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- वज्रपंजराख्य सूर्य कवच
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- रहस्यपञ्चदशिका
- महागणपति मूलमन्त्र स्तोत्र
- वज्रपंजर महागणपति कवच
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- देवीरहस्य पटल २६
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- अनुभव निवेदन स्तोत्र
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- श्रीदेवीरहस्य पटल २२
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- महोपदेश विंशतिक
- भैरव स्तव
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- अग्निपुराण अध्याय १३२
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- स्वयम्भू स्तोत्र
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- परमार्थ चर्चा स्तोत्र
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- परमार्थद्वादशिका
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मूल शांति पूजन विधि
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
श्रीदेवीरहस्य पटल १६
रुद्रयामलतन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्यम् के पटल १६ में श्मशान अर्चना पद्धति के विषय में बतलाया गया है।
रुद्रयामलतन्त्रोक्तं श्रीदेवीरहस्यम् षोडशः पटल: श्मशानार्चनपद्धतिः
Shri Devi Rahasya Patal 16
रुद्रयामलतन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य सोलहवाँ पटल
रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्यम्
षोडश पटल
श्रीदेवीरहस्य पटल १६ श्मशान अर्चना पद्धति
अथ षोडशः पटल:
श्मशान पूजापद्धतिः
श्रीभैरव उवाच
अथाहं पूजनस्यास्य वक्ष्ये
पद्धतिमादरात् ।
गद्यपद्यमयीं देवि
मन्त्रसिद्धिप्रदायिनीम् ॥ १ ॥
रात्रिशेषे समुत्थाय साधको
विहिताह्निकः ।
श्मशानार्चनसम्भरं समादाय च सानुगः
॥ २ ॥
सवीरो वीरभूमिं तु
व्रजेद्रात्रिमुखे प्रिये ।
तत्र देवि विधिं वक्ष्ये शृणु
पार्वति सादरम् ॥३॥
गुह्यं सारतमं गोप्यं नाख्येयं
सिद्धिवाञ्छकैः ।
श्मशान पूजापद्धति —
श्री भैरव ने कहा कि हे देवि! अब मैं गद्य-पद्यमयी श्मशान
पूजापद्धति का वर्णन आदरसहित करता हूँ। यह पद्धति मन्त्रसिद्धिप्रदायिनी है।
रात्रि की समाप्ति होने पर साधक उठकर नित्य कर्म करके दिन में श्मशान अर्चन की सामग्रियों
को लेकर वीर साथियों के साथ रात्रि के प्रारम्भ में श्मशान वीरभूमि में जाये।
श्मशान में जो विधियों की जाती हैं, उनका वर्णन मैं करता
हूँ। हे पार्वति! आदरपूर्वक सुनो। यह विधि सारोत्तम एवं गोप्य है। सिद्धियों के
इच्छुक साधक को इसे किसी को भी नहीं बतलाना चाहिये ।। १-३।।
तत्र रात्रिमुखे सवीरः श्मशानं
गत्वा सप्तपदान्तां भूमिमुत्सृज्य श्मशानवेलां नोल्लङ्घयेत् । तत्र सम्भारं
संस्थाप्य स्वहस्तपादौ प्रक्षाल्य त्रिराचम्य प्राणायामत्रयं मूलेन विधाया
पूर्ववदाचम्य स्वमूलऋषिच्छन्दो- न्यासं कृत्वा कराङ्गन्यासौ कृत्वा
मूलमष्टोत्तरशतं जपेत् । यथाशक्ति जप्त्वा देवी शिवां स्वगुरुं ध्यात्वा कवच
सहस्त्रनाम स्तवान् पठन् वेलां सप्तपदमात्रामुल्लङ्घय,
शमशानमण्डलं प्रदक्षिणीकृत्य प्रविश्य चितां प्रणमेत् ।
