हलषष्ठी व्रत कथा
हलषष्ठी व्रत महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि और संतान की दीर्घायु के लिए रखा जाता है। इसे देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नाम से जाना जाता है। यह मूल रूप से षष्ठी माता का व्रत है। बलराम जी के जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में यह मनाया जाता है। बलराम का प्रधान शस्त्र हल है। इसी से ये हलधर कहलाते हैं और यह व्रत हलषष्ठी कहलाता है। हल किसानो का भी प्रमुख औज़ार है, जिनसे वें खेती का कार्य करते हैं। अतः यह किसान त्योहार भी है, इस इस दिन किसान अपने हल का पूजन करते हैं। इस व्रत को विशेषकर नवविवाहित स्त्रियां पुत्र कामना से व विवाहित स्त्रियां पहली संतान प्राप्ति पर संतान की दीर्घायु कामना से व्रत करती हैं व कथा श्रवण कराती हैं। बलरामजी का संबंध हल से है, और कृष्णजी का संबंध गौ पालन से । इसलिए इस व्रत में हल तथा गौ माता पूजन किया जाता है न की उनसे कार्य लिया जाता है। इस कारण से हल जुते हुए जगहों का कोई भी अन्न व गाय का दुध, दही, घी आदि का उपयोग इस व्रत में वर्जित है।
हलषष्ठी व्रत की सम्पूर्ण कथा
Hal Shashthi Vrat katha
हलषष्ठी व्रत कथा
हलषष्ठी व्रत कब व क्यों किया जाता
है?
भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष का छठवां
दिन अर्थात् षष्ठी तिथि को हलषष्ठी का व्रत किया जाता है । यह पर्व भगवान
श्रीकृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता श्री बलरामजी के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है।
इसी दिन श्री बलरामजी का जन्म हुआ था। यह व्रत संतान प्राप्ति,
संतान की लम्बी आयु(दीर्घायु) के लिए व सुख-समृद्धि के लिए माताओं
द्वारा रखा जाता है। हलषष्ठी व्रत करने से संतान सुरक्षित रहती है।
हलषष्ठी व्रत में किस देवी-देवता का
पूजन किया जाता है?
हलषष्ठी व्रत में शिव परिवार अर्थात
शिवजी, माता पार्वती, सिद्धि-बुद्धि सहित गणेशजी, स्वामी कार्तिकेय इनके
अलावा भगवान श्री कृष्ण व बलरामजी तथा हलषष्ठी माता की विशेष पूजन होता है।
हलषष्ठी देवी कौन है,किसकी पुत्री तथा किसकी पत्नि है?
हलषष्ठी देवी-प्रकृति के छठे अंश से
उत्पन्न होने के कारण ही इसे षष्ठी कहते हैं। बच्चों की अधिष्ठात्री होने से बालदा
तथा विष्णु की माया होने के कारण यह विष्णुमाया कही जाती है। यह ब्रह्मा की मानसी
कन्या है,अतः मातृकाओं मे
इन्हे देवसेना नाम से जाना जाता है। भगवान स्कन्द(स्वामी कार्तिकेय) की
प्राणप्रिया पत्नि होने के कारण यह स्कन्दप्रिया कहलाती है। यह देवी बच्चों को आयु
देने वाली, बच्चों की रक्षिका,पोषिका
