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कर्मकाण्ड

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ब्रह्म स्तव

ब्रह्म स्तव

पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड में वर्णित ब्रह्माजी के इस नारदकृत ब्रह्म स्तव का पाठ बुद्धि, बल तथा सर्वत्र रक्षा करता है ।

ब्रह्म स्तव

ब्रह्म स्तव

Brahma stav

नारद कृतो ब्रह्मस्तवः

ब्रह्म स्तवन

नारदकृत ब्रह्मस्तुति

सहस्त्रशीर्षापुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।

सर्वव्यापी भुवः स्पर्शादध्यतिष्ठद् दशाङ्गुलम् ॥ १ ॥

नारद - जिस (देवता) के हजारों मस्तक हैं, जिसके हजारों नेत्र हैं, एवं जिसके हजारों पैर (पाद) हैं- ऐसा एक पुरुष (ईश्वर) हैं। वह भूमि को चारों तरफ से आवृत कर रहा है। तथा वह दश अङ्गुल रूप इस छोटी सी सृष्टि को व्याप्त कर इससे बाहर भी स्थित है ॥ १ ॥

यद् भूतं यच्च वै भाव्यं सर्वमेव भवान्यतः ।

ततो विश्वमिदं तात त्वत्तो भूतं भविष्यति ॥ २ ॥

इस संसार में जो कुछ भी हुआ है, या जो कुछ भी होगा- वह सब वस्तुतः आप ही हैं; अतः हे तात! यह समस्त विश्व, भले ही जो हो चुका हो या आगे जो होने वाला हो वह, सब कुछ आप से ही है ॥ २ ॥

त्वत्तो यज्ञः सर्वहुतः पृषदाज्यं पशुर्द्विधा ।

ऋचस्त्वत्तोऽथ सामानि त्वत्त एवाभिजज्ञिरे ॥ ३ ॥

आप से ही यह सर्वहविर्भोजी यज्ञ दधिमिश्रित घृत तथा द्विविध पशु प्रादुर्भूत हुए। ऋग्वेद तथा सामवेद भी आप से ही प्राप्त हुए ॥ ३ ॥

त्वत्तो यज्ञास्त्वजायन्त त्वत्तोऽश्वाश्चैव दन्तिनः ।

गावस्त्वत्तः समुद्भूताः त्वत्तो जाता वयोमृगाः ॥ ४ ॥

आप से ही यज्ञ तथा अश्व एवं हाथी उद्भूत हुए। गौएँ तथा मृग भी आप से ही उद्भूत हुए ॥ ४ ॥

त्वन्मुखाद् ब्राह्मणा जातास्त्वत्तः क्षत्रमजायत ।

वैश्यास्तवोरुजाः शूद्रास्तव पद्भ्यां समुद्रताः ॥ ५ ॥

ब्राह्मणों की उत्पत्ति आप के मुख से हुई। क्षत्रियों की भी उत्पत्ति आप से ही हुई। आप की जङ्घाओं से वैश्यों की तथा पैरों से शूद्र जाति की उत्पत्ति हुई ॥ ५ ॥

अक्ष्णोः सूर्योऽनिलः श्रोत्राच्चन्द्रमा मनसस्तव ।

प्राणोऽन्तः सुषिराज्जातो मुखादग्निरजायत ।। ६ ॥

आपके नेत्रों से सूर्य की, श्रोत्र से वायु की तथा मन से चन्द्रमा की उत्पत्ति हुई। अपके शरीरस्थ आभ्यन्तर रिक्त स्थानों से प्राणों की तथा आपके मुख से अग्नि की उत्पत्ति हुई ॥ ६ ॥

नाभितो गगनं दयौश्च शिरसः समवर्तत ।

दिशः श्रोत्रात् क्षितिः पद्भ्यां त्वत्तः सर्वमभूदिदम् ॥ ७ ॥

आपकी नाभि से आकाश की तथा शिर से ऊर्ध्व लोक की श्रोत्र से दिशाओं की एवं आपके चरणों से अवशिष्ट सृष्टि की रचना हुई ॥ ७ ॥