रात के प्रारम्भ में वीरों के साथ
श्मशान में जाकर श्मशान से सात पग की दूरी पर रहकर स्थित हो जाय। श्मशानवेला का
लङ्घन न करे वहाँ पर सामग्रियों को रखकर अपने हाथ-पाँव धोकर तीन आचमन करके तीन
प्राणायाम मूल मन्त्र से करे पूर्ववत् फिर आचमन करके अपने मूल मन्त्र से ऋष्यादि
छन्द-न्यास करे। करन्यास और अङ्गन्यास करे। इसके बाद मूल मन्त्र का जप एक सौ आठ
बार करे। यथाशक्ति जप करके शिवा के साथ देवी का और अपने गुरु का ध्यान करके कवच
सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करे। इसके बाद सात पग पीछे श्मशान के पास जाकर
श्मशानमण्डल की प्रदक्षिणा करे। चिता के पास जाकर प्रणाम करें।
ज्वालाकरालवदने कल्पान्तदहनप्रिये ।
प्राणिप्राणालयोद्भूते चिते
मेऽनुग्रहं कुरु ॥ ४ ॥
यह प्रार्थना मन्त्र है। इसका भाव
यह है कि हे ज्वालाकरालमुखि ! कल्पान्तदहनप्रिये! प्राणियों के प्राणालय से उद्भूत
चित्ते! मुझ पर अनुग्रह करो ।।४।।
इति नत्वा यथावारं प्रशस्ताप्रशस्तान्
भूतभैरवान् सम्मुखपृष्ठयोर्धृत्वा पूजामारभेत् ।
इस प्रकार प्रणाम करके वार के
अधिपति मूल भैरव को सम्मुख और पीठ की ओर करके पूजा प्रारम्भ करे। किस दिन में किस
भैरव की पूजा करनी है, इसका वर्णन पहले ही
किया जा चुका है।
श्रीदेवी उवाच
भगवन् भैरवान् भूतान्
शापानुग्रहकारकान् ।
कथं सन्धारयेन् मन्त्री तत्र
सम्मुखपृष्ठयोः ॥ ५ ॥
श्री देवी ने कहा कि हे भगवन्!
शापानुग्रहकारक भूत भैरवों को साधक सम्मुख और पीछे किस प्रकार धारण करता है ।। ५
।।
श्रीभैरव उवाच
एतद् देवि परं गुह्यं भूतभैरवसाधनम्
।
वक्ष्यामि तव भक्त्याहं न चाख्येयं
दुरात्मने ॥ ६ ॥
श्री भैरव ने कहा कि हे देवि ! यह
भूत भैरवसाधन परम गुह्य है। तुम्हारी भक्ति के कारण मैं इसे कहता हूँ। इसे दुष्ट
आत्माओं से नहीं कहना चाहिये ।। ६ ।।
श्रीदेवीरहस्य पटल १६- वारक्रमेण
भूतभैरवसाधनम्
भूतो रवौ पूर्वगतो महोग्रश्चित्राङ्गदोऽप्युत्तरगो
हिमांशौ ।
चण्डस्तथेशानगतो महीजे भास्वान्
बुधे भैरव एव वायौ ॥७॥
लोलाक्षको वह्निगतः सुरेज्ये
भूतेश्वरो दक्षिणगोऽसुरेज्ये ।
करालको निर्ऋतिगोऽपिमन्दे रवौ पुनः
पश्चिमगोऽपि भीमः ॥ ८ ॥
एवं भ्रमन्ते सततं महेशि दिग्भैरवा
भूतगणाः श्मशाने ।
सुधांशुवृद्धौ शशिहीनपक्षे
तद्वैपरीत्येन शिवे भ्रमन्ति ॥ ९ ॥
वारक्रम से भूत भैरवसाधन-वार और
दिशाक्रम से भैरवों की स्थिति निम्न प्रकार की होती है—
वार |
दिशा |
भैरव |
रविवार |
पूर्व |
महोग्र |
सोमवार |
उत्तर |
चित्रांगद |
मंगलवार |
ईशान |
चण्ड |
बुधवार |
वायव्य |
भास्वान |
गुरुवार |
अग्नि |
लोलाक्ष |
शुक्रवार |
दक्षिण |
भूतेश्वर |
शनिवार |
नैर्ऋत्य |
कराल |
रविवार |
पश्चिम |
भीम |
हे महेशि! इस प्रकार दिग्भैरव और
भूतगण बराबर श्मशान में भ्रमण करते रहते हैं। शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में इनका
भ्रमण विपरीत क्रम से होता है ।। ७-९ ।।
श्रीदेव्युवाच
देवेश करुणासान्द्र साधकेश जगत्पते
।
ज्ञायते भीमकर्मेदं हृदि
साधकसत्तमाः ॥ १० ॥
महोग्र भीमयोः पूजां
पक्षयोर्भीमसौम्ययोः ।
कथं देव करिष्यन्ति
द्वयोर्भास्करवारयोः ॥ ११ ॥
श्री देवी ने कहा कि हे करुणेश!
