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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
हनुमत् स्तोत्र
विभीषणकृत इस हनुमत् स्तोत्र का नित्य
पाठ करने से मनुष्य दैविक तथा भौतिक भय, व्याधि,
स्थावर-जंगम सम्बन्धी विष, राज-भय, ग्रह भय, जल, सर्प, महावृष्टि, दुर्भिक्ष तथा प्राण-संकट आदि सभी प्रकार
के भयों से मुक्त हो जाता है और सम्पूर्ण कामनाओं की प्राप्ति हो जाती है तथा समस्त
सिद्धियाँ उनके करतलगत हो जाती है।
विभीषणकृतं हनुमत्स्तोत्रम्
नमो हनुमते तुभ्यं नमो मारुतसूनवे ।
नमः श्रीरामभक्ताय श्यामास्याय च ते
नमः॥१॥
हनुमान! आपको नमस्कार है।
मारुतनन्दन! आपको प्रणाम है। श्रीराम-भक्त! आपको अभिवादन है। आपके मुख का वर्ण
श्याम है,
आपको नमस्कार है॥१॥
नमो वानरवीराय सुग्रीवसख्यकारिणे ।
लङ्काविदाहनार्थाय हेलासागरतारिणे ॥२॥
आप सुग्रीव के साथ (भगवान् श्रीराम की)
मैत्री के संस्थापक और लंका को भस्म कर देने के अभिप्राय से खेल-ही-खेल में
महासागर को लाँघ जानेवाले हैं, आप वानर-वीर को
प्रणाम है॥२॥
सीताशोकविनाशाय राममुद्राधराय च ।
रावणान्तकुलच्छेदकारिणे ते नमो
नमः॥३॥
आप श्रीराम की मुद्रिका को धारण
करनेवाले,
सीताजी के शोक के निवारक और रावण के कुल के संहारकर्ता हैं, आपको बारम्बार अभिवादन है॥३॥
मेघनादमखध्वंसकारिणे ते नमो नमः ।
अशोकवनविध्वंसकारिणे भयहारिणे ॥४॥
आप अशोक-वन को नष्ट-भ्रष्ट कर
देनेवाले और मेघनाद के यज्ञ के विध्वंसकर्ता हैं, आप भयहारी को पुनः-पुनः नमस्कार है॥४॥
वायुपुत्राय वीराय आकाशोदरगामिने ।
वनपालशिरश्छेदलङ्काप्रासादभञ्जिने
॥५॥
ज्वलत्कनकवर्णाय दीर्घलाङ्गुलधारिणे
।
सौमित्रिजयदात्रे च रामदूताय ते
नमः॥६॥
आप वायु के पुत्र,
श्रेष्ठ वीर, आकाश के मध्य विचरण करनेवाले और
अशोक-वन के रक्षकों का शिरश्छेदन करके लंका की अट्टालिकाओं को तोड़-फोड़ डालनेवाले
हैं। आपकी शरीर-कान्ति प्रतप्त सुवर्ण की-सी है, आपकी पूँछ
लम्बी है और आप सुमित्रा-नन्दन लक्ष्मण के विजय-प्रदाता हैं, आप श्रीरामदूत को प्रणाम है।५-६ ॥
अक्षस्य वधकर्त्रे च
ब्रह्मपाशनिवारिणे ।
लक्ष्मणाङमहाशक्तिघातक्षतविनाशिने
॥७॥
रक्षोनाय रिपुनाय भूतघ्राय च ते
नमः।
ऋक्षवानरवीरौघप्राणदाय नमो नमः॥८॥
आप अक्षकुमार के वधकर्ता,
ब्रह्मपाश के निवारक, लक्ष्मणजी के शरीर में
महाशक्ति के आघात से उत्पन्न हुए घाव के विनाशक, राक्षस,
शत्रु एवं भूतों के संहारकर्ता और रीछ एवं वानर-वीरों के समुदाय के
लिये जीवनदाता हैं, आपको बारम्बार अभिवादन है॥७-८॥
परसैन्यबलनाय शस्त्रास्त्रघ्नाय ते
नमः।
विषघ्राय द्विषनाय ज्वरनाय च ते
नमः॥ ९॥
आप शस्त्रास्त्र के विनाशक तथा
शत्रुओं के सैन्यबल का मर्दन करनेवाले हैं। आपको नमस्कार है। विष,
शत्रु और ज्वर के नाशक आपको प्रणाम है॥९॥
महाभयरिपुघ्नाय भक्तत्राणैककारिणे ।
परप्रेरितमन्त्राणां यन्त्राणां
स्तम्भकारिणे ॥१०॥
पयःपाषाणतरणकारणाय नमो नमः।
आप महान् भयंकर शत्रुओं के संहारक,
भक्तों के एकमात्र रक्षक, दूसरों द्वारा
प्रेरित मन्त्र-यन्त्रों को स्तम्भित कर देनेवाले और समुद्र-जल पर शिलाखण्डों के
तैरने में कारणस्वरूप हैं, आपको पुनः पुनः अभिवादन है॥१०॥
बालार्कमण्डलग्रासकारिणे भवतारिणे
॥११॥
नखायुधाय भीमाय दन्तायुधधराय च ।
रिपुमायाविनाशाय रामाज्ञालोकरक्षिणे
॥१२॥
प्रतिग्रामस्थितायाथ
रक्षोभूतवधार्थिने ।
करालशैलशस्त्राय द्रुमशस्त्राय ते
नमः॥१३॥
आप बाल-सूर्य-मण्डल के ग्रास-कर्ता
और भवसागर से तारनेवाले हैं, आपका स्वरूप
महान् भयंकर है, आप नख और दाँतों को ही आयुधरूप में धारण
करते हैं तथा शत्रुओं की माया के विनाशक और श्रीराम की आज्ञा से लोगों के
