ध्यान, यह सब वैष्णवीतन्त्र में ही बताया गया है । । १२-१४।।
तथैवोत्तरतन्त्रोक्तं
कुर्याद् देव्याः प्रपूजनम् ।
अमृतीकरणं
कुर्यात् सलिले धेनुमुद्रया ।। १५ ।।
तब
उत्तरतन्त्र में वर्णित रीति से देवी का विशिष्ट पूजन करे और धेनुमुद्रा से जल में
अमृतीकरण करे ।। १५ ।।
रूपं त्वेवं
दशभुजं पूर्वोक्तं तु विचिन्तयेत् ।
अङ्गन्यासकरन्यासौ
दुर्गातन्त्रेण भैरव ।। १६ ।।
हे भैरव !
पहले बताये हुए देवी के दशभुजारूप का ही ध्यान करे एवं दुर्गातन्त्र के अनुसार
अङ्गन्यास और करन्यास सम्पन्न करे ॥ १६ ॥
नवाक्षरेण वै
कुर्यादङ्गुष्ठादि क्रमेण तु ।
हृदयादिक्रमात्
पश्चाद् वक्त्रादावपि पूर्ववत् ।। १७ ।।
पहले की भाँति
ही नवाक्षरमन्त्र से क्रमशः अङ्गुष्ठादिक्रम से करन्यास तत्पश्चात् हृदयादिक्रम से
अङ्गन्यास एवं वक्त्रादि के क्रम से भी अङ्गन्यास करे ॥१७॥
एतदेवार्धपात्रे
चाष्टधा मन्त्रं जपेत् सुधीः ।
तत् तोयैः
सेचयेच्छीर्षं पुष्पगन्धादिकं तथा ।। १८ ।।
इसी भाँति
सुधी साधक, अर्धपात्र पर आठ प्रकार से मन्त्र जप कर उस अभिमन्त्रित जल से अपने सिर और
पुष्प गन्ध आदि पूजन सामग्री का सिंचन करे ॥
१८ ॥
एवं पूजाक्रमं
तत्र कुर्याद् देव्यास्तु मण्डले ।
आदित्यं
चण्डिकारूपं ध्यात्वा पूर्वं शिलातले ।। १९ ।।
तस्मै
निवेदयेदर्घ्यं सिद्धार्थाक्षतपुष्पकैः ।
आधारशक्तिप्रभृतीन्
क्लीं मन्त्रेण च साधकः ।।२०।।
साधक इस
प्रकार के पूजनक्रम में देवी का मण्डल बनाकर पूर्व में स्थित,
शिलातल पर, सूर्य का चण्डिकारूप में ध्यान करते हुए,
उन्हें सरसो पुष्प अक्षत से अर्घ्य प्रदान करे। वह मण्डल पर
आधारशक्ति आदि का पूजन भी क्लीं मन्त्र से करे ।।१९-२०।
पूजयेत्
प्रथमं मध्ये धर्मादीनपि पूर्ववत् ।
सत्त्वादीन्
गुरुपादान्तान् पूर्वतन्त्रोदितान् बुधः ।। २१ ।।
सर्वप्रथम मण्डल
के मध्य में विद्वान् साधक पहले के तन्त्रों में बताये विधान के अनुसार,
धर्म आदि, सत्त्व आदि और गुरुपादान्त (गुरुमण्डल) आदि का पूजन करे ।।
२१ ।।
पूजयेन्मध्यपद्मे
तु सुमेरुमपि मध्यतः ।
पूर्वभागे
मण्डलस्य देव्याः शक्तीः प्रपूजयेत् ।। २२।।
मण्डल के
मध्यवर्ती कमल के मध्य में पहले सुमेरु का पूजन करे और तब मण्डल के पूर्वभाग में
देवी की शक्तियों का भली-भाँति पूजन करे ॥ २२॥
नाथकामेश्वरादींस्तु
लौहित्यान्तान् विशेषतः ।
सर्वान् वै
पीठदेवांस्तु मण्हलस्योत्तरे यजेत् ।। २३ ।।
कामेश्वरनाथ
से प्रारम्भ कर लौहित्य पर्यन्त सभी पीठ देवों का मण्डल के उत्तरीभाग में यजन
(पूजन) करे॥२३॥
मणिकर्ण
चित्ररथं भस्मकूटं तथैव च ।
श्वेतं नीलं च
चित्रं च वाराहं गन्धमादनम् ।
मणिकूटं
नन्दनं च पश्चिमे पूजयेदिमान् ।। २४ ।।
मणिकर्ण,