साधकेश! जगत्पते! साधकसत्तम के हृदय में जब इस भीषण कर्म का ज्ञान हो जाता है,
तब साधक रविवार को महोग्र और भीम भैरवों की पूजा कृष्ण और शुक्ल
पक्ष में कैसे करेंगे।।१०-११।।
श्री भैरव उवाच
पौर्णमास्यां शिवे दृष्ट्वा
ग्रहवारं ततोऽष्टधा ।
रविवारं च सङ्गुण्य प्रथमं वा
द्वितीयकम् ।।१२।।
प्रथमे रविवारे तु महोग्रं पूर्वगं
यजेत् ।
द्वितीये पश्चिमे भीमं
पूजयेच्छुक्लपक्षके ॥१३॥
कृष्णपक्षेऽर्चयेद् भूतान्
विपरीतक्रमेण तु ।
अधुनैषां प्रवक्ष्यामि पूजासारं
महेश्वरि ।। १४ ।।
श्री भैरव ने कहा कि हे शिवे ! साधक
अष्टधा ग्रहवारों की गिनती पूर्णमासी में करके प्रथम रविवार में महोग्र का पूजन
करके दूसरे सोमवार में शुक्ल पक्ष में भीम का पूजन करे। कृष्ण पक्ष में भूतों का
अर्चन विपरीत क्रम से करे। हे देवि! अब मैं पूजासार का वर्णन करता हूँ। । १२-१४।।
श्रीदेवीरहस्य पटल १६- श्मशानकालिकापूजामन्त्रः
अवाच्यं परशिष्याय कुचैलाय दुरात्मने
।
श्मशानपूजामन्त्रस्य महाकाल ऋषिः
स्मृतः ॥ १५ ॥
श्मशानकालिका पूजामन्त्र - हे
महेश्वरि । इस पूजासार को परशिष्यों को कुचैलों को, दुष्टों को नहीं बतलाना चाहिये ।। १५ ।।
श्रीदेवीरहस्य पटल १६- विनियोगः
उष्णिक् छन्द इति ख्यातं देवी
श्मशानकालिका ।
परा बीजं तटं शक्तिः काली
कीलकमीरितम् ॥ १६ ॥
धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः
।
अस्य श्रीश्मशानकालिकापूजामन्त्रस्य
महाकालभैरव ऋषिः, उष्णिक् छन्दः,
श्रीश्मशानकालिका देवता, ह्रीं बीजं, ह्रूं शक्तिः, क्रीं कीलकं, धर्मार्थकाममोक्षार्थे
पूजायां विनियोगः ।
श्मशान पूजा मन्त्र के ऋषि महाकाल है,
छन्द उष्णिक् और देवता श्मशानकालिका हैं। ह्रीं बीज है, हूं शक्ति है। क्रीं कीलक है। धर्मार्थ-काम-मोक्ष के लिये इसका विनियोग होता
है। प्रयोग का प्रकार निम्नलिखित है-
विनियोग —
अस्य श्रीश्मशानकालिकापूजामन्त्रस्य महाकालभैरवऋषिः उष्णिक छन्दः
श्रीश्मशानकालिका देवता ह्रीं बीजं हूं शक्तिः क्रीं कीलकं धर्मार्थकाम मोक्षेषु
विनियोगः ।। १६ ।।
श्रीदेवीरहस्य पटल १६- श्मशानकालिकापूजाक्रमः
महाकालभैरव ऋषये नम: शिरसि,
उष्णिक्छन्दसे नमो मुखे, श्मशानकालिकादेवतायै
नमो हृदि, ह्रीं बीजाय नमो नाभौ, हूं
शक्तये नमो गुह्ये, क्रीं कीलकाय नमः पादयोः, विनियोगाय नमः सर्वाङ्गेषु। ओं क्रां हृदयाय नमः। ओं क्रीं शिरसे स्वाहा
इत्यादि कराङ्गन्यासः । एवं षडङ्गं विधायासनं शोधयेत्। ओं आं आसनशोधनमन्त्रस्य
