मनुस्मृति अध्याय ६

मनुस्मृति अध्याय ६

मनुस्मृति अध्याय ६ में वानप्रस्थ आश्रम का धर्म तथा सन्यास आश्रम का धर्म का वर्णन किया गया है।

मनुस्मृति अध्याय ६

मनुस्मृति छटवां अध्याय

Manu smriti chapter 6

मनुस्मृति अध्याय ६ 

मनुस्मृति षष्ठोऽध्यायः

॥ श्री हरि ॥

॥ मनुस्मृति ॥

॥ अथ षष्ठोऽध्यायः ॥

मनुस्मृति अध्याय ६ - वानप्रस्थाश्रम धर्मे

एवं गृहाश्रमे स्थित्वा विधिवत् स्नातको द्विजः ।

वने वसेत् तु नियतो यथावद् विजितैन्द्रियः ॥ ॥१॥

गृहस्थस्तु यथा पश्येद् वलीपलितमात्मनः ।

अपत्यस्यैव चापत्यं तदाऽरण्यं समाश्रयेत् ॥ ॥२॥

संत्यज्य ग्राम्यमाहारं सर्वं चैव परिच्छदम् ।

पुत्रेषु भार्यां निक्षिप्य वनं गच्छेत् सहैव वा ॥ ॥३॥

अग्निहोत्रं समादाय गृह्यं चाग्निपरिच्छदम् ।

ग्रामादरण्यं निःसृत्य निवसेन्नियतेन्द्रियः ॥ ॥४॥

मुन्यन्नैर्विविधैर्मेध्यैः शाकमूलफलेन वा ।

एतानेव महायज्ञान्निर्वपेद् विधिपूर्वकम् ॥ ॥५॥

इस प्रकार स्नातक द्विज गृहस्थाश्रम में विधिपूर्वक निवास करके, शुद्ध और जितेन्द्रिय होकर वानप्रस्थाश्रम को स्वीकार करे। जब गृहस्थ अपने शरीर की खाल ढीली, बाल पका और पुत्र के भी पुत्र अर्थात् पौत्र का दर्शन कर ले तब वन में निवास करे। ग्राम का आहार और घर का सामान छोड़कर, स्त्री को पुत्र के पास छोड़े अथवा अपने साथ ही लेकर, वन की यात्रा करे। अग्निहोत्र और उसकी सामग्री साथ रक्खे और जितेन्द्रिय होकर निवास करे । मुनियो की भांति अनेकों प्रकार के अन्न, शाक, कन्द, फलों से पञ्चमहायज्ञ विधिपूर्व किया करे। ॥ १-५॥

वसीत चर्म चीरं वा सायं स्त्रायात् प्रगे तथा ।

जटाश्च बिभृयान्नित्यं श्मश्रुलोमनखानि च ॥ ॥६॥

यद्भक्ष्यं स्याद् ततो दद्याद् बलिं भिक्षां च शक्तितः ।

अब्मूलफलभिक्षाभिरर्चयेदाश्रमागतान् ॥ ॥७॥

मृगचर्म या वल्कल धारण करें और प्रातः काल सांयकाल दोनों समय स्नान करे। जटा, दाढ़ी मूंछ, लोम और नख को सदा धारण करे । अपने भोजनार्थ जो कुछ हो उसमें से बलि और भिक्षा देनी चाहिए और आश्रम में आए मनुष्यों का जल, कन्द, फल और भिक्षा से सत्कार करना चाहिए | ॥६-७ ॥

स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्याद् दान्तो मैत्रः समाहितः ।

