अनुभव निवेदन स्तोत्र
इस अनुभवनिवेदन स्तोत्र में केवल
चार श्लोक हैं। इसमें योगी, योग और
योगाभ्यासादि के विषय में वर्णन है । भैरवावतार अभिनवगुप्तपादाचार्य
शिवैकात्म्यभाव को प्राप्त महान योगी थे । जब योगी ध्यान करता है तो उसे
प्रकाशस्वरूप एक परमपुरुष अर्थात् आपके स्वरूप (परमपद) की प्राप्ति होती है । वह
शिव ही होजाता है। इस स्तोत्र का दूसरा श्लोक श्रीमद्भगवत गीता के छठे अध्याय में
स्थित उस श्लोक* (श्रीमद्भगवद्गीता,श्लोक १३- समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः
। सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन ॥) से
सम्बन्धित है जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को योगाभ्यास के विषय में उपदिष्ट
किया है। इसमें मन्त्र मुद्रादि का भी वर्णन है ।
अनुभवनिवेदनम्
Anubhavanivednam
अनुभवनिवेदन स्तोत्र
अन्तर्लक्ष्यविलीनचित्तपवनो योगी
यदा वर्तते
दृष्ट्या निश्चलतारया बहिरसौ पश्यन्नपश्यन्नपि
।
मुद्रेयं खलु शाम्भवी भवति सा
युष्मत्प्रसादाद् गुरो
शून्याशून्यविवर्जितं भवति यत्
तत्त्वं पदं शाम्भवम् ॥ १ ॥
जब योगी मन एवं प्राण को
अन्तर्लक्ष्य में विलीन कर देता है और निश्चल तारावाली दृष्टि से बाहर देखता हुआ
भी नहीं देखता तो यह शाम्भवी मुद्रा होती है । हे गुरो! आपकी कृपा से जो तत्त्व
शून्य एवं अशून्य दोनों से रहित हो जाता है वही शाम्भवपद अथवा आप हैं ॥ १ ॥
अर्धोद्घाटितलोचनः स्थिरमना
नासाग्रदत्तेक्षण-
श्चन्द्रार्कावपि लीनतामुपगतौ
त्रिस्पन्दभावान्तरे ।
ज्योतीरूपमशेषबाह्यरहितं चैकं
पुमांसं परं
तत्त्वं तत्पदमेति वस्तु परमं
वाच्यं किमत्राधिकम् ॥ २ ॥
जब योगी अपने नेत्रों को आधा खुला
रखता है,
चित्त को स्थिर और आँखों को नाशाग्र भाग में लगा देता है और
चन्द्रमा तथा सूर्य तृस्पन्दभाव में लीन हो जाते हैं और सम्पूर्ण बाह्य से रहित
ज्योतिरूप एक परमपुरुष* आभासित होता है तब
योगी तुम्हारे स्वरूप, परमपद को प्राप्त कर लेता है। इस विषय
में अधिक क्या कहना ? ॥ २ ॥
* “ अभ्यासयोगयुक्तेन
चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति
पार्थानुचिन्तयन् ॥"
-श्रीमद्भगवद्गीता,आठवाँ अध्याय, श्लोक ८
शब्दः कश्चन यो मुखादुदयते मन्त्रः
स लोकोत्तरः
संस्थानं सुखदुःखजन्मवपुषो यत्कापि
मुद्रैव सा ।
प्राणस्य स्वरसेन यत्प्रवहणं योगः स
एवाद्भुतः
शाक्तं धाम परं ममानुभवतः किन्नाम न
भ्राजते ॥ ३ ॥
जो कोई शब्द मुख से निकलता है,
वही लोकोत्तर मन्त्र है । सुःख-दुःख के जन्मवाले शरीर का जो संस्थान
है, वही विचित्र मुद्रा है । प्राण का जो स्वाभाविक प्रवाह
है, वही अद्भुद योग है । जब मैं परम शाक्तधाम का अनुभव करता
हूँ तब मुझे क्या नहीं दिखाई देता ? (अर्थात् मुझे सब कुछ
दिखाई देता है) ॥ ३ ॥
मन्त्रः स प्रतिभाति वर्णरचना यस्मिन्न
संलक्ष्यते
मुद्रा सा समुदेति यत्र गलिता
कृत्स्ना क्रिया कायिकी ।
योगः स प्रथते यतः प्रवहणं प्राणस्य
सङ्क्षीयते
त्वद्धामाधिगमोत्सवेषु सुधियां किं
किं न नामाद्भुतम् ॥ ४ ॥
मन्त्र वह है जिसमें वर्णरचना
दिखलाई नहीं पड़ती । वह मुद्रा उत्पन्न होती है जिसमें समस्त शारीरिक क्रियायें
शान्त हो जाती है । वह योग प्रतीत होता है जिसमें प्राण का प्रवाह क्षीण हो जाता
है । आपके पद की प्राप्तिरूपी उत्सव में विद्वानों को क्या-क्या अद्भुत प्रतीत
नहीं होता ? (अर्थात् सभी कुछ अद्भुद प्रतीत
होता है ) ॥ ४ ॥
॥ इति अनुभवनिवेदनम् ॥
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