मेरुपृष्ठ ऋषिः, सुतलं छन्दः, कूर्मो
देवता, आसनशोधने विनियोगः । प्रीं पृथ्व्यै नमः।
महि त्वया धृता लोका देवि त्वं
विष्णुना धृता ।
त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु
चासनम् ॥
ऋष्यादि न्यास –
महाकालभैरवाय नमः शिरसि ।
उष्णिक् छन्दसे नमः मुखे।
श्मशानकालिका देवतायै नमः हृदि ।
ह्रीं बीजाय नमः नाभौ ।
हूं शक्तये नमः गुह्ये।
क्रीं कीलकाय नम पादयोः।
विनियोगाय नमः सर्वाङ्गेषु ।
हृदयादि न्यास –
ॐ क्रीं हृदयाय नमः ।
ॐ क्रीं शिरसे स्वाहा ।
ॐ क्रूं शिखायै वषट् ।
ॐ क्रैं कवचाय हूँ।
ॐ क्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ क्रः अस्त्राय फट् ।
करन्यास –
ॐ क्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ क्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा ।
ॐ क्रूं मध्यमाभ्यां वषट् ।
ॐ क्रैं अनामिकाभ्या हुं।
ॐ क्रौं कनिष्ठाभ्यां वौषट् ।
ॐ क्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां फट् ।
इस प्रकार के न्यास के बाद आसन का
शोधन करे- ॐ आं आसनशोधनमन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषिः, सुतलं छन्दः कूर्मो देवता, आसनशोधने विनियोगः । श्री
पृथ्व्यै नमः।।
महि त्वया धृता लोका देवित्वं
विष्णुना धृता ।।
त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु
चासनम् ।।
ॐ क्रां आधारशक्तिकमलासनाय नमः ।
अनन्ताय नमः । पद्माय नमः । पद्मनालाय नमः । तत्रोपविश्य तालत्रयं दद्यात्। 'अपसर्पन्तु ते भूता:' इत्यादिना तालत्रयं दत्त्वा
नाराचमुद्रां प्रदर्शयेत् । इत्यासनशुद्धिं विधाय भूतशुद्धिं कुर्यात् ।
ॐ क्रां आधारशक्तिकमलासनाय नमः।
अनन्ताय नमः पद्माय नमः पद्मनालाय नमः । इसके बाद आसन पर बैठकर तीन ताली बजाये और
मन्त्र पढ़े-
अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भुवि
संस्थिताः ।
ये भूता विघ्नकर्तारः ते नश्यन्तु
शिवाज्ञया ।।
तीन ताली बजाकर नाराच मुद्रा
दिखावे। इस प्रकार आसनशुद्धि करके भूतशुद्धि करे।
ॐ हूं आकुञ्चेन सुषुम्नावर्त्मना
प्रदीपकलिकाकारां ब्रह्मपथान्तर्नीत्वा स्वजीवं तत्र सदाशिवे लीनं ध्यात्वा,
आदौ यमिति वायुबीजेन षोडशधा जप्तेन पापपुरुषं वामकुक्षिस्थं शोषयेत्
। रमिति वह्निबीजेन चतुष्षष्टि-वारजप्तेन दाहयेत् । वमिति वरुणबीजेन
द्वात्रिंशद्वारजप्तेन प्लावयेत । लमिति भूबीजेन दशधा जप्तेन शरीरं पिण्डीभूतं