दाता नित्यमनादाता सर्वभूतानुकम्पकः ॥ ॥८॥

वैतानिकं च जुहुयादग्निहोत्रं यथाविधि ।

दर्शमस्कन्दयन् पर्व पौर्णमासं च योगतः ॥ ॥९॥

ऋक्षेष्ट्य् । आग्रयणं चैव चातुर्मास्यानि चाहरेत् ।

तुरायणं च क्रमशो दक्षस्यायनमेव च ॥ ॥१०॥

वासन्तशारदैर्मेध्यैर्मुन्यन्नैः स्वयमाहृतैः ।

पुरोडाशांश्चश्चैव विधिवत्निर्वपेत् पृथक् ॥ ॥११॥

देवताभ्यस्तु तद् हुत्वा वन्यं मेध्यतरं हविः ।

शेषमात्मनि युञ्जीत लवणं च स्वयं कृतम् ॥ ॥ १२ ॥

स्थलजौदकशाकानि पुष्पमूलफलानि च ।

मेध्यवृक्षोद्भवान्यद्यात् स्नेहांश्च फलसंभवान् ॥ ॥१३॥

वर्जयेन मधु मांसं च भौमानि कवकानि च ।

भूस्तृणं शिग्रुकं चैव श्लेश्मातकफलानि च ॥ ॥१४॥

वानप्रस्थी को सदा वेदपाठ में लगे रहना चाहिए, इन्द्रियों को वश में रखना चाहिए, सब से मित्रतापूर्वक व्यवहार रखना चाहिए, मन को स्थिर रखना चाहिए, सदा दान देना चाहिए, किसी का दान नहीं लेना चाहिए और सब प्राणियों पर दयादृष्टि रखनी चाहिए। वैतानिक* अग्निहोत्र सदा करना चाहिए, और अमावस - पूर्णिमा को इष्टि भी करना चाहिए। नक्षत्रयाग, चातुर्मास्य, उत्तरायण और दक्षिणायन याग को क्रम से करना चाहिए। वसंत और शरद् ऋतु के मनु अन्नों को खुद लाकर, विधि से चरु और पुरोडाश बनाकर यज्ञ करना चाहिए। इस पवित्र हवि से देव होम करके बाकी बचा अन्न स्वयं खा लेना चाहिए। भूमि और जल में पैदा होनेवाले शाक, पवित्र वृक्षों के फूल, फल, कंद और फलों से निकला तेल आदि खाना चाहिए। मद्य, मांस, कुकुरमुत्ता, सहजन, लहसोड़ा इत्यादि नहीं खाना चाहिए। ॥ ३-१४॥

*गृहपत्य कुंड मे स्थित अग्नि को आहवनीय दक्षिणअग्नि मे मिलाने का नाम वितान है

त्यजेदाश्वयुजे मासि मुन्यन्नं पूर्वसञ्चितम् ।

जीर्णानि चैव वासांसि शाकमूलफलानि च ॥ ॥ १५ ॥

अश्विन मास में, पहले से इक्कठा किए हुए मुनि अन्न को अलग कर नया संग्रह कर लेना चाहिए और पुराने कपड़े, शाक, कन्द, फल इत्यादि को भी अलग कर देना चाहिए। ॥ १५ ॥

न फालकृष्टमश्नीयादुत्सृष्टमपि केन चित् ।

न ग्रामजातान्यार्तोऽपि मूलाणि च फलानि च ॥ ॥१६॥

अग्निपक्वाशनो वा स्यात् कालपक्वभुजेव वा ।

अश्मकुट्टो भवेद् वाऽपि दन्तोलूखलिकोऽपि वा ॥ ॥ १७ ॥

सद्यः प्रक्षालको वा स्यान् माससञ्चयिकोऽपि वा ।

षण्मासनिचयो वा स्यात् समानिचय एव वा ॥ ॥ १८ ॥

नक्तं चान्नं समश्नीयाद् दिवा वाऽहृत्य शक्तितः ।

चतुर्थकालिको वा स्यात् स्याद् वाऽप्यष्टमकालिकः ॥ ॥ १९ ॥

खेत इत्यादि में दूसरे का छोड़ा हुआ अन्न और गाँव के फल, फूल, शाक आदि दुःख प्राप्त होने पर भी नहीं खाना चाहिए। मुनि अन्नों को आग में पकाकर खाना चाहिए अथवा ऋतु के पके फलों को ही खाना चाहिए, पत्थर से पीसकर अथवा दांतों से ही चबा कर खाना चाहिए। एक दिन के, एक महीना के, छः महीने के अथवा एक साल के निर्वाह योग्य अन्न का संग्रह करना चाहिए। अन्न लाकर रात या दिन में एकबार भोजन करना चाहिए अथवा एक दिन उपवास करके, दूसरे दिन सायंकाल अथवा तीन दिन उपवास करके चौथे दिन सायंकाल भोजन करना चाहिए ॥ १६-१९ ॥

चान्द्रायणविधानैर्वा शुक्लकृष्णे च वर्तयेत् ।

पक्षान्तयोर्वाऽप्यश्नीयाद् यवागूं क्वथितां सकृत् ॥ ॥२०॥

पुष्पमूलफलैर्वाऽपि केवलैर्वर्तयेत् सदा ।

कालपक्कैः स्वयं शीर्णैर्वैखानसमते स्थितः ॥ ॥२१॥

भूमौ विपरिवर्तेत तिष्ठेद् वा प्रपदैर्दिनम् ।

स्थानासनाभ्यां विहरेत् सवनेषूपयन्नपः ॥ ॥ २२ ॥

ग्रीष्मे पञ्चतपास्तु स्याद् वर्षास्वभ्रावकाशिकः ।

आर्द्रवासास्तु हेमन्ते क्रमशो वर्धयंस्तपः ॥ ॥२३॥

शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष में चान्द्रायण व्रत की विधि से रहना चाहिए अथवा पूर्णिमा और अमावस्या को एक बार उबाली हुई यवागू* खाना चाहिए। अथवा ऋतु में पके और स्वयं गिरे फल, मूल, फूल इत्यादि से ही निर्वाह करना चाहिए। वानप्रस्थी को भूमि पर बैठा रहना चाहिए या दिनभर पैरों पर खड़े रहें, अपने स्थान और आसन में विहार करना चाहिए। सांय, प्रातः, मध्याह्न, तीनों काल स्नान करना चाहिए। गर्मी में पञ्चाग्नि सेवन करना चाहिए। वर्षा में खुले स्थान में रहना चाहिए, शीतकाल में गीला कपड़ा धारण करना चाहिए और इस प्रकार तपस्या को धीरे धीरे बढ़ाते रहना चाहिए ॥२०-२३ ॥

* जौ अथवा किसी अन्य उबाले हुए अन्न की माँड़

उपस्पृशंस्त्रिषवणं पितॄन् देवांश्च तर्पयेत् ।

तपस्वरंश्चाग्रतरं शोषयेद् देहमात्मनः ॥ ॥ २४ ॥

अग्नीनात्मनि वैतानान् समारोप्य यथाविधि ।

अनग्निरनिकेतः स्यान् मुनिर्मूलफलाशनः ॥ ॥२५॥

अप्रयत्नः सुखार्थेषु ब्रह्मचारी धराऽऽशयः ।

शरणेष्वममश्चैव वृक्षमूलनिकेतनः ॥ ॥२६॥

तापसेष्वेव विप्रेषु यात्रिकं भैक्षमाहरेत् ।

गृहमेधिषु चान्येषु द्विजेषु वनवासिषु ॥ ॥२७॥

ग्रामादाहृत्य वाऽश्रीयादष्टौ ग्रासान् वने वसन् ।

प्रतिगृह्य पुटेनैव पाणिना शकलेन वा ॥ ॥ २८ ॥

एताश्चान्याश्च सेवेत दीक्षा विप्रो वने वसन् ।

विविधाश्चौपनिषदीरात्मसंसिद्धये श्रुतीः ॥ ॥ २९ ॥

त्रिकाल स्नान करके, देवता और पितरों को तृप्त करना चाहिए और उग्रतर तपस्या करके अपना शरीर सुखाना चाहिए। शास्त्रविधि के अनुसार अग्निहोत्र का अपने में समारोप करके, अग्नि और घर को त्याग देना चाहिए और मौन रहकर फल मूल से निर्वाह करना चाहिए। ब्रह्मचर्य से रहना चाहिए, भूमि पर सोना चाहिए, सुख के पदार्थों का उपयोग नहीं करना चाहिए और निवास स्थान में ममता छोड़कर वृक्ष के नीचे रहना चाहिए। वानप्रस्थी को वनवासी ब्राह्मणों प्राणरक्षार्थ भिक्षा लानी चाहिए अथवा वनवासी गृहस्थ को द्विजों से ही भिक्षा माँग लेना चाहिए। यह भिक्षा न मिले तो गाँव से भीख पत्ते अथवा हाथ में ही मांग कर आठ ग्रास खाना चाहिए। इन दीक्षाओं और अन्य जो वानप्रस्थों के लिए कहा गया है का वन में रहता हुआ सेवन करना चाहिए और विविध उपनिषदों में आई श्रुतियों का आत्मज्ञानार्थ अभ्यास करना चाहिए। ॥२४-२९ ॥

ऋषिभिर्ब्राह्मणैश्चैव गृहस्थैरेव सेविताः ।

विद्यातपोविवृद्ध्यर्थं शरीरस्य च शुद्धये ॥ ॥ ३० ॥

अपराजितां वाऽस्थाय व्रजेद् दिशमजिह्मगः ।

आ निपातात्शरीरस्य युक्तो वार्यनिलाशनः ॥ ॥३१॥

इन नियमों का धारण, ऋषि, ब्राह्मण और गृहस्थों ने भी अपनी विद्या और तपस्या की वृद्धि और शरीर शुद्धि के लिए सदा किया है। इस प्रकार आचार करते हुए यदि कोई रोग आदि हो जाय, जो दूर न हो सके तो केवल वायु का आहार करता हुआ, ईशान कोण तक शरीरान्त तक चला जाए। ॥३०-३१ ॥

आसां महर्षिचर्याणां त्यक्त्वाऽन्यतमया तनुम् ।

वीतशोकभयो विप्रो ब्रह्मलोके महीयते ॥ ॥ ३२ ॥

वनेषु च विहृत्यैवं तृतीयं भागमायुषः ।

चतुर्थमायुषो भागं त्यक्वा सङ्गान् परिव्रजेत् ॥ ॥३३॥

इन महर्षियों के अनुष्ठानों में से कोई अनुष्ठान करके विप्र शरीर को छोड़कर शोक, भय से रहित, ब्रह्मलोक में महिमा पाता है। इस प्रकार आयु के तीसरे भाग को वन में बिताकर, चौथे भाग में विषय आदि वासना छोड़कर, संन्यास आश्रम को धारण करना चाहिए। ॥३२-३३॥

