अग्निपुराण अध्याय १३८

अग्निपुराण अध्याय १३८       

अग्निपुराण अध्याय १३८ में तन्त्रविषयक छः कर्मों का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय १३८

अग्निपुराणम् अष्टत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 138           

अग्निपुराण एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय

अग्निपुराणम्/अध्यायः १३८

अग्निपुराणम् अध्यायः १३८ – षट्कर्माणि

अथ अष्टत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

ईश्वर उवाच

षट्कर्माणि प्रवक्ष्यामि सर्वमन्त्रेषु तच्छृणु ।

आदौ साध्यं लिखेत्पूर्वं चान्ते मन्त्रसमन्वितं ॥१॥

पल्लवः स तु विज्ञेयो महोच्चाटकरः परः ।

आदौ मन्त्रः ततः साध्यो मध्ये साध्यः पुनर्मनुः ॥२॥

योगाख्यः सम्प्रदायोऽयङ्कुलोत्सादेषु योजयेत् ।

महादेवजी कहते हैं- पार्वती! सभी मन्त्रों के साध्यरूप से जो छः कर्म कहे गये हैं, उनका वर्णन करता हूँ, सुनो। शान्ति, वश्य, स्तम्भन, द्वेष, उच्चाटन और मारण- ये छः कर्म हैं। इन सभी कर्मों में छः सम्प्रदाय अथवा विन्यास होते हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं-पल्लव, योग, रोधक, सम्पुट, ग्रन्थन तथा विदर्भ । भोजपत्र आदि पर पहले जिसका उच्चाटन करना हो, उस पुरुष का नाम लिखे। उसके बाद उच्चाटन सम्बन्धी मन्त्र लिