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कर्मकाण्ड

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अभीष्टद स्तव

अभीष्टद स्तव

श्रीस्कन्दपुराणान्तर्गत काशीखण्ड के द्वितीय अध्याय में वर्णित यह अभीष्टद स्तव वस्तुत: तीनों (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) ही देवों का स्तवन है,इसके नित्य पाठ करने से लोक या परलोक सभी अभीष्ट कामना की प्राप्ति करानेवाला है ।

अभीष्टद स्तव

अभीष्टदः स्तवः

Abhishtad stav

अभीष्टद स्तवन

व्यासउवाच

इति व्याकुलिते लोके सुरासुरनरोरगे ।

आः किमेतदकाण्डेऽभूद् रुरुदुर्दुद्रुवुः प्रजाः ॥ १ ॥

महर्षि व्यास- (विन्ध्याचल द्वारा सूर्यपथ अवरुद्ध करने से) देवलोक (स्वर्ग) असुरलोक, मनुष्यलोक (भूलोक) एवं नागलोक (पाताल) आदि लोकों के वासियों के दुःखी, व्यग्र एवं भयभीत होने पर संसार के साधारण प्रजाजन भी रोने-कलपने लगे कि यह असमय में क्या भयानक कुकृत्य हो गया ! ॥ १ ॥

ततः सर्वे समालोक्य ब्रह्माणं शरणं ययुः ।

स्तुवन्तो विविधैः स्तोत्रै रक्ष रक्षेति चाब्रुवन् ॥ २ ॥

तब सभी प्रमुख देवताओं ने इस घटना पर बहुत कुछ सोच- विचार किया और अन्त में वे देवाधिदेव ब्रह्मा की शरण में पहुँचे और विविध स्तोत्रों से उनकी स्तुति की तथा इस भयानक कृत्य से रक्षा हेतु उनसे यों निवेदन करने लगे ॥ २ ॥

अभीष्टद स्तवन

देवाऊचू

"नमो हिरण्यरूपाय ब्रह्मणे ब्रह्मरूपिणे ।

अविज्ञातस्वरूपाय कैवल्यायामृताय च ॥ ३ ॥

देवगण - "हे सुवर्णमय देव ! आपको प्रणाम है। आप तो ब्रह्मा के रूप में ब्रह्म ही हैं। आपका वास्तविक रूप कोई नहीं पहचान पाया। आप इस संसार में असङ्ग, अलिप्त अतएव स्वरूप में स्थित तथा अमर एवं अविनाशी हैं ॥ ३ ॥

यन्न देवा विजानन्ति मनो यत्रापि कुण्ठितम् ।

न यत्र वाक् प्रसरति नमस्तस्मै चिदात्मने ॥ ४ ॥

आपके वास्तविक स्वरूप को आज तक कोई भी देवता नहीं जान पाया। आपकी वास्तविकता को जानने में सभी की बुद्धि (मन) कुण्ठित हो चुकी है। आपके विषय में वाणी द्वारा भी कोई विशेष वर्णन नहीं किया जा सकता। अतः हे चिदात्मन् (परमात्मन्!) आपको हमारा प्रणाम है ॥ ४ ॥

योगिनो यं हृदाकाशे प्रणिधानेन निश्चलाः ।

ज्योतीरूपं प्रपश्यन्ति तस्मै श्रीब्रह्मणे नमः ॥ ५ ॥

योगिजन एकाग्रमन में समाधि द्वारा अपने हृदयाकाश में जिस ज्योतिर्मय (तेजःपुञ्ज) ब्रह्म का साक्षात्कार कर पाते हैं, वह ब्रह्म आप ही हैं। अतः ब्रह्मरूप आपको प्रणाम है ॥ ५ ॥

कालात् पराय कालाय स्वेच्छाय पुरुषाय च ।

गुणत्रयस्वरूपाय नमः प्रकृतिरूपिणे ।। ६ ।।

आप काल से भी उत्कृष्ट काल (संहारक-मृत्यु) हैं। आप स्वेच्छा से पुरुष (सृष्टिपालक) रूप भी धारण कर लेते हैं। यों आप सत्त्व, रजस एवं तमस्- इन तीनों गुणों से युक्त हैं। परन्तु आप प्रायः अपने प्रकृत रूप में स्थिर रहते हैं, अतः आपको प्रणाम है ॥६ ॥

