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श्रीहनुमत्सहस्रनाम स्तोत्र

श्रीहनुमत्सहस्रनाम स्तोत्र

श्रीहनुमानजी जिनके इष्ट देवता हैं, उनको तो श्रीहनुमत्-सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ प्रतिदिन करना ही चाहिये, परंतु साधारणतः कोई भी साधक इस सहस्रनाम का पाठ करके लाभ उठा सकता है। यह हनुमत्सहस्रनाम 'बृहज्योतिषार्णव' से लिया गया है।

देवाराधना में सहस्रनाम का पाठ एक विशेष स्थान रखता है। इस कारण प्रायः सभी देवताओं के पृथक्-पृथक् सहस्रनाम उपलब्ध हैं। प्रत्येक देवता के दो स्वरूप होते हैं-सगुण और निर्गुण । सगुणस्वरूप में उनकी लीला, रूप, गुण, प्रभाव का समावेश होता है और निर्गुणस्वरूप में वे परब्रह्म हैं। अतः सहस्त्रनाम में इन दोनों रूपों का दर्शन होता है। ब्रह्मस्वरूप में प्रकृति-पुरुष, देवी-देवता, ऋषि-मुनि आदि सबका समावेश होता है। अतएव सहस्रनाम में उन सबका इष्ट देवता के नाम के रूप में उल्लेख किया जाता है। इष्ट देवता सर्वमय हैं, सर्वस्वरूप हैं; क्योंकि वे परब्रह्म हैं। श्रीहनुमत्सहस्रनाम में श्रीविष्णुभगवान्के प्रायः सभी अवतारों को श्रीहनुमानजी के नाम के रूप में वर्णन किया गया है। ऋषियों, देवताओं तथा सृष्टि की महान् ऐश्वर्यशाली विभूतियों को श्रीहनुमानजी के नाम के रूप में वर्णन किया है। इस प्रकार सहस्रनाम के माध्यम से अनायास ही वासुदेवः सर्वम्' का पाठ साधक को पढ़ा दिया जाता है। दूसरे शब्दों में सहस्रनाम में जो नानात्व है, वह एकत्व में अन्तर्हित है। एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही राम, कृष्ण, विष्णु, शिव, शक्ति, सूर्य, गणेश, हनुमान आदि भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होकर विभिन्न लीलाएँ करते हैं। साधक अपनी-अपनी रुचि, योग्यता, विश्वास एवं श्रद्धा के अनुसार उनमें से किसी एक रूप की उपासना कर अन्त में उसी एक परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त करते हैं।

प्रत्येक नाम के उच्चारण के साथ साधक को अपने आराध्य के एक विशेष स्वरूप, गुण, प्रभाव एवं लीला का स्मरण होता है। इष्टदेव के विभिन्न नामों के साथ विभिन्न लीलाओं का स्मरण, चिन्तन एवं कीर्तन कर साधक भाव विभोर होता रहे, सहस्त्रनामों के उल्लेख का यही रहस्य प्रतीत होता है। सहस्रनाम का पाठ नैष्ठिक ब्राह्मण से या किसी साधक से करवाकर उसका श्रवण करने से भी मनोवाञ्छित फल प्राप्त होता है। मुख्यरूप से मंगलवार और शनिवार ये दोनों दिन श्रीहनुमानजी के पूजा-अनुष्ठान के लिये विशेष मान्य हैं। श्रीहनमानजी के या श्रीरामजी के विग्रह के सामने इस सहस्रनाम का पाठ श्रद्धा-प्रेमपूर्वक नियमितरूप से करना चाहिये।

इस स्तोत्र का सर्वाधिक वैशिष्ट्य यह है कि स्वयं श्रीरामचन्द्रजी ने इस हनुमत्सहस्रनाम का पाठ करके लाभ उठाया है, यह इसकी भूमिका से ही ज्ञात होता है तथा इसकी फलश्रुति से इसकी विशेष महिमा जानी जा सकती है। सहस्त्रनाम के प्रत्येक नाम का अर्थ समझते हुए निष्कामभाव से श्रद्धा-प्रेमपूर्वक पाठ करने पर मनुष्य को परम शान्ति और परमानन्दस्वरूप परमपद की प्राप्ति तथा परम दुर्लभ भगवत्प्रेम की प्राप्ति भी हो सकती है। एक-एक नाम को चतुर्थी विभक्ति के साथ जोड़कर 'नमः' पद के साथ पढ़कर पुष्प अर्पण करने का विधान भी पाया जाता है। जैसे 'श्रीहनुमते नमः', 'श्रीश्रीप्रदाय नमः', 'श्रीवायुपुत्राय नमः'इत्यादि। अस्तु जिस विधि से हो सके, वैसे ही साधक को अपने इष्ट देवता की कृपा-प्राप्ति के लिये समाहित चित्त से श्रद्धा-प्रेमपूर्वक सहस्त्रनाम का पाठ करना चाहिये।

श्रीरामकृतं श्रीहनुमत्सहस्रनामस्तोत्रम्

श्रीरामकृतं श्रीहनुमत्सहस्रनामस्तोत्रम्

ऋषय ऊचुः

ऋषे लौहगिरि प्राप्तः सीताविरहकातरः।

भगवान् किं व्यधाद् रामस्तत्सर्वं ब्रूहि सत्वरम् ॥१॥

ऋषिगण बोले- महर्षि वाल्मीकिजी! सीताजी के विरह में कातर भगवान् श्रीरामचन्द्रजी ने लौहगिरि (ऋष्यमूक पर्वत)-पर जाकर क्या किया? वह सब वृत्तान्त अविलम्ब बतलाने की कृपा करें॥१॥

वाल्मीकिरुवाच

मायामानुषदेहोऽयं ददर्शाने कपीश्वरम् ।

हनुमन्तं जगत्स्वामी बालार्कसमतेजसम् ॥२॥

स सत्वरं समागम्य साष्टाङ्गं प्रणिपत्य च ।

कृताञ्जलिपुटो भूत्वा हनुमान् राममब्रवीत् ॥३॥

वाल्मीकिजी ने कहा- अपनी मायाशक्ति के द्वारा मानवविग्रह धारण करनेवाले जगदीश्वर भगवान् श्रीराम ने उदयकालीन सूर्य के समान तेजस्वी महाकपीश्वर श्रीहनुमानजी को अपने सामने देखा। तब श्रीहनुमानजी ने शीघ्र भगवान् श्रीराम के पास जाकर, साष्टाङ्ग प्रणाम किया और हाथ जोड़कर इस प्रकार कहने लगे॥२-३॥