चित्ररथ, भस्मकूट, श्वेत, नील, चित्र, वाराह, गन्धमादन, मणिकूट, नन्दन का पश्चिमी भाग में पूजन करे ॥२४॥
जल्पीशमथ
केदारं देवीं दिक्करवासिनीम् ।। २५ ।।
धात्री स्वधां
तथा स्वाहां मानस्तोकापराजिते ।
दक्षिणे
पूजयेद्देताश्चतुःषष्टिं च योगिनीः ।। २६ ।।
ग्रहांश्च
दशदिक्पालान् पूर्वाद्युक्तक्रमेण तु ।
पूर्ववत्
पूजयेद् धीमान् भैरवं भैरवीमपि ।। २७ ।।
जल्पीश,
केदार, देवीदिक्करवासिनी, धात्री, स्वधा, स्वाहा, मानस्तोका, अपराजिता का दक्षिणभाग में पूजन करे। वह चौसठ योगिनियों,
ग्रहों और दशदिक्पालों का भी पूर्व आदि वर्णितक्रम से,
पहले ही की भाँति पूजन करे तथा भैरव और भैरवी का भी पूजन
करे ।। २५-२७॥
ततः कच्छपिकां
बद्ध्वा पुनरेव तु पूजकः ।
ध्यायेच्च
पूर्ववद् देवीं हृदिस्थां मनसापि च ।। २८ ।।
तब कच्छपिका
(कूर्म मुद्रा) को बाँधकर पूजक, पुन: पहले ही की भाँति अपने हृदय में स्थित देवी का,
मन में ध्यान करे ॥ २८ ॥
मानसैर्गन्धपुष्पाद्यैः
पूजयित्वा हृदिस्थिताम् ।
नासापुटेन निःसार्य
दक्षिणेनाथ मण्डले ।
पुष्पमारोप्य
कामाख्यां शारदामाह्वयेन्मुहुः ।। २९।।
मानसिक
गन्धपुष्पादि से हृदय में स्थित देवी का पूजन कर, दाहिने नासा - पुट से देवी को निकाल कर,
मण्डल में रखे पुष्प पर कामाख्या,
शारदा का आह्वान करे ॥ २९ ॥
कालिका पुराण अध्याय ६५- आवाहनमन्त्र
एह्येहि परमेशानि
सान्निध्यमिह कल्पय ।
पूजाभागं
गृहाणेमं मखं रक्ष नमोऽस्तुते ।। ३० ।।
दुर्गे दुर्गे
इहागच्छ सर्वैः परिकरैः सह ।
पूजाभागं
गृहाणेमं मखंरक्ष नमोऽस्तुते ।। ३१ ।।
मन्त्रार्थ - हे परमेशानि! आप पधारिये पधारिये। आप यहाँ सान्निध्य
कीजिये । आप पूजा के भाग को ग्रहण कीजिये, इस यज्ञ की रक्षा कीजिए, आपको नमस्कार है। दुर्गे! हे दुर्गे ! आप अपने सभी अनुचरों सहित,
यहाँ आइये और अपना पूजा- भाग ग्रहण कीजिए,
इस यज्ञ की रक्षा कीजिए, आपको नमस्कार है ।। ३०-३१।।
नारायण्यै
विद्महे त्वां चण्डिकायै तु धीमहि ।
शेषभागे तु
गायत्र्यास्तन्नश्चण्डि प्रचोदयात् ।। ३२ ।।
नारायण्यै
विद्महे त्वां चण्डिकायै तु धीमहि तन्नश्चण्डि प्रचोदयात ।
मन्त्रार्थ- मैं नारायणी को जानता हूँ, तुम चण्डिका का ध्यान करता हूँ तथा अन्त में वह चण्डि हमें
प्रेरित करे ॥ ३२ ॥
दत्त्वा स्नानमनेनैव
दुर्गातन्त्रेण वै पुनः ।। ३३ ।।
नेत्रबीजेन च
तथा पीठमन्त्रेण चान्तरम् ।
चतुरक्षरेण शेषेण
त्रिभिर्मन्त्रैः प्रपूजयेत् ।। ३४।।
इस गायत्री से
या दुर्गातन्त्र से स्नान अर्पित कर, नेत्रबीज से या पीठमन्त्र से, शेष चतुरक्षर से या शेष के तीन मन्त्रों से पूजन करे ।।
३३-३४ ॥
चतुरक्षरमन्त्रेण
पाद्यादीनंथ षोडश ।
वितरेदुपचारांस्तु
पूर्वोक्तांस्तांस्तु भैरव ।। ३५ ।।
हे भैरव !
