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कर्मकाण्ड

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कालिका पुराण अध्याय ६४

कालिका पुराण अध्याय ६४                      

कालिका पुराण अध्याय ६४  में कामाख्या पूजन विधि का वर्णन है ।

कालिका पुराण अध्याय ६४

कालिका पुराण अध्याय ६४                                        

Kalika puran chapter 64

कालिकापुराणम् चतुःषष्टितमोऽध्यायः कामाख्यापूजन-विधिः

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ६४                         

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

देव्याः कामेश्वरीं मूर्तिं शृणु वक्ष्यामि भैरव ।

यस्याश्चिन्तनमात्रेण साधको लभते प्रियान् ।। १ ।।

मार्कण्डेय बोले- हे भैरव ! देवी के कामेश्वरीरूप के विषय में जो कहता हूँ, उसे सुनो जिसके चिन्तनमात्र से ही साधक अपने प्रिय पदार्थों को प्राप्त कर लेता है ॥  १ ॥

तन्त्रं तस्याः प्रथमतस्ततोऽनुध्यानगोचरम् ।

ततः पूजाक्रमं वक्ष्ये क्रमाद् वेतालभैरव ॥ २ ॥

हे वेताल और भैरव ! मैं पहले उनके तन्त्र, तब ध्यान और तत्पश्चात् उनके पूजाक्रम को क्रमश: कहूँगा ॥ २ ॥

प्रजापतिस्ततो बह्निरिन्द्रबीजं ततः परम् ।

चूडाचन्द्रार्धसहितं चतुर्थस्वरसंयुतम् ।

इदं कामेश्वरं बीजमन्त्रं सर्वार्थसाधनम् ।। ३ ।।

प्रजापति (क्) बह्नि (र) इन्द्र (ल्), अर्धचन्द्र और बिन्दु सहित चतुर्थस्वर ई से युक्त हो, कामेश्वर का बीज मन्त्र क्लृं बनता है । जो सभी प्रयोजनों को सिद्ध करनेवाला है ॥ ३ ॥

स्थानाभ्युक्षणयन्त्रादि पात्रन्यासादिकं यथा ।

भूतापसारणादींश्च वैष्णवीतन्त्र भाषितान् ॥४॥

तथोक्तानुत्तरे तन्त्रे गृह्णीयात् साधकोत्तमः ।

प्राणायामत्रयं कुर्याद् दहनं प्लवनं तथा ।। ५ ।।

साधकों में उत्तम साधक, वैष्णवीतन्त्र तथा उत्तरतन्त्र में कही गयी विधि से स्थान का अभ्युक्षण और यन्त्र तथा पात्रादि का न्यास (स्थापन) व भूतों के अपसारण, हटाने की क्रिया सम्पन्न करे। वह तीन प्राणायाम एवं दहन और प्लवन की क्रियाएँ भी सम्पन्न करे ॥४-५॥

विशेषमण्डलं चास्याः शृणु वेतालभैरव ॥ ६ ॥

षट्कोणं मण्डलं कुर्याद्रक्तवर्णं तु चिन्तयेत् ।

विभेद्य शक्त्या शम्भुं तु त्रिपुरातन्त्रवद् बुधः ॥ ७ ॥

हे वेताल, हे भैरव ! अब इसके लिए विशेषमण्डल निर्माण की विधि सुनो। विद्वान् साधक को त्रिपुरातन्त्र की भाँति, लालरङ्ग के शम्भु को भेद कर बने शक्ति से षट्कोणमण्डल का चिन्तन करना चाहिये ॥६-७॥

ततः शक्तिं शम्भुनापि भेदयेत् क्रमतः सुधीः ।

ऐशान्यादिनैर्ऋतान्तां रेखां कृत्वाथ दक्षिणे ॥ ८ ॥

पश्चिमात् पूर्वगां रेखां पूर्वादपि तथोत्तराम् ।

उत्तरात् पश्चिमान्तां तु कृत्वा रेखास्तुयोजयेत् ।। ९ ।।

तब बुद्धिमान् साधक को क्रमशः शम्भु द्वारा शक्ति का भी भेदन करना चाहिये। इस हेतु ऐशान्यकोण से प्रारम्भ कर दक्षिण में नैर्ऋत्यकोण तक रेखा खींचे। इसी प्रकार पश्चिम से पूर्व और पूर्व से उत्तर जाने वाली रेखायें तथा उत्तर से पश्चिम जाने वाले रेखाओं की योजना करे।।८-९ ।।