है। योग बल के प्रभाव से यह सदैव बच्चों के समीप स्थित रहती है। इस देवी के संदर्भ
में एक पुरातन कथा आती है-
स्वयम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत
हुए,वे योगी होने के कारण विवाह नहीं
करना चाहते थे। किन्तु ब्रहमाजी की आज्ञा से उन्होने मालिका नाम की कन्या से विवाह
किया ,परंतु बहुत समय बीतने पर भी उनको कोई संतान नहीं हुआ।
तब राजा प्रियव्रत ने कश्यप ऋषि को बुलवाकर पुत्रेष्टि यज्ञ कराया। यज्ञ अग्नि से
एक चरु प्रकट हुआ, जिसे राजा ने अपनी रानी मालिका को दिया।
उस चरु के खीर भक्षण कर रानी गर्भवती हुई, किन्तु बारह वर्ष
बीत जाने पर भी उनको कोई संतान नहीं हुआ। बारह वर्ष उपरांत रानी ने एक दिव्य,स्वर्ण कांति युक्त पुत्र को जन्म दिया। परंतु सर्वाङ्ग सुंदर होने पर भी
वह बालक जीवित न था। इस पर राजा-रानी दुखी हो गए। राजा ने अपने उस मरे हुए पुत्र
को हृदय से लगाकर श्मशान की ओर चल दिया । श्मशान पहुँच कर राजा पुत्र शोक से दुखित
हो रोने व स्वयं के प्राण देने को तत्पर हो गया, उनका सारा
ज्ञान जाता रहा। तभी सहसा उन्हे एक दिव्य विमान दिखाई दिया, जो
की श्रेष्ठ मणियों से निर्मित था। उस विमान में एक सुंदर, मनोहर,
प्रसन्न वदन, श्वेत चम्पा जैसी वर्णवाली
नवयवना विराजमान थी। उसे देखते ही राजा सब दुख भूल अपने मरे बालक को पृथ्वी पर रख,
उनके पास गया और पूछने लगा कि-हे देवी आप कौन हैं? किसकी पुत्री तथा किसकी पत्नि है? तब वह देवी कहने
लगी कि- हे राजन! मै ब्रह्मा की मानसी कन्या हूँ। मेरे पिता ने मुझे भगवान शिवजी
के पुत्र स्वामी कार्तिकेय से विवाह कराया है। अतः मैं स्कन्दप्रिया हूँ। मैं
पुत्रहिनों को पुत्र, पत्निहीनों को पत्नि, धनहीनों को धन तथा कर्मवानों को उनके कर्मानुसार फल देती हूँ। हे राजन!
तुम ज्ञानी, श्रेष्ठ कर्मवान हो अतः तुम्हें मेरा दर्शन हो
पाया है। तुम दुख का त्याग कर मेरी स्वयं पूजन करो और सर्वत्र कराओ। मैं तुम्हें
वर देती हूँ की तुम्हारा यह पुत्र शीघ्र जीवित हो उठेगा और परम प्रतापी होगा,
सौ अश्वमेघ यज्ञ करेगा। यह सुव्रत नाम से विख्यात होगा। यह कह देवी
अंतर्ध्यान हो गई। इधर राजा प्रियव्रत अपने संतान को जीवित देख प्रसन्न होकर पुत्र
सहित नगर को वापिस आया। नगर में हर्षौल्लास मनाया गया, बालक
के जन्म से छटवें दिन सूतिकागृह में माता षष्ठी का पूजन कर, आनंद
उत्सव किया गया, उसी दिन से पूरे संसार में छठ्ठी के आयोजन
की परंपरा चली। इस प्रकार हर अर्थात् शिव । शिव परिवार से होने के कारण यह देवी
हरषष्ठ, और यह व्रत हल षष्ठ के दिन करने के कारण हलषष्ठी
कहलाती है।
हलषष्ठी व्रत का कथा क्या है?