न्यग्रोधः सुमहानल्पे यथा बीजे व्यवस्थितः ।

ससर्ज विश्वमखिलं बीजभूते तथा त्वयि ॥ ८ ॥

जैसे महान् वट वृक्ष छोटे से बीज के अन्तर्भूत (स्थित) रहता है, उसी तरह यह समग्र सृष्टि आप में अन्तर्भूत रहती है ॥८॥

बीजाङ्कुरसमुद्भूतो न्यग्रोधः समुपस्थितः ।

विस्तार च याति त्वत्तः सृष्टौ तथा जगत् ॥ ९ ॥

जैसे उस छोटे से बीज से अङ्कुरित होकर एक दिन विशाल वट वृक्ष बन जाता है, उसी तरह आपकी बनायी सृष्टि में यह विशाल जगत् अधिक से अधिक विस्तार प्राप्त कर रहा है ॥ ९ ॥

यथा हि कदली नान्या त्वक्पत्रेभ्योऽभिदृश्यते ।

एवं विश्वमिदं नान्यत् त्वत्स्थमीश्वर दृश्यते ॥ १० ॥

हे ईश्वर ! जैसे केले का वृक्ष अपने पत्रों से भिन्न नहीं होता, उसी तरह यह समग्र संसार आप में ही स्थित दिखायी देता है ॥ १० ॥

ह्लादिनी त्वयि शक्तिः सा त्वय्येका सहभाविनी ।

ह्लादतापकरा मिश्रा त्वयि नो गुणवर्जिते ॥ ११ ॥

आप की वह (परा) शक्ति आप में एकीकृत होकर साथ साथ रहती हैं, अत एव वह प्रसन्नतादायक लगती है। परन्तु वही शक्ति जब आप से पृथक् होकर निर्गुण रूप से अवस्थित होती हैं तो सामान्य प्राणियों के लिये मिश्रित रूप से हर्ष एवं विषाद का कारण बन जाती है ॥ ११ ॥

पृथग्भूतैकभूताय सर्वभूताय ते नमः ।

व्यक्तं प्रधानं पुरुषो विराट् सम्राट् तथा भवान् ॥ १२ ॥

जब आप उससे पृथक् होकर एकमात्र रूप में सब प्राणियों में व्यापक रूप से विराजमान रहते हैं, तब आप 'व्यक्त', 'प्रधान', 'पुरुष', 'विराट्' या 'सम्राट्' कहलाते हैं। आपके उस रूप को प्रणाम है ॥ १२ ॥

सर्वस्मिन् सर्वभूतस्त्वं सर्वः सर्वस्वरूपधृक् ।

सर्वं त्वत्तः समुद्भूतं नमः सर्वात्मने ततः ॥ १३॥

आप समस्त प्राणियों में, समग्र जगत् में, सभी रूपों में सर्वतो-भावेन व्याप्त हैं। यह सब कुछ दृश्यमान जगत् आप से ही उद्भूत है। अतः हे सर्वात्मन्! आपको प्रणाम है ॥ १३ ॥

सर्वात्मकोऽसि सर्वेश ! सर्वभूतस्थितो यतः ।

कथयामि ततः किं ते सर्वं वेत्सि हृदिस्थितम् ॥ १४ ॥

आप सब प्राणियों में आत्मा के रूप में विद्यमान हैं; क्योंकि आप सर्वव्यापक हैं। अतः आप सबके हृदय में रहते हुए सबके भावों को जानते ही हैं तो मैं अपने विषय में अपनी वाणी से क्या कहूँ ॥ १४ ॥

यो मे मनोरथो देवः सफलः स त्वया कृतः ।

तप्तं सुतप्तं सफलं यद् दृष्टोऽसि जगत्पते ॥ १५ ॥

हे जगत्स्वामिन्! मेरे मन की जो कामना थी वह भी आपने सफल (पूर्ण) कर दी। मुझे तपस्या का फल मिल गया। आपके दर्शन से मैं अपने को कृतकृत्य मानता हूँ ॥ १५ ॥

श्री पाद्मे पुराणे सृष्टिखण्डे नारदकृत ब्रह्म स्तुतिः सम्पूर्णा ॥

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