पालनकर्ता हैं, राक्षसों एवं भूतों का वध करना ही आपका
प्रयोजन है, प्रत्येक ग्राम में आप मूर्तरूप में स्थित हैं,
विशाल पर्वत और वृक्ष ही आपके शस्त्र हैं, आपको
नमस्कार है॥११-१३॥
बालैकब्रह्मचर्याय रुद्रमूर्तिधराय
च ।
विहंगमाय सर्वाय वज्रदेहाय ते
नमः॥१४॥
आप एकमात्र बाल-ब्रह्मचारी,
रुद्ररूप में अवतरित और आकाशचारी हैं, आपका
शरीर वज्र के समान कठोर है, आप सर्वस्वरूप को प्रणाम है॥१४॥
कौपीनवाससे तुभ्यं रामभक्तिरताय च ।
दक्षिणाशाभास्कराय
शतचन्द्रोदयात्मने ॥१५॥
कृत्याक्षतव्यथानाय सर्वक्लेशहराय च
।
स्वाम्याज्ञापार्थसंग्रामसंख्ये
संजयधारिणे ॥१६॥
भक्तान्तदिव्यवादेषु संग्रामे
जयदायिने ।
किल्किलाबुबुकोच्चारघोरशब्दकराय च
॥१७॥
सग्निव्याधिसंस्तम्भकारिणे वनचारिणे
।
सदा वनफलाहारसंतृप्ताय विशेषतः ॥१८॥
महार्णवशिलाबद्धसेतुबन्धाय ते नमः।
कौपीन ही आपका वस्त्र है,
आप निरन्तर श्रीरामभक्ति में निरत रहते हैं, दक्षिण
दिशा को प्रकाशित करने के लिये आप सूर्य-सदृश हैं, सैकड़ों
चन्द्रोदय की-सी आपकी शरीर-कान्ति है, आप कृत्या द्वारा किये
गये आघात की व्यथा के नाशक, सम्पूर्ण कष्टों के निवारक,
स्वामी की आज्ञा से पृथा-पुत्र अर्जुन के संग्राम में मैत्रीभाव के
संस्थापक, विजयशाली, भक्तों के अन्तिम
दिव्य वाद विवाद तथा संग्राम में विजय-प्रदाता, 'किलकिला'
एवं 'बुबुक' के
उच्चारणपूर्वक भीषण शब्द करनेवाले, सर्प, अग्नि और व्याधि के स्तम्भक, वनचारी, सदा जंगली फलों के आहार से विशेषरूप से संतुष्ट और महासागर पर शिलाखण्डों द्वारा
सेतु के निर्माणकर्ता हैं, आपको नमस्कार है॥१५-१८ ॥
श्रीहनुमत्स्तोत्रम् फलश्रुति
वादे विवादे संग्रामे भये घोरे
महावने ॥१९॥
सिंहव्याघ्रादिचौरेभ्यः
स्तोत्रपाठाद् भयं न हि ।
इस स्तोत्र का पाठ करने से
वाद-विवाद, संग्राम, घोर
भय एवं महावन में सिंह-व्याघ्र आदि हिंसक जन्तुओं तथा चोरों से भय नहीं प्राप्त
होता ॥ १९ ॥
दिव्ये भूतभये व्याधौ विषे
स्थावरजङ्गमे ॥२०॥
राजशस्त्रभये चोने तथा ग्रहभयेषु च ।
जले सर्वे महावृष्टौ दुर्भिक्षे
प्राणसम्प्लवे ॥२१॥
पठेत् स्तोत्रं प्रमुच्येत भयेभ्यः
सर्वतो नरः।
तस्य क्वापि भयं नास्ति
हनुमत्स्तवपाठतः ॥२२॥
यदि मनुष्य इस स्तोत्र का पाठ करे
तो वह दैविक तथा भौतिक भय, व्याधि, स्थावर-जंगम सम्बन्धी विष, राजा का भयंकर शस्त्र-भय,
ग्रहों का भय, जल, सर्प,
महावृष्टि, दुर्भिक्ष तथा प्राण-संकट आदि सभी
प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है। इस हनुमत्स्तोत्र के पाठ से उसे कहीं भी भय की
प्राप्ति नहीं होती॥ २०-२२॥
सर्वदा वै त्रिकालं च पठनीयमिदं
स्तवम् ।
सर्वान् कामानवाप्नोति नात्र कार्या
विचारणा ॥२३॥
नित्य-प्रति तीनों समय (प्रातः,
मध्याह्न, संध्या) इस स्तोत्र का पाठ करना
चाहिये। ऐसा करने से सम्पूर्ण कामनाओं की प्राप्ति हो जाती है। इस विषय में अन्यथा
विचार करने की आवश्यकता नहीं है॥ २३ ॥
विभीषणकृतं स्तोत्रं तार्येण
समुदीरितम् ।
ये पठिष्यन्ति भक्त्या वै
सिद्धयस्तत्करे स्थिताः॥२४॥
विभीषण द्वारा किये गये इस स्तोत्र का
गरुड ने सम्यक् प्रकार से पाठ किया था। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इसका पाठ करेंगे,
समस्त सिद्धियाँ उनके करतलगत हो जायेंगी॥ २४॥
इति श्रीसुदर्शनसंहितायां
विभीषणगरुडसंवादे विभीषणकृतं हनुमत्स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
इस प्रकार श्रीसुदर्शन-संहिता में विभीषण-गरुड-संवाद में विभीषण द्वारा किया हुआ हनुमत्स्तोत्र पूर्ण हुआ।
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