संतान की दीर्घायु के कामना से रखा
जाने वाली व्रत जिसे की अलग-अलग प्रदेशों में कमरषष्ठ,
हरषष्ठ, लीलईषष्ठ, चन्दनषष्ठ,
हलषष्ठी व्रत आदि के नामों से जाना जाता है । इसका पौराणिक व
प्रचलित कथाऐं निम्न है-
हलषष्ठी व्रत का कथा
मथुरा के राजा कंस अपनी बहन देवकी
को विवाह उपरांत विदा करने जा रहे थे तो आकाशवाणी के वचन सुन कि देवकी का आठवाँ
गर्भ तेरी मृत्यु का कारण बनेगा, जानकार
बहन-बहनोई को कारागार में डाल दिया और वसुदेव-देवकी के छह पुत्रों को एक-एक कर कंस ने मार डाला । जब सातवें बच्चे के जन्म का समय नजदीक आया तो
देवर्षि नारद जी वसुदेव-देवकी से मिलने पहुंचे और उनके दुख का कारण जानकार देवकी
को हलषष्ठी देवी के व्रत रखने की सलाह दी। देवकी ने नारद जी से हलषष्ठी व्रत की
महिमा व कथा पूछी तो नारद ने पुरातन कथा कहना प्रारम्भ किया कि-
चन्द्रव्रत नाम का एक राजा हुआ,
जिनकों एक ही पुत्र था । राजा ने राहगीरों के लिए एक तालाब खुदवाया
किन्तु उसमे जल न रहा सुख गया। राहगीर उस रास्ते गुजरते और सूखे तालाब को देखकर
राजा को गाली देते थे। इस खबर को सुनकर राजा दुखित हुआ कि मैंने तालाब खुदवाया,
मेरा धन व धर्म दोनों ही व्यर्थ गया। उसी रोज रात राजा को स्वप्न
में वरुण देव ने दर्शन देकर कहा कि यदि तुम अपने पुत्र का बलि तालाब मे दोगे तो जल
भर जाएगा। सुबह राजा ने स्वप्न में कही बात दरबार मे सुनाया और कहा कि मेरा धन व
धर्म भले ही व्यर्थ हो जाए पर मै अपने पुत्र का बलि नहीं दूंगा। यह बात लोगों से
होता हुआ राजकुमार तक पहुंचा तो वह सोचने लगा कि यदि मेरी बलि से तालाब में पानी आ
जाए तो लोगों का भला होगा, यह सोंचकर राजकुमार अपनी बलि देने
तालाब में बैठ गया। अब वह तालाब पानी से लबालब भर गया, जल के
जीव-जंतुओं से तालाब परिपूर्ण हो गया।
एकलौते पुत्र के बलि हो जाने से राजा दुखी होकर वन को चला गया । वहाँ पाँच
स्त्रियाँ व्रत कर रही थी जिसे देखकर राजा ने कौन सा व्रत और क्यों कर रही हो
पूछने पर स्त्रियों ने हलषष्ठी व्रत की सम्पूर्ण विधि –विधान
बतलाई। उसे सुनकर राजा वापिस नगर को गया और अपनी रानी के साथ उस व्रत को किया ।
व्रत के प्रभाव से राजपुत्र तालाब से जीवित बाहर निकल आया । राजा परिवार सहित
हलषष्ठी माता के जयकार कर सुख पूर्वक निवास करने लगा।
इति: हलषष्ठी व्रत कथा
प्रथमोऽध्याय: ।।
हलषष्ठी व्रत कथा
अब नारदजी ने देवकी से हलषष्ठी व्रत
की अन्य कथा कहना शुरू किया कि- उज्जैन नगरी में दो सौतन रहती थी। एक का नाम रेवती
तथा दूसरी का नाम मानवती । रेवती को कोई संतान न था,जबकि मानवती के दो पुत्र थे। रेवती अपने सौत के बच्चों को देखकर हमेशा
सौतिया डाह से जलती रहती और उनके पुत्रों को मारने का जतन ढूंढती रहती थी। एक दिन
उन्होने मानवती को बुलाकर कहा कि-बहन आज तुम्हारे मायके से कुछ राहगीर मुझसे मिले
थे उन्होने बताया कि तुम्हारे पिताजी बहुत बीमार है और वह तुम्हें देखना चाहता है।
पिता कि बीमारी को सुनकर मानवती दुखी हुई। रेवती कहने लगी कि बहन तुम शीघ्र अपने