मनुस्मृति अध्याय ६ – संन्यासाश्नम धर्म

आश्रमादाश्रमं गत्वा हुतोमो जितेन्द्रियः ।

भिक्षाबलिपरिश्रान्तः प्रव्रजन् प्रेत्य वर्धते ॥ ॥३४॥

ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत् ।

अनपाकृत्य मोक्षं तु सेवमानो व्रजत्यधः ॥ ॥३५॥

अधीत्य विधिवद् वेदान् पुत्रांश्चोत्पाद्य धर्मतः ।

इष्ट्वा च शक्तितो यज्ञैर्मनो मोक्षे निवेशयेत् ॥ ॥३६॥

अनधीत्य द्विजो वेदाननुत्पाद्य तथा सुतान् ।

अनिष्ट्वा चैव यज्ञैश्च मोक्षमिच्छन् व्रजत्यधः ॥ ॥ ३७ ॥

प्राजापत्यं निरूप्येष्टिं सर्ववेदसदक्षिणाम् ।

आत्मन्यग्नीन् समारोप्य ब्राह्मणः प्रव्रजेद् गृहात् ॥ ॥३८॥

आश्रम से आश्रम अर्थात् ब्रह्मचर्य से गृहस्थ, उससे वानप्रस्थ में जाकर और हवन, भिक्षा, बलि आदि से थका हुआ, संन्यास लेने वाला पुरुष देह त्याग करने पर मोक्ष पाता है। ऋषिऋण, देव ऋण और पितृऋण इन तीनों से छुटकारा पाने पर, मन को मोक्ष धर्म में लगाना चाहिए, अन्यथा करने से नरकगामी होता है। विधि से वेदाध्ययन-ऋषि ऋण, धर्म विवाह से पुत्रोत्पादन - पितृऋण, यज्ञ आदि देवऋण, इनसे यथाशक्ति विश्राम लेकर मोक्ष में चित्त को लगाना चाहिए। जो पुरुष वेदादि का पाठ न करके, पुत्रों को उत्पन्न किये बिना और यथा विधि यज्ञों को न करने मोक्ष की इच्छा से संन्यास लेता है वह नरक में गिरता है। सर्वस्व दक्षिणा की प्रजापति देवता की दृष्टि को करके और आत्मा में अग्नि का आधान करके ब्राह्मण को संन्यास ग्रहण करना चाहिए। ॥३४-३८ ॥

यो दत्त्वा सर्वभूतेभ्यः प्रव्रजत्यभयं गृहात् ।

तस्य तेजोमया लोका भवन्ति ब्रह्मवादिनः ॥ ॥ ३९ ॥

यस्मादण्वपि भूतानां द्विजान्नोत्पद्यते भयम् ।

तस्य देहाद् विमुक्तस्य भयं नास्ति कुतश्चन ॥ ॥ ४० ॥

अगारादभिनिष्क्रान्तः पवित्रोपचितो मुनिः ।

समुपोढेषु कामेषु निरपेक्षः परिव्रजेत् ॥ ॥४१॥

एक एव चरेन्नित्यं सिद्ध्यर्थमसहायवान् ।

सिद्धिमेकस्य सम्पश्यन्न जहाति न हीयते ॥ ॥४२॥

अनग्निरनिकेतः स्याद् ग्राममन्नार्थमाश्रयेत् ।

उपेक्षको सङ्कसुको मुनिर्भावसमाहितः ॥ ॥४३॥

जो पुरुष सभी प्राणियों को अभय देकर घर से चतुर्थश्र (सन्यास) को जाता है उस ब्रह्म ज्ञानी को तेजोमय लोक प्राप्त होते हैं। जिस द्विज से प्राणियों को थोडा सा भी भय उत्पन्न नहीं होता, उसको देह त्यागने पर कहीं किसी का भय नहीं रहता। घर से निकलकर, पवित्र दण्ड और कमण्डल धारण करके, मौन भाव से विचारना चाहिए तथा सभी लौकिक कार्यों से विरक्त हो जाना चाहिए। सन्यासी तो सदैव अकेले ही नित्य विचारना चाहिए, किसी की मदद नहीं लेनी चाहिए, क्योंकि मुक्ति सदा अकेले ही प्राप्त होती है। ऐसे पुरुष को न किसी के त्याग का दुःख होता है और न उससे दूसरे किसी और को दुःख पहुँचता है। अग्नि और घर को छोड़कर भिक्षा के लिए गाँव का आश्रय लेना चाहिए। दुःख में चिन्ता नहीं करनी चाहिए तथा स्थिरचित्त और मुनि धर्म से समय व्यतीत करना चाहिए ॥३९-४३ ॥

कपालं वृक्षमूलानि कुचेलमसहायता ।

समता चैव सर्वस्मिन्नेतत्मुक्तस्य लक्षणम् ॥ ॥४४॥

नाभिनन्देत मरणं नाभिनन्देत जीवितम् ।

कालमेव प्रतीक्षेत निर्वेशं भृतको यथा ॥ ॥ ४५॥

दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत् ।

सत्यपूतां वदेद् वाचं मनःपूतं समाचरेत् ॥ ॥४६॥

भिक्षापात्र, वृक्ष के नीचे निवास, मैले कुचैले वस्त्र, किसी की सहायता न लेना और सभी के ऊपर समान भाव रखना, ये सब मुक्त पुरुष के लक्षण हैं। न तो मरने की और न ही जीने की इच्छा करनी चाहिए किन्तु केवल काल की प्रतीक्षा करनी चाहिए जैसे नौकर आज्ञा की प्रतीक्षा करता है। आँखों से देखकर भूमि में पैर रखना चाहिए, जल को छानकर पीना चाहिए, वाणी से सदैव सत्य बोलना चाहिए और मन को पचित्र रखकर आचरण करना चाहिए ॥४४-४६ ॥

अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कं चन ।

न चैमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केन चित् ॥ ॥४७॥

क्रुद्धयन्तं न प्रतिक्रुध्येदाक्रुष्टः कुशलं वदेत् ।

सप्तद्वारावकीर्णां च न वाचमनृतां वदेत् ॥ ॥४८॥

अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निरामिषः ।

आत्मनैव सहायेन सुखार्थी विचरेदिह ॥ ॥४९॥

कोई व्यर्थ झगड़ा करे तो उसको सहन करना चाहिए, किसी का अपमान नहीं करना चाहिए। और इस देह से किसी से वैर करना भी अच्छा नहीं हैं। क्रोध करनेवाले पर क्रोध, निन्दक की निन्दा न करे अपितु उसका कुशल वृत्तान्त पूछे। पाँचों इन्द्रियां, मन और बुद्धि इन सात द्वारों में बिखरी हुई असत्य वाणी को नहीं कहना चाहिए, परन्तु सदैव ईश्वर चिन्ता में लगा रहना चाहिए। परब्रह्म के ध्यान में मग्न, योगासन से स्थित, ममता को छोड़ कर, केवल अपनी सहायता से ही मोक्षसुख चाहता हुआ इस जगत् में विचरण करना चाहिए ॥ ४७-४९॥

न चोत्पातनिमित्ताभ्यां न नक्षत्राङ्गविद्यया ।

नानुशासनवादाभ्यां भिक्षां लिप्सेत कर्हि चित् ॥ ॥ ५० ॥

न तापसैर्ब्राह्मणैर्वा वयोभिरपि वा श्वभिः ।

आकीर्णं भिक्षुकैर्वाऽन्यैरगारमुपसंव्रजेत् ॥ ॥५१॥

कृप्तकेशनखश्मश्रुः पात्री दण्डी कुसुम्भवान् ।

विचरेन्नियतो नित्यं सर्वभूतान्यपीडयन् ॥ ॥५२॥

अतैजसानि पात्राणि तस्य स्युर्निर्व्रणानि च ।

तेषामद्भिः स्मृतं शौचं चमसानामिवाध्वरे ॥ ॥५३॥

अलाबुं दारुपात्रं च मृण्मयं वैदलं तथा ।

एताणि यतिपात्राणि मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत् ॥ ॥ ५४ ॥

भूकम्प आदि उत्पात, ग्रह-नक्षत्र का फल, हाथ की रेखा, उपदेश या शास्त्रार्थ के बहाने भिक्षा की इच्छा नहीं करनी चाहिए। वानप्रस्थ को दूसरे किसी ब्राह्मण, पक्षी, कुत्ता या भिखारियों से घिरे स्थान में, भिक्षा के लिए नहीं जाना चाहिए। केश, नख और दाढ़ी मूछों को मुंडाकर, भिक्षा पात्र, दण्ड, कमण्डलु और रंगे वस्त्रों के सहित, किसी को दुःख न देकर, नियम से विचारना चाहिए। संन्यासी के पात्र, सोना, चांदी आदि धातु के न हों, उन पात्रों की पवित्रता यज्ञपात्रों की भांति जल से ही होती है। तुंबी, काठ, मिट्टी या बांस का पात्र संन्यासियों के लिए शास्त्र में लिखा है । इनको 'यतिपात्र' कहते हैं ॥ ५०-५४ ॥

एककालं चरेद् भैक्षं न प्रसज्जेत विस्तरे ।

भैक्षे प्रसक्तो हि यतिर्विषयेष्वपि सज्जति ॥ ॥ ५५ ॥

वृत्ते शरावसम्पाते भिक्षां नित्यं यतिश्चरेत् ॥ ॥५६॥

विधूमे सन्नमुसले व्यङ्गारे भुक्तवज्जने ।

अलाभे न विषदी स्यात्लाभे चैव न हर्षयेत् ।

प्राणयात्रिकमात्रः स्यात्मात्रासङ्गाद् विनिर्गतः ॥ ॥५७॥

अभिपूजितलाभांस्तु जुगुप्सेतैव सर्वशः ।

अभिपूजितलाभैश्च यतिर्मुक्तोऽपि बध्यते ॥ ॥५८॥

संन्यासी को केवल एक बार ही भिक्षा मांगने जाना चाहिए, अधिक बार भिक्षा नहीं मांगनी चाहिए। क्योंकि अधिक भिक्षा से कामादि विषयों में मन लग जाता है। रसोई का धुआं निकल गया हो, कूटना बंद हो चुका हो, आग बुझादी गई हो, सब भोजन कर चुके हों, पात्र फेंक दिये हों तब ऐसे गृह में भिक्षा करनी चाहिए अर्थात केवल बचे खुचे भोजन की ही कामना करनी चाहिए। भिक्षा न मिलने पर दुःख और मिलने पर आनन्द नहीं मानना चाहिए, जीवनमात्र का ही उपाय करना चाहिए। शब्द, स्पर्श आदि विषयों से रहित, सत्कार के साथ मिली भिक्षाओं से घृणा करे, क्योंकि ऐसी भिक्षाओं से मुक्त हुआ संन्यासी भी बन्धन में पड़ जाता हैं ॥५५-५८ ॥

