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कालिका पुराण अध्याय ६६

कालिका पुराण अध्याय ६६                      

कालिका पुराण अध्याय ६६ में देवी के नमस्कार और मुद्रा का वर्णन है ।

कालिका पुराण अध्याय ६६

कालिका पुराण अध्याय ६६                                        

Kalika puran chapter 66

कालिकापुराणम् षट्षष्टितमोऽध्यायः मुद्राकथनम्

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ६६                         

।। और्व उवाच ।

एतत्तन्त्रं समस्तं तु श्रुत्वा वेतालभैरवौ ।

पप्रच्छतुस्त्र्यम्बकं च हर्षोत्फुल्लविलोचनौ ।। १ ।।

और्व बोले- इस समस्त तन्त्र को सुनकर प्रसन्नता से खिले हुए नेत्रोंवाले, वेताल और भैरव ने त्रयम्बक, शिव से विशेषरूप से पूछा ॥ १ ॥

।। वेतालभैरवावूचतुः ।।

कामाख्यायाः श्रुतं तन्त्रं साङ्गं युष्मत्प्रसादतः ।

नमस्कारं तथा मुद्रां बलिदानं तथैव च ।।२।।

तथैव मातृकान्यासं पूजायां चान्यतः क्रमम् ।

एतत् सर्वं समाचक्ष्व विस्तरेण जगत्प्रभो ।

शृण्वतो नहि नौ तृप्तिर्जायते मोदभूमिषु ।। ३ ।।

वेतालभैरव बोले-हे जगत् के स्वामी ! आपकी कृपा से अङ्गादि के सहित कामाख्या के तन्त्र (पूजा-विधान) को हम दोनों ने सुना है। अब देवी के नमस्कार, मुद्रा, बलिदान, मातृकान्यास, और भी जो पूजाविधान हैं, उन सबको आप हमसे विस्तारपूर्वक कहिये क्योंकि आपके कथन को सुनकर हम दोनों के मोदभूमि (चित्त) को तृप्ति नहीं हो रही है ॥ २-३ ॥

।। श्रीभगवानुवाच ।।

वक्ष्यामि यदहं पृष्टो भवद्भ्यां पुत्रकोत्तमौ ।

शृणुतं नरशार्दूलावेकाग्रमनसाधुना ।।४।।

श्रीभगवान बोले- हे मनुष्यों में सिंह के समान श्रेष्ठ जनों ! हे मेरे उत्तम पुत्रों ! तुम दोनों ने जो मुझसे पूछा है, वह मैं अब कहूँगा, उसे ध्यानपूर्वक सुनो ॥४॥

।। कालिका पुराण अध्याय ६६- नमस्कारवर्णन ।।

त्रिकोणमथ षट्कोणमर्धचन्द्रं प्रदक्षिणम् ।

दण्डमष्टाङ्गमुग्रं च सप्तधा नतिलक्षणम् ।।५।।

त्रिकोण, षट्कोण, अर्धचन्द्राकार, प्रदक्षिणा, वृत्ताकार, दण्ड (दण्ड के समान लम्बा), अष्टांग ये सात प्रकार के, प्रणाम के लक्षण बताये गये हैं ।। ५ ॥

।। त्रिकोणादि नमस्कार ।।

ऐशानी वाथ कौवेरी दिक् कामाख्याप्रपूजने ।

प्रशस्ता स्थण्डिलादौ च सर्वमूर्तेश्च सर्वतः ।। ६ ।।

त्रिकोणादिव्यवस्था तु यदि पूर्वमुखो यजेत् ।

पश्चिमाच्चछाम्भवीं गत्वा व्यवस्थां निर्दिशेत् तदा ।।७।।

कामाख्यापूजन में देवी के सभी रूपों के लिए ऐशानी या कौबेरी (उत्तरदिशा) में वेदिका प्रशस्त कही गई है। यदि पूर्वमुख हो पूजन करना हो तो त्रिकोण नमस्कार की व्यवस्था हेतु पश्चिम से शाम्भवीदिशा (ईशान) में जाकर व्यवस्था का निर्देश करे।। ६-७ ।।

यदोत्तरामुखः कुर्यात् साधको देवपूजनम् ।

तदा याम्यात् तु वायव्यां गत्वा कुर्यात् तु संस्थितिम् ।।८।।

जब साधक उत्तराभिमुख हो देवपूजन करे तो दक्षिण से वायव्यकोण में जाकर स्थिति करे॥ ८ ॥

दक्षिणाद् वायवीं गत्वा दिशं तस्माच्च शाम्भवीम् ।

ततोऽपि दक्षिणां गत्वा नमस्कारस्त्रिकोणवत् ।

त्रिकोणाख्यो नमस्कारस्त्रिपुराप्रीतिदायक: ।।९।।

दक्षिण से वायव्यकोण में जाकर वायव्यकोण से शाम्भवीदिशा, ईशानकोण में जाने के पश्चात् पुनः दक्षिण दिशा में जाने पर त्रिकोण की तरह नमस्कार मुद्रा बनती है । यह त्रिकोण नामक नमस्कार, त्रिपुरा को बहुत अधिक प्रसन्नता देने वाला है ॥ ९ ॥

।। षट्कोणनमस्कार ।।

दक्षिणाद्ं. वायवीं गत्वावायव्याच्छाम्भवीं ततः ।। १० ।।

ततोऽपि दक्षिणां गत्वा तां त्यक्त्वाग्नौ प्रविश्य च ।

अग्नितो राक्षसीं गत्वा तत्पश्चादुत्तरां दिशम् ।। ११ ।।

उत्तराच्च तथाग्नेयीं भ्रमणं द्वित्रिकोणवत् ।

षट्कोणोऽयं नमस्कारः प्रीतिदः शिवदुर्गयोः ।।१२।।

दक्षिण से वायव्यकोण में। वायव्यकोण से ईशानकोण, वहाँ से अग्निकोण में प्रवेश करने के पश्चात् दक्षिण जाकर अग्निकोण से प्रारम्भ कर राक्षसी दिशा (नैर्ऋत्यकोण) में जाकर फिर उत्तरदिशा एवं वहाँ से पुनः घूमकर आग्नेयदिशा में आने पर द्वित्रिकोण की भाँति भ्रमण हो जाता है। इस प्रकार का यह षट्कोण नमस्कार शिव और दुर्गा को प्रीतिप्रदान करने वाला है ।। १०-१२ ॥

।। अर्द्धचन्द्रनमस्कार ।।

दक्षिणाद् वायवीं गत्वा तस्मादावृत्य दक्षिणम् ।

गत्वा योऽसौ नमस्कारः सोऽर्धचन्द्रः प्रकीर्तितः ।। १३ ॥

दक्षिण से वायवीदिशा (वायव्यकोण) में जाकर तपश्चात् पुनः आवृत्ति कर दक्षिण में जाने से जो नमस्कार होता है। उसे अर्धचन्द्रनमस्कार कहते हैं ॥ १३ ॥

।। प्रदक्षिणानमस्कार ।।

सकृत् प्रदक्षिणं कृत्वा वर्तुलाकृति साधकः ।

नमस्कारः कथ्यतेऽसौ प्रदक्षिण इति द्विजैः ।।१४।।

एक बार वृत्ताकार प्रदक्षिणा कर, साधक जो नमस्कार पूर्ण करता है, उसे द्विज-जातियों द्वारा प्रदक्षिणा कहा जाता है ॥ १४ ॥