धनुस्तोरणसङ्काशं द्वारे चोत्तरपश्चिमे ।

दक्षिणं तु त्रिकोणं स्यात् षट्कोणं पूर्वमुच्यते ।। १० ।।

धनुष और तोरण क्रमशः मण्डल के उत्तरी और पश्चिमी द्वार के समीप दक्षिण में त्रिकोण और पूर्व में षट्कोण बनाना चाहिये ॥ १० ॥

जालन्धरं लिखेत् पीठमुत्तरे पश्चिमे लिखेत् ।

ओड्रपीठं दक्षिणे तु कामरूपं तु पूर्वतः ।।११।।

पहले की ही भाँति उत्तर में जालन्धरपीठ, पश्चिम में ओड्र-पीठ, दक्षिण में कामरूपपीठ लिखे ॥ ११ ॥

देव्या द्वादशगुह्यानि यानि द्वादशभिः करैः ।

लिखेन्मण्डलकोणेषु तानि दिक्षु त्र्यं त्रयम् ।

षड्भिः षड्भिस्तु रेखाभिः कर्तव्योः मण्डलक्रमः ।।१२।।

उन दिशाओं में मण्डल के कोणों में छः-छः रेखाओं से तीन-तीन के क्रम में देवी के बारह गुह्यमण्डलों का निर्माण करे ॥ १२ ॥

अन्यदुत्तरतन्त्रोक्तं वैष्णवीतन्त्र भाषितम् ।

मण्डलस्य क्रमं सर्वं विद्धि वेतालभैरव ।।१३।।

हे वेताल और भैरव ! मण्डल सम्बन्धी अन्य जो कुछ है, उसे उत्तरतन्त्र या वैष्णवीतन्त्र में कहे अनुसार जानो ॥ १३ ॥

ॐ क्लीं मण्डलतत्त्वाय नम इत्यत्र मण्डलम् ।

पूजयेत् प्रथमं ध्यात्वा मण्डलं योगपीठकम् ।।१४।।

ॐ क्लीं मण्डलतत्त्वाय नमः इस मन्त्र से मण्डल का योगपीठ के रूप में ध्यान करके सर्वप्रथम पूजन करे ॥ १४ ॥

पीठे शिलायां विलिखेन्मण्डलं योनिमण्डलम् ।

त्रिकोणं विलिखेत् पश्चाद् वेष्टयेत् कमलेन तु ।। १५ ।।

पीठ पर या शिला पर, योनिमण्डल के रूप में मण्डल का निर्माण करे, इसे त्रिकोणाकृति में बनाकर कमल से घेर दे ।। १५ ।।

रूपं तु चिन्तयेद् देव्याः कामेश्वर्या मनोहरम् ।। १६ ।।

प्रभिन्नाञ्जनसङ्काशां नीलस्निग्धशिरोरुहाम् ।

षड्वक्त्रां द्वादशभुजाष्टादशविलोचनम् ।

प्रत्येकं षट्सु शीर्षेषु चन्द्रार्धकृतशेखराम् ।।१७।।

तत्पश्चात् कामेश्वरीदेवी के मनोहर रूप का ध्यान करे- वे देवी अञ्जन के टूटे शिखर के समान काली, शरीरकांति और कोमल-कालेकेशों से युक्त हैं। वे काली छ: मुहँ, बारह हाथ एवं अठारह भुजाओं से युक्त हैं तथा अपने प्रत्येक छः सिरों पर अर्धचन्द्र धारण की हुई हैं ॥१६-१७ ॥

मणिमाणिक्यमुक्तादिकृतमालामुरः स्थले ।

कण्ठे च बिभ्रतीं नित्यं सर्वालङ्कारमण्डिताम् ।। १८ ।।

उन्होंने मणि, माणिक्य, मोतियों से बनी हुई माला, अपने हृदय और कण्ठ में नित्य धारण किया है तथा वे सभी आभूषणों से सुशोभित हैं ॥ १८ ॥

पुस्तकं सिद्धसूत्रं च पञ्चबाणं तु तं तथा ।

खड्गं शक्तिं च शूलं च बिभ्रतीं दक्षिणैः करैः ।। १९ ।।

अक्षमालां महापद्मं कोदण्ड चाभयं तथा ।

चर्मपश्चात् पिनाकं च बिभ्रतीं वामपाणिभिः ।। २० ।।

उन्होंने अपने दाहिने हाथों में पुस्तक, सिद्धसूत्र, पञ्चबाण, खड्ग, शक्ति और शूल तथा बाएँ हाथों में रुद्राक्ष की माला, महापद्म, धनुष, अभयमुद्रा, ढाल व पिनाक (दण्ड) धारण किया है ।।१९-२० ।।