पिता से मिलने चली जा, तुम्हारे आने तक मै बच्चों का ध्यान
रखूंगी। सौत के बात को सच मान और अपने पुत्रों को रेवती के हाथों सुरक्षित देकर
मानवती पिता से मिलने मायके चली गई। अब रेवती बच्चों को मारने का अच्छा मौका जान
कर उन दोनों बच्चों को मारकर जंगल में फेंक आयी। इधर मानवती जब मायके पहुंची तो
पिता को स्वस्थ देखकर पिता से अपनी सौत की कही बातों को कह कुशल-क्षेम पूछती है।
अब मानवती के माता-पिता ने अनहोनी के संदेह से पुत्री को जाने को कहती है,किन्तु मानवती के माता ने कहा कि पुत्री आज हलषष्ठी माता का व्रत का दिन
है अत: तुम भी पुत्रों की दीर्घायु की कामना से यह व्रत कर आज के जगह कल चली जाना
। माता की सलाह मान मानवती पुत्रों की स्वास्थ कामना से हलषष्ठी माता का व्रत धारण
कर दूसरे दिन अपने घर जाने को निकली। रास्ते
में वही जंगल पड़ा और वहाँ अपने बच्चों को खेलते देख उनसे पूछती है कि तुम
लोग यहाँ कैसे पहुंचे। तब पुत्रों ने बताया कि आपके चली जाने पर हमारी दूसरी माता
रेवती ने मारकर यहाँ फेंक दी थी कि तभी एक दूसरी स्त्री ने हमें फिर से जिंदा कर
गई। अब मानवती को समझते देर न लगी कि यह सब माता हलषष्ठी की कृपा से संभव है और
माता की जयकार करती हुई घर को गई। नगर में मानवती के पुत्रों को पुनः जीवित देख और
माता हलषष्ठी की महिमा जान सभी स्त्रियाँ हलषष्ठी व्रत करने लगी।
इति: हलषष्ठी व्रत कथा
द्वितीयोऽध्याय: ।।
हलषष्ठी व्रत कथा
नारदजी ने देवकी से हलषष्ठी व्रत की
और कथा कहना प्रारम्भ किया कि- दक्षिण में एक सुंदर नगर है वहाँ एक बनिया अपनी
भार्या के साथ रहता था। दोनों पति-पत्नी स्वभाव से बहुत अच्छे व संस्कारी थे।
बनिया की पत्नि गर्भवती होती संतान को जन्म देती थी,
किन्तु भाग्यवश उनके संतान कुछ समयोपरांत मर जाते थे। इस प्रकार
एक-एक करके बनिया की पत्नि के छः संतान मृत्यु को प्राप्त हो गया । इस कारण दोनों
पति-पत्नी बहुत दुखी होकर मरने की उद्देश्य लेकर घर से वन की ओर चले गए। वहाँ जंगल
में एक साधु से उनकी भेंट हुई तो उन्होने साधु से अपनी व्यथा कह सुनाई। साधु ने
ध्यान लगाकर देखा की बनिया के संतान कहाँ है। साधु ध्यान में यम, कुबेर, वरुण, इंद्रादि लोक में
ढूंढा किन्तु जब वहाँ बनिया के बच्चे नहीं दिखा, तो साधु
ब्रह्म लोक को गए। वहाँ साधु ने बनिया के सारे संतान को देख कर उन्हे अपने
माता-पिता के पास लौटने का आग्रह किया। बच्चों ने वापिस लौटने से मना करते हुए कहा
कि मुनिवर इससे पूर्व हम कई बार जन्म ले चुके हैं। हम किस-किस माता-पिता को याद रख
उनके पास जाएँ। हम जन्म-मृत्यु और गर्भ के चक्कर से अब मुक्त हैं अतः अब नहीं जाना
चाहते। तब साधु ने बनिया को दीर्घजीवी संतान प्राप्ति का उनसे उपाय पूछा। उन
आत्माओं ने कहा कि यदि बनिया और उनकी पत्नि माता हलषष्ठी का व्रत रख पूजन, कथा श्रवण कर अपने पुत्र को व्रतोपरांत जल से भीगा कपड़ा(पोता) लगाए तो
