भैरव स्तव
आचार्य श्री अभिनवगुप्त द्वारा रचित इस भैरव स्तव स्तोत्र में कुल दश श्लोक हैं । दशवाँ श्लोक इस स्तोत्र के रचनाकाल की ओर संकेत करता है । यह भी एक दार्शनिक स्तोत्र है। जिस व्यक्ति के चित्त में शिवरूपी प्रकाश का उदय हो जाता है उसका सम्पूर्ण अज्ञान नष्ट हो जाता है और वह मृत्यु, सांसारिक बन्धनादि से कभी भी भयभीत नहीं होता है । यह सम्पूर्ण चराचर जगत् उसी परमप्रकाश अर्थात् महेश से व्याप्त है। जब स्वात्मा उसमें व्याप्त हो जाता है तो अधिभौतिक, अधिदैविक और आध्यात्मिक तीनों ताप नष्ट हो जाते हैं। इसमें कुल दर्शन की स्पष्ट भावना है। भैरव ही कौलदर्शन में चरम सत्य हैं ।
भैरवस्तवः
Bhairava stavaḥ
भैरव स्तव
भैरव स्तोत्र
भैरव स्तवन स्तोत्र
॥ओं नमो भगवते भैरवाय॥
अथ भैरवस्तोत्रम्
व्याप्त चराचर भावविशेषं
चिन्मयमेकमनन्तमनादिम् ।
भैरवनाथमनाथ शरण्यं त्वन्मयचितया
हृदि वन्दे ॥१॥
समस्त चराचर (जङ्गम और स्थावर) जगत
में व्यापक रूप से विद्यमान रहने वाले चैतन्य स्वरुप एक (अद्वितीय) अनन्त अनादि
(जिसका अन्त भी नहीं और आदि भी नहीं) ऐसे अनाथों को शरण देने वाले भगवान भैरवनाथ
को अपने ह्रदय में स्थित करके अपने चित्त को उनके चरणो में तन्मय करते हुए मैं
अभिवादन (नमस्कार या स्तुति) करता हूँ ॥१॥
त्वन्मयमेतदशेषमिदानीं भाति मम
त्वदनुग्रहशक्त्या ।
त्वं च महेश सदैव ममात्मा स्वात्मयं
मम तेन समस्तम्॥२॥
हे महेश ! आपकी अनुग्रह शक्ति से यह
समस्त जगत इस समय मुझे (अभिनवगुप्त को) आपके स्वरुप से ही भासित हो रहा है अर्थात
भगवान भैरवनाथ ही इस समस्त जगत रुप में है। भैरवनाथ के अतिरिक्त इसकी कोई सत्ता
नहीं है। इस प्रकार सर्वत्र भगवान भैरवनाथ आप ही मुझे दिखाई दे रहे हैं और आप तो
सर्वदा मेरी आत्मा ही हैं अर्थात "भैरवोऽहं" इस प्रकार स्वाभिन्न रुप से
मुझे आपका ज्ञान हो रहा है अतः मेरे लिए यह समस्त जगत भी आत्मरुप हो गया है॥२॥
स्वात्मनि विश्वगते त्वयि नाथे तेन
न संसृतिभीतिः कथास्ति ।
स्तस्वपि दुर्धर दुःख
विमोहत्रासविधायिषु कर्मगणेषु ॥ ३ ॥
हे नाथ! मेरे आत्मस्वरुप आपके समस्त
जगतरुप होने से अर्थात मेरी आत्मा ही समस्त जगतरुप होने से अत्यन्त असहनीय दुःख
एवं त्रास को देने वाले अनन्त कर्मों के उपस्थित होने पर भी मुझे संसार से थोडा सा
भी भय नहीं रह गया है। (क्योंकि अपने से भिन्न होने पर ही भय होता है) जगत तो
आत्मस्वरुप हो गया और आत्मा से तो भय होता नहीं, अतः मुझे जगत से कोई भय नहीं है॥३॥
अन्तक मां प्रति मा दुश्मेनां
क्रोधकराल तमां विदधीहि ।
शङ्कर सेवन चिन्तनधीरो भीषण भैरव
शक्तिमयोऽस्मि ॥४॥
हे अन्तक! (समस्त विश्व का विनाश
करने वाले ) यम! मुझे अपनी क्रोध-युक्त इस दृष्टि को मत दिखाओ,
अर्थात क्रोध भरे नेत्रों से मुझे मत देखो क्योंकि मैं स्वयं ही
शङ्कर (भैरव) की सेवा तथा चिन्तन में दृढ रहने वाला हुँ और भगवान भैरव की भयंकर
शक्ति-संपन्न हूँ। अतः मुझे आपसे कोई भय नहीं है ॥४॥
इत्थमुपोढ भवन्मय संविद् दीधितदारित
भूरित मिस्त्रः ।
मृत्यु यमान्तक कर्म पिशाचैर्नाथ!