।। दण्डनमस्कार ।।

त्यक्त्वा स्वमासनस्थानं पश्चाद् दुर्गानमस्कृतिः ।

प्रदक्षिणं विना यातु निपत्य भुवि दण्डवत् ।

दण्ड इत्युच्यते देवैः सर्वदेवौघमोददः ।। १५ ।।

अपना आसन स्थान छोड़ने के पश्चात् पृथ्वी पर दण्ड की भाँति गिरकर बिना प्रदक्षिणा किये जो दुर्गा (देवी) को प्रणाम किया जाता है । उसे देवताओं द्वारा दण्ड कहा जाता है तथा वह सभी देवताओं के समूह को प्रसन्नता प्रदान करने वाला कहा जाता है ॥ १५ ॥

।। अष्टाङ्गनमस्कार ।।

पूर्ववद् दण्डवद् भूमौ निपत्य हृदयेन तु ।

चिबुकेन मुखेनाथ नासया हनुकेन च ।। १६ ।।

ब्रह्मरन्ध्रेण कर्णाभ्यां यद्भूमिस्पर्शनं क्रमात् ।

स चाष्टाङ्ग इति प्रोक्तो नमस्कारो मनीषिभिः ।। १७ ।।

पहले की भाँति दण्ड के समान पृथ्वी पर गिरकर, हृदय, ठुड्डी, मुख, दाढ़ी, नाक, ब्रह्मरन्ध्र और दोनों कानों से क्रमशः जो भूमि का स्पर्श किया जाता है, उस नमस्कार को मनीषियों द्वारा अष्टाङ्ग नमस्कार कहा गया है ।।१६-१७।।

।। उग्रनमस्कार ।।

प्रदक्षिणत्रयं कृत्वा साधको वर्तुलाकृतिः ।। १८ ।।

ब्रह्मरन्ध्रेण संस्पर्शः क्षितेर्यस्मान्नमस्कृतौ ।

स उग्र इति देवौघैरुच्यते विष्णुतुष्टिदः ।। १९ ।।

साधक जब वृत्ताकार तीन प्रदक्षिणायें करके, ब्रह्मरन्ध्र से पृथ्वी का स्पर्श कर नमस्कार करता है तो उसे देवसमूह द्वारा उग्रनमस्कार कहा जाता है और वह, विष्णु को सन्तोष प्रदान करने वाला है ।।१८-१९।।

नदानां सागरो यद्वद् द्विपदां ब्राह्मणो यथा ।

नदीनां जाह्नवी यादृग् देवानामपि चक्रधृक् ।

नमस्कारेषु सर्वेषु तथैवोग्रः प्रशस्यते ।। २० ।।

जिस प्रकार नदों में सागर, द्विपदों (मनुष्यों) में ब्राह्मण, नदियों में गङ्गा, देवताओं में चक्र को धारण करने वाले भगवान विष्णु श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार सभी भाँति के नमस्कारों में उग्रनमस्कार प्रशंसनीय है ॥२०॥

त्रिकोणाद्यैर्नमस्कारैः कृतैरेव तु भक्तितः ।

चतुर्वर्गं लभेद् भक्तो नचिरादेव साधकः ।। २१ ।।

त्रिकोणादि नमस्कारों को भक्तिपूर्वक करके साधक भक्त, शीघ्र चतुर्वर्ग (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) को प्राप्त कर लेता है ॥ २१ ॥

नमस्कारो महायज्ञः प्रीतिदः सर्वतः सदा ।

सर्वेषामेव देवानामन्येषामपि भैरव ।। २२।।

हे भैरव ! नमस्कार एक महान यज्ञ है, जो सब प्रकार से सभी देवताओं को और अन्यों को भी प्रसन्नता प्रदान करने वाला है ।। २२ ।।

योऽसावुग्रो नमस्कारः प्रीतिदः सततो हरेः ।

महामायाप्रीतिकरः स नमस्करणोत्तमः ।। २३ ।।

इनमें जो उग्र नामक नमस्कार है, वह सदैव भगवान विष्णु को निरन्तर प्रसन्नताप्रदान करने वाला है तथा वह महामाया को भी प्रसन्नता देने वाली नमस्कार की भी उत्तमप्रक्रिया है ॥२३॥

।। कालिका पुराण अध्याय ६६- मुद्रावर्णनम् ।

उक्तास्तत्र नमस्काराः शृणुतं परतो युवाम् ।

मुद्राणां परिसङ्ख्यानं स्वरूपं च यथाक्रमम् ।। २४ ।।

धेनुश्च सम्पुटश्चैव प्राञ्जलिर्बिल्वपद्मकौ ।

नाराचो मुण्डदण्डौ च योनिरर्धं तथैव च ।। २५ ।।

वन्दनी च महामुद्रा महायोनिस्तथैव च ।

भगश्च पुटकश्चैव निषङ्गोथाऽर्धचन्द्रकः ।। २६ ।।

अङ्गश्च द्विमुखं चैव शङ्खमुद्रा च मुष्टिकः ।

वज्रं चैव तथा रन्ध्रं षड्योनिर्विमलं तथा ।। २७ ।।

घटः शिखरिणीतुङ्गः पुण्ड्रोऽथ ह्यर्धपुण्ड्रकः ।

सम्मिलनी च कुण्डश्च चक्रं शूलं तथैव च ।। २८ ।।

सिंहवक्त्रं गोमुखं च प्रोन्नामोन्नमनं तथा ।

बिम्बं पाशुपतं शुद्धं त्यागोऽथोत्सारिणी तथा ।। २९ ।।

प्रसारिणी चोग्रमुद्रा कुण्डलीव्यूह एव च ।

त्रिमुखा चासिवल्ली च योगो भेदोऽथ मोहनम् ।। ३० ।।

बाणो धनुश्च तूणीरं मुद्रा एताश्च सत्तमाः ।

अष्टोत्तरशतं मुद्रा ब्रह्मणा या: प्रकीर्तिताः ।। ३१ ॥

तासां तु पञ्चपञ्चाशदेता ग्राह्यास्तु पूजने ।। ३२ ।।

मैंने नमस्कार के सम्बन्ध में कह दिया, अब तुम दोनों आगे क्रमशः मुद्राओं की संख्या एवं उनके स्वरूप सुनो-

१. धेनु, २. सम्पुट ३. प्राञ्जलि ४. बिल्व ५. पद्मक ६. नाराच ७. मुण्ड ८. दण्ड ९. योनि १०. अर्ध ११. वन्दनी १२. महामुद्रा १३. महायोनि १४. निषङ्ग १५. अर्धचन्द्रक १६. भग १७. पुटक १८. अङ्गं १९. द्विमुख २०. शङ्ख- मुद्रा २१. मुष्टिक २२. वज्र २३ रन्ध्र २४ षड्योनि २५. विमल २६. घट २७. शिखरिणी २८. तुङ्ग २९. पुण्ड्र ३०. अर्धपुण्ड्र ३९. सम्मिलिनी ३२. कुण्ड ३३. चक्र ३४. शूल ३५. सिंहवक्त्र ३६. गोमुख ३७. प्रोन्नाम ३८. उन्नमन ३९. बिम्ब ४०. पाशुपत ४१. शुद्ध ४२ . त्याग ४३. उत्सारिणी ४४. प्रसारिणी ४५. उग्रमुद्रा ४६. कुण्डली ४७. व्यूह ४८. त्रिमुखा ४९. असिवल्ली ५०. योग ५१. भेद ५२. मोहन ५३. बाण ५४. धनुष ५५. तूणीर, ब्रह्माजी द्वारा बताई हुई १०८ मुद्राओं में ये ५५ श्रेष्ठ मुद्रायें, पूजा में ग्रहण करने योग्य हैं ॥ २४-३२ ॥