विष्णवे सत्त्वरूपाय रजोरूपाय वेधसे ।

तमसे रुद्ररूपाय स्थितिसर्गान्तकारिणे ॥ ७ ॥

आप जब सत्त्वरूप में आते हैं तब 'विष्णु' कहलाते हैं। और रजस् रूप में आते हैं तो 'ब्रह्मा' कहलाते हैं तथा तमोरूप धारण करने पर आप ही 'रुद्र' कहलाते हैं। इस तरह, संसार की सृष्टि, स्थिति एवं संहार करने वाले आपको प्रणाम है॥७॥

नमो बुद्धिस्वरूपाय त्रिधाहंकृतये नमः ।

पञ्चतन्मात्ररूपाय पञ्चकर्मेन्द्रियात्मने ॥ ८ ॥

आप ही बुद्धिरूप हैं या मन, बुद्धि एवं अहङ्कार- इन तीनों रूपों में भी आप ही विराजमान हैं। पञ्च तन्मात्राओं के रूप में आपकी ही स्थिति है और पाँच कर्मेन्द्रियाँ भी आप पर ही आधृत हैं। अतः आपको प्रणाम है ॥ ८ ॥

नमो मनः स्वरूपाय पञ्चबुद्धीन्द्रियात्मने ।

क्षित्यादिपञ्चरूपाय नमस्ते विषयात्मने ॥ ९ ॥

आप ही मनः स्वरूप हैं, पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ भी आप में ही अन्तर्भुक्त हैं। साथ ही, ये पृथ्वी आदि पाँचों महाभूत भी आपके ही रूप हैं। इन पाँचों महाभूतों एवं पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के विषय आप ही हैं। अतः आपको प्रणाम है ॥ ९ ॥

नमो ब्रह्माण्डरूपाय तदन्तर्वर्त्तिने नमः ।

अर्वाचीन पराचीन विश्वरूपाय ते नमः ॥ १० ॥

यह समस्त ब्रह्माण्ड आपका ही रूप है, और इस समस्त ब्रह्माण्ड में आप ही व्याप्त हैं। यह समग्र अर्वाचीन एवं पराचीन विश्व (जगत्) आप में ही ओत प्रोत है। ऐसे आप विशिष्ट रूपधारी को हमारा प्रणाम है ॥ १० ॥

अनित्यनित्यरूपाय सदसत्पतये नमः ।

समस्तभक्तकृपया स्वेच्छाविष्कृतविग्रह ! ॥ ११ ॥

इस चराचर जगत् में विद्यमान समस्त नित्य- अनित्य या सत्-असत् पदार्थ समूह के आप ही स्वामी हैं। आप अपने उत्तम मध्यम एवं कनिष्ठ भक्तों पर कृपा करने के लिये अपने नानाविध रूप (शरीर) स्वेच्छा से धारण करते रहते हैं। अतः आपको प्रणाम है ॥ ११ ॥

तव निःश्वसितं वेदास्तव स्वेदोऽखिलं जगत् ।

विश्वा भूतानि ते पादः शीर्ष्र्णो द्यौः समवर्तत ॥ १२ ॥

बुद्धिमान् लोगों की ऐसी धारणा कि ये चारों वेद आपके निश्वास से निःसृत हैं तथा यह समस्त जगत् आपके स्वेदविन्दुओं (पसीना) से निर्मित है। ये समस्त भूत (प्राणी) भी आपके चरणों से निःसृत हैं तथा यह अन्तरिक्ष (द्युलोक) आपके मूर्धा से निःसृत है ॥ १२ ॥

नाभ्या आसीदन्तरिक्षं लोमानि च वनस्पतिः ।

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यस्तव प्रभो! ॥ १३ ॥

इसी तरह यह आकाश आपकी नाभि से निःसृत है। आपके रोमों (मृदुल केशों) से ये वनस्पतियाँ निःसृत हैं। आपके मन से चन्द्रमा की उत्पत्ति हुई है, और आपके नेत्रों से सूर्य की उत्पत्ति मानी जाती है ॥ १३ ॥