श्रीहनुमानुवाच

धन्योऽस्मि कृतकृत्योऽस्मि दृष्ट्वा त्वत्पादपङ्कजम् ।

योगिनामप्यगम्यं च संसारभयनाशनम् ॥४॥

पुरुषोत्तम देवेश किं कर्तव्यं निवेद्यताम् ।

श्रीहनुमानजी बोले- पुरुषोत्तम! आप योगियों के लिये भी अगम्य हैं तथा संसार के भय का नाश करनेवाले हैं। आज मैं आपके चरणकमल का दर्शन कर धन्य और कृतकृत्य हो रहा हूँ। देवेश! अब मेरे लिये जो कार्य हो, उसे बतलाइये॥ ४॥

श्रीराम उवाच

जनस्थानं कपिश्रेष्ठ कोऽप्यागत्य विदेहजाम् ॥५॥

हृतवान् विप्रसंवेशो मारीचानुगते मयि ।

गवेष्यः साम्प्रतं वीर जानकीहरणे परः॥६॥

त्वया गम्यो न को देशस्त्वं च ज्ञानवतां वरः।

सप्तकोटिमहामन्त्रमन्त्रितावयवः प्रभुः॥७॥

श्रीरामजी बोले- कपिश्रेष्ठ हनुमान! जब मैं मारीच को मारने के लिये उसके पीछे गया तो ब्राह्मण-वेषधारी कोई दुष्ट जनस्थान में आकर सीता को चुरा ले गया। वीर! अब जानकी को चुरानेवाले उस शत्रु की खोज होनी चाहिये। कौन-सा ऐसा देश है, जहाँ तुम नहीं जा सकते। तुम ज्ञानियों में श्रेष्ठ हो तथा सात करोड़ महामन्त्रों से अभिमन्त्रित शरीर के कारण तुम सर्वथा समर्थ हो॥५-७॥

ऋषय ऊचः

को मन्त्रः किं च तद्ध्यानं तन्नो ब्रूहि यथार्थतः ।

कथासुधारसं पीत्वा न तृप्यामः परंतप ॥८॥

ऋषिगण बोले- श्रीहनुमानजी का मन्त्र क्या है, उनके ध्यान का स्वरूप क्या है, वह सब हमको ठीक ठीक बतलाइये। परम तपस्वी वाल्मीकिजी! आपके द्वारा वर्णित कथारूपी अमृतरस का पान कर हमलोगों को तृप्ति नहीं हो रही है॥८॥

वाल्मीकिरुवाच

मन्त्रं हनुमतो विद्धि भुक्तिमुक्तिप्रदायकम् ।

महारिष्टमहापापमहादुःखनिवारणम् ॥९॥

वाल्मीकिजी ने कहा- सप्तकोटि महामन्त्रों में श्रीहनुमानजी का यह मन्त्र भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है, यह सब प्रकार के महान्-से-महान् क्लेश, पाप, ग्रहपीड़ा तथा महान् दुःखों का निवारण करनेवाला है॥९॥

यह मन्त्र इस प्रकार है

अथ मन्त्रः

'ॐ ऐं ह्रीं हनुमते रामदूताय लङ्काविध्वंसनायाञ्जनीगर्भसम्भूताय शाकिनीडाकिनीविध्वंसनाय किलिकिलिबुबुकारेण विभीषणाय हनुमद्देवाय । ॐ ह्रीं श्रीं ह्रौं ह्रां फट् स्वाहा'॥१०॥

अन्यं हनुमतो मन्त्रं सहस्रनामसंज्ञितम् ।

जानन्तु ऋषयः सर्वे महादुरितनाशनम् ॥११॥

ऋषिगण! इसके अतिरिक्त एक दूसरा श्रीहनुमानजी का सहस्रनाम-संज्ञक मन्त्र है, जिसे आपलोग महापापों का नाश करनेवाला समझें ॥११॥

यस्य संस्मरणात् सीता लब्धा राज्यमकण्टकम् ।

विभीषणाय च ददावात्मानं लब्धवान् मया ॥१२॥

जिसके जप से श्रीराम ने सीता को प्राप्त किया तथा लंका का निष्कण्टक राज्य विभीषण को प्रदान किया और मेरे द्वारा आत्म-साक्षात्कार प्राप्त किया; अर्थात् उन्होंने यह समझा कि वे पूर्णब्रह्म हैं, मनुष्य नहीं ॥१२॥

ऋषय ऊचुः

सहस्रनामसन्मन्त्रं दुःखाघौघनिवारणम् ।

वाल्मीके ब्रूहि नस्तूर्णं शुश्रूषामः कथां पराम् ॥१३॥

ऋषिगण बोले- वाल्मीकिजी! हमलोग आपकी श्रेष्ठ कथा को बड़े ध्यान से सुन रहे हैं। आप कृपया समस्त दु:ख एवं पापपुञ्ज को दूर करनेवाले हनुमत्सहस्रनामरूपी मन्त्र का शीघ्र ही वर्णन करें॥ १३॥

वाल्मीकिरुवाच

शृण्वन्तु ऋषयः सर्वे सहस्रनामकं स्तवम् ।

स्तवानामुत्तमं दिव्यं सदर्थस्य प्रदायकम् ॥१४॥

वाल्मीकिजी बोले- ऋषियो! आपलोग ध्यान से हनुमत्सहस्रनामस्तोत्र को सुनिये। यह स्तवों में उत्तम तथा सत्प्रयोजन को सिद्ध करनेवाला दिव्य स्तोत्र है॥१४॥

इसका विनियोग इस प्रकार है

अथ विनियोगः

'ॐ अस्य श्रीहनुमत्सहस्रनामस्तोत्रमन्त्रस्य श्रीरामचन्द्र ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीहनुमान् महारुद्रो देवता, ह्रीं श्रीं  ह्रौं ह्रां बीजम्, श्री-इति शक्तिः, किलिकिलिबुबुकारेणेति कीलकम्, लङ्काविध्वंसनायेति कवचम्, मम सर्वोपद्रवशान्त्यर्थे सर्वकामसिद्धयर्थे च जपे विनियोगः।'