शेषास्तु यस्त्रिपञ्चाशन्मुद्रास्ताः समयेषु च ।

द्रव्यानयनसङ्केतनटनादिषु ता: स्मृताः ।।३३।।

शेष जो तिरपन मुद्रायें है वे द्रव्य लाने, संकेत, नाट्य आदि के समय से सम्बन्धित बताई गई हैं ॥ ३३॥

देवानां चिन्तने योगे ध्याने जप्ये विसर्जने ।

आद्यास्तु पञ्चपञ्चाशन्मुद्रा भैरव कीर्तिताः ।। ३४।।

हे भैरव ! देवताओं के चिन्तन, योग, ध्यान, जप एवं विसर्जन कर्मों में पहले बताई हुई, पचपन मुद्राएँ ही कही गई हैं ॥३४॥

मुद्रां विना तु यज्जप्यं प्राणायामः सुरार्च्चनम् ।

योगो ध्यानासने चापि निष्फलानि च भैरव ।

प्रत्येकं लक्षणं तेषां शृणुतं तनयौ युवाम् ।। ३५ ।।

हे भैरव ! मुद्रा के बिना जो भी जप, प्राणायाम, देव-पूजन, योग, ध्यान, आसन आदि किया जाता है, वह सब निष्फल हो जाता है। हे दोनों पुत्रों ! अब उनमें से एक-एक के लक्षण सुनो - ॥ ३५ ॥

।। धेनुमुद्रा ।।

दक्षिणामध्यमाग्रेण सव्यहस्तस्य तर्जनीम् ।

योजयेत् सव्यमध्यां तु तर्जन्या दक्षिणेन वै ।। ३६ ।।

तथा दक्षिणानामिकया वामहस्तकनिष्ठिकाम् ।

अनामिकां तु वामस्य दक्षिणस्य कनिष्ठया ।। ३७ ।।

योजयेद् भक्तिमान् सम्यग् दक्षिणावर्तनेन तु ।

धेनुमुद्रा समाख्याता सर्वदेवस्य तुष्टिदा ॥३८॥

यदि भक्तिमान् साधक दाहिने हाथ की मध्यमा के अग्रभाग से बायें हाथ की तर्जनी और बायें हाथ की मध्यमा से दाहिने हाथ की तर्जनी एवं दाहिने हाथ की अनामिका से बायें हाथ की कनिष्ठिका व बायें हाथ की अनामिका से दाहिने हाथ की कनिष्ठिका दक्षिणावर्त से भलीभाँति मिलाये तो यह सभी देवताओं को सन्तोष देने वाली धेनुमुद्रा कही गई है ।। ३६-३८ ।।

।। सम्पुटमुद्रा ।।

संयोज्य द्वौ तलौ सर्वाण्यंगुल्यग्राणि हस्तयोः ।

संयोज्य पार्श्वतोऽङ्गुष्ठौ सम्पुटः प्रोच्यते सुरैः ।। ३९ ।।

सर्वेषामथ देवानां सम्पुटः प्रीतिदायकः ।

ध्यानचिन्तनयोगादौ सम्पुटः शस्यते तदा ।। ४० ।।

दोनों हथेलियों और उनकी सभी अँगुलियों तथा दोनों अंगूठों को अगल-बगल मिलाने से बनने वाली मुद्रा, देवताओं द्वारा सम्पुटमुद्रा कही जाती है। यह सम्पुटमुद्रा, सभी देवताओं को प्रसन्नता देने वाली तथा ध्यान, चिन्तन, योग आदि के समय प्रशंसनीय है ।। ३९-४०।।

।। प्राञ्जलिमुद्रा ।।

निकुब्जयुगलं पाण्योस्तं संयोज्यार्ध एव च ।

मध्यशून्यः पुटाकारः प्राञ्जलिः परिकीर्तितः ।। ४१ । ।

सीधे दोनों हाथों को आधा मिलाकर, मध्य में खाली, दोनो के आकार की मुद्रा, प्राञ्जलिमुद्रा कही गई है ॥ ४१ ॥

।। बिल्वमुद्रा ।।

अङ्गुष्ठमन्तरं कृत्वा पाण्योर्मुष्टिं विधाय च ।

संयोज्य बिल्ववत्ते तु बिल्वमुद्रा प्रकीर्तिता ।। ४२ ।।

अँगूठों को भीतरकर, दोनों हाथों से मुठ्ठी बनाकर उसे बेल की तरह मिलाने से बनने वाली मुद्रा, बिल्वमुद्रा कही गई है ॥ ४२ ॥

।। पद्ममुद्रा ।।

मणिबन्धादाकरभं संयोज्य करयोर्द्वयोः ।

अङ्गुष्ठे चापि संयोज्य तथैव च कनिष्ठिके ।। ४३ ।।

तिस्रस्तिस्त्रस्तयोः पाण्योरङ्गुलीविरलास्तथा ।

पद्ममुद्रा समाख्याता चतुर्वर्गफला नृणाम् ।।४४।।

दोनों हाथो के मणिबन्ध से हाथ के पीठभाग पर्यन्त अँगूठों एवं कनिष्ठिका को मिलाकर, उनकी तीन-तीन अंगुलियों के फैलाने पर बनी मुद्रा, पद्म- मुद्रा कही गई है जो मनुष्यों को चारो वर्ग (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) का फलप्रदान करने वाली है।। ४३-४४॥

।। नाराचमुद्रा ।।

अङ्गुष्ठाग्रेण तर्जन्या संयोज्याथोध्वरखया ।

अन्याङ्गुलीस्तथानम्य नाराचः स्यात् प्रसार्य ते ।। ४५ ।।

मम चैव शिवायाश्च प्रीतिदेयं प्रियङ्करी ।

नाराचमुद्रा सततं प्रीत्यै वेतालभैरव ।। ४६ ।।

अङ्गुष्ठा के अग्रभाग से तर्जनी को उर्ध्वरेखा में मिलाने तथा अन्य अङ्गुलियों को झुकाकर फैलाने से मुझे और देवी को प्रसन्नता प्रदान करने वाली नाराचमुद्रा बनती है । हे वेताल और भैरव ! यह नाराचमुद्रा सदैव प्रसन्नता देने वाली है ॥४५-४६ ॥