त्वमेव सर्वं त्वयि देव सर्वं

स्तोता स्तुतिः स्तव्य इह त्वमेव ।

ईश त्वयावास्यमिदं हि सर्वं

नमोऽस्तु भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥ १४ ॥

हे देव! इस दृश्यमान जगत् में सब कुछ आप ही हैं या यह समस्त जगत् आप में ही स्थित हैं । यहाँ स्तुति करने वाला, स्तुति करने योग्य एवं स्वयं स्तुति- तीनों आप ही हैं। हे ईश! इस समस्त ब्रह्माण्ड में आप ही आवास करने योग्य हैं। अतः आपको बार बार प्रणाम है ॥ १४ ॥

अभीष्टद स्तव महात्म्य

व्यासउवाच

इति स्तुत्वा विधिं देवा निपेतुर्दण्डवत् क्षितौ ।

परितुष्टस्तदा ब्रह्मा प्रत्युवाच दिवौकसः ॥ १५ ॥

महर्षि व्यास- इस तरह जब देवताओं ने उन ब्रह्मदेव की स्तुति कर उनके सम्मुख भूमि में लेटकर दण्डवत् प्रणाम किया तो देवताओं की इस स्तुति से सन्तुष्ट होकर ब्रह्मा जी ने यह उत्तर दिया ।। १५ ।।

ब्रह्मोवाच:

यथार्थयाऽनया स्तुत्या तुष्टोऽस्मि प्रणताः सुराः ।

उत्तिष्ठत प्रसन्नोऽस्मि वृणुध्वं वरमुत्तमम् ॥ १६ ॥

ब्रह्मदेव - हे विनीत देवताओं! आपके द्वारा विहित मेरी इस सार्थक स्तुति से मैं बहुत सन्तुष्ट हूँ। आप लोग उठें। मैं आप लोगों पर अत्यधिक प्रसन्न हूँ। आप लोग मुझसे अपना मनचाहा वर माँग लें ।। १६ ।।

यः स्तोष्यत्यनया स्तुत्या श्रद्धावान् प्रत्यहं शुचिः ।

मां वा हरं वा विष्णुं वा, तस्य तुष्टाः सदा वयम् ॥ १७ ॥

जो श्रद्धावान् भक्त प्रतिदिन (स्नानादि से) शुद्ध होकर, आप लोगों द्वारा उक्त इस स्तोत्र से मेरी या विष्णु या शङ्कर की स्तुति करेगा उस से हम तीनों ही सदा सन्तुष्ट रहेंगे- ऐसा विश्वास कीजिये ॥१७॥

दास्यामः सकलान् कामान् पुत्रान् पौत्रान् पशून् वसु ।

सौभाग्यमायुरारोग्यं निर्भयत्वं रणे जयम् ॥ १८ ॥

भले ही वह हमसे पुत्र, पौत्र, पशु, धन, सौभाग्य ( ऐश्वर्य) दीर्घायु, आरोग्य या युद्ध में विजय-आदि कुछ भी माँगें; हम उसकी ये सभी इच्छाएँ पूर्ण करेंगे ।। १८ ।।

ऐहिकामुष्मिकान् भोगानपवर्गं तथाऽक्षयम् ।

यद्यदिष्टतमं तस्य तत् तत् सर्वं भविष्यति ।। १९ ।।

वह भक्त इस लोक या परलोक के भोग्य पदार्थ या अक्षय मोक्षसुख अथवा जिस किसी भी अभीष्ट वस्तु की कामना करेगा वह उसे अवश्य पूर्णरूप से मिलेगी ।। १९ ।।

तस्मात् सर्वप्रयत्नेन पठितव्यः स्तवोत्तमः ।

अभीष्टद इति ख्यातः स्तवोऽयं सर्वसिद्धिदः ॥ २० ॥

अतः सभी भक्तों को यह उत्तम स्तोत्र प्रयत्नपूर्वक पढ़ना चाहिये । आज से यह स्तोत्र' अभीष्टद स्तव' कहलायगा, एवं यह सभी सिद्धियों का दाता होगा ॥ २० ॥

इति श्रीस्कन्दपुराणान्तर्गतकाशीखण्डे द्वितीयाध्याये अभीष्टदस्तवः समाप्तः ॥

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