इस हनुमत्सहस्रनामस्तोत्र-मन्त्र के ऋषि भगवान् श्रीरामचन्द्रजी हैं, इसका छन्द अनुष्टुप् है, महारुद्र श्रीहनुमानजी इसके देवता हैं, ह्रीं श्रीं ह्रौं ह्रां बीज हैं, श्रीं शक्ति है, किलिकिलिबुबुकारेण कीलक है, लाविध्वंसनाय कवच है। मेरे सारे उपद्रवों की शान्ति के लिये तथा सारी कामनाओं की सिद्धि के लिये जप में इसका विनियोग है।

(विनियोग-विधि-दाहिने हाथमें जल लेकर 'ॐ अस्य श्रीहनुमत्सहस्रनामस्तोत्रमन्त्रस्य' से प्रारम्भ करके 'जपे विनियोगः' तक सारा विनियोग-मन्त्र पढ़कर भूमि पर जल छोड़ दे।)

अथ न्यासः

ऋष्यादिन्यास:-

'ॐ श्रीरामचन्द्रऋषये नमः, शिरसि' (पढ़कर सिरका स्पर्श करे)।

'अनुष्टुप् छन्दसे नमः, मुखे' (पढ़कर मुख का स्पर्श करे)।

'ह्रौं बीजाय नमः, गुह्ये' (पढ़कर गुप्त अङ्ग का स्पर्श करे)।

'श्रीहनुमते कीलकाय नमः, नाभौ' (पढ़कर नाभि का स्पर्श करे)।

'इष्टार्थे विनियोगाय नमः, अञ्जलौ' (पढ़कर अञ्जलि का स्पर्श करे)।

इति ऋष्यादिन्यासः।

करादिन्यास:-

ॐ ऐं ह्रीं हनुमते रामदूताय अङ्गुष्ठाभ्यां नमः (कहकर दोनों अङ्गुष्ठों के बीच में तर्जनी को लगावे)।

ॐ लङ्काविध्वंसनाय तर्जनीभ्यां नमः (दोनों तर्जनी से अङ्गुष्ठों को लगावे)।

ॐ अञ्जनीगर्भसम्भूताय मध्यमाभ्यां नमः (दोनों मध्यमा अङ्गुलियों को अङ्गुष्ठ से लगावे),

ॐ शाकिनीडाकिनीविध्वंसनाय अनामिकाभ्यां नमः

(पढ़कर दोनों अनामिका अङ्गुलियों को अङ्गष्ठ से स्पर्श करे)।

ॐ किलिकिलिबुबुकारेण विभीषणाय हनुमद्देवाय कनिष्ठिकाभ्यां नमः

(पढ़कर दोनों कनिष्ठि का अङ्गुलियों को अङ्गुष्ठ से स्पर्श करे)।

ॐ ह्रीं श्रीं ह्रौं ह्रां फट् स्वाहा करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः

(पढ़कर दोनों हथेलियों और हाथों के पृष्ठभागों को परस्पर स्पर्श करे)।

हृदयादिन्यासः-

ॐ ऐं ह्रीं श्रीहनुमते रामदूताय हृदयाय नमः (कहकर पाँचों अङ्गुलियों से हृदय का स्पर्श करे),

ॐ लङ्काविध्वंसनाय शिरसे स्वाहा (कहकर शिर का स्पर्श करे),

ॐ अञ्जनीगर्भसम्भूताय शिखायै वषट् (कहकर शिखा का स्पर्श करे),

ॐ शाकिनीडाकिनीविध्वंसनाय कवचाय हुम्

(कहकर दाहिने हाथ की पाँचों अङ्गुलियों से बायें कंधे का और बायें हाथ की अङ्गुलियों से दायें कंधे का स्पर्श करे),

ॐ किलिकिलिबुबुकारेण विभीषणाय हनुमद्देवाय नेत्रत्रयाय वौषट्

(कहकर दोनों नेत्र तथा ललाट का स्पर्श करे),

ॐ ह्रीं श्रीं ह्रौं ह्रां अस्त्राय फट् स्वाहा करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः

(कहकर दाहिने हाथ को आगे से लेकर बायें कंधे से पीठ पर घुमाकर ताली बजाये)।

अथ ध्यानम्

प्रतप्तस्वर्णवर्णाभं संरक्तारुणलोचनम् ।

सुग्रीवादियुतं ध्यायेत् पीताम्बरसमावृतम् ॥

गोष्पदीकृतवारीशं पुच्छमस्तकमीश्वरम् ।

ज्ञानमुद्रां च बिभ्राणं सर्वालंकारभूषितम् ॥

जो तपे हुए सुवर्ण के समान कान्तियुक्त हैं, जिनके नेत्र अत्यन्त लाल हैं, जो पीताम्बर धारण किये हैं, समुद्र को गौ के खुर के समान सहज ही लाँघ जाते हैं, अपनी पूँछ को मस्तक के ऊपर उठाये रहते हैं, सुग्रीव आदि वानर-वृन्द से युक्त, सब प्रकार के अलंकारों से भूषित, ज्ञान-मुद्राधारी, परमात्मस्वरूप श्रीहनुमानजी का ध्यान करे।