।। मुण्डमुद्रा ।।

अन्तराङ्गुष्ठमुष्टिं च कृत्वा वामकरस्य तु ।। ४७ ।।

मध्यमाया दक्षिणस्य तथानम्य प्रयत्नतः ।

मध्यमेनाथ तर्जन्या अङ्गुष्ठाग्रं नियोज्य च ।।४८।।

दक्षिणं योजयेत् पाणिं वाममुष्टौ च साधकः ।

दर्शयेद् दक्षिणे भागे मुण्डमुद्रेयमिष्यते ।। ४९ ।।

अँगूठे को भीतर कर बायें हाथ की मुठ्ठी बाँधकर दाहिने हाथ की मध्यमा, तर्जनी एवं अँगूठे के अग्रभाग को मिलाकर दक्षिणहाथ को बायें मुठ्ठी से मिलाकर दाहिनी ओर दिखाने से बनी मुद्रा, मुण्डमुद्रा कही जाती है ।।४७-४९ ॥

इयं तु गणनाथस्य प्रीतिदा मुद्रिकोत्तमा ।

सर्वेषामपि देवानां तुष्टिदा सर्वकर्मसु ।। ५० ।।

यह उत्तममुद्रा गणेश जी को प्रसन्नता देने वाली तथा सभी कर्मों में सभी देवताओं को सन्तोष देने वाली हैं ॥५०॥

।। दण्डमुद्रा ।। 

अङ्गुष्ठमध्यमादींश्च सम्यगानम्य तर्जनीम् ।

प्रसार्य दण्डमुद्रेति दक्षिणस्य करस्य च ।। ५१।।

दाहिने हाथ के अंगूठे और मध्यमा को मिलाकर तर्जनी आदि को झुकाकर फैलाने से दण्डमुद्रा बनती है ॥ ५१ ॥

।। योनिमुद्रा ।।

सर्वाङ्गुलीस्तु संयोज्य करयोरुभयोरपि ।

संवेष्ट्य रज्जुवद् वेति पाण्योरपि कनिष्ठिके ।। ५२ ।।

वामस्यानाममूले वै उदग्रं विनियोजयेत् ।

दक्षस्य मध्यमामूले तथाग्रं वाममेव च ।।५३।।

 योजयेद् योजनात् पश्चादावर्त्य करशाखिकाः ।

योन्याकारं तु तन्मध्यं योनिमुद्रा प्रकीर्तिता ।। ५४ ।।

दोनों हाथों की सभी अंगुलियों को परस्पर मिलाकर दोनों हाथों की कनिष्ठा अंगुलियों को आपस में रस्सी की भाँति लपेटते हैं तथा दाहिनेहाथ के अंगूठे को बायें- हाथ की अनामिका के मूल में एवं बाएँहाथ के अंगूठे को दाहिनेहाथ की अनामिका के मूल में नियोजित करते हैं। दाहिनेहाथ की मध्यमा के मूल में बाएँहाथ की अगली तर्जनी, दायेंहाथ की मध्यमा के मूल में बायेंहाथ की तर्जनी से मिलाने के पश्चात् अंगुलियों को आगे की ओर उलटने पर, मध्य में योनि का आकार बनता है, इस प्रकार से निर्मित मुद्रा ही योनिमुद्रा कही गई है ।। ५२-४२॥

कामाख्यायाः पञ्चमूर्तेर्दुर्गाया अपि भैरव ।

प्रीतिदा योनिमुद्रेयं मम कामस्य चं प्रिया ।। ५५ ।।

हे भैरव ! यह योनिमुद्रा, कामाख्या, त्रिपुरा, कामेश्वरी, शिवा और शारदा, इन पाँचमूर्तियों वाली पञ्चमूर्ति कामाख्या और दुर्गा को भी प्रिय है। यह मुझ कामेश्वर और कामदेव की भी प्रियमुद्रा है ।। ५५ ।।

।। अर्धयोनिमुद्रा ।।

संसक्ता अङ्गुली: सर्वाः प्रसार्याङ्गुष्ठपर्वणा ।

अग्रेण च कनिष्ठाया अग्रेणापि च योजयेत् ।। ५६ ।।

करस्य दक्षिणस्यैवमर्धयोनिः प्रकीर्तिता ।

महायोनिस्तु कथिता वैष्णवीतन्त्रणे वरे ।। ५७ ।।

समस्त अंगुलियों को संसक्त (मिली हुई) अवस्था में ही फैलाकर दाहिने हाथ के अंगूठे के अगलेपर्व से कनिष्ठा के अगलेपर्व के मिलाने से बनने वाली मुद्रा, अर्धयोनिमुद्रा कही जाती है। श्रेष्ठ वैष्णवीतन्त्र में यही महायोनिमुद्रा कही गई है ॥ ५६-५७॥

।। वन्दनीमुद्रा ।।

सम्पुटं प्राञ्जलिं वापि यदि शीर्षे प्रदर्शयेत् ।

वन्दनी या समाख्याता मुद्रा विष्णुप्रमोदिनी ।। ५८ ।।

यदि पूर्वोक्त सम्पुट या प्राञ्जलिमुद्रा, सिर से (ललाट के ऊपर) स्पर्श कर दर्शायी जाय तो वही वन्दनीमुद्रा कही जाती है। यह भगवान् विष्णु को प्रमुदित करनेवाली है॥५८॥

।। महामुद्रा ।।

सैव चेच्छ्रवणाक् महामुद्रा प्रकीर्तिता ।

दक्षिणाङ्गे तु सा सक्ता वैष्णवी परिकीर्तिता ।

महायोनिस्तु कथिता वैष्णवी तन्त्रगोचरे ।। ५९ ।।

उसी मुद्रा को दाहिनेकान से स्पर्श कर प्रदर्शित करें तो यह महामुद्रा कही जाती है और दाहिने अंग, ललाट और कर्ण के अग्रभाग से स्पर्श करने पर यही वैष्णवीमुद्रा कही गई है। यह भी वैष्णवीतन्त्र में महायोनि कही गई है । । ५९ ॥

।। भगमुद्रा ।।

द्वयोस्तु मूलेऽङ्गुष्ठाग्रमङ्गुलीं च कनिष्ठयोः ॥६० ॥

 नियोज्य प्रसृतीकृत्य द्वौ पाणी योजयेत् पुनः ।

भगमुद्रा समाख्याता लक्ष्मीवाणीशिवप्रिया ।। ६१ ।।

दोनों हाथों की कनिष्ठिकाओं को मूल के अंगूठे के अग्रभाग से सम्बद्ध कर, दोनों हाथों को मिलाकर, फैलाने से बनने वाली मुद्रा, लक्ष्मी, वाणी एवं शिव को प्रिय भगमुद्रा कही गई है ।। ६०-६१ ॥

।। पुटकमुद्रा ।।

सर्वाङ्गुलीनामग्रौघं दक्षिणस्य करस्य च ।

संयोज्यैकत्र पुरतो निर्देश: पुटकः स्मृतः ।।६२।।

दाहिने हाथ की सभी अंगुलियों के अग्रभाग, एकसाथ मिलाकर आगे दिखाने से बननेवालीमुद्रा पुटकमुद्रा कही गई है ।। ६२ ।।