उनका वह बालक दीर्घजीवी होगा। उन आत्माओं से इस प्रकार सुन साधु ध्यान से वापिस आकर
बनिया से हलषष्ठी व्रत, कथा, नियम आदि
को बताया। साधु से इस विधि-विधान को सुन दोनों पति-पत्नी घर को गए। समयोपरांत जब
हलषष्ठी व्रत का दिन आया तो उन्होने व्रत रखा व संतान प्राप्ति का वर मांगा । माता
हलषष्ठी की कृपा से अब बनिया की पत्नि गर्भवती हुई और एक सुंदर संतान को जन्म देती
है। अगले व्रत पर उन्होने साधु के बताए अनुसार अपने पुत्र को पोता मारती है माता
की कृपा से अब उनके संतान दीर्घ आयु को प्राप्त किया। बनिया का परिवार प्रसन्ता
पूर्वक जीवन यापन करने लगा।
इति: हलषष्ठी व्रत कथा
तृतीयोऽध्याय: ।।
हलषष्ठी व्रत कथा
एक बार राजा युधिष्ठिर ने भगवान
श्री कृष्ण से अत्यंत शोक-संतप्त भाव से कहा -
"हे देवकी नंदन ! सुभद्रा अपने पुत्र अभिमन्यु के मरणोपरांत,
शोक संतप्त है व अभिमन्यु की भार्या उत्तरा के गर्भ की संतान भी,
ब्रह्माअस्त्र के तेज से दग्ध हो रही है, क्योंकि
दुष्ट अश्वत्थामा ने गर्भ को निश्तेज कर दिया। द्रौपति भी अपने पाँच पुत्रों के
मारे जाने से अति दुखी है। अत: इस महादुःख से उत्थान हेतु कोई उपाय बताएं।"
तब
श्री कृष्ण जी ने कहा –राजन
! यदि उत्तरा मेरे बताये इस अपूर्व व्रत को करे तो गर्भ का निश्तेज शिशु
पुनर्जीवित हो जाएगा । यह व्रत जो भाद्रपद की कृष्ण पक्ष षष्ठी पर, भगवान शिव-पार्वती, गणेश व स्वामी कार्तिकेय की विधि
विधान द्वारा पूजन, पुत्र-पौत्र की अल्पायु व् शोक के
महादुःख से मुक्ति प्रदाता है।
इस व्रत के संदर्भ में श्री कृष्ण
ने राजा युधिष्ठिर को कथा बतलाते हैं कि- पूर्वकाल में सुभद्र नाम का राजा था,
जिनकी रानी का नाम सुवर्णा थी। राजा-रानी को एक हस्ती नामक पुत्र
था। एक बार राजपुत्र हस्ती धाय माँ के साथ गंगाजी स्नान करने गया। बाल स्वभाव वश
हस्ती जल में खेलने लगा। तभी एक ग्राह ने उसे खिचते हुए जल के अंदर ले गया। इसकी
सूचना धाय माँ ने जाकर रानी सुवर्णा से कह सुनाया। इस पर रानी ने क्रोधवश धाय के
पुत्र को धधकते हुए आग में डाल दी । पुत्र शोक से व्याकुल धाय माँ निर्जन वन को
चली गई और वन में एक सुनसान मंदिर के पास रहने लगी। वन में सूखा तृण, धान्य, महुआ आदि जो मिलता खाती और मंदिर में विराजित
शिव-पार्वती, गणेशजी की पूजन कर दिन व्यतीत करने लगी। इधर
नगर में एक अदभूत घटना घटित हुआ कि धाय माँ का पुत्र आग कि भट्टी से जीवित निकल
आया और खेलने लगा। यह खबर पूरे नगर में फैलते हुए राजा-रानी के पास पहुंचा तो
उन्होने इस घटना के विषय में पुरोहितों से पूछा, तभी सौभाग्य
से वंहा दुर्वासा ऋषि पहुंचे। राजा-रानी ने ऋषि का पूजन कर धाय पुत्र के जीवित हो
जाने का कारण पूछा । तो दुर्वासाजी ने कहा कि राजन आपके डर से धाय जंगल में एकांत
हो कर व्रत की ,यह सब उसी व्रत का प्रभाव है। अब राजा-रानी
सभी नगर वासियों के साथ दुर्वासाजी की अगुवाई में उस जंगल में धाय के पास उस व्रत
के विषय में अधिक जानकारी पूछा । तब धाय ने कहा कि राजन मैं पुत्र शोक से दुखित हो