अल्पान्नाभ्यवहारेण रहःस्थानासनेन च ।

हियमाणानि विषयैरिन्द्रियाणि निवर्तयेत् ॥ ॥५९ ॥

इन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वेषक्षयेण च ।

अहिंसया च भूतानाममृतत्वाय कल्पते ॥ ॥६०॥

अवेक्षेत गतीर्नृणां कर्मदोषसमुद्भवाः ।

निरये चैव पतनं यातनाश्च यमक्षये ॥ ॥ ६१ ॥

विप्रयोगं प्रियैश्चैव संयोगं च तथाऽप्रियैः ।

जरया चाभिभवनं व्याधिभिश्चोपपीडनम् ॥ ॥ ६२ ॥

थोड़ा भोजन से, निर्जन में निवास से, विषयों में खिंची हुई इन्द्रियों को रोकना चाहिए। इन्द्रियों को रोककर, राग-द्वेष के नाश और प्राणियों की हिंसा न करने से पुरुष मोक्ष के योग्य होता है। मनुष्य के कर्म दोषों से दुर्गति, नरक में वास और मृत्यु पश्च्यात यम यातना शत्रुओं के संयोग, वृद्धावस्था में तिरस्कार और रोगों से शरीर क्लेश, आदि का विचार करना चाहिए। पुत्र, स्त्री आदि प्रियजनों का वियोग, यह सब निषिद्ध कर्मों का फल समझना चाहिए ॥ ५१-६२ ॥

देहादुत्क्रमणं चास्मात् पुनर्गर्भे च संभवम् ।

योनिकोटिसहस्रेषु सृतीश्वास्यान्तरात्मनः ॥ ॥ ६३ ॥

अधर्मप्रभवं चैव दुःखयोगं शरीरिणाम् ।

धर्मार्थप्रभवं चैव सुखसंयोगमक्षयम् ॥ ॥६४॥

सूक्ष्मतां चान्ववेक्षेत योगेन परमात्मनः ।

देहेषु च समुत्पत्तिमुत्तमेष्वधमेषु च ॥ ॥ ६५ ॥

दूषितोऽपि चरेद् धर्मं यत्र तत्राश्रमे रतः ।

समः सर्वेषु भूतेषु न लिङ्गं धर्मकारणम् ॥ ॥६६॥

फलं कतकवृक्षस्य यद्यप्यम्बुप्रसादकम् ।

न नामग्रहणादेव तस्य वारि प्रसीदति ॥ ॥६७॥

इस देह से निकलना, फिर गर्भ में उत्पत्ति और अनेकों योनियों में इस जीवात्मा का जाना, यह सभी अपने कर्मफल हैं। अधर्म से दुःख में पड़ना और धर्म से अक्षय सुख -मोक्ष मिलना इसका विचार करना चाहिए। योग से परमात्मा की सूक्ष्मता का ध्यान करना चाहिए और उत्तम अधम योनियों में शुभाशुभ फलभोगार्थ जीवों की उत्पत्ति का विचार करना चाहिए। आश्रम के विरुद्ध कोई दोष भी लगे, तब भी जीवों पर समभाव रखकर धर्माचरण करना चाहिए । क्योंकि दण्ड कमंडल चिह्न धारण करना ही धर्माचरण नहीं कहलाता। जैसा की निर्मली के फल का नाम लेने से ही जल निर्मल नहीं होता, उसको जल में छोड़ने से होता है। ऐसे ही आश्रम चिह्न धारण से फल नहीं होता किन्तु आचरण से होता है ॥६३-६७ ॥

संरक्षणार्थं जन्तूनां रात्रावहनि वा सदा ।

शरीरस्यात्यये चैव समीक्ष्य वसुधां चरेत् ॥ ॥६८॥

अह्ना रात्र्या च याञ्जन्तून् हिनस्त्यज्ञानतो यतिः ।

तेषां स्नात्वा विशुद्ध्यर्थं प्राणायामान् षडाचरेत् ॥ ॥६९॥

प्राणायामा ब्राह्मणस्य त्रयोऽपि विधिवत् कृताः ।

व्याहृतिप्रणवैर्युक्ता विज्ञेयं परमं तपः ॥ ॥ ७० ॥

दिन हो या रात, संन्यासी को भूमि में जीवों से बचाकर पैर रखना चाहिए चाहें शरीर को दुःख भी प्राप्त हो । जो यति चलता फिरता अनजाने में, जीवों की हिंसा करता है, उस पाप के नाशार्थ स्नान करके छह प्राणायाम करने चाहिए। यदि ब्राह्मण प्रणव और व्याहृति विधिपूर्वक तीन भी प्राणायाम करे तो भी, उसको परम तप मानना चाहिए। ॥६८-७० ॥

दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मलाः ।

तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात् ॥ ॥७१॥

प्राणायामैर्दहेद् दोषान् धारणाभिश्च किल्बिषम् ।

प्रत्याहारेण संसर्गान् ध्यानेनानीश्वरान् गुणान् ॥ ॥७२॥

उच्चावचेषु भूतेषु दुर्ज्ञेयामकृतात्मभिः ।

ध्यानयोगेन सम्पश्येद् गतिमस्यान्तरात्मनः ॥ ॥७३॥

सम्यग्दर्शनसम्पन्नः कर्मभिर्न निबध्यते ।

दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते ॥ ॥७४॥

जैसे सुवर्ण आदि धातुओं का मैल अग्नि में धौंकने से जल जाता है वैसे ही प्राणायाम से इन्द्रियों के दोष जल जाते हैं। प्राणायाम से दोषों को, ब्रह्म में मन की धारणा से पाप को, इन्द्रियसंयम से विषयों को और ध्यान से काम, क्रोध, मोह आदि को जला देना चाहिए। इसी प्रकार जीव की ऊंची, नीची योनियों में जन्मप्राप्ति का भेद ध्यान योग से जानना चाहिए, क्योंकि जीवगति सब को ज्ञात नहीं होती । ब्रह्म साक्षात्कार करने वाला पुरुष कर्मबन्धन में नहीं बँधता और जो उससे रहित है वह जन्म-मरण के बन्धन में पड़ता है। ॥७१-७४ ॥

