भैरव स्तव
इस भैरव स्तव स्तोत्र में कुल दश
श्लोक हैं । दशवाँ श्लोक इस स्तोत्र के रचनाकाल की ओर संकेत करता है । यह भी एक
दार्शनिक स्तोत्र है। जिस व्यक्ति के चित्त में शिवरूपी प्रकाश का उदय हो जाता है
उसका सम्पूर्ण अज्ञान नष्ट हो जाता है और वह मृत्यु, सांसारिक बन्धनादि से कभी भी भयभीत नहीं होता है । यह सम्पूर्ण चराचर जगत्
उसी परमप्रकाश अर्थात् महेश से व्याप्त है। जब स्वात्मा उसमें व्याप्त हो जाता है
तो अधिभौतिक, अधिदैविक और आध्यात्मिक तीनों ताप नष्ट हो जाते
हैं। इसमें कुल दर्शन की स्पष्ट भावना है। भैरव ही कौलदर्शन में चरम सत्य हैं ।
भैरवस्तवः
Bhairavastavaḥ
भैरव स्तवन स्तोत्र
व्याप्तचराचरं भावविशेषं
चिन्मयमेकमनन्तमनादिम् ।
भैरवनाथमनाथशरण्यं त्वन्मयचित्ततया
हृदि वन्दे ॥ १ ॥
जो चराचर विशिष्ट भाव में व्याप्त
है,
चिन्मय, एक, अनन्त और
अनादि है । ऐसे अनाथ के शरण्य भैरवनाथ की त्वन्मय (अर्थात् भैरवमय) चित्त के रूप
में हृदय में वन्दना करता हूँ ॥ १ ॥
त्वन्मयमेतदशेषमिदानीं भाति मम
त्वदनुग्रहशक्त्या ।
त्वं च महेश सदैव ममात्मा
स्वात्ममयं मम तेन समस्तम् ॥ २ ॥
हे महेश ! तुम्हारी कृपा से यह
सम्पूर्ण विश्व अब तुमसे व्याप्त प्रतीत हो रहा है और तुम सदैव मेरी आत्मा हो ।
अतः सबकुछ मेरे लिए स्वात्ममय है ॥ २ ॥
स्वात्मनि विश्वगते त्वयि नाथे तेन
न संसृतिभीतिकथाऽस्ति ।
सत्स्वपि
दुर्धरदुःखविमोहत्रासविधायिषु कर्मगणेषु ॥ ३ ॥
हे नाथ! जब स्वात्मा विश्वमय आपके
द्वारा व्याप्त हो गई तो दुर्धरा - दुःख और त्रास के विधायक कर्मों के होने पर भी
सृष्टि से भय की कथा नहीं है । मेरे लिए संसार से भय की बात ही नहीं है ॥ ३ ॥
अन्तक मां प्रति मा दृशमेनां
क्रोधकरालतमां विनिधेहि ।
शङ्करसेवनचिन्तनधीरो भीषण
भैरवशक्तिमयोऽस्मि ॥ ४ ॥
हे यमराज! आप अपनी इस क्रोध के कारण
करालतम दृष्टि को मेरे ऊपर मत डालिए क्योंकि मैं शङ्कर की सेवा की चिन्ता के कारण
धीर तथा भीषण भैरव शक्तिवाला हो गया हूँ ॥ ४ ॥
इत्थमुपोढभवन्मयसंविद्दीधितिदारितभूरितमिस्त्रः
।
मृत्युयमान्तककर्मपिशाचैर्नाथ
नमोऽस्तु न जातु बिभेमि ॥ ५ ॥
इस प्रकार आपसे व्याप्त संवित् की
किरणों के द्वारा जिसका बृहद अन्धकार नष्ट हो गया है ऐसा मैं,
हे नाथ! मृत्यु, यम, अन्तककर्म
और पिशाचों से कभी नहीं डरता ॥ ५ ॥
प्रोदितसत्यविबोधमरीचिप्रेक्षितविश्वपदार्थसतत्त्वः
।
भावपरामृतनिर्भरपूर्णे
त्वय्यहमात्मनि निर्वृतिमेमि ॥ ६ ॥
उदित सत्यरूपी बिबोध की मरीचि के
द्वारा विश्व के पदार्थ के तत्त्वों का साक्षात् करनेवाला मैं भाव परामृत के भार
से पूर्ण आपके अन्दर, अपने अन्दर
निर्वृति ( अर्थात् शान्ति) को प्राप्त कर रहा हूँ ॥ ६ ॥
मानसगोचरमेति यदैव
क्लेशदशाऽतनुतापविधात्री ।
नाथ तदैव मम
त्वदभेदस्तोत्रपरामृतवृष्टिरुदेति ॥ ७ ॥
हे नाथ! जब अनुताप उत्पन्न करनेवाली
क्लेशदशा मेरे मन का विषय बनती है तब मेरे और आपके अभेद की स्तुतिरूपी परामृत की
वर्षा होती है ॥ ७ ॥
शङ्कर सत्यमिदं व्रतदानस्नानतपो
भवतापविदारि ।
तावकशास्त्रपरामृतचिन्ता स्यन्दति
चेतसि निर्वृतिधाराम् ॥ ८ ॥
हे शङ्कर! यह सत्य है कि व्रत,
दान, तप और स्नान संसार के कष्ट को दूर
करनेवाले होते हैं और आपके विषय में चर्चा करनेवाले शास्त्ररूपी परामृत की चिन्ता
चित्त में शान्ति की धारा बहाती है ॥ ८ ॥
नृत्यति गायति हृष्यति गाढं
संविदियं मम भैरवनाथ ।
त्वां प्रियमाप्य सुदर्शनमेकं
दुर्लभमन्यजनैः समयज्ञम् ॥ ९ ॥
हे भैरवनाथ ! समय को जाननेवाले
एकमात्र सुदर्शन अन्य लोगों के द्वारा दुर्लभ प्रिय स्वरूप आपको प्राप्त कर मेरी
यह संवित् खूब नाचती, गाती तथा प्रसन्न
होती है ॥ ९ ॥
पौषरसाष्टगकृष्णदशभ्यामभिनवगुप्तः स्तवमिमकरोत्
।
येन विभुर्भवमानस्तापं नाशयति
स्वजनस्य झटिति दयालुः ॥ १० ॥
सम्वत् १०६८ पौष कृष्ण दशमी को
अभिनवगुप्त ने इस स्तोत्र की रचना की जिससे दयालु ईश्वर अपने लोगों के सांसारिक,
मानसिक ताप शीघ्र नष्ट कर देते हैं ॥ १० ॥
॥ समाप्तं स्तवमिदमभिनवाख्यं पद्यनवकम् भैरवस्तवः॥
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