।। निसङ्गमुद्रा ।।

कनिष्ठानामिकाङ्गुष्ठाङ्गुलीनां योजयेद् बुधः ।

अग्राण्येकत्र मध्यां तु तर्जनीं च प्रसार्य वै ।। ६३ ।।

कुब्जीकृत्य करद्वन्द्वं पृथगग्रे निदर्शयेत् ।

निःसङ्गनाममुद्रेयं नरसिंहवाराहयोः ।।६४।।

दोनों कनिष्ठिका, अनामिका और अंगुष्ठा, अंगुलियों के अग्रभाग को मिलाने तथा तर्जनी और मध्यमाओं को आगे फैलाकर दोनों हाथों को कुछ झुकाकर दिखलाने से यह मुद्रा पूरी हो जाती है। यह नरसिंह और वाराह अवतारों को प्रसन्न करने वाली निःसङ्ग नामक मुद्रा मानी जाती है ।। ६३-६४।।

।। अर्धचन्द्रमुद्रा ।।

कनिष्ठानामिकामध्यमाकुञ्चन् दक्षिणेन तु ।

करस्य तर्जन्यङ्गष्ठे प्रसार्य क्रियते तु या ।

सा मुद्रा ह्यर्धचन्द्राख्या ग्रहाणां प्रीतिदायिनी ।। ६५ ।।

केवल दाहिने हाथ की कनिष्ठिका, अनामिका और मध्यमा को बीच से टेढ़ी कर, बन्द की तरह सिकोड़ने। साथ ही अंगूठे और तर्जनी को पूरी तरह फैलाने से बननेवाली मुद्रा, अर्धचन्द्रमुद्रा होती है। यह ग्रहों को प्रसन्नता देने वाली होती है ॥ ६५ ॥

।। अङ्गमुद्रा ।।

ऊर्ध्वीकृत्य तथाङ्गुष्ठं करस्य दक्षिणस्य तु ।। ६६ ।।

कृत्वा मध्यं तदङ्गुष्ठं वाममुष्टिं तथोर्ध्वतः ।

ऊर्ध्वाङ्गुष्ठां तथा कुर्यादङ्गमुद्रा प्रकीर्तिता ।। ६७ ।।

दाहिने हाथ के अंगुष्ठ को ऊपर खड़ा कर, बायें हाथ की ऊर्ध्वांगुष्ठमुट्ठी, खड़े, बीच में बाँध कर जो मुद्रा बनती है उसे अङ्गमुद्रा कहते हैं ।। ६६-६७।।

।।कालिका पुराण अध्याय ६६- अङ्गमुद्रा के आठ भेद ।।

एतस्या एव मुद्रायाः कनिष्ठादिवियोगतः ।

अष्टौ मुद्राः समाख्याता नाम तासां पृथक् शृणु ।। ६८ ।।

द्विमुखं चैव मुष्टिं च वज्रमाबद्धमेव च ।

विमलश्च घटश्चैव तुङ्गः पुण्ड्रस्तथैव च ।। ६९ ।।

अङ्गमुद्रा के ही द्विमुख, मुष्टि, वज्र, आबद्ध, विमल घट, तुङ्ग तथा पुण्ड्र ये आठ भेद, कनिष्ठादि एक-एक अंगुलियों के वियोग से बनते हैं। दाहिने हाथ के अंगूठे को बीच में रखकर जो रूप बनता है उसमें आठों अंगुलियाँ नीचे से ऊपर तक गोल रूप घिरी हुई हैं। इन आठों को क्रमशः बारी-बारी से घेरे से पृथक् किया जाय। ऊपर का बाँया अंगूठा खुला हो। खड़ा भी हो। इसका एक मुख और नीचे की कनिष्ठा को फैलाने से दूसरा मुख अर्थात् अग्रभाग खुल जावे तो उसे द्विमुख कहा गया है। एक-एक कर सभी को पृथक् करते जाने पर आठों भेद रूपायित होते जाते हैं। इन आठों की आठरूप की मुद्रायें होती हैं ।। ६९ ।।

नवानां विष्णुमूर्तिनां सार्धमङ्गेन मुद्रिकाः ।

क्रमान्नव समाख्याता नायिकानां तथैव च ।।७० ।।

अङ्ग मुद्राओं के सहित उपर्युक्त नौ मुद्रायें क्रमशः विष्णु की नौ मूर्तियों तथा उनकी नायिकाओं की प्रिय मुद्राएँ कही गई हैं ॥ ७० ॥

।। शङ्खमुद्रा ।।

संयोज्य करयोः पृष्ठे तथावर्त्य तु वै समम् ।

प्रसार्य तर्जनीयुग्मं संयुक्तं सर्वतः पुनः ।

अङ्गुष्ठो च तथासक्तौ शङ्खमुद्रा प्रकीर्तिता ।। ७१ ।।

दोनों हाथों के पृष्ठ भाग को मिलाकर उसी अवस्था में उलटा कर दोनों हाथों की तर्जनियों को फैलाकर आगे मिलाने से तथा उस समय अंगूठे उनसे मिले हुये हों तो इस प्रकार की मुद्रा शङ्ख मुद्रा कही जाती है ।। ७२ ।।

।। योनिमुद्रा ।।

उत्तानमञ्जलिं कृत्वा अङ्गुष्ठे द्वे कनिष्ठयोः ।। ७२ ।।

मूले निक्षिप्य तु करौ संयोज्याथ प्रदर्शयेत् ।

सा योनिरिति विख्याता मुद्रा देवौघतुष्टिदा ।।७३।।

अञ्जलि को उत्तान कर दोनों अंगूठों को दोनों कनिष्ठामूल में सटाने, सारी अंगुलियों को ऊपरी अग्रभाग से सटाने से योनिमुद्रा बनती है। यह देवताओं को उपचारद्रव्य अर्पित कर इसे दिखलावे, योनि नाम से प्रसिद्ध यह मुद्रा, समस्त देववर्ग को तुष्टि, प्रदान करती है।।।७२-७३ ॥

।। शिखरिणी मुद्रा ।।

मुष्टिर्दक्षिणहस्तस्य यदोद्ध्वाङ्गष्ठिका भवेत् ।

सा स्याञ्छिखरिणीम्रुदा ब्राह्मीसूर्यप्रिया च सा ।। ७४ ।।

दाहिनेहाथ की मुट्ठी जो अंगूठा ऊपर किये हुए होती है वह शिखरिणीमुद्रा होती है। वह ब्रह्मा और सूर्य को विशेष प्रिय है ॥ ७४ ॥

।। सार्धधेनुमुद्रा ।।

अनामिके कनिष्ठे च संयोज्य वायुना पुनः ।

मध्यमा तर्जनीनां तु धेनुमुद्रेव बन्धनम् ।

सार्धधेनुरिति ख्याता चन्द्रप्रीतिविवर्धिनी ।।७५।।

अनामिका और कनिष्ठा को मिलाकर फैलाने, अंगूठे से तर्जनी और मध्यमा को धेनु मुद्रा की भाँति मिलाकर बाँधने से बनी, यह मुद्रा, सार्धधेनु कहलाती है। यह चन्द्रमा की प्रसन्नता बढ़ानेवाली है ।। ७५ ।।