कर यंहा रहने लगी और यंहा व्रत ग्रहण कर भगवान शिव-पार्वती, गणेशजी
व स्वामी कार्तिकेय का पूजन कर सूखा तृण, धान्य, महुआ आदि खाकर रहने लगी। तब रात को मेरे स्वप्न में शिव परिवार के दर्शन
हुए और तुम्हारा पुत्र जीवित हो जायेगा वरदान दिया। अब रानी ने व्रत की विधि –विधान को पूछा तो दुर्वासाजी ने हलषष्ठी व्रत की सम्पूर्ण विधि –विधान बतलाया। राजा-रानी ने हलषष्ठी व्रत की महिमा जानकार व्रत को किया।
व्रत के प्रभाव से राजपुत्र हस्ती ग्राह के चंगुल से छूट कर खेलते हुए नगर आया ।
अपने पुत्र को पाकर राजा-रानी सुखी हुआ और धाय भी पुत्र के साथ प्रसन्न होकर निवास
करने लगी। वही बालक हस्ती आगे चलकर परम प्रतापी हुआ और अपने नाम से हस्तिनापुर को
बसाया।
इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने
युधिष्ठिर से हलषष्ठी व्रत की महिमा का ज्ञान देते हुए कहा कि हलषष्ठी व्रत कथा
पहले नारद जी से सुन मेरी माता देवकी ने इस व्रत को सबसे पहले किया जिसके प्रभाव
से उनके आनेवाले संतान की रक्षा हुई। अब
भगवान श्री कृष्ण से सुन युधिष्ठिर ने इस व्रत को उत्तरा द्वारा करवाया,
व्रत के प्रभाव से उत्तरा का अश्वत्थामा द्वारा नष्ट हुआ गर्भ पुनः
जीवित हो गया तथा प्रसव पश्चात बालक का जन्म हुआ, जो कालांतर
में राजा परीक्षित नाम से प्रसिद्ध हुआ।
इति: हलषष्ठी कृष्ण युधिष्ठिर संवाद
कुश पलाश नाम व्रत कथा चतुर्थोंऽध्याय: ।।
हलषष्ठी व्रत कथा
अन्य प्रचलित कथाऐं
प्राचीन काल में एक ग्वालिन थी,उसका प्रसवकाल अत्यंत निकट था,एक ओर वह प्रसव से
व्याकुल थी तो दूसरी ओर उसका मन गौ-रस (दूध-दही) बेचने में लगा हुआ था,उसने सोचा कि यदि प्रसव हो गया तो गौ-रस यूं ही पड़ा रह जाएगा । यह सोचकर उसने दूध-दही के घड़े सिर पर रख और
बेचने के लिए चल दी किन्तु कुछ दूर पहुंचने पर उसे असहनीय प्रसव पीड़ा हुई। वह एक
झरबेरी की ओट में चली गई और वहां एक बच्चे को जन्म दिया । वह बच्चे को वहीं छोड़कर पास के गांवों में दूध-दही
बेचने चली गई,संयोग से उस दिन हल षष्ठी थी । गाय-भैंस के
मिश्रित दूध को केवल भैंस का दूध बताकर उसने सीधे-सादे गांव वालों में बेच दिया ।
उधर जिस झरबेरी के नीचे उसने बच्चे को छोड़ा था,उसके समीप ही
खेत में एक किसान हल चला रहा था, अचानक उसके बैल भड़क उठे और
हल का फल शरीर में घुसने से वह बालक मर गया ।
इस घटना से किसान बहुत दुखी हुआ,फिर भी उसने हिम्मत
और धैर्य से काम लिया, उसने झरबेरी के कांटों से ही बच्चे के
चीरे हुए पेट में टांके लगाए और उसे वहीं छोड़कर चला गया । कुछ देर बाद ग्वालिन दूध बेचकर वहां आ पहुंची,
बच्चे की ऐसी दशा देखकर उसे समझते देर नहीं लगा की यह सब उसके
ही पाप की सजा है। वह सोचने लगी कि यदि
मैंने झूठ बोलकर गाय का दूध न बेचा होता और गांव की स्त्रियों का धर्म भ्रष्ट न
किया होता तो मेरे बच्चे की यह दशा न होती, अतः मुझे लौटकर