श्री हनुमंत सहस्त्रनामस्तोत्रम्

अथ सहस्त्रनाम

श्रीरामचन्द्र उवाच

हनुमाञ्श्रीप्रदो वायुपुत्रो रुद्रोऽनघोऽजरः ।

अमृत्युर्वीरवीरश्च ग्रामवासो जनाश्रयः ॥१॥

धनदो निर्गुणोऽकायो वीरो निधिपतिर्मुनिः ।

पिङ्गक्षो वरदो वाग्मी सीताशोकविनाशनः ॥२॥

शिवः सर्वः परोऽव्यक्तो व्यक्ताव्यक्तो रसाधनः ।

पिङ्गकेशः पिङ्गरोमा श्रुतिगम्य सनातनः ॥३॥

अनादिर्भवान देवो विश्वहेतुर्निरामयः ।

आरोग्यकर्ता विश्वेशो विश्वनाथो हरीश्वरः ॥४॥

भर्गो रामो रामभक्तः कल्याणप्रकृतिः स्थिरः ।

विश्वम्भरो विश्वमूर्तिर्विश्वाकारोऽथ विश्वपः ॥५॥

विश्वात्मा विश्वसेव्योऽथ विश्वो विश्वहरो रविः ।

वि्श्वचेष्टो विश्वगम्यो विश्वध्येयः कलाधरः ॥६॥

प्लवङ्गमः कपिश्रेष्ठो ज्येष्ठो वैद्यो वनेचरः ।

बालो वृद्धो युवा तत्त्वं तत्त्वगम्यः सखा ह्राजः ॥७॥

अञ्जनासूनुरव्यग्रो ग्रामख्यातो धराधरः ।

भूर्भुवःस्वर्महर्लोको जनलोकस्तपोऽव्ययः ॥८॥

सत्यमोङ्कारगम्यश्च प्रववो व्यापकोऽमलः ।

शिवधर्मप्रतिष्ठाता रामेष्टः फाल्गुनप्रियः ॥९॥

गोष्पदीकृतवारीशः पूर्णकामो धरापतिः ।

रक्षोघ्नोः पुण्डरीकाक्षः शरणागतवत्सलः ॥१०॥

जानकीप्राणदाता च रक्षःप्राणापहारकः ।

पूर्णः सत्यः पीतवासा दिवाकरसमप्रभः ॥११॥

देवोद्यानविहारी च देवताभयभञ्जनः ।

भक्तोदयो भक्तलब्धो भक्तपालनतत्परः ॥१२॥

द्रोणहर्ता शक्तिनेता शक्तिराक्षसमारकः ।

अक्षघ्नो रामदूतश्च शाकिनीजीवहारकः ॥१३॥

बुबुकारहतारातिर्गर्वपर्वतमर्दनः ।

हेतुस्त्वहेतुः प्रांशुश्च विश्वभर्ता जगद्‍गुरुः ॥१४॥

जगन्नेता जगन्नाथो जगदीशो जनेश्वरः ।

जगद्धितो हरिः श्रोशो गरुडस्मयभञ्जनः ॥१५॥

पार्थध्वजो वायुपुत्रोऽमितपुच्छोऽमितविक्रमः ।

ब्रह्मपुच्छः परब्रह्मपुच्छो रामेष्टकारकः ॥१६॥

सुग्रीवादियुतो ज्ञानी वानरो वानरेश्वरः ।

कल्पस्थायी चिरञ्जीवी तपनश्च सदाशिवः ॥१७॥

सन्नातिः सद्गतिर्भुक्तिमुक्तिदः कीर्तिदायकः ।

कीर्तिः कीर्तिप्रदश्चैव समुद्रः श्रीपदः शिवः ॥१८॥

भक्तोदयो भक्तगम्यो भक्तभाग्यप्रदायकः ।

उदधिक्रमणो देवः संसारभयनाशनः ॥१९॥

वार्धिबन्धनकृद विश्वजेता विश्वप्रतिष्ठितः ।

लङ्कारिः कालपुरुषो लङ्केशगृहभञ्जकः ॥२०॥

भूतावासो वासुदेवो वसुस्त्रिभुवनेश्वरः ।

श्रीरामरूपः कृष्णस्तु लङ्काप्रासादभञ्जकः ॥२१॥

कृष्णः कृष्णस्तुतः शान्तः शान्तिदो विश्वपावनः ।

विश्वभोक्ताथ मारघ्नो ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः ॥२२॥

ऊर्ध्वगो लाङ्गुली माली लाङ्गूलाहतराक्षसः ।

समीरतनुजो वीरो वीरतारी जयप्रदः ॥२३॥

जगन्मङ्गलदः पुण्यः पुण्यश्रवणकीर्तनः ।

पुण्यकीर्तिः पुण्यगतिर्जगत्पावनपावनः ॥२४॥

देवेशो जितमारोऽथ रामभक्तिविधायकः ।

ध्याता ध्येयो लयः साक्षी चेता चैतन्यविग्रहः ॥२५॥

ज्ञानदः प्राणदः प्राणो जगत्प्राण समीरणः ।

विभीषणप्रियः शूरः पिप्पलाश्रयसिद्धिदः ॥२६॥

सिद्धः सिद्धश्रयः कालो महोक्षः कालजान्तकः ।

लङ्केशनिधनस्थायी लड्कादाहक ईश्र्वरः ॥२७॥

चन्द्रसूर्यग्निनेत्रश्च कालाग्निः प्रलयान्तकः ।

कपिलः कपिशः पुण्यराशिर्द्वादशराशिगः ॥२८॥

सर्वाश्रयोऽप्रमेयात्मा रेवत्यादिनिवारकः ।

लक्ष्मणप्राणदाता च सीताजीवनहेतुकः ॥२९॥

रामध्येयो हृषीकेशी विष्णुभक्त जटी बली ।

देवारिदर्पहा होता धाता कर्ता जगत्प्रभुः ॥३०॥

नगरग्रामपालश्च शुद्धो बुद्धो निरत्रपः ।

निरञ्जनो निर्विकल्पो गुणातीतो भयंकरः ॥३१॥

हनुमांश्च दुराराध्यस्तपःसाध्यो महेश्वरः ।

जानकीधनशोकोत्थतापहर्ता परात्परः ॥३२॥

वाड्मयः सदसद्रूपः कारणं प्रकृतेः परः ।

भाग्यदो निर्मलो नेता पुच्छलङ्काविदाहकः ॥३३॥

पुच्छबद्धयातुधानो यातुधानरिपुप्रियः ।

छायापहारी भूतेशो लोकेशः सद्‍गतिप्रदः ॥३४॥

प्लवङ्गमेश्वरः क्रोधः क्रोधसंरक्तलोचनः ।

सौम्यो गुरुः काव्यकर्ता भक्तानां च वरप्रदः ॥३५॥

भक्तानुकम्पी विश्वेशः पुरुहूतः पुरंदरः ।

क्रोधहर्ता तमोहर्ता भक्ताभयवरप्रदः ॥३६॥

अग्निर्विभावसुर्भास्वान् यमो निऋतिरेव च ।

वरुणो वायुगतिमान् वायुः कौबेर ईश्वरः ॥३७॥