।। सम्मिलनीमुद्रा ।।

करयोरङ्गुलीनां तु सर्वाग्राण्येकतः स्थिता ।

नियोज्य द्वे तले चैव तदधोऽपि नियोज्य च ।। ७६ ।।

अग्रैरग्रैर्योजयेत् तु मुद्रा सम्मिलनी तु सा ।

भौम भूमिमुनीशानामियं प्रीतिविवर्धिनी ।। ७७ ।।

दोनों हाथों की अंगुलियों के अग्रभाग को एक साथ फैलाने, दो तलों पर हाथ के मिलाने। अंगुलिमूल पहला तल। मणि बन्ध (भीतरी) दूसरा तल । अब फैली अंगुलियों को क्रमशः मिलाने, जिसमें केवल अंगुलियों के अग्रभाग ही मिलें। थोड़ा टेढ़ा कर अंगुलियाँ मिलती हैं तो इससे बनी, यह सम्मिलनीमुद्रा, मंगल, पृथ्वी और सप्तर्षियों को बड़ी प्रिय है ।।७६-७७।।

।। कुण्डमुद्रा ।।

सर्वाङ्गुलीस्तु संयोज्य दक्षिणस्य करस्य च ।

कियद्भागं तथानम्य तलं कुर्यात् तु कुण्डवत् ।।७८ ।।

समाख्याता कुण्डमुद्रा बुधवाणीशिवप्रिया ।। ७९ ।।

दाहिने हाथ की अञ्जलि की अंगुलियों को ऊपर उठाकर । कुछ इस तरह नियोजित करें कि, हथेली का कुण्ड बन जाय। यह कुण्डमुद्रा बुध, सरस्वती और शिव को अत्यन्त प्रिय है ।। ७९ ॥

।। चक्रमुद्रा ।।

सर्वाङ्गुलीनां मध्यं तु वामहस्तस्य चाङ्गुली: ।

प्रसार्याङ्गुष्ठयुगलं संयोज्याग्रेण भैरव ।। ८०।।

तदङ्गुष्ठद्वयं कार्यं सम्मुखं वितरेत् ततः ।

चक्रमुद्रा समाख्याता गुरुविष्णुशिवप्रिया ।। ८१ ।।

बाँयेंहाथ की सारी अंगुलियों को प्रसरित कर, उन्हें दाहिने हाथ की फैली अंगुलियों के मध्य में फैली हुई ही मिलाने, दोनों अंगूठों को आगे की आगे अपने हृदय की ओर करने से बनी चक्रमुद्रा, गुरु, विष्णु और शिव को अत्यन्त प्रिय है ।। ८०-८१ ॥

।। शूलमुद्रा ।।

अङ्गुष्ठं मध्यमां चैव नामयित्वा करस्य तु ।

दक्षिणस्य परास्तिस्रो योजयेदग्रतः पुनः ।

शूलमुद्रा समाख्याता मम शुक्रग्रहप्रिया ।। ८२ ।।

दाहिने हाथ के अंगूठे को और मध्यमा को अलग-अलग नीचे की ओर कर शेष तीनों को आगे कर मिलने से बनी मुद्रा, शूलमुद्रा कहलाती है। यह मुद्रा शिव और शुक्रग्रह को प्रीतिकर होती है ॥ ८२ ॥

।। सिंहमुखी मुद्रा ।।

निकुब्जीकृत्य तु करौ वामाङ्गुलिगणस्य तु ।

अग्राणि योजयेन्मध्ये तलस्यासव्यहस्ततः ।। ८३ ।।

अधः कृत्वा वामहस्तं मुद्रा सिंहमुखी स्मृता ।

इयं प्रीत्यै तु दुर्गायाः सूर्यपुत्रस्य चक्रिणः ।। ८४ ।।

बायें हाथ को 'कुछ नीचे कर, उसकी अंगुलियों के अग्रभाग को बायें हाथ में मध्यहथेली में मोड़ कर सटाने, ऊपर दाहिनेहाथ की हथेली के मध्य के नीचे बायें हाथ की इस मुद्रा को लगाने से बनी यह पूरी मुद्रा सिंहमुखी होती है। इसमें ऊपर दाहिने हाथ की अंगुलियाँ आगे फैली हुई होती हैं। नीचे बायेहाथ की अंगुलि हथेली के मध्य में मिली होती हैं। यह दुर्गा, सूर्यपुत्र (शनि) और चक्री, कृष्ण को बहुत प्रिय है ।।८३-८४।।

।। गोमुखी मुद्रा ।।

भगमुद्रा कर्णमूले गोमुखाख्या प्रकीर्तिता ।

मम विष्णोस्तथा राहोः सर्वदा प्रीतिदायिनी ।। ८५ ।।

भगमुद्रा को कर्णमूल में समा कर प्रदर्शित करने से बनी मुद्रा, गोमुखीमुद्रा कही जाती है। यह शिव, विष्णु और राहु को सदैव प्रीति, प्रदानकरनेवाली मुद्रा है ॥ ८५ ॥

।। कालिका पुराण अध्याय ६६- दश मुद्रायें ।।

मुष्टिद्वयमथोत्तानं कृत्वा संयोज्य पार्श्वतः ।

दक्षिणस्य कनिष्ठादीन् प्रसार्य क्रमशः पुनः ।। ८६ ।।

तथा वामकनिष्ठाभ्यामेकैकेन प्रसारयेत् ।

अष्टौ मुद्राः समाख्याता नामतः क्रमतः शृणु ।। ८७ ।।

प्रोल्लासोन्नमनं चैव विम्बं पाशुपतं तथा ।

शुद्धं त्यागः सारणी च तथा चैव प्रसारणी ।। ८८ ।।

आकुञ्चकरशाखास्तु दक्षिणा सा तु मुद्रिका ।

उग्रमुद्रा समाख्याता स्वहस्तस्य विपर्ययात् ।। ८९ ।।

इन्द्रादिलोकपालानां दशमुद्राः प्रकीर्तिताः ।

सर्वेषामेव देवानां परमप्रीतिवर्धनाः ।। ९० ।।

१. प्रोल्लास, २. उन्नमन, ३. बिम्ब, ४. पाशुपत, ५. शुद्ध, ६. त्याग, ७. सारणी और ८. प्रसारणी । कर शाखाओं के आकुञ्चन से ९ वीं दक्षिणा और हाथों के विपर्यय से उग्रनाम की दसवीं मुद्रा बनती है। ये दसों दिग्पालों की प्रीतिविवर्धनी मुद्रायें मानी जाती हैं। सर्वदेवप्रिय इन मुद्राओं के बनाने के पहले दोनों हाथों की मुट्ठी बाँध, उन्हें उत्तान कर सटाने अब दाहिने हाथ की एक-एक अंगुलि कनिष्ठाक्रम से फैलाते जाने से एक-एक मुद्रा बनती जाती है। फिर वामहस्त की अंगुलियों को भी कनिष्ठा क्रम से दो-दो अंगुलियाँ मिलाकर फैलावें । मुद्रायें बनती जाती है। उनके नाम उसी क्रम से जानना चाहिये।।८६-९० ।।

।। कुण्डलीमुद्रा ।।

अङ्गुष्ठाग्रं तु तर्जन्या अग्रे भागेन योजयेत् ।

आकुञ्चयमध्यमाद्यास्तु दक्षहस्तस्य चाङ्गुलीः ।। ९९ ।।

दर्शयेत् कुण्डलाकारं कुण्डलीशक्तितुष्टिदम् ।

सर्वेषामपि देवानां यथा तुष्टिकरं महत् ।। ९२ ।।

दाहिने हाथ की तर्जनी से अंगूठे को मिलाने, शेष सभी अंगुलियों को आकुंचित करने से यह कुण्डली मुद्रा बनती है। यह यथानाम तथा गुणवाली हो, कुण्डली शक्ति को तुष्टि देने वाली है। तथा सर्वदेवप्रिया मानी जाती है ।। ९१-९२ ॥