विभाव्य स्वजीवं हृदि संस्थाप्य प्राणानर्पयेत् । इति भूतशुद्धिः ।।
भूतशुद्धि- ॐ हूँ से मूलबन्ध करके सुषुम्नामार्ग
से दीपशिखा के आकार के अपने जीव को ब्रह्मरन्ध्र में लाकर सहस्रार में सदाशिव में
विलीन कर दे। पहले 'यं' वायुबीज के सोलह जप से वाम कुक्षि- स्थित पाप-पुरुष को सुखा दे। अग्निबीज 'रं' के चौसठ जप से जला दे । वरुणबीज 'वं' के बत्तीस जप से प्लावित करे। भूमिबीज 'लं' के दश जप से अपने शरीर को पिण्डीभूत मानकर अपने
जीव को उसमें स्थापित करे। तत्पश्चात् प्राण- प्रतिष्ठा करे।
ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं
सं हं सोहं हंसः मम प्राणा इह प्राणाः, एवं
मम जीव इह स्थितः, एवं मम सर्वेन्द्रियाणि मम वाङ्मनश्चक्षुः
श्रोत्रजिह्वा- प्राणप्राणा इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा । इति प्राणान्
समर्प्य, मातृकान्यासं विधायं पूर्ववत् कराङ्गन्यासौ कृत्वा,
तत्र चिताया ईशाने चतुरस्रां वेदीं विधाय तत्र श्रीचक्रं विभाव्य
यथोक्तविधिनाभ्यर्च्य तत्र नवग्रहान् सम्पूज्य, पूर्वे वटुकं
सम्पूज्य भूतभैरवान् सम्पूजयेत्। ॐ श्रीं महोग्राय नमः ।
प्राणप्रतिष्ठा मन्त्र- ॐ आं ह्रीं
क्रां यं रं लं वं शं षं सं हं सोहं हंसः मम प्राणाः इह प्राणाः । एवं मम जीव इह
स्थितः एवं मम सर्वेन्द्रियणि मम वाङ्मनश्चक्षुः श्रोत्रजिह्वा- प्राणप्राणा
इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।
इस मन्त्र से प्राणप्रतिष्ठा करके
मातृकान्यास करे। पूर्ववत् करन्यास और अङ्गन्यास करे। इसके बाद चिता के ईशान कोण
में चतुरस्र वेदी बनावे उस वेदी पर श्रीचक्र की भावना करके यथोक्त विधि से अर्चन
करे। नवग्रहों का पूजन करें। पूर्व में वटुकभैरव की पूजा करके भूतभैरवों का पूजन
करें।
ॐ ह्रीं मदालसायै नमः पूर्वे । ॐ
श्रीं चित्राङ्गदाय नमः । ॐ श्रीं चित्रिण्यै नमः उत्तरे। ॐ ह्रीं चण्डाय नमः । ॐ
ह्रीं चण्ड्यै नमः ईशाने । ॐ हौं भास्वते नमः । ॐ हौं प्रभायै नमः वायवे । ॐ लां
लोलाक्षाय नमः । ॐ लां लोलायै नमः आग्नेये। ॐ भैं भूतेशाय नमः । ॐ भैं भूतधात्र्यै
नमः दक्षिणे । ॐ क्रीं करालाय नमः । ॐ क्रीं करालिन्यै नमः नैर्ऋते । ॐ ह्रीं
श्रीं भीमाय नमः । ॐ ह्रीं श्रीं भीमरूपायै नमः पश्चिमे । इति यथावारक्रमेण
गन्धाक्षतपुष्पैरभ्यर्च्य तत्र चिताग्रे श्रीचक्रं नवयोनिचक्रं वा विभाव्य
योगपीठपूजां कृत्वा पात्राणि संस्थाप्य पात्रपूजां कृत्वा,