रविश्चन्द्रः कुजः सौम्यो गुरुः काव्यः शनैश्चरः ।

राहुः केतुर्मरुद्धोता दाता हर्ता समीरजः ॥३८॥

मशकीकृतदेवारिदैत्यारिर्मधुसूदनः ।

कामः कपिः कामपालः कपिलो विश्वजीवन ॥३९॥

भागीरथीपदाम्भोजः सेतुबन्धविशारदः ।

स्वाहा स्वधा हविः कव्यं हव्यवाहप्रकाशकः ॥४०॥

स्वप्रकाशो महावीरो लघुरूर्जितविक्रमः ।

उड्डीनोड्डीनगतिमान् सद्‍गतिः पुरुषोत्तमः ॥४१॥

जगदात्मा जगद्योनिर्जगदन्तो ह्यनन्तकः ।

विपाप्मा निष्कलङ्कोऽथ महान् महादहंकृतिः ॥४२॥

खं वायुः पृथिवी चापो वह्निर्दिक्पाल एव च ।

क्षेत्रज्ञः क्षेत्रहर्ता च पल्वलीकृतसागरः ॥४३॥

हिरण्मयः पुराणश्च खेचरो भूचरोऽमरः ।

हिरण्मयगर्भः सूत्रात्मा राजराजो विशांपतिः ॥४४॥

वेदान्तवेद्य उद्गीथो वेदवेदाङ्गपारगः ।

प्रतिग्रामस्थितिः सद्यःस्फूर्तिदाता गुणाकरः ॥४५॥

नक्षत्रमाली भूतात्मा सुरभिः कल्पपादपः ।

चिन्तामणिर्गुणनिधिः प्रजाधारो ह्यनुत्तमः ॥४६॥

पुण्यश्‍लोकः पुरारातिर्ज्योतिष्माञ्शर्वरीपतिः ।

किलकिलारावसंत्रस्तभूतप्रेतपिशाचकः ॥४७॥

ऋणत्रयहरः सूक्ष्मः स्थूलः सर्वगतिः पुमान् ।

अपस्मारहरः स्मर्ता श्रुतिर्गाथा स्मृतिर्मनुः ॥४८॥

स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं यतीश्वरः ।

नादरूपः परं ब्रह्म ब्रह्म ब्रह्मपुरातनः ॥४९॥

एकोऽनेको जनः शुक्लः स्वयंज्योतिरनाकुलः ।

ज्योतिर्ज्योतिरनादिश्च सात्त्विको राजसस्तमः ॥५०॥

तमोहर्ता निरलम्बो निराकारी गुणाकरः ।

गुणाश्रयो गुणमयो बृहत्कर्मा बृहद्यशाः ॥५१॥

बृहद्धनुर्बृहत्पादो बृहन्मूर्धा बृहत्स्वनः ।

बृहत्कर्णो बृहन्नासो बृहद्बाहुर्बृहत्तनुः ॥५२॥

बृहज्जानुर्बृहत्कार्यो बृहत्पुच्छो बृहत्करः ।

बृहद्रतिर्बृहत्सेव्यो बृहल्लोकफलप्रदः ॥५३॥

बृहच्छक्तिर्बृहद्वाञ्छाफलदो बृहदीश्वरः ।

बृहल्लोकनुतो द्रष्टा विद्यादाता जगद्‍गुरुः ॥५४॥

देवाचार्यः सत्यवादी ब्रह्मवादी कलाधरः ।

सप्तपातालगामी च मलयाचलसंश्रयः ॥५५॥

उत्तराशास्थितः श्रीदो दिव्यौषधिवशः खगः ।

शाखामृगः कपीन्द्रोऽथ पुराणश्रुतिचञ्चुरः ॥५६॥

चतुरब्राह्मणो योगी योगगम्यः परावरः ।

अनादिनिधनो व्यासो वैकुण्ठः पृथिवीपतिः ॥५७॥

अपराजितो जितारातिः सदानन्दो दयायुतः ।

गोपालो गोपतिर्गोप्ता कलिकालपराशनः ॥५८॥

मनोवेगी सदायोगी संसारभयनाशनः ।

तत्त्वदाताथ तत्त्वज्ञस्तत्त्वं तत्त्वप्रकाशकः ॥५९॥

शुद्धो बुद्धो नित्यमुक्तो भक्तराजो जयद्रथः ।

प्रलयोऽमितमायश्च मायातीतो विमत्सरः ॥६०॥

मायाभर्जितरक्षश्च मायानिर्मितविष्टपः ।

मायाश्रयश्च निर्लेपो मायानिर्वर्तकः सुखम् ॥६१॥

सुखी सुखप्रदो नागो महेशकृतसंस्तवः ।

महेश्वरः सत्यसंधः शरभः कलिपावनः ॥६२॥

सहस्त्रकन्धरबलविध्वंसनविचक्षणः ।

सहस्त्रबाहुः सहजो द्विबाहुर्द्विभुजोऽमरः ॥६३॥

चतुर्भुजो दशभुजो हयग्रीवः खगाननः ।

कपिवक्त्रः कपिपतिर्नरसिंहो महाद्युतिः ॥६४॥

भीषणो भावगो वन्घो वराहो वायुरूपधृक् ।

लक्ष्मणप्राणदाता च पराजितदशाननः ॥६५॥

पारिजातनिवासी च वटर्वचनकोविदः ।

सुरसास्यविनिर्मुक्तः सिंहिकाप्राणहारकः ॥६६॥

लङ्कालङ्कारविध्वंसी वृषदंशकरूपधृक् ।

रात्रिसंचारकुशलो रात्रिंचरगृहग्निदः ॥६७॥

किङ्करान्तकरो जम्बुमालिहन्तोगुरूपधृक् ।

आकाशचारी हरिगो मेघनादरणोत्सुकः ॥६८॥

मेघगम्भीरनिनदो महारावनकुलात्‍नकः ।

कालनेमिप्रानहारी मकरीशापमोक्षदः ॥६९॥

रसो रसज्ञः सम्मानो रूपं चक्षुः श्रुतिर्वचः ।

घ्राणो गन्धः स्पर्शनं च स्पर्शोऽहङ्कारमानगः ॥७०॥

नेतिनेतीतिगम्यश्च वैकुण्ठभजनप्रियः ।

गिरीशो गिरिजाकान्तो दुर्वासाः कविरङ्गिराः ॥७१॥

भृगुर्वसिष्ठश्‍च्यवनो नारदस्तुम्बरोऽमलः ।

विश्वक्षेत्रो विश्वबीजो विश्वनेत्रश्च विश्वपः ॥७२॥

याजको यजमानश्च पावकः पितरस्तथा ।

श्रद्धा बुद्धिः क्षमा तन्द्रा मन्त्रो मन्त्रयिता स्वरः ॥७३॥

राजेन्द्रो भूपती रुण्डमाली संसारसारथिः ।

नित्यसम्पूर्णकामश्च भक्तकामधुगुत्तमः ॥७४॥

गणपः केशवो भ्राता पिता माता च मारुतिः ।

सहस्त्रमूर्द्धानेकास्यः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात् ॥७५॥