।। त्रिमुखामुद्रा ।।

अङ्गुष्ठतर्जनीमध्या अग्रभागे नियोज्य च ।

मध्यमां च कनिष्ठां च आकुञ्ज्य दक्षिणे करे ।। ९३ ।।

त्रिमुराख्या समाख्याता विश्वदेवप्रिया सदा ।

केतवेः प्रियेयं सततं मातॄणामपि तुष्टिदा ।। ९४ ।।

विश्वदेवप्रिया यह मुद्रा, दाहिने हाथ की अंगुष्ठ, तर्जनी और मध्यमा के अग्रभाग को अंगूठे के अग्रभाग से मिलाने। अनामिका और कनिष्ठा को आकुंचित कर हथेली में सटाने से बनती हैं। केतु एवं मातृशक्तियों को भी यह प्रिय है ।। ९३-९४ ।।

।। असिवल्लीमुद्रा ।।

तर्जन्यङ्गुष्ठयोरग्रभागौ संयोज्य चाङ्गुली: ।

अन्या आकुञ्चयेत् तिस्रः साऽसिवल्ली प्रकीर्तिता ।। ९५ ।।

पितृणामथ साध्यानां रुद्राणां विश्वकर्मणः ।

सर्वदा प्रीतिजननी साऽसिवल्ली प्रकीर्तिता ।। ९६ ।।

तर्जनियों और अंगूठों के अग्रभाग को मिलाने, दोनों हाथों की अन्य तीनों अंगुलियों को आकुंचित करने से बनी मुद्रा, असिवल्लीमुद्रा कहलाती है। यह पितरों, साध्यों, रुद्रों और विश्वकर्मा को सर्वदा, प्रीतिप्रदान करनेवाली कही गयी है ।। ९५-९६॥

।। योगमुद्रा ।।

पादौ तलाभ्यां संयोज्य तद्ङ्गुष्ठद्वयं यतः ।

ऊर्ध्वं संयोजयेन्नाभौ तस्योपरि तथाञ्जलिः ।। ९७ ।।

योगमुद्रा समाख्याता योगिनां तत्त्वदायिनी ।

सर्वेषामपि देवानां पूजने चिन्तने तथा ।। ९८ ।।

योगमुद्रा समाख्याता तुष्टिपुष्टिकरी सदा ।। ९९ ।।

दोनों पैरों के पादाधस्तल मिलाकर मिले हुए अंगूठों को ऊपर नाभि से सटाने, उन पर अपनी अञ्जलि रखने से योगमुद्रा बनती है। योगविद्या की तात्त्विकता की उपलब्धि इससे होती है। सभी देवताओं के पूजन और चिन्तन में इसका प्रयोग करना चाहिये। यह तुष्टि और पुष्टि प्रदान करती है । । ९७ ९९ ।।

।। प्राञ्जलिमुद्रा ।।

प्राञ्जलिर्नाम मुद्रा तु ऊर्ध्वाधो भावयोजिता ।

विभिद्य दर्शयेद्धस्तौ ऊर्ध्वाधः प्रसतीकृतौ ।

भेदमुद्रा समाख्याता मम विष्णोविधेः प्रिया ।। १०० ।।

भावनापूर्वक दोनों हाथों से अञ्जलि बनाने, मिलेहाथों की अंगुलियों की स्थिति में हथेली को थोड़ा गोल कर उसमें छेद बना देने। यह ऊपर नीचे देखने में उपयोगी होता है। एक तरह का हथेली को प्रसृत करने से यह प्राञ्जलिमुद्रा बन जाती है। इसे भेदमुद्रा भी कहते हैं। यह मुझे बड़ी प्रिय है। साथ ही ब्रह्मा और विष्णु को भी प्रीतिप्रदान करती है ॥ १०० ॥

।। सम्मोहनमुद्रा ।।

अङ्गुष्ठे द्वे तु निक्षिप्य करयोरुभयोरपि ।

अग्रेण योजयेत् पश्चात् कनिष्ठायुगलं ततः ।। १०१ ।।

उभयोर्हस्तयोश्चान्यास्तर्जन्याद्याश्च योजयेत् ।

अग्रायैस्तु पृथक्कृत्य दर्शयेत् तु कनिष्ठिकाम् ।। १०२ ।।

मुद्रा सम्मोहनं नाम कामदुर्गारमाप्रिया ।

सर्वेषामिह देवानां मोहनं प्रीतिदं स्मृतम् ।। १०३ ।।

दोनों हाथों के अंगूठों को एक दूसरे हाथों की पीठ पर लगा, नीचे कनिष्ठाओं को योजित कर, ऊपर की अंगुलियों को भी जोड़ने से जब ऊपर से पहले तर्जनियों को अलग कर कनिष्ठाओं को देखने। पुनः मध्यमा को पृथक् कर जुड़ी कनिष्ठाओं को देखने। पुनः अनामिका को अलग कर कनिष्ठाओं को देखने से यह प्रायोगिक मुद्रा सम्मोहनमुद्रा कहलाती है। यह काम, दुर्गा रमा और सभी देवताओं को प्रीतिप्रदान करती है ।। १०१-१०३ ॥

।। बाणमुद्रा ।।

आनम्यासव्यहस्तस्य मध्यमानामिके तथा ।

तयोः पृष्ठे सुसंयोज्य अङ्गुष्ठाग्रं ततः परम् ।। १०४ ।।

कनिष्ठां तर्जनीं चैव अग्रेणायोजयेत् ततः ।

बाणमुद्रा समाख्याता सर्वदेवस्य तुष्टिदा ।। १०५ ।।

दाहिने हाथ की मध्यमा और अनामिका को आगे झुकाकर इन दोनों अंगुलियों में निकली हुई हड्डी से अंगूठे को सटाने से इसके बाद कनिष्ठा और तर्जनी के अग्रभागों को ऊपर से मिलाने पर बाणमुद्रा कही गई है जो समस्त देवों को संतुष्टिप्रद है ।। १०४ - १०५ ॥

।। धेनुमुद्रा ।।

सर्वाङ्गुलीस्तु सङ्कोच्य अङ्गुष्ठमथ तर्जनीम् ।

प्रसार्य करयोः पश्चादङ्गुष्ठाग्रं तु योजयेत् ।। १०६ ।।

अगुष्ठाग्रेण तर्जन्या अग्रेणापि च तर्जनीम् ।

यथाशक्ति प्रसार्यापि धेनुमुद्रा प्रकीर्तिता ।। १०७ ।।

यह मुद्रा कई तरह से बनायी जाती है। श्लोक १०६-१०७ के अनुसार अंगूठों और तर्जनी के अग्रभागों को फैलाकर मिलाना चाहिये। शेष मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठा का आकुञ्चन करना चाहिये। इस तरह बनी मुद्रा धेनुमुद्रा कही जाती है।। १०६-१०७॥