तत्र देवतावरणपूर्व सशिवां देवीं सम्पूज्य यथाशक्त्या जप्त्वा जपं
देव्यै समर्प्य, ततः कवच सहस्रनाम स्तवपाठादि विधाय तदपि
समर्प्य चिताग्नौ दशांशं होमं कुर्यात्, तत्र वटुकादीन् सन्तर्प्य
(भूतभैरवानपि सन्तर्प्य, नवकन्याः सन्तर्प्य) परस्परं
नवपात्रावधि पानं कुर्यात् ।
भैरवपूजन मन्त्र-
१. ॐ ह्रीं महोग्राय नमः । ॐ ह्रीं
मदालसायै नमः -पूर्व में
२. ॐ श्रीं चित्राङ्गदाय नमः । ॐ
श्रीं चित्रिण्यै नमः - उत्तर में।
३. ॐ ह्रीं चण्डाय नमः । ॐ ह्रीं
चण्ड्यै नमः - ईशान में।
४. ॐ ह्रौं भास्वताय नमः । ॐ हौं
प्रभायै नमः वायव्य में।
५. ॐ लां लोलाक्षाय नमः । ॐ लां
लोलायैः नमः - आग्नेय में।
६. ॐ भैं भूतेशाय नमः । ॐ भैं
भूतधात्र्यै नमः - दक्षिण में।
७. ॐ क्रीं करालाय नमः । ॐ क्रीं
करालिन्यै नमः नैर्ऋत्य में।
८. ॐ ह्रीं श्रीं भीमरूपाय नमः । ॐ
ह्रीं श्रीं भीमरूपायै नमः पश्चिम में।
वारक्रमानुसार गन्धाक्षत-पुष्प से
इनका अर्चन करे। तब उसे चिता के आगे नवयोन्यात्मक श्रीचक्र की कल्पना करके योगपीठ
की पूजा करे। पात्रस्थापन करे। पात्र- पूजा करे। तब आवरणपूर्वक शिवा सहित देवी का
अर्चन करे। तब यथाशक्ति मन्त्र जप करके देवी को समर्पित करे। तब कवच,
सहस्रनाम स्तोत्रपाठ करे इन पाठों को देवी के हाथों में समर्पित
करके चिता की अग्नि में दशांश हवन करे। तब वटुक आदि का तर्पण करे। भूत भैरवों का
तर्पण करे। नव कन्याओं का तर्पण करे तब परस्पर नवों पात्र के मद्य का पान करे।
श्रीदेव्युवाच
देवदेव महादेव शरणागवत्सल ।
सुरापानविधिं ब्रूहि येन
सिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् ॥१७॥
मद्यपान विधि –
श्री देवी ने कहा हे देव! देव महादेव ! शरणागतवत्सल! मुझे सुरापान
की विधि बतलाइये, जिससे निश्चित सिद्धि प्राप्त हो सके
।।१७।।
श्रीदेवीरहस्य पटल १६- सुरापानविधानम्
श्रीभैरव उवाच
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि
पानपूजाविधिं परम् ।
साधका येन जायन्ते कलौ भैरवसन्निभाः
॥ १८ ॥
श्मशानेषु चरेत् पानं निशीथे वा
महेश्वरि ।
विना पानं न सिद्धिः स्यात्
साधकानां कलौ ध्रुवम् ॥ १९ ॥
सुरा संविद्वारुणीति त्रिधा पानं
सदोत्तमम् ।
तेषु ब्रह्मादयो देवा निलीना
मुक्तये परम् ॥ २० ॥
आसवो मधुरं मद्यं शीधु चेति त्रयं
परम् ।
तत्र सर्वे स्थिता देवा वासवाद्या
अहर्निशम् ॥ २१ ॥
सम्पूज्य सशिवां देवीं प्रवृत्ते
भैरवार्चने ।
तत्र पानं परादेव्या महानन्दप्रदायकम्
॥ २२ ॥