नमोऽस्तु न जातुबिभेमि॥५॥
हे नाथ! आपको नमस्कार है। आपके
स्वरुपभूत ज्ञान रश्मियों से मेरे ह्रदय का अन्धकार (अज्ञान) नष्ट हो चुका है,
अतः मैं मृत्यु, यम, अन्तक,
कर्म, पिशाचों से कदापि नहीं डरता हूँ ॥ ६ ॥
प्रोदित सत्यविबोध मरीचि प्रोक्षित
विश्व पदार्थ स तत्वः।
भावपरामृत निर्भरपूर्णे
त्वय्यहमात्मनि निर्वृत्तिमेमि ॥६॥
आपकी कृपा से ह्रदय में सत्य एवं
चैतन्य की रश्मियों के उदय हो जाने से समस्त विश्व के यथार्थ तत्व को जानने वाला
मैं अनन्त भावामृतों से परिपूर्ण आत्मस्वरुपभूत आप में निवृत्ति (परम शान्ति) को
प्राप्त कर रहा हूँ॥ ६ ॥
मानसगोचरमेति यदैव क्लेशदशातनुताप
विधात्री ।
नाथ तदैव मम त्वदभेदस्तोत्र परामृत
वृष्टिरुदेति ॥७॥
हे नाथ! जब भी (ज्यों ही ) शरीर को
संतप्त करने वाली अर्थात कष्ट देने वाली क्लेश दशा का उदय मेरे अन्तःकरण में होता
है तब ही अर्थात उसी क्षण आपके साथ अभेद का कथन करने वाली अमृतवृष्टि का भी उदय हो
जाता है,
अर्थात आपके साथ अभेद भावनात्मक अमृत से मेरे संपूर्ण क्लेश नष्ट हो
जाते हैं ॥ ७ ॥
शङ्कर! सत्यमिदं व्रतदान स्नान तपो
भव ताप विनाशि ।
तावक शास्त्र परामृतचिन्ता स्यन्धति
चेतसि निर्वृति धारा ॥८॥
हे शङ्कर! यह सत्य है कि आपके
निमित्त किये गये व्रत, दान, तप और स्नान संसार के संताप को नष्ट करने वाले हैं। परन्तु आपका स्तवन
करने वाले अमृत रुप शास्त्रों का चिन्तन ह्रदय में परम शान्ति रुप अमृत धार की
वर्षा करता है॥८॥
नृत्यति गायति हृष्यति गाढं संवदियं
मम् भैरव नाथ ।
त्वां प्रियमाप्य सुदर्शनमेकं
दुर्लभमन्यजनैः समयज्ञम् ॥९॥
हे भैरवनाथ! आप प्रिय,
सुन्दर दर्शन वाले एक अद्वितीय यज्ञस्वरूप हैं। आप अन्य (अभक्त)
जनों के द्वारा दुर्लभ हैं। ऐसे तत्त्व को पाकर मेरा यह ज्ञान आनन्द से नाच रहा है,
गा रहा है और हर्षित हो रहा है ॥ ९ ॥
वसुरसपौषे कृष्णदशम्यामभिनवगुप्तः
स्तवमिममकरोत् ।
येन विभुर्भवमरूसंतापं शमयति झटिति
जनस्य दयालुः॥१०॥
आचार्य अभिनवगुप्त ने पौष कृष्ण
दशमी सं. ६८ में इस स्तोत्र को रचा है, जिससे
प्रसन्न हो कर सर्वव्यापक दयानिधि भगवान भैरवनाथ अपने भक्त के संसार-ताप को शीघ्र
ही हर लेते हैं, अर्थात संसार से मुक्त कर देते है॥१०॥
॥ इति श्रीमहामहेश्वराचार्य
अभिनवगुप्तपाद विरचित भैरवस्तोत्रम् अथवा भैरवस्तवःसंपूर्णम् ॥
॥भैरवार्पणमस्तु॥

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