।। तूणीरमुद्रा ।।

सर्वाङ्गुलीनामग्राणि ब्राह्मे तीर्थे नियोजयेत् ।

अनामिकायाः पृष्ठे तु अङ्गुष्ठाग्रं नियोज्य च ।। १०८ ।।

शून्यं तूणीरवत् कृत्वा तेषामन्तस्तु भैरव ।

तूणीरमुद्रा चाख्याता सर्वेषां प्रीतिवर्धिनी ।। १०९ ।।

हे भैरव ! सभी अंगुलियों के अग्रभाग को हथेली के ब्राह्मतीर्थ में लेना चाहिये। अंगूठे के अग्रभाग को अनामिका की पीठ पर चढ़ाना चाहिये। इस प्रकार नियोजित अंगुलियों के मध्य में गोलशून्य बनता है। इसी मुद्रा को इस शून्य के कारण तूणीरमुद्रा कहते हैं। यह सभी देवताओं की प्रीति का वर्धन करती है ।। १०८-१०९ ।।

मुद्रासु संस्थिता पूजा सर्वेषु परिचिन्तनम् ।

मुद्रासु संस्थिता योगा मुद्रा मोदकरास्ततः ।। ११० ।।

यदा यदा पूजनेषु चिन्तने ध्यानकर्मणि ।

यज्ञादौ स्तवने वापि हस्तकृत्यं न विद्यते ।। १११ ।।

तदा मुद्रान्वितं कुर्यादिष्टापूर्ते करद्वयम् ।। ११२ ।।

सारी पूजा का तत्त्व मुद्राओं में निहित है। सभी देवों की पूजा का परिचिन्तन मुद्राओं से सम्पन्न हो जाता है। मुद्राओं में सारे योग भी निहित हैं। मुद्रायें मोद का प्रसार करती हैं। पूजा में, चिन्तन की दशा में अथवा ध्यान की प्रक्रियाओं में, यज्ञ और प्रार्थनाओं में जिनमें हस्तक्रिया का अभाव रहता है। उन सभी में मुद्राओं का प्रयोग होना चाहिये। दोनों हाथ, इष्टापूर्त के इस व्यापार में लगने चाहिये ।। ११०-११२ ।।

यज्ञकृत्येषु चेच्छक्तो हस्तो मुद्रासु च क्षमः ।

तदा मुद्रां विधायैव तत्तत् कृत्यं समाचरेत् ।। ११३ ।।

मुद्राविमुक्तहस्तं तु क्रियते कर्म दैविकम् ।

कृत्वा तन्निष्फलं यस्मात् तस्मान्मुद्रान्वितो भवेत् ।। ११४ ।।

सौभाग्य से यज्ञक्रिया में मनुष्य को प्रवृत्त होने का अवसर मिले और हाथों में यदि शक्ति हो, बल हो, क्षमता हो तो मुद्रायें अवश्य करे। मुद्राक्रिया के विधान के बाद ही उस कर्त्तव्यकर्म का सम्पादन करना चाहिये। मुद्राविहीन देवकर्म, निष्फल होते हैं। अतः मुद्राओं का प्रयोग अनिवार्यतः आवश्यक है ।। ११३ ११४।।

विसर्जने तु देवानां यस्य या परिकीर्तिता ।

मुद्रां तां पूजनादौ तु तस्य चैव प्रयोजयेत् ।। ११५ ।।

बहुत-सी मुद्रायें देवों के विसर्जन में प्रयुक्त की जाती हैं। उनके पूजन के आदि में उनकी निर्धारित मुद्राओं का प्रयोग भी करना चाहिये ।। ११५ ।।

विसृज्योक्तामृते मुद्रां मुद्रायुक्तः समाचरेत् ।

पूजनादि समस्तं तु कर्मवृद्धौ विचक्षणः ।। ११६।।

कर्मफल की वृद्धि के लिये मुद्रासिद्धविलक्षणपुरुष, विसर्जन में उक्त मुद्रा के अतिरिक्त भी उचितमुद्राओं का प्रयोग करे ।। ११६ ॥

अतो मुद्रा परं नाम मुद्रा पुण्यप्रदायिनी ।

देवानां मोददा मुद्रा तस्मात् तां यत्नतश्चरेत् ।। ११७ ।।

यह मुद्रा संज्ञा, सर्वातिशायी संज्ञा है। मुद्रा पुण्यप्रदा मानी जाती है। मुद्रा, देवों के आमोद की हेतु हैं। अतः यत्नपूर्वक इनका प्रयोग करना है ।। ११७ ॥

अर्धयोनिर्महायोनियोंनिर्ब्राह्मी च वैष्णवी ।

मुद्रा विसर्जने प्रोक्ता शिवात्रिपुरयोः सदा ।

दुर्गायाः सर्वरूपेषु मुद्रा एताः प्रकीर्तिताः ।। ११८ ।।

अर्धयोनि, महायोनि, योनि, वैष्णवी और ब्राह्मी मुद्रायें विसर्जन में प्रयुक्त होती हैं। विशेषरूप से शिवा और त्रिपुरापूजा में इन्हें अवश्य प्रयोग करते हैं। दुर्गा के सभी रूपों में इनका प्रयोग करणीय है। सम्पुटमुद्रा भी विसर्जन में परिगणित है॥ ११८ ॥

योनि, सम्पुट और महायोनि मुद्रायें, व्यस्तभाव के अतिरिक्त भी, योजित की जा सकती हैं। जो मुख्य ५५ मुद्रायें पहले कही गयी हैं उनके अतिरिक्त शेष ५३ मुद्रायें पूर्णतया व्यस्तभाव में भी वामा अर्थात् गौरी, लक्ष्मी या सरस्वती के समान ही रहती हैं। ये सभी पूर्णतया मोद करने वाली होती हैं।

वर्जयित्वा व्यस्तभावादुक्तादन्यत्र योजयेत् ।

भवेद् यास्तु त्रिपञ्चाशदन्या मुद्राः समन्ततः ।

ता व्यस्तभावाद् वामाः स्युर्मुद्रा मोदकराः पराः ।। १२० ।।

यहाँ व्यस्त और अव्यस्त भाव का अर्थ, मुद्राओं के रचना-क्रम और व्यतिक्रम से लेना चाहिये। क्रम तो उक्त है! व्यतिक्रम की स्थिति में भी ये मुद्रायें प्रयोक्ता द्वारा समझ कर प्रयोग में लायी जाती हैं। इस प्रकार ये सभी मुद्रायें पूजन में पूज्य को तुष्टि, प्रदान करती हैं ॥ १२० ॥

एवं वां कथिता मुद्राः पूजने पूज्यतुष्टिदा ।

क्रमस्तु बलिदानस्य शृणु वेतालभैरव ।। १२१ । ।

जिस देवताओं के विसर्जन में जो मुद्राएँ कही गई है, उनके पूजनादि में उन्हीं मुद्रओं का ही प्रयोग करना चाहिये। हे वेताल और भैरव ! मुद्रा के कथन के अनन्तर अब आगे बलिदान के संदर्भ कही गई बातें सुनो ॥ १२१ ॥

इति श्रीकालिकापुराणे मुद्राकथने षट्षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६६ ॥

॥ श्रीकालिकापुराण का मुद्राकथन सम्बन्धी छाछठवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। ६६ ।।

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 67

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