सब बातें गांव वालों को बताकर प्रायश्चित करना चाहिए । ऐसा निश्चय कर वह उस गांव में पहुंची, जहां उसने दूध-दही बेचा था,वह गली-गली घूमकर अपनी
करतूत और उसके फलस्वरूप मिले दंड का बखान करने लगी । तब स्त्रियों ने स्वधर्म
रक्षार्थ और उस पर रहम खाकर उसे क्षमा कर दिया और आशीर्वाद दिया । बहुत-सी स्त्रियों द्वारा आशीर्वाद लेकर जब वह
पुनः झरबेरी के नीचे पहुंची तो यह देखकर आश्चर्यचकित रह गई कि वहां उसका पुत्र
जीवित अवस्था में पड़ा है, तभी उसने स्वार्थ के लिए झूठ बोलने
को ब्रह्म हत्या के समान समझा और कभी झूठ न बोलने का प्रण कर लिया ।
इति: हलषष्ठी व्रत कथा
पञ्च्मोऽध्याय: ।।
हलषष्ठी व्रत कथा
एक बार कांशीपुरी में देवरानी व
जेठानी रहती थी । देवरानी का नाम तारा व जेठानी विद्यावती थी। दोनों ही नाम अनुरुप
तारा उग्र स्वभाव तथा विद्यावती अति दयालु थी। एक दिन दोनों ही ने खीर पका ठंडा
करने के लिए खीर को आँगन में रख दी और बातें करते अंदर बैठ गई। तभी दो कुत्ते खीर
देख खाने लगी। अब आवाज सुन दोनों देवरानी व जेठानी बाहर आई तो अपनी खीर को कुत्तों
को खाते देखा। विद्यावती अपनी खीर को जूठन जान बचा शेष को भी कुत्ता के सामने पुनः
डाल आई और तारा ने दूसरे कुत्ते को एक कमरे में बंद कर खूब मारने लगी,
जैसे-तैसे वह कुत्ता अपनी जान बचाकर बाहर भागती है। दूसरे दिन दोनों
कुत्ता एक जगह मिलते हैं और एक दूसरे का हाल पूछते है। इस पर विद्यावती के खीर
खानेवाला कुत्ता कहता है कि वह स्त्री बहुत ही दयालु थी उसने मुझे बाँकी बचा खीर
भी खाने को दी ईश्वर करे कि जब मेरा दूसरा जनम हो तो मै उसी की संतान बनूँ और उनकी
खूब सेवा करूँ। अब दूसरा कुत्ता कहता है कि मै भी उसी औरत का संतान बनूँ जिससे कि
मै उनसे बदला ले सकूँ। उस दिन हलषष्ठी व्रत था। तारा की मार से बेदम वह कुत्ता मर
गया। अगली हलषष्ठी व्रत के दिन तारा ने एक
पुत्र को जन्म दिया। जन्म के बाद वह बालक अगली हलषष्ठी व्रत के दिन मर गया । इसी
प्रकार तारा ने एक-एक कर पाँच पुत्र को जन्म दिया। उनका पुत्र एक साल बाद हलषष्ठी
व्रत के दिन मर जाता था। जिससे तारा दुखित होकर हलषष्ठी माता से प्रार्थना करने
लगी । उसी रात सपने में तारा ने वही कुत्ता को देखा जो उसकी मार से मरा था। कुत्ता
ने सपने में तारा से कहा कि मै तुमसे बदला लेने के उद्देश्य से तुम्हारा पुत्र
बनकर आता हूँ और मर कर पुनः आता हूँ। जब तारा ने अपने अपराधों के लिए क्षमा मांगा
तो उस कुत्ता ने कहा कि तुम हलषष्ठी व्रत करो जिससे तुम्हें दीर्घ जीवी पुत्र की
प्राप्ति होगी। सपने में कही विधि अनुसार तारा ने अगली बार हलषष्ठी व्रत को किया
और माता से आशीर्वाद मांगा । हलषष्ठी माता की कृपा से तारा ने दीर्घजीवी संतान को
जन्म दी और प्रसन्न पूर्वक जीवन यापन करने लगी। इधर विद्यावती ने भी हलषष्ठी व्रत
कर माता की कृपा से एक सुंदर, सुशील पुत्र को जन्म दी और
सुख-पूर्वक निवास करने लगी।
इति: हलषष्ठी व्रत कथा
षष्ठोंऽध्याय: ।।
हलषष्ठी व्रत कथा सम्पूर्ण
हलषष्ठी व्रत का विधि या किस प्रकार
किया जाता है?