देवी को पहले बताये हुए पाद्यादि षोडशोपचार चतुरक्षरमन्त्र से अर्पित करे ॥
३५ ॥
दुर्गातन्त्रेण
मन्त्रेण देव्यङ्गानि प्रपूजयेत् ।
दुर्गेत्यनेन हृदयं
पुनर्दुर्गेत्यनेन च ।। ३६ ।।
शिखाकवचनेत्रांश्च
पादपादांश्च पञ्चभिः ।
वादिपञ्चाक्षरैः
शेषैः पूजयेत् क्रमतः सुधीः ।। ३७।।
दुर्गातन्त्र
के मन्त्रों से देवी के अङ्गों का पूजन करे। सुधी साधक,
दुर्गा इस मन्त्र से हृदय, शिखा, कवच, नेत्र, पैर आदि पाँच अङ्गों का एवं आदि पाँच अक्षरों सहित क्रमशः
पूजन करे ।। ३६-३७।।
पूर्वाद्यष्टदलेष्वेताः
पूजयेन्नाधिकक्रमात् ।
जयन्ती
पूर्वपत्रे तु आग्नेय्यादौ तु मङ्गलाम् ।। ३८ ।।
काली च
भद्रकालीं च तथा चैव कपालिनीम् ।
दुर्गां शिवां
क्षमां चैव क्रमादेव तु नामतः ।। ३९ ।।
अष्टदलकमल के
पूर्व आदि आठ दिशाओं में स्थित दलों में क्रमशः जयन्ती का पूर्वदिशा में स्थित दल
में,
मङ्गला का आग्नेयकोण के दल में इसी क्रम में काली,
भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, शिवा, क्षमा आदि का नामोच्चार करते हुए सम्बद्ध दिशाओं में पूजन
करे ।। ३८-३९ ॥
केशरस्य तु
मध्ये तु अष्टावेतास्तु नायिकाः ।
नेत्रबीजस्य
मध्येन बीजेन षट्सु नायिकाः ॥४० ॥
अमीषां च
तथैवासौ षड्भिरेतान्तराहितैः ।
ह्राঁ ह्राঁ
श्रीमित्युपान्तां तु प्रान्तामाद्यस्वरेण वै ।। ४१ ।।
उग्रचण्डां
प्रचण्डां च चण्डोग्रां चण्डनायिकाम् ।
चण्डां
चण्डवतीं चैव
चण्डरूपां च चण्डिकाम् ।।४२।।
केशर के मध्य
में उग्रचण्डा, प्रचण्डा, चण्डोग्रा, चण्डनायिका, चण्डा, चण्डवती, चण्डरूपा तथा चण्डिका इन आठ नायिकाओं का पूजन करना चाहिए। इनका नेत्रबीज के मध्यबीज
से पूजन करना चाहिए । नेत्रबीज के मध्यबीज, ह्राঁ,
ह्राঁ, श्रीं,
ऐं, आद्य स्वर सहित उपान्त ह और प्रान्त क्ष के उच्चारण के सहित
पूजन करे।।४०-४२॥
त्रिकोणकेशरान्तं
तु कामं प्रीतिं रतिं तथा ।
पञ्चबाणान्
पुष्पधनुः पूजयेत् काममन्त्रकैः ।।४३ ।।
त्रिकोणकेशर
(अष्टदल के मध्यभाग) के अन्तर्गत काम, प्रीति, रति पञ्चबाणों एवं पुष्पधनुष का काम के मन्त्रों से पूजन
करे ॥४३॥
अष्टपुष्पिका
पश्चात् सम्पूज्य परमेश्वरीम् ।
देव्यास्तु
करगृह्याणि शस्त्राण्यङ्गानि वाहनम् ।
पञ्चाननं केशरं च देव्यग्रे तु प्रपूजयेत् ।। ४४ ।।
तत्पश्चात्
अष्टपुष्पिका से परमेश्वरी का पूजन करके देवी के हाथों में ग्रहण किये शस्त्रों,
देवी के अङ्गों, सिंह-वाहन और केशर का देवी के अगलेभाग में पूजन करे ॥ ४४ ॥
पीठदेवीं
शारदां तु कामाख्यामधिदेवताम् ।। ४५ ।।
त्रिपुराख्यां
महादेवीं पीठमत्यधिदेवताम् ।
कामेश्वरी
महोत्साहां मध्य एव प्रपूजयेत् ।। ४६ ।।
पीठ की
अधिष्ठात्रीदेवी शारदा और अधिदेवता कामाख्या पीठ की अत्यधि- देवता,
महादेवी त्रिपुरा एवं कामेश्वरी तथा महोत्साहा देवियों का
भी पीठ के मध्य में ही पूजन करे। ४५-४६॥
चतुरक्षरमन्त्रेण