शुक्लं रक्तं च पीतं च हरितं कृष्णमेव च ।

विचित्रं क्रमतः शीर्षमैशान्यां पूर्वमेव च ।। २१ ।।

दक्षिणं पश्चिमं चैव तथैवोत्तरशीर्षकम् ।

मध्यं चेति महाभाग क्रमाच्छीर्षाणि वर्णतः ।। २२ ।।

हे महाभाग उनके श्वेत, लाल, पीले, हरे, काले और रंगबिरंगे मस्तक, रंगों के अनुसार क्रमशः, ऐशान्य, पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर और मध्यभाग में हैं ।। २१-२२ ।।

शुक्लं माहेश्वरीवक्त्रं कामाख्यारक्तमुच्यते ।। २३ ।।

त्रिपुरा पीतसङ्काशा शारदा हरिता तथा ।

कृष्णं कामेश्वरीवक्त्रं चण्डायाश्चित्रमिष्यते ।। २४ ।।

धम्मिल्लसंयतकचं प्रतिशीर्षं प्रकीर्तितम् ।

इनमें श्वेत माहेश्वरीदेवी का, लाल कामाख्या पीला त्रिपुरा, हरा शारदा, काला कामेश्वरी का और रंग-बिरंगा चण्डादेवी का मस्तक कहा जाता है। देवी के ये प्रत्येक सिर, व्यवस्थित, जूड़ाबद्धकेशों से सुशोभित, बताये गये हैं ।। २३-२४॥

सिंहोपरिसितप्रेतं तस्मिल्लोहितपङ्कजम् ।

कामेश्वरी स्थिता तत्र ईषत्प्रहसितानना ।। २५ ।।

विचित्रांशुकसंवीतां व्याघ्रचर्माम्बरां तथा ।

एवं कामेश्वरीं ध्यायेद् धर्मकामार्थसिद्धये ।। २६।।

सिंह के ऊपर श्वेतप्रेत तथा उसके ऊपर रक्तकमल पर विराजमान, थोड़ा हँसते हुए मुखवाली विचित्र (रंग बिरंगें), रेशमीवस्त्र और व्याघ्र के चमड़े से बने वस्त्र धारण की हुई, कामेश्वरीदेवी का धर्म, काम और अर्थ की सिद्धि के लिए ध्यान करे ॥२५-२६ ॥

पीठेऽन्यत्राथ वा देव्याः पूजायां कथ्यते क्रमः ।

पीठे विशेषो वक्तव्यः सामान्ये त्वन्यदिष्यते ।। २७ ।।

उपर्युक्त ध्यानपीठों पर पूजा का विशेषरूप वर्णित है। इसके अतिरिक्त पूजन हेतु आगे कहा जायेगा (पीठ) स्थानों में विशेष कहने के पश्चात् अब सामान्यक्रम कहा जाता है ॥२७॥

अङ्गुष्ठादिक्रमादेव संयोज्याथ युगं युगम् ।

मूलमन्त्रस्याक्षरेण दीर्घस्वरयुतेन च ।। २८ ।।

षड्भिराद्यैर्न्यसेत् पूर्वमङ्गुलीयकमेव च ।। २९ ।।

प्रारम्भ कर अंगुष्ठा से अंगुष्ठा को मिलाकर मूलमन्त्र के क्रमशः दो दो अक्षरों को, दीर्घस्वर से संयुक्त कर, पहली ऊँगली के क्रम से छः मन्त्रों से करन्यास करना चाहिये ।। २८-२९।।

हृच्छिरः शीर्षवर्मनेत्रास्त्राणि पुनस्तथा ।

न्यसेद् दक्षिणहस्तेन षड्भिर्मन्त्रैस्तथा क्रमात् ।। ३० ।।

तब हृदय, शिर, शिखा, कवच, नेत्र और अस्त्र का क्रमश: छः मन्त्रों से दाहिने हाथ द्वारा अंगन्यास करे ॥३०॥

आस्यं बाहुयुगं कुक्षि गुह्यं जानुयुगं तथा ।

पादयुग्मं क्रमात् तैस्तु षड्भिर्मन्त्रैर्न्यसेत् तथा ।। ३१ ।।

इसी प्रकार मुँह, दोनों बाहों, कोख, गुह्य, दोनों घुटनों, दोनों पैरों में उन्हीं छः मन्त्रों द्वारा क्रमशः न्यास करे ॥३१॥

अष्टधा मूलमन्त्रं तु जप्त्वाथार्घाहिते जले ।

तेनोपकरणं देयं चाभ्युक्ष्य क्रममारभेत् ।। ३२ ।।

तब अर्ध के निमित्त ग्रहण किये जल में मूलमन्त्र का आठ बार जप करके उसी से पूजा के उपकरणों का अभ्युक्षण (सिंचन) करे ॥ ३२ ॥