विना पानं न सिद्धिः स्याद्विना
शक्तिसमर्चनम् ।
न सिद्ध्यति शिवे मन्त्रः श्मशानाच
विना तथा ॥ २३ ॥
श्री भैरव ने कहा कि हे देवि! सुनो,
मैं श्रेष्ठ पान की विधि को बतलाता हूँ। इस प्रकार के पान से साधक
साक्षात् भैरव के समान हो जाते हैं। हे महेश्वरि! साधकों को श्मशान में रात में
सुरापान करना चाहिये। कलियुग में बिना मद्यपान के सिद्धि नहीं मिलती है। यह ध्रुव
सत्य है। सुरा संविदा वारुणी को तीन बार पीना सदा उत्तम कहा गया है। इनमें
ब्रह्मादि विलीन रहते हैं और यह श्रेष्ठ मोक्ष प्रदायक है। आसव, मधुर मद्य और शीधु तीनों श्रेष्ठ हैं। इनके सभी देवता और वसु दिन-रात
स्थित रहते हैं। शिवा के साथ देवी का पूजन करके भैरवों का अर्चन करे तब पान करने
से परा देवी को बहुत आनन्द मिलता है। बिना पान के यदि मन्त्र सिद्ध नहीं होते तो
उसी प्रकार बिना श्मशान पूजा के मन्त्र भी सिद्ध नहीं होते ।। १८-२३ ।।
तस्मात् श्मशानं सम्पूज्य
शक्तिमभ्यर्च्य साधकः ।
पानं भजेत् परादेव्याः
श्रीचक्राग्रे यथाविधि ॥ २४ ॥
संवित्पानं चरेद्रात्रौ दिवापानं च शीधुना
।
अहोरात्रे सुरापानं भोगदं मोक्षदं
शिवे ॥ २५ ॥
संविदासवयोर्मध्ये संविदेव गरीयसी ।
स वैष्णवः स शाक्तश्च स शैवो यः
श्मशानगः ॥ २६ ॥
श्मशानभजनाद्वीरो भवेद् भैरवसन्निभः
।
पानं तावद्भजेद् देवि यावत्
संविन्मनोमयी ॥ २७ ॥
यदि तत्र विकारः स्यात् पानं तद्
ब्रह्मघातवत् ।
यावन्न चलते दृष्टिर्यावन्न चलते
मनः ॥ २८ ॥
इसलिये श्मशान-पूजन करके साधक शक्ति
का अर्चन करे। श्रीचक्र के आगे परा देवी का यथाविधि स्मरण करके पान करे। रात में
संवित् पान करे। शीधु का पान दिन में करे। दिन-रात सुरापान करने से भोग और मोक्ष
प्राप्त होते हैं। संविदा और आसव में संविदा ही बड़ी है। वही वैष्णव और वहीं शाक्त,
वही शैव है, जो श्मशान में जाकर पूजा करता है।
श्मशान सेवन से वीर साधक भैरव के समान हो जाता है। हे देवि! तब तक पान करे,
जब तक मन संविन्मय नहीं हो जाय। पान के समय मन में यदि विकार उत्पन्न
होता है तो वह ब्रह्महत्या के समान होता है। जब तक दृष्टि चञ्चल न हो, जब तक मन चञ्चल न हो तब तक पान करना चाहिये ।। २४-२८।।
श्रीदेवीरहस्य पटल १६ पूजारहितपञ्चमकारसेवने
प्रत्यवायः
तावत् पानं प्रकर्तव्यं पशुपानमतः
परम् ।
विना पूजां चरेद्यस्तु पानं वा
चर्वणादिकम् ॥ २९ ॥
मकारान् पञ्च देवेशि कुलटां वा
परस्त्रियम् ।
स रोगी निन्दितो लोके
परपिण्डोपजीवकः ॥ ३० ॥