दद्यात् पुष्पाञ्जलित्रयम् ।
जप्त्वा
स्तुत्वा बलिं दत्त्वा नमस्कृत्यावगुण्ठ्य च ।। ४७ ।।
योनिमुद्रां
प्रदर्श्याथ निर्माल्यं दिशि शूलिनः ।
चण्डेश्वर्यै नम
इति निक्षिप्य च विसर्जयेत् ।। ४८ ।।
चतुरक्षरमन्त्र
से तीन पुष्पाञ्जलि देनी चाहिये तब जप, स्तुति, बलिप्रदान, नमस्कार, अवगुण्ठन, निमुद्राप्रदर्शन, शूली की दिशा (ईशानकोण) में, चण्डेश्वरी को चण्डेश्वर्यै नमः इस मन्त्र से,
निर्माल्यप्रदान कर विसर्जित करे ।।४७-४८ ।।
ततस्तु
भास्करायार्घ्यं दद्याच्छिद्रावधारणम् ।
देवीं च हृदये
स्थाप्य स्थापयेद् योनिमण्डले ।। ४९ ।।
तब पूजा के
दोषों को दूर करने के लिए सूर्य को अर्घ्य प्रदान करे और देवी को पहले हृदय में
स्थापित कर पुनः योनिमण्डल में स्थापित करे ।। ४९ ।।
एवं देवीं तु
कामाख्यां योनिमुद्रां जगन्मयीम् ।
शारदाख्यां
महादेवी योगेन विधिना यजेत् ।
सर्वकामान्
सुसम्प्राप्यशिवलोकमवाप्नुयात् ।। ५० ।।
इस प्रकार
(ऊपर वर्णित रीति से) जगत्स्वरूपा, योनिमुद्रारूप कामाख्या एवं जो स्वयं महादेवी शारदा हैं,
उनका मनोयोगपूर्वक, विधि के सहित, यजन करे। ऐसा करने से साधक सभी कामनाओं को भली-भाँति
प्राप्त कर, शिवलोक को पाता है ।।५०।।
यदि पीठं
विनान्यत्र पूजयेत् कामरूपिणीम् ।
नीलकूटे तदाप्येतत् सर्वमेव समाचरेत् ।। ५१ ।।
यदि पीठ के
बिना,
अन्यस्थान पर कामरूपिणीदेवी कामाख्या का नीलकूट पर भी पूजन
करे तो भी यही सब कुछ करना चाहिये ।। ५१ ।।
यदान्यत्र
यजेद् देवीं जले वा स्थण्डिलेऽपि वा ।
शिलादिषु च
वह्नौ वा देवपीठे यथेच्छया ।। ५२ ।।
यजेद् वा न
यजेद् वापि पीठेऽवश्यं प्रपूजयेत् ।। ५३ ।।
जब अन्यत्र,
जल, वेदी, शिला, अग्नि, देवपीठ आदि में पूजन करना हो तो इच्छानुसार करे या न करे
किन्तु पीठ में अवश्य करना चाहिये ।।५२-५३ ।।
एवं यः
पञ्चभिर्मन्त्रैः पञ्चमूर्तिधरां शिवाम् ।
एकैकेनाथ वा
तस्य स्वयं स्याद् वरदायिका ।।५४।।
इस प्रकार
पाँच मन्त्रों से पाँचरूपधारण करने वाली देवी का जो साधक एक साथ या एक-एक मन्त्रों
से एक-एक रुप में पूजन करता है, वह स्वयं उसको वरदान देने वाली होती हैं ।। ५४ ।।
विघ्ना न तस्य
जायन्ते नाधयो व्याधयस्तथा ।
न तस्य
सदृशोऽन्यः स्याद् धनधान्यसमृद्धिभिः ॥५५॥
उसे कोई विघ्न
नहीं होते, न किसी प्रकार की शारीरिक या मानसिक व्याधियाँ ही होती हैं। उसके समान अन्य
कोई धन-धान्य से समृद्ध नहीं होता ॥५५॥
गवां
कोटिप्रदानात् तु यत्फलं जायते नृणाम् ।
तत्फलं
समवाप्नोति कामाख्यां पूजयन्नरः ।।५६ ।।
करोड़ों गोदान
करने से मनुष्यों को जो फल प्राप्त होता है, साधक वही फल, कामाख्या के पूजन से प्राप्त कर लेता है ॥ ५६ ॥
दशपूर्वान् दशापरान्
वंशानुद्धृत्य पापतः ।
सकृत्
सम्पूजनेनैव ममलोकमवाप्नुयात् ।। ५७।।
भली-भाँति एक
बार ही पूजन करने मात्र से साधक, अपने से दश पहले तथा दश बाद की पीढ़ियों का पाप से उद्धार