कामजित् कामदहनः कामः कामफलप्रदः ।

मुद्रापहारी रक्षाघ्नः क्षितिभारहरो बलः ॥७६॥

नखदंष्ट्रायुधो विष्णुर्भक्ताभयवरप्रदः ।

दर्पहा दर्पदो दंष्ट्राशतमूर्तिरमूर्तिमान् ॥७७॥

महानिधिर्महाभागो महाभर्गो महर्द्धिदः ।

महाकारो महायोगी महातेजा महाद्युतिः ॥७८॥

महासनो महानादो महामन्त्रो महामतिः ।

महागमो महोदारो महादेवात्मको विभुः ॥७९॥

रौद्रकर्मा क्रूरकर्मा रत्ननाभः कृतागमः ।

अम्भोधिलङ्घनः सिंहः सत्यधर्मप्रमोदनः ॥८०॥

जितामित्रो जयः सोमो विजयो वायुनन्दनः ।

जीवदाता सहस्त्रांशुर्मुकुन्दो भूरिदक्षिणः ॥८१॥

सिद्धार्थः सिद्धिदः सिद्धसङ्कल्पः सिद्धिहेतुकः ।

सप्तपातालचरणः सप्तर्षिगणावन्दितः ॥८२॥

सप्ताब्धिलङ्घनो वीरः सप्तद्वीपोरुमण्डलः ।

सप्ताङ्गराज्यसुखदः सप्तमातृनिषेवितः ॥८३॥

सप्तस्वर्लोकमुकुटः सप्तहोता स्वराश्रयः ।

सप्तच्छन्दोनिधिः सप्तच्छन्दः सप्तजनाश्रयः ॥८४॥

सप्तसामोपगीतश्च सप्तपातालसंश्रयः ।

मेधादः कीर्तिदः शोकहारी दौर्भाग्यनाशनः ॥८५॥

सर्वरक्षाकारो गर्भदोषहा पुत्रपौत्रदः ।

प्रतिवादिमुखस्तम्भो रुष्टचित्तप्रसादनः ॥८६॥

पराभिचारशमनो दुःखहा बन्धमोक्षदः ।

नवद्वारपुराधारो नवद्वारनिकेतनः ॥८७॥

नरनारायणस्तुत्यो नवनाथमहेश्वरः ।

मेखली कवची खड्‍गी भ्राजिष्णुर्जिष्णुसारथिः ॥८८॥

बहुयोजनविस्तीर्णपुच्छः पुच्छहतासुरः ।

दुष्टग्रहनिहन्ता च पिशाचग्रहघातकः ॥८९॥

बालग्रहविनाशी च धर्मनेता कृपाकरः ।

उग्रकृत्यश्चोग्रवेग उग्रनेत्रः शतक्रतुः ॥९०॥

शतमन्युनुतः स्तुत्यः स्तुतिः स्तोता महाबलः ।

समग्रगुणशाली च व्यग्रो रक्षोविनाशकः ॥९१॥

रक्षोऽग्निदाहो ब्रह्मेशः श्रीधरो भक्तवत्सलः ।

मेघनादो मेघरूपो मेघवृष्टिनिवारकः ॥९२॥

मेघजीवनहेतुश्चु मेघश्यामः परात्मकः ।

समीरतनयो योद्धा नृत्यविद्याविशारदः ॥९३॥

अमोघोऽमोघदृष्टीश्च इष्टदोऽरिष्टनाशनः ।

अर्थोऽनर्थापहारी च समर्थो रामसेवकः ॥९४॥

अर्थिवन्द्योऽसुरारातिः पुण्डरीकाक्ष आत्मभूः ।

संकर्षणो विशुद्धात्मा विद्याराशिः सुरेश्वरः ॥९५॥

अचलोद्धारको नित्यः सेतुकृद् रामसारथिः ।

आनन्दः परमानन्दो मत्स्यः कूर्मो निराश्रयः ॥९६॥

वाराहो नारसिंहश्च वामनो जमदग्निजः ।

रामः कृष्णः शिवो बुद्धः कल्की रामाश्रयो हरिः ॥९७॥

नन्दी भृङ्गी च चण्डी च गणेशो गणसेवितः ।

कर्माध्यक्षः सुराध्यक्षो विश्रामो जगतीपतिः ॥९८॥

जगन्नाथः कपीशश्च सर्वावासः सदाश्रयः ।

सुग्रीवादिस्तुतो दान्तः सर्वकार्मा प्लवङ्गमः ॥९९॥

नखदारितरक्षाश्च नखयुद्धविशारदः ।

कुशलः सुधनः शेषो वासुकिस्तक्षकस्तथा ॥१००॥

स्वर्णवर्णो बलाढ्यश्च पुरुजेताघनाशनः ।

कैवल्यरूपः कैवल्यो गरुडः पन्नगोरगः ॥१०१॥

किलकिलरावहतारातिर्गर्वपर्वतभेदनः ।

वज्राङ्गो वज्रदंष्ट्रश्च भक्तवज्रनिवारकः ॥१०२॥

नखायुधो मणिग्रीवो ज्वालामाली च भास्करः ।

प्रौढप्रतापस्तपनो भक्ततापनिवारकः ॥१०३॥

शरणं जीवनं भोक्ता नानाचेष्टो ह्यचञ्चलः ।

स्वस्तिमान् स्वस्तिदो दुःखशातनः पवनात्मजः ॥१०४॥

पावनः पवनः कान्तो भक्तागःसहनो बली ।

मेघनादरिपुर्मेघनादसंहतराक्षसः ॥१०५॥

क्षरोऽक्षरी विनीतात्मा वानरेशः सतां गतिः ।

श्रीकण्ठः शितिकण्ठश्च सहायः सहनायकः ॥१०६॥