दैशिकः पूजयेद् देवी पीठेनादैशिकः क्वचित् ।

तस्यैव हि करस्पर्शाद् देवी नोद्विजते शिवा ।। ३३ ।।

स्थानीय साधक पीठ पर उपर्युक्त रीति से अभ्युक्षण करे। यदि साधक स्थानीय न हो तो भी भगवती, उसके हाथ के स्पर्श से उद्विग्न नहीं होतीं ॥ ३३ ॥

यदि देशान्तराद् यत पीठं देशान्तरं प्रति ।

तद्दैशिकोपदेशेन तदा पूजां समारभेत् ।। ३४ ।।

यदि बाहरी स्थान से पीठ (क्षेत्र विशेष) में साधक पूजन करने आया हो तब उसे स्थानीय साधक के उपदेशानुसार पूजन प्रारम्भ करना चाहिये ॥३४॥

यद्यन्यतः समायाता कामरूपादृते नरः ।

तद्देशजोपदेशेन सम्पूज्यफलमाप्नुयात् ।। ३५ ।।

यदि साधक मनुष्य कामरूप के अतिरिक्त अन्य देश से आया हो तो उसे इस देश के उत्पन्न साधक के उपदेश से ही पूजा का फल प्राप्त होगा ॥ ३५ ॥

यस्मिन् देशे तु यः पीठ ओड्रपाञ्चालकादिषु ।

तद्देशजोपदेशेन पूज्यः पीठे सुरो नरैः ।। ३६ ।।

ओड्र, पाञ्चाल आदि जिस देश में जो पीठ स्थित हैं, उनमें साधकों द्वारा उसी देश में उत्पन्न आचार्यों के उपदेशों द्वारा देवपूजनकार्य किया जाना चाहिये ॥ ३६ ॥

इतोऽन्यथा पूजने न सम्यक् फलमवाप्नुयात् ।

महाविभवसम्पूर्णैर्विहितेनैव भैरव ।। ३७।।

हे भैरव ! इससे अलग विधि से पूजन करने से भली-भाँति फल नहीं प्राप्त होता भले ही वह अत्यन्त वैभव और विधि से ही क्यों न किया जाय ॥३७॥

अनुक्तो यः क्रमश्चात्र वैष्णवीतन्त्रगोचरे ।

तथैवोत्तरतन्त्रेऽपि प्रोक्तो ग्राह्यस्तु साधकैः ।। ३८ ।।

यहाँ पूजा का जो क्रम नहीं बताया गया है। उसे साधकों द्वारा वैष्णवीतन्त्र या उत्तरतन्त्र में कहे गये अंश से ग्रहण किया जाना चाहिये ॥३८॥

पूर्वद्वारि प्रथमतः कामतत्त्वं प्रपूजयेत् ।

दक्षिणे प्रीतितत्त्वं तु रतितत्त्वं च पश्चिमे ।

उत्तरे मोहनं तत्त्वं क्रमादेतानि पूजयेत् ।। ३९ ।।

पहले पूर्वदिशा के द्वार पर कामतत्त्व का दक्षिण में प्रीतितत्त्व का, पश्चिम में रतितत्त्व का, उत्तर में मोहनतत्त्व का क्रमशः पूजन करे ।। ३९ ।।

ऐशान्यां पूजयेद् देवं गणेशं द्वारपालकम् ।

अग्नौ तु चाग्निवेतालं नैर्ऋत्यां कालमेव च ।। ४० ।।

वायव्यां नन्दिनं चापि पूजयेत् क्रमतस्त्विमान् ।। ४१ ।।

ऐशान्य दिशा में देवश्रेष्ठ गणेश का, अग्निकोण में अग्नि वेताल का, नैर्ऋत्य में काल का, वायव्य में नन्दि का, इसी क्रम में, द्वारपालों के रूप में पूजन करे ।।४०-४१॥

चतुष्कं पञ्चकं षट्कं चतुष्कं पञ्चकं चतुः ।

षट्कारं चैव यो वेद स योग्यः पीठपूजने ।। ४२ ।।

(पीठ) चार, (बाण) पाँच, (भग/ऐश्वर्य) छ:, चार, पाँच, बार, छ:, इन तत्त्व विशेष के रहस्यों को जो साधक जानता है, वही पीठ पूजन का योग्य अधिकारी है ॥४२॥