कर,
मेरे लोक को प्राप्त करता है ॥ ५७ ॥
द्विः
सम्पूज्य महादेवीं कामाख्यां योनिमण्डले ।
शतं वंशान्
समुद्धृत्य देवीलोकमवाप्नुयात् ।। ५८ ।।
दो बार
महादेवी कामाख्या का योनिमण्डल में पूजन कर साधक अपने सौ वंशों का उद्धार कर,
देवीलोक को प्राप्त करता है ।। ५८ ।।
यत्रिवारं
पूजयेत् तु विधिनानेन मानवः ।
नीलपर्वतमारुह्य
कामाख्यां योनिमण्डले ।। ५९ ।।
स सहस्रं तु
वंशानामुद्धृत्य पापकोषतः ।
इहलोके सुखैश्वर्यचिरायुष्यमवाप्नुयात्
।
देहान्ते
मद्गृहं प्राप्य गणानामधिपो भवेत् ।। ६० ।।
जो मनुष्य
नीलपर्वत पहुँच कर योनिमण्डल में कामाख्या देवी का इस विधि से तीन बार पूजन करता
है,
वह पाप के कोष (समूह) से हजार वंशों (पीढ़ियों) का उद्धार
कर,
इस लोक में सुख, ऐश्वर्य, चिरायुष्य को प्राप्त करता है तथा देहान्त के पश्चात् मेरे
धाम को प्राप्त कर, गणों का स्वामी होता है ।। ५९-६० ।।
यस्यां
कस्यामथाष्टम्यां नवम्यां वापि साधकः ।
पञ्चरूपां तु
कामाख्यां पञ्चमन्त्रैः सतन्त्रकैः ।। ६१ ।।
पूजयेद् वरदां
देवीं मण्डलैश्च पृथक् पृथक् ।
ध्यात्वा तु
पञ्चरूपाणि जप्त्वा मन्त्रांश्च पञ्च वै ।।६२।।
जिस किसी
अष्टमी या नवमी को भी साधक पाँचरूपोंवाली, वरदा कामाख्या का, पाँच मन्त्रों और तन्त्रों से अलग-अलग मण्डलों द्वारा,
पाँचरूपों के ध्यान और पाँच मन्त्रों के जपसहित पूजन करे
।।६१-६२ ।।
कल्पकोटिसहस्राणि
मम लोके च मानवः ।
स्थित्वा देवीप्रसादेन
परे निर्वाणमाप्नुयात् ।। ६३ ।।
तो वह मनुष्य
देवी की कृपा से हजारों करोड़, कल्पों तक मेरे लोक में स्थित होकर अन्त में निर्वाण को
प्राप्त करता है ।। ६३॥
इह लोके
वाञ्छितार्थं सुखं प्राप्य यशस्तथा ।
रिपूञ्जित्वा
स धर्मात्मा मातङ्गानिव केसरी ।। ६४ ।।
चिरायुः
पुत्रपौत्रैश्च विभवैश्च समन्वितः ।
क्रीडयित्वा ह्यमरवद्
युवतीभिश्च सादरात् ।।६५।।
वह इस लोक में
इच्छित सुख, यश को प्राप्त कर, जिस प्रकार सिंह हाथियों को नष्ट कर देता है,
उसी प्रकार अपने शत्रुओं को जीतकर उनका नाश कर,
दीर्घायु और पुत्र-पौत्र, वैभव से युक्त होता है। वह देवताओं की भाँति युवतियों के
साथ आदरपूर्वक, क्रीड़ा (विहार) करता है ।। ६४-६५ ।
यक्षरक्षः
पिशाचानां नेता भवति नित्यशः ।
सर्वान्
कामानवाप्यैव द्विजराजसमो भवेत् ।। ६६।।
वह नित्य
यक्ष-राक्षस पिशाचों का नेतृत्व करता तथा अपनी समस्त कामनाओं को प्राप्त कर,
चन्द्रमा के समान यशस्वी होता है ॥६६ ॥
इति
श्रीकालिकापुराणे शारदापूजननाम पञ्चषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६५ ॥
श्रीकालिकापुराण
में शारदापूजननामक पैंसठवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥६५॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 66
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