ब्रह्मघातवदीशानि शीघ्रं मृत्युमुखं
व्रजेत् ।
आत्मोच्छिष्टं न दातव्यं
परोच्छिष्टं न भक्षयेत् ॥ ३१ ॥
यद्युच्छिष्टं वीरचक्रे कौलिको
भक्षयेच्छिवे ।
सिद्धिहानिर्भवेत् सद्यो योगिन्यो
भक्षयन्ति तम् ॥ ३२ ॥
पूजा के विना पञ्चमकार सेवन से प्रत्यवाय- अब
पशुपान का विवेचन किया जा रहा है। हे देवि! बिना पूजा के जो मद्य पीता है,
मुद्रा चबाता है और पञ्च मकारों का सेवन करता है, कुलटा अथवा परायी स्त्री का सेवन करता है, उसे संसार
में भोगी, निन्दित और परपिण्डोपजीवक कहा जाता है। हे ईशानि!
ब्रह्मघाती के समान वह शीघ्र मृत्यु को प्राप्त करता है। अपना जूठा किसी को न दे
और न स्वयं ही दूसरों के जूठन को खाये। वीरचक्र में यदि कौलिक जूठन का सेवन करता
है तब उसकी सिद्धि की हानि होती है। योगिनियाँ उसका भक्षण करती हैं।। २९-३२।।
पूजाकाले निशीथे च ध्यात्वा देवीं
शिवाङ्कगाम् ।
अभ्यर्च्य विधिना पानं कृत्वा
चर्वणपूर्वकम् ॥ ३३ ॥
मकारैः पञ्चभिर्देवि तर्पयित्वा
परस्त्रियम् ।
पानं पानं शिवे पानं सप्तवारं
समुच्चरेत् ॥ ३४ ॥
तेन देवी शिवाङ्कोपविष्टा
प्रादुर्भविष्यति ।
मध्य रात्रि में शिव की गोद में
शिवा का ध्यान करके विधिवत् अर्चन करके मुद्रा- चर्वणपूर्वक पानकर पञ्च मकारों से
देवी को तर्पित करके परस्त्री का तर्पण करके सात बार 'पान' का उच्चारण करे। ऐसा करने से देवी शिवांक में
विराजमान दिखायी देती हैं ।। ३३-३४।।
इत्येषा पद्धतिर्गुह्या श्मशानार्चनसंयुता
॥ ३५॥
गद्यपद्यमयी दिव्या तत्त्व
सर्वस्वसंयुता ।
तव स्नेहेन विख्याता न प्रकाश्या
कदाचन ॥ ३६ ॥
इति गुह्यतमं देवि रहस्यं
देवदुर्लभम् ।
अप्रकाश्यमदातव्यं गोपनीयं
स्वयोनिवत् ॥ ३७ ॥
श्मशानपूजन से युक्त यह पद्धति परम गुह्य
है। यह दिव्य पद्धति गद्य-पद्यमयी है एवं तत्त्व सर्वस्व से संयुक्त है। तुम्हारी
भक्ति से विवश होकर मैंने इसको प्रकाशित किया है। इसे किसी को भी नहीं बतलाना
चाहिये। हे देवि! यह गुह्यतम रहस्य देवदुर्लभ है। यह अप्रकाश्य,
अदातव्य और अपनी योनि के समान गोपनीय है।। ३५-३७।।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये श्मशानार्चनपद्धति-निरूपणं नाम षोडशः पटलः ।। १६ ।।
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में श्मशानार्चन-पद्धति निरूपण नामक षोडश पटल पूर्ण
हुआ।
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 17
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