कालिका पुराण अध्याय ६४- पीठ चतुष्क 

ओड्राख्यं प्रथमं पीठं द्वितीयं जालशैलकम् ।

तृतीयं पूर्णपीठं तु कामरूपं चतुर्थकम् ।।४३।।

ओड्रपीठ, प्रथम, जालशैल (जालन्धरपीठ) द्वितीय, पूर्णगिरिपीठ तृतीय तथा कामरूपपीठ चतुर्थ देवी का पीठ है ॥ ४३ ॥

ओड्रपीठं पश्चिमे तु तथैवोड्रेश्वरीं शिवाम् ।

कात्यायनीं जगन्नाथमोड्रेशं च प्रपूजयेत् ।। ४४।।

पश्चिम के ओड्रपीठ में (उड़ीसा में) कात्यायनी, ओड्रेश्वरी एवं शिवा नामक देवियों तथा जगन्नाथ का ओड्रेश्वर के रूप में भलीभाँति पूजन करना चाहिये ॥४४॥

उत्तरे पूजयेत् पीठं प्रशस्तं जालशैलकम् ।

जालेश्वरं महादेवं चण्डीं जालेश्वरीं तथा ।

दीर्घिकां चोग्रचण्डां च तत्रैव परिपूजयेत् ।। ४५ ।।

उत्तर में जालशैल नामक प्रसिद्ध पीठ का पूजन करे। वहीं जालेश्वर महादेव और चण्डी जालेश्वरी, दीर्घिका और उग्रचण्डी नामवाली देवियों का भी वहीं भलीभाँति पूजन करे।। ४५ ।।

दक्षिणे पूर्णशैलं तु तथा पूर्णेश्वरीं शिवाम् ।

पूर्णनाथं महानाथं सरोजामथ चण्डिकाम् ॥४६।।

पूजयेद् दमनीं देवीं शान्तामपि तथा शिवाम् ।। ४७ ।।

दक्षिण में पूर्णशैल पर देवी पूर्णेश्वरी और महादेव पूर्णनाथ, सरोजा (लक्ष्मी), चण्डिका, शान्तस्वभाववाली दमनी देवी का साधक वहीं पूजन करे ।।४६-४७।।

कामरूपं महापीठं तथा कामेश्वरीं शिवाम् |

नीलं च पर्वतश्रेष्ठं नाथं कामेश्वरं तथा ।

पूजयेद् द्वारि पूर्वं तु क्रमादेतांस्तु भैरव ।।४८।।

हे भैरव ! कामरूप महापीठ में कामेश्वरी देवी, पर्वतराज नीलाचल, कामेश्वरनाथ का क्रमशः पूर्वी द्वार पर पूजन करना चाहिये ॥ ४८ ॥

ओड्रादीनां तु पीठानां क्षेत्रपालान् गुरुंस्तथा ।

अन्यांस्तु द्वारपालादीन् स्वे स्वे स्थाने प्रपूजयेत् ।। ४९ ।।

अन्य ओड्र  आदि पीठों के क्षेत्रपाल, गुरु, द्वारपाल आदि का अपने-अपने स्थानों पर पूजन करना चाहिये ॥ ४९ ॥

विशेषात् कामरूपस्य कामेश्वरीं प्रपूजयन् ।

तामेव नीलशैलस्थां शृणु वेतालभैरव ।।५०॥

हे वेताल और भैरव ! अब विशेषरूप से कामरूप के नीलशैल पर स्थित कामेश्वरी के पूजन की विधि कहता हूँ, उसे सुनो ॥ ५० ॥

नाथः कामेश्वरो देवो देवी कामेश्वरी तथा ।

करालः क्षेत्रपालश्च चिञ्चावृक्षस्तथैव च ।। ५१ ।।

त्रिकूटे नीलशैलस्तु गुहा चापि मनोभवा ।। ५२ ।।

वहाँ स्वामी कामेश्वरदेव, देवी कामेश्वरी, क्षेत्रपाल कराल, चिञ्चावृक्ष (इमली का पेड़), त्रिकूट पर नीलशैल तथा मनोभव गुफा, विशेषरूप से विराजमान हैं ।। ५१-५२॥

बटुकः कम्बलो नाम वल्ली चैवापराजिता ।

भैरवः पाण्डुनाथश्च श्मशानं हेरुकाह्वयम् ।।५३ ।।

योगिनी च महोत्साहा तथा चन्द्रवती पुरी ।

लौहित्यो नदराजश्च प्रान्ता दिक्करवासिनी ।।५४।।

वहाँ कम्बल नामक बटुक, अपराजितावल्ली, पाण्डुनाथ नामक भैरव हेरुक नामक श्मशान, महोत्साहा नामवाली योगिनी, चन्द्रवती पुरी तथा दिक्करवासिनी के समीप, लौहित्य नामक नदों के राजा स्थित हैं ।।५३-५४।।