अस्थूलस्त्वनणुर्भर्गो दिव्यः संसृतिनाशनः ।

अध्यात्माविद्यासारश्च ह्याध्यात्मदुशलः सुधीः ॥१०७॥

अकल्मषः सत्यहेतुः सत्यदः सत्यगोचरः ।

सत्यगर्भः सत्यरूपः सत्यः सत्यपराक्रमः ॥१०८॥

अञ्जनाप्राणलिङ्गश्च वायुवंशोद्भवः शुभः ।

भद्ररूपो रुद्ररूपः सुरूपश्चित्ररूपधृक् ॥१०९॥

मैनाकवन्दितः सूक्ष्मदर्शनो विजयो जयः ।

कान्तदिङ्‍मण्डलो रुद्रः प्रकटीकृतविक्रमः ॥११०॥

कम्बुकण्ठः प्रसन्नात्मा ह्रस्वनासो वृकोदरः ।

लम्बौष्ठः कुण्डली चित्रमाली योगविंदा वरः ॥१११॥

विपश्चित्कविरानन्दविग्रहोऽनल्पशासनः ।

फाल्गुनीसूनुरव्यग्रो योगात्मा योगतत्परः ॥११२॥

योगविद् योगकर्ता च योगयोनिर्दिगम्बरः ।

अकारादिहकारान्तवर्णनिर्मितविग्रहः ॥११३॥

उलूखलमुखः सिद्धसंस्तुतः प्रमथेश्वरः ।

श्‍लिष्टजङ्घः श्‍लिष्टजानुः श्‍लिष्टपाणिः शिखाधरः ॥११४॥

सुशर्मामितशर्मा च नारायणपरायणः ।

जिष्णुर्भविष्णू रोचिष्णुर्ग्रसिष्णुः स्थाणुरेव च ॥११५॥

हरिरुद्रानुसेकोऽथ कम्पनो भूमिकम्पनः ।

गुणप्रवाहः सूत्रात्मा वीतरागस्तुतिप्रियः ॥११६॥

नागकन्याभध्वंसी रुक्मवर्णः कपालभृत् ।

अनाकुलो भवोपायोऽनपायो वेदपारगः ॥११७॥

अक्षरः पुरुषो लोकनाथ ऋक्षप्रभुर्दृढः ।

अष्टाङ्गयोगफलभुक् सत्यसंधः पुरुष्टुतः ॥११८॥

श्मशानस्थाननिलयः प्रेतविद्रावनक्षमः ।

पञ्चाक्षरपरः पञ्चमातृको रञ्जनध्वजः ॥११९॥

योगिनीवृन्दवन्द्यश्रीः शत्रुघ्नोऽनन्तविक्रमः ।

ब्रह्मचारीन्द्रियरिपुर्धृतदण्डो दशात्मकः ॥१२०॥

अप्रपञ्चः सदाचारः शूरसेनाविदारकः ।

वृद्धः प्रमोद आनन्दः सप्तद्वीपपतिन्धरः ॥१२१॥

नवद्वारपुराधारः प्रत्यग्रः सामगायकः ।

षट्‍चक्रधाम स्वर्लोकाभयकृन्मानदो मदः ॥१२२॥

सर्ववश्‍यकरः शक्तिरनन्तोऽनन्तमङ्गलः ।

अष्टमूर्तिर्नयोपेतो विरूपः सुरसुन्दरः ॥१२३॥

धूमकेतुर्महाकेतुः सत्यकेतुर्महारथः ।

नन्दिप्रियः स्वतन्त्रश्च मेखली डमरुप्रियः ॥१२४॥

लौहाङ्गः सर्वविद्धन्वी खण्डलः शर्व ईश्वरः ।

फलभुक् फलहस्तश्च सर्वकर्मफलप्रदः ॥१२५॥

धर्माध्यक्षो धर्मपालो धर्मो धर्मप्रदोऽर्थदः ।

पञ्चविंशतितत्त्वज्ञस्तारको ब्रह्मतत्परः ॥१२६॥

त्रिमार्गवसतिर्भीमः सर्वदुःखनिबर्हणः ।

ऊर्जस्वान् निष्कलः शूली मौलिर्गर्जन्निशाचारः ॥१२७॥

रक्ताम्बरधरो रक्तो रक्तमाल्यो विभूषणः ।

वनमाली शुभाङ्गश्च श्वेतः श्वेताम्बरो युवा ॥१२८॥

जयोऽजयपरीवारः सहस्त्रवदनः कपिः ।

शाकिनीडाकिनीयक्षरक्षोभूतप्रभञ्जकः ॥१२९॥

सद्योजातः कामगतिर्ज्ञानमूर्तिर्यशस्करः ।

शम्भुतेजाः सार्वभौमो विष्णुभक्तः प्लवङ्गमः ॥१३०॥

चतुर्नवतिमन्त्रज्ञः पौलस्त्यबलदर्पहा ।

सर्वलक्ष्मीप्रदः श्रीमानङ्गदप्रिय ईडितः ॥१३१॥

स्मृतिबीजं सुरेशानः संसारभयनाशनः ।

उत्तमः श्रीपरीवारः श्रितो रुद्रश्च कामधुक् ॥१३२॥

श्रीहनुमत्सहस्रनामस्तोत्रम् फलश्रुति:

श्रीवाल्मीकिरुवाच

इति नाम्नां सहस्रेण स्तुतो रामेण वायुभूः।

उवाच तं प्रसन्नात्मा संधायात्मानमव्ययम् ॥१३३॥

वाल्मीकिमुनि बोले- इस प्रकार श्रीराम के द्वारा सहस्रनाम से स्तुति किये जाने पर प्रसन्नचित्त श्रीहनुमानजी अपने अविनाशी आत्मस्वरूप में स्थित होकर उनसे बोले- ॥१३३॥