अहिंसयेन्द्रियासङ्गैवैदिकैश्चैव कर्मभिः ।

तपसश्चरणैश्चौग्रैः साधयन्तीह तत्पदम् ॥ ॥ ७५ ॥

अस्थिस्थूणं स्नायुयुतं मांसशोणितलेपनम् ।

चर्मावनद्धं दुर्गन्धि पूर्णं मूत्रपुरीषयोः ॥ ॥ ७६ ॥

जशोकसमाविष्टं रोगायतनमातुरम् ।

रजस्वलमनित्यं च भूतावासमिमं त्यजेत् ॥ ॥७७॥

नदीकूलं यथा वृक्षो वृक्षं वा शकुनिर्यथा ।

तथा त्यजन्निमं देहं कृच्छ्राद् ग्राहाद् विमुच्यते ॥ ॥ ७८ ॥

अहिंसा, इन्द्रियनिग्रह, वैदिक कर्मानुष्ठान, व्रत आदि उग्र तपों से इस लोक में ब्रह्मपद का साधन होता है। यह शरीर हड्डी रूप खंभा में स्नायुरूप डोरियों से बँधा, मांस और रुधिर रूप गारा से लिपा चमड़ा से मढ़ा, मल-मूत्र और दुर्गन्धि से पूर्ण है। बुढ़ापा शोक, रोग, दुःख का घर हैं, रजोगुणी है, अनित्य है, पांच महाभूतों का निवासस्थान है, इससे ममता छोड़ देनी चाहिए। जैले नदी तट को वृक्ष छोड़ देता है, पक्षी वृक्ष को छोड़ देता है, वैसे सन्यासी इस देह की ममता छोड़ दे तो कठिन संसार रुपी ग्राह से छूट जाता है ॥ ७५- ७८ ॥

प्रियेषु स्वेषु सुकृतमप्रियेषु च दुष्कृतम् ।

विसृज्य ध्यानयोगेन ब्रह्माभ्येति सनातनम् ॥ ॥७९॥

यदा भावेन भवति सर्वभावेषु निःस्पृहः ।

तदा सुखमवाप्नोति प्रेत्य चेह च शाश्वतम् ॥ ॥८०॥

अनेन विधिना सर्वांस्त्यक्त्वा सङ्गान् शनैः शनैः ।

सर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्तो ब्रह्मण्येवावतिष्ठते ॥ ॥८१॥

ध्यानिकं सर्वमेवैतद् यदेतदभिशब्दितम् ।

नह्यनध्यात्मवित् कश्चित् क्रियाफलमुपाश्रुते ॥ ॥ ८२ ॥

ब्रह्मज्ञानी पुरुष अपने प्रिय में पूर्वजन्म अर्जित पुण्य और अप्रिय में दुष्कृत जानकार उससे होने वाले रागद्वेष आदि को त्यागकर, ध्यानयोग से सनातन ब्रह्मपद को प्राप्त होता है। जब संन्यासी सब प्रकार से नि:स्पृह हो जाता है, तब इस लोक में सुख पाता है और मरण के बाद मोक्ष सुख को प्राप्त करता है। इस रीति से धीरे धीरे त्याग कर, दुःख सुख से मुक्त होकर, ब्रह्म में ही स्थित हो जाता है। यह जो धन, पुत्र आदि की ममता का त्याग कहा है, वह सब परमात्मा ध्यान से ही हो सकता हैं। जिसको आत्मा के स्वरूप का ज्ञान नहीं है, उसे ध्यानादि कर्मों का फल प्राप्त नहीं होता ॥७६-८२ ॥

अधियज्ञं ब्रह्म जपेदाधिदैविकमेव च ।

आध्यात्मिकं च सततं वेदान्ताभिहितं च यत् ॥ ॥८३॥

इदं शरणमज्ञानामिदमेव विजानताम् ।

इदमन्विच्छतां स्वर्गमिदमानन्त्यमिच्छताम् ॥ ॥८४॥

अनेन क्रमयोगेन परिव्रजति यो द्विजः ।

सविधूयैह पाप्मानं परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ ॥८५॥

एष धर्मोऽनुशिष्टो वो यतीनां नियतात्मनाम् ।

वेदसंन्यासिकानां तु कर्मयोगं निबोधत ॥ ॥ ८६ ॥

यज्ञ, देवता और आत्मा के विषय में जो वेदमन्त्र हैं और वेदांत (ब्रह्मज्ञान) प्रतिपादक जो मन्त्र हैं उनका सदा पाठ और जप करना चाहिए। यह वेद ज्ञानी, अज्ञानी और स्वर्ग, मोक्ष की इच्छावालों को भी शरण देने वाला है अर्थात् वेद ही सर्वस्व है। इस क्रम से जो द्विज संन्यास धारण करता है, वह सब पापों से छूटकर, ब्रह्मभाव में लीन हो जाता है। इस प्रकार, यह धर्म जितेन्द्रिय यतियों का कहा गया है। अब वेद संन्यासी, अर्थात् जो चिन्ह धारण गृहत्याग न करके ज्ञान से ही संन्यासी हैं उनका कर्मयोग सुनो ॥ ८३-८६ ॥

ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थो यतिस्तथा ।

एते गृहस्थप्रभवाश्चत्वारः पृथगाश्रमाः ॥ ॥८७॥

सर्वेऽपि क्रमशस्त्वेते यथाशास्त्रं निषेविताः ।

यथोक्तकारिणं विप्रं नयन्ति परमां गतिम् ॥ ॥८८॥

सर्वेषामपि चैतेषां वेदस्मृतिविधानतः ।

गृहस्थ उच्यते श्रेष्ठः स त्रीनेतान् बिभर्ति हि ॥ ॥८९॥

यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम् ।

तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् ॥ ॥९०॥

ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और यति यह चार अलग अलग आश्रम गृहस्थ से उत्पन्न हैं। यह चारों आश्रम नियम से सेवित हों तो उत्तमगति देनेवाले हैं। इन सब आश्रमों में वेद और स्मृतियों के अनुसार गृहस्थाश्रम श्रेष्ठ कहा गया है। क्योंकि यह तीनों का पालन करता है। जैसे सब नदी और नद समुद्र में जाकर ठहरते हैं, वैसे ही सभी आश्रम गृहस्थ का आश्रय रखते हैं । ॥८७-९० ॥

चतुर्भिरपि चैवैतैर्नित्यमाश्रमिभिर्द्विजैः ।

दशलक्षणको धर्मः सेवितव्यः प्रयत्नतः ॥ ॥ ९१ ॥

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ ॥ ९२ ॥

दश लक्षणानि धर्मस्य ये विप्राः समधीयते ।

अधीत्य चानुवर्तन्ते ते यान्ति परमां गतिम् ॥ ॥९३॥

ब्रह्मचारी आदि चारों आश्रम वाले द्विजों को दस लक्षण वाले धर्म का सेवन यत्न से करना चाहिए। उनके लक्षण इस प्रकार हैं १ धैर्य, २ क्षमा, ३ दम मन को रोकना, ४ अस्तेय चोरी न करना, ५ शौच- बाहर भीतर से शुद्ध, ६ इन्द्रिय - निग्रह, ७ धी- शास्त्रज्ञान, ८ विद्या- ब्रह्मविद्या, ९ सत्य, १० अक्रोध-क्रोध न करना । जो विप्र धर्म के इन दस लक्षणों को पढ़ते हैं और उसके अनुसार आचरण करते हैं, वह परमगति को प्राप्त करते हैं । ॥९१-९३ ॥

दशलक्षणकं धर्ममनुतिष्ठन् समाहितः ।

वेदान्तं विधिवत्श्रुत्वा संन्यसेदनृणो द्विजः ॥ ॥ ९४ ॥

संन्यस्य सर्वकर्माणि कर्मदोषानपानुदन् ।

नियतो वेदमभ्यस्य पुत्रैश्वर्ये सुखं वसेत् ॥ ॥९५॥

एवं संन्यस्य कर्माणि स्वकार्यपरमोऽस्पृहः ।

संन्यासेनापहत्यैनः प्राप्नोति परमं गतिम् ॥ ॥९६॥

एष वोऽभिहितो धर्मो ब्राह्मणस्य चतुर्विधः ।

पुण्योऽक्षयफलः प्रेत्य राज्ञां धर्मं निबोधत ॥ ॥९७॥

ऋषि, देव और पितरों के ऋण से मुक्त होकर, दस लक्षण युक्त धर्म का सेवन करते हुए द्विज को वेदान्त सुनकर संन्यास को धारण करना चाहिए। सभी अग्निहोत्रादि कर्मों को छोड़कर, पापों का प्राणायाम से नाश करके, जितेन्द्रिय होकर वेद का अध्ययन करना चाहिए और पुत्रों को दिये भोजन, वस्त्रादि का सुख से उपभोग करना चाहिए । इस प्रकार, सब कर्मों को छोड़कर, केवल आत्म साक्षात्कार में तत्पर रहकर, संन्यास धारण करने से ब्रह्मपद को पहुँचता है। यह पवित्र और परलोक में अक्षय फल देनेवाला ब्राह्मण को चारों प्रकार का धर्म कहा गया हैं। अब राजधर्म को सुनो। ॥९४ - ९७ ॥

॥ इति मानवे धर्मशास्त्रे भृगुप्रोक्तायां स्मृतौ षष्ठोऽध्यायः समाप्तः ॥॥६॥

महर्षि भृगु द्वारा प्रवचित मानव धर्म शास्त्र स्मृति का छठा अध्याय समाप्त ॥

आगे जारी..........मनुस्मृति अध्याय 7

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