जल्पीशाख्यस्तु वायव्यां केदाराख्योऽथ राक्षसे ।

एतान् सम्पूजयेद् द्वारि तथा देव्यास्तु मण्डले ।। ५५ ।।

द्वारपालो योगिनी च बटुकाद्या यथा तथा ।

कामरूपे पीठवरे ओड्रादिष्वथ तत् तथा ।। ५६ ।।

जल्पीश नामक देव का वायव्यकोण में और केदार का राक्षस (नैर्ऋत्य)-कोण में, इन सब योगिनी, बटुक आदि का द्वार पर तथा देवी का मण्डल में कामरूप नामक, श्रेष्ठपीठ में एवं ओड्र आदि पीठों में भी इसी प्रकार पूजन करे ।। ५५-५६ ॥

कालिका पुराण अध्याय ६४- बाणविचारपञ्चक 

मध्ये तु मण्डलस्याथ द्रावणं शोषणं तथा ।

बन्धनं मोहनं चैव तथैवाकर्षणाह्वयम् ।

मनोभवस्य बाणांस्तु पञ्चैतान् परिपूजयेत् ।। ५७ ।।

मण्डल के मध्यभाग में द्रावण, शोषण, बन्धन, मोहन तथा आकर्षण नामक कामदेव के पाँच बाणों का भली-भाँति पूजन करना चाहिये ॥५७॥

षट्कोणाग्रेषूत्तरादौ भगादिषट्कमेवच ।

त्रिपुरातन्त्रमन्त्रोक्तं पूजयेत् कम्रतः सुधीः ।। ५८ ।।

सुन्दरबुद्धि वाले साधक को त्रिपुरा - तन्त्र-मन्त्र में कहे अनुसार भग आदि छः का षट्कोण के अगले भाग में उत्तर आदि दिशाओं में क्रमशः पूजन करना चाहिये ॥५८॥

गणाक्रीडादिकं तद्वत् तथा विद्याकलादिकान् ।। ५९ ।।

बटुकान् सिद्धपुत्रादीन् सिद्धाद्याश्च कुमारिकाः ।

चतुश्चतुष्कमित्येतच्चतुष्कमिति चोच्यते ।। ६० ।।

उसी के अनुसार गणाक्रीड, विद्याकला, बटुक, सिद्धपुत्र और कुमारिकाओं का पूजन करे । सिद्ध, बटुक, सिद्धपुत्र और कुमारिका ये चार पूजनीय वर्ग हैं, इसी लिए इन्हें चतुष्क कहा जाता है ।। ५९-६० ।।

कामं रतिं च प्रीतिं च अनङ्गमेखलादिकम् ।

सप्त वै त्रिपुरघ्नाद्या असिताङ्गादयो नव । । ६१ ।।

माहेश्वर्यादिका देव्यो दशभिः पञ्चभिर्गणैः ।

द्वितीयं पञ्चकं प्रोक्तं पीठे कामफलप्रदम् ।।६२।।

काम, रति, प्रीति, अनङ्गमेखला आदि चार त्रिपुरघ्नादि सात, असिताङ्ग आदि नौ तथा माहेश्वरी आदि दश के, पाँच समूहों को पीठपूजन में द्वितीय पंचक बताया गया है। जो कामनाओं के अनुरूप फल प्रदान करने वाला है ।। ६१-६२॥

आधारशक्तिमुख्या ये नित्यं तत्र प्रतिष्ठिताः ।

धर्माद्याश्च तथैवाष्टौ तथा सत्त्वादिका गुणाः ।

एकत्र ग्रहदिक्पालाश्चतुष्कमपरं स्मृतम् ।। ६३ ।।

आधारशक्ति आदि जो नित्यरूप से वहाँ स्थित हैं। धर्मादि आठ, सत्वादिगुण, ग्रह-दिक्पाल इनके एकत्रितरूप को ही दूसरा चतुष्क कहा गया है ॥६३॥

देव्यास्तथोग्रचण्डाद्या नायिकाः परिपूजयेत् ।

पूर्वोक्तदेशे मन्त्रेण भक्त्या वेतालभैरव ॥ ६४॥

हे वेताल और भैरव! पूर्वोक्त स्थान और मन्त्र से जैसा कि त्रिपुरा आदि तन्त्रों में बताया गया है, उग्रचण्डा आदि देवी की नायिकाओं, योगिनियों का भक्तिपूर्वक पूजन करना चाहिये ॥ ६४॥

आवाहनं षोडशोपचाराणां प्रतिपादनम् ।। ६५ ।।

जपं च बलिदानं च अङ्गास्त्राणां प्रपूजनम् ।

मुद्रा पूर्वा विसृष्टिश्च षट्कमेतत् प्रकीर्तितम् ।।६६।।

आवाहन आदि षोडशोपचारों से पूजन, जप, बलिदान, अङ्ग और अस्त्रों का पूजन, मुद्रापूर्वक विसर्जन, इनका समूह, अन्तिमषट्क कहा गया है ।।६५-६६ ।।

एतानि सप्त जानाति प्रकारान् पूजकः सुधीः ।

स एवोड्रादिपीठानि सम्पूजयितुमर्हति ।। ६७।।

इन सात (४ पीठ, ५ बाण, भगादि ६, बटुक, सिद्धपुत्र, सिद्धकुमारिका आदि ४, काम, रति प्रीति, अनङ्ग मेखला त्रिपुरघ्नादि ६, असिताङ्गादि नौ, भैरव तथा माहेश्वरी आदि १०, शक्तियों के समूह ५, धर्मादि से दिकपाल् पर्यन्त ४, आवाहन से विसर्जन तक ६) रहस्यों को जो साधक जानता है, वही सुन्दर बुद्धिवाला है तथा वही ओड्रादि पीठों की भलीभाँति पूजा भी कर सकता है ।। ६७ ।।

योऽज्ञात्वा सम्यगेतानि कुरुते पीठपूजनम् । 

न सम्यक् फलमाप्नोति हीनायुरपि जायते ।। ६८ ।।

जो उपर्युक्त रहस्यों को भलीभाँति न जानते हुए भी पीठपूजन (साधना की दृष्टि से) करता है। उसे उचित फल नहीं प्राप्त होता और वह हीनायु होता है ॥६८॥

त्रिपुरातन्त्रमन्त्रोक्तस्थानेष्वेतेषु भैरव ।

पूजयित्वा प्रथमतः पूजयेत् परमेश्वरीम् ।। ६९ ।।

हे भैरव ! त्रिपुरातन्त्र के मन्त्रों में बताये गये स्थानों पर सर्वप्रथम इनका पूजन करने के पश्चात् परमेश्वरी का पूजन करना चाहिये ॥ ६९ ॥

कामेश्वरि इहागच्छ सम्मुखीभव चेश्वरि ।

चिन्तयित्वाथ मनसाऽभ्यर्च्य कामेश्वरीं हृदि ॥७०॥

मानसैर्गन्धपुष्पाद्यैस्ततो दक्षिणनासया ।

निःसार्य वायुं तत् पुष्पमारोप्य मण्डलान्तरे ।। ७१ ।।

आवाहयेन्महादेवीं सर्वकामेश्वरेश्वरीम् ।

हे कामेश्वरी ! आप यहाँ आइये । हे ईश्वरी ! आप मेरे सम्मुख उपस्थित होइये, इस रूप में चिन्तन करता हुआ, कामेश्वरी का हृदय में ही मानसिक पूजन, गन्ध- पुष्पादि से करके, दाहिनी नाक से वायु निकाल, उसे पुष्प पर आरोपित कर, मण्डल में सभी कामेश्वरों की ईश्वरी (स्वामिनी) महादेवी का आवाहन करे।। ७०-७१।।

कालिका पुराण अध्याय ६४ - आवाहनमन्त्र 

कामेश्वरि इहागच्छ सम्मुखीभव सन्निधौ ।।७२।।

कामेश्वरं विद्महे त्वां कामाख्यायै च धीमहि ।

तन्नः कुब्जि महामाये ततः पश्चात् प्रचोदयात् ।। ७३ ।।

एह्येहि भगवत्यम्ब लोकानुग्रहकारिणि ।

कामेशे कामरूपे त्वं कामकान्ते प्रसीद मे ।। ७४ ।।

मन्त्र - कामेश्वरि प्रसीदमे ।

हे कामेश्वरि आप यहाँ आइये, सम्मुख एवं सान्निध्यप्रद! होइये, हे कामेश्वरी ! मैं आपको जानता हूँ। मैं कामाख्या का ध्यान करता हूँ, हे कुब्जि! हे महामाये! आप मुझे प्रेरित करें। हे भगवति ! हे माता ! हे सभी लोकों पर अनुग्रह करनेवाली, हे कामेश्वरी ! हे कामरूप धारण करने वाली ! हे काम की प्रिये! आप प्रसन्न हों आप यहाँ शीघ्र पधारें ।। ७२-७४ ।।