श्रीहनुमानुवाच

ध्यानास्पदमिदं ब्रह्म मत्पुरः समुपस्थितम् ।

स्वामिन् कृपानिधे राम ज्ञातोऽसि कपिना मया ॥ १३४॥

श्रीहनुमानजी बोले-स्वामिन्! कृपासिन्धु श्रीरामचन्द्रजी! मैं कपि होते हुए भी आपको जान गया कि मेरे सामने आप परम ध्येय, परात्पर परब्रह्म ही समुपस्थित हैं॥१३४॥

त्वद्ध्याननिरता लोकाः किं न पश्यन्ति सादरम् ।

तवागमनहेतुश्च ज्ञातो ह्यत्र मयानघ ॥१३५॥

निष्पाप श्रीरामजी! आदरपूर्वक आपके ध्यान में लगे हुए भक्तलोग क्या नहीं देखते? अर्थात् सब कुछ देख लेते हैं। अतएव आपके यहाँ आने का हेतु मैं जान गया ॥१३५॥

कर्तव्यं मम किं राम तथा त्वं ब्रूहि राघव ।

इति प्रचोदितो रामः प्रहृष्टात्मा तमब्रवीत् ॥१३६ ।।

राघवेन्द्र श्रीराम! मेरे लिये क्या कर्तव्य है, उसे आप मुझसे कहिये। इस प्रकार श्रीहनुमानजी द्वारा प्रेरित किये जाने पर हर्षितचित्त श्रीरामजी उनसे बोले-॥१३६ ॥

श्रीराम उवाच

दुर्जयः खलु वैदेहीं गृहीत्वा कोऽपि निर्गतः।

हत्वा तं निर्गुणं वीरमानय त्वं कपीश्वर ॥१३७॥

श्रीरामजी बोले- कपीश्वर! निश्चय ही कोई महान् दुरात्मा विदेहराजपुत्री को लेकर निकल गया है। अतः तुम उस निर्दयी वीर को मारकर सीता को ले आओ॥१३७॥

मम दास्यं कुरु सखे भव विश्वासकारकः।

तथा कृते त्वया वीर मम कार्य भविष्यति ॥१३८॥

मित्र! तुम मेरी दासता स्वीकार करो और विश्वासपात्र बनो। ऐसा करने पर वीर! तुम्हारे द्वारा मेरा कार्य हो जायगा ॥१३८॥

ओमित्याज्ञां तु शिरसा गृहीत्वा स कपीश्वरः।

विधेयं विधिवत्तच्च चकार शिरसा स्वयम् ॥१३९॥

कपीश्वर श्रीहनुमानजी ने 'ओम्' (अच्छा) कहकर उस आज्ञा को नम्रतापूर्वक शिर से धारण किया और फिर स्वयं उस कार्य को विधिवत् सम्पन्न किया॥१३९ ॥

श्रीवाल्मीकिरुवाच 

इदं नाम्नां सहस्रं तु योऽधीते प्रत्यहं नरः।

दुःखौघो नश्यते तस्य सम्पत्तिर्वर्धते चिरम् ॥१४०।।

श्रीवाल्मीकिजी बोले- जो मनुष्य इस सहस्रनामस्तोत्र का प्रतिदिन पाठ करता है, उसके दुःखों के समूह नष्ट हो जाते हैं और चिरकाल तक धन-सम्पत्ति बढ़ती रहती है॥१४०॥

वश्यं चतुर्विधं तस्य भवत्येव न संशयः।

राजानो राजपुत्राश्च राजकीयाश्च मन्त्रिणः॥१४१॥

तथा राजा, राजपुत्र, मन्त्री और राजकीय नौकरचाकर-ये चारों उसके वश में हो जाते हैं। इसमें तनिक भी संशय नहीं है॥१४१॥

अश्वत्थमूले जपतां नास्ति वैरिकृतं भयम् ।

त्रिकालपठनात्तस्य सिद्धिः स्यात् करसंस्थिता ॥ १४२॥

अश्वत्थ वृक्ष के नीचे इस स्तोत्र का पाठ करनेवालों को शत्रु से भय नहीं होता। प्रात:काल, मध्याह्न और सायंकाल तीनों समय पाठ करने से सिद्धि उनके हाथों में स्थित हो जाती है। १४२॥

ब्राह्म मुहूर्ते चोत्थाय प्रत्यहं यो पठेन्नरः।

ऐहिकामुष्मिकीं चैव लभते ऋद्धिमुत्तमाम् ॥१४३॥

जो मनुष्य प्रतिदिन ब्राह्म मुहूर्त में उठकर इसका पाठ करता है, वह इहलोक और परलोक की उत्तम ऋद्धि (सम्पन्नता)-को प्राप्त करता है॥१४३ ।।

संग्रामे संनिविष्टानां वैरिविद्रावणं परम् ।

ज्वरापस्मारशमनं गुल्मादीनां निवारणम् ॥१४४॥

यह स्तोत्र युद्धभूमि में प्रविष्ट वीरों के लिये विशेष रूप से शत्रुहन्ता है तथा ज्वर, अपस्मार (मूर्छा)-का शमन करनेवाला और गुल्म आदि रोगों का निवारक है॥१४४॥

साम्राज्यसुखसम्पत्तिदायकं पठनान्नृणाम् ।

स्वर्ग मोक्षं समाप्नोति रामचन्द्रप्रसादतः॥१४५ ॥

यह स्तोत्र पाठ करने से साम्राज्य की सुख-सम्पत्ति प्रदान करता है तथा इसका पाठ करनेवालों को श्रीरामचन्द्रजी की कृपा से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है॥१४५॥

य इदं पठते नित्यं श्रावयेद्वा समाहितः।

सर्वान् कामानवाप्नोति वायुपुत्रप्रसादतः ॥१४६ ॥

जो मनुष्य इन्द्रियों का संयम करके इसे पढ़ता है अथवा किसी को सुनाता है, वह श्रीहनुमानजी की कृपा से  सारी अभिलषित वस्तुओं को प्राप्त करता है॥१४६ ॥

॥ इति मन्त्रमहार्णवे पूर्वखण्डे नवमतरङ्गे श्रीरामकृतं श्रीहनुमत्सहस्त्रनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

इस प्रकार मन्त्रमहार्णव-ग्रंथ के पूर्वखण्ड के नवम तरङ्ग में श्रीरामचन्द्रजी के द्वारा कथित 'हनुमत्सहस्रनामस्तोत्र' समाप्त हुआ।

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