हलषष्ठी व्रत का विधि निम्न है-
भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की पंचमी
से ही व्रत का नियम शुरू करें अर्थात् एक समय का भोजन कर हलषष्ठी व्रत करने का
संकल्प करें।
षष्ठी के दिन प्रातःकाल स्नानादि से
निवृत्त हो जाएं।
एक बार का धोया अर्थात् नवीन स्वच्छ
वस्त्र धारण करें । माताएँ सौभाग्य का सारी श्रृंगार करें।
पूजन वाले स्थल को स्वच्छ कर गोबर
लीप कर, एक बनावटी तालाब(सगरी) बनाएँ।
इस तालाब में झरबेरी,
ताश, गूलर तथा पलाश की एक-एक शाखा बांधकर बनाई
गई 'हरछठ' को गाड़ दें। तालाब में जल भर
दें।
तालाब में वरुण देव का पूजन करें।
एक चौंकी में मिट्टी से बनी शिवजी,
पार्वती, गणेशजी व कार्तिकेय की मूर्ति बनाकर
रखें।
कागज या दीवाल पर षष्ठी माता का
भैंस के घी में सिंदूर से मूर्ति बनाकर रखें।
पूजन स्थल पर बच्चों का खिलौना
रखें।
हरछठ के समीप श्रृंगार सामान तथा
हल्दी से रंगा कपड़ा(पोता) भी रखें।
कलश रखें। गौरी-गणेश रखें। नवग्रह
रखें।
सभी का पूजन करें। पूजन में पसहर
चाँवल का अक्षत, भैंस का दूध,
दहि, घी का ही उपयोग करें।
पूजा में लाई,
भुना या सूखा महुआ चढ़ाये, सतनाजा (चना,
जौ, गेहूं, धान, अरहर, मक्का तथा मूंग) चढ़ाने के बाद होली की राख,
होली पर भूने हुए चने के होरा तथा जौ की बालें चढ़ाएं।
कथा श्रवण करें,
आरती व ब्राह्मण को दक्षिणा देकर आशीर्वाद ग्रहण करें।
बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद लेकर व्रत सम्पन्न करें।
बच्चों को प्रसाद के रूप मे धान की
लाई, भुना हुआ महुआ तथा चना, गेहूं, अरहर आदि छह प्रकार के अन्नों को मिलाकर
बांटे।
पूजन के बाद अपने संतान के पीठवाले भाग में कमर के पास पोता (सगरी के जल से भिगा) मारकर अपने आंचल से पोंछे।
हलषष्ठी सम्पूर्ण व्रत कथा
हलषष्ठी में क्या करें-
इस दिन महुआ की दातुन करें।
भोजन बनाते समय चम्मच के रूप में
महुआ पेड़ की लकड़ी का उपयोग करें।
भोजन के लिए महुआ पेड़ के पत्ते का
दोना-पत्तल उपयोग करें।
भोज्य पदार्थ में पचहर चावल(बिना हल
जूते ही उगने वाला) का भात, छह
प्रकार की भाजी की सब्जी, भैंस का दुध, दही व घी, सेन्धा नमक का ही उपयोग करें।
बच्चे,
बुड़े व जानवरो को खाने को दें।
हलषष्ठी सम्पूर्ण व्रत कथा
क्या न करें-
हल चले भूमि पर न चलें।
हल चले(जुता हुआ)जमीन का अन्न,
फल, साग-सब्जी व अन्य भोज्य पदार्थ का सेवन न
करें।
तामसिक भोजन को न छूए,
प्याज, लहसुन का प्रयोग न करें।
गाय के दूध,
दही, घी को प्रयोग में न लें ।
बच्चे व बुड़ों का अनादर न करें।
असत्य वचन न कहें ।
हलषष्ठी व्रत का पूजन विधि पढे-
इति: हलषष्ठी व्रत कथा सम्पूर्ण ।।

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