ततस्तु प्रथमं स्नानं जलं दत्त्वा तु पूजकः ।

मूलमन्त्रेण वितरेदुपचारांस्तु षोडश ।

पूजयेन्मध्यभागे तु षडङ्गानि ततोऽर्च्चयेत् ।। ७५ ।।

तब पूजा करने वाला साधक, पहले स्नान हेतु मूलमन्त्र पढ़कर जल दे तब उसी से पूजा के सोलह उपचार समर्पित करे, तत्पश्चात् मण्डल के मध्यभाग में देवी के षडङ्गों का पूजन करे।। ७५ ।

अङ्गन्यासे तु ये मन्त्राः क्रमे पूर्वं तु भाषिताः ।

तैरेव मन्त्रैरङ्गानि देव्या अपि च पूजयेत् ।। ७६ ।।

पहले अङ्गन्यास के क्रम में जो मन्त्र बताये गये हैं। उन्हीं मन्त्रों से देवी के भी अङ्गों का पूजन करे ॥ ७६ ॥

पूर्वाद्यष्टदलेष्वेता योगिनी: परिपूजयेत् ।। ७७ ।।

यथाक्रमेण कामानां सिद्ध्यर्थं कामदायिकाः ।

गुप्तकामां तु श्रीकामां तथैव विन्ध्यवासिनीम् ।।७८ ।।

कोटेश्वरीं वनस्थां तु योगिनीं पादचण्डिकाम् ।

दीर्घेश्वरीं तु प्रकटां भुवनेशीं क्रमाद् यजेत् ।। ७९ ।।

पूर्व आदि आठदलों में क्रमशः गुप्तकामा, श्रीकामा, विन्ध्यवासिनी, कोटेश्वरी, वनस्था, पादचण्डिका, योगिनीदीर्घेश्वरी एवं प्रकटाभुवनेश्वरी देवी नाम की कामप्रदायिनी योगिनियों का, साधक अपनी कामना की सिद्धि के लिए, भली-भाँति पूजन करे ।। ७७-७९ ॥

वैष्णवीतन्त्रमन्त्रस्य यान्यष्टावक्षराणि तु ।

तानि विन्द्विन्दुयुक्तानि मन्त्रन्यासांश्च चक्षते ॥८०॥

वैष्णवी-तन्त्र-मन्त्र के जो आठ अक्षर कहे गये हैं वे ही अर्धचन्द्र तथा बिन्दु से युक्त हो, इन योगिनियों के मन्त्र कहे गये हैं ॥ ८०॥

मन्त्रेभिः षष्णां कोणानां षडिमाः परिपूजयेत् ।

ऐशान्यादिक्रमेणैव कामाख्यां त्रिपुरां तथा ।। ८१ ।।

शारदां च महोत्साहां प्रकटां भुवनेश्वरीम् ।

सिद्धकामेश्वरीं चापि देव्या रूपाणि भैरव ।।८२।।

भैरव ! इन मन्त्रों से षट्कोणों में भलीभाँति पूजन करे। ऐशान्य से प्रारम्भ कर कामाख्या, त्रिपुरा, शारदा, महोत्साहा, प्रकटाभुवनेश्वरी, सिद्धकामेश्वरी इन षट्योगिनियों का पूजन करे।। ८१-८२ ।।

अष्टपुष्पिकया देवीं पुनः सम्पूज्य चाष्टधा ।

जप्त्वा स्तुत्वा बलिं दत्त्वा नत्वा मुद्रां प्रदर्श्य च ।। ८३ ।।

देव्यास्तु सिद्धचण्ड्या वै निर्माल्यं प्रतिपाद्यच ।

विसृज्य मण्डलाद् देवीं स्थापयेद् योनिमण्डले ।। ८४ ।।

अष्टपुष्पिका से आठ रूपों में देवी का पुन: पूजन कर, जप, स्तुति, बलि देकर, नमस्कार और मुद्रा प्रदर्शितकर, देवी को निर्माल्य प्रदानकर, मण्डल से विसर्जित कर, देवी को योनिमण्डल में स्थापित करे ।।८३-८४ ।।

एतत् कामेश्वरीतन्त्रं कथितं युवयोः सुतौ ।

शारदाया: महातन्त्रं समन्त्रं शृणु भैरव ।।८५।।

हे भैरव ! हे दोनों पुत्रों ! यह कामेश्वरीतन्त्र तुम दोनों से कहा गया । अब मंत्र सहित, देवी शारदा के तन्त्र (पूजा विधान) को सुनो ॥ ८५ ॥

॥ इति श्रीकालिकापुराणे कामाख्यापूजनविधिर्नाम् चतुःषष्टितमोऽध्यायः ।। ६४ ।।

॥ श्री कालिकापुराण में कामाख्यापूजनविधिनामक चौसठवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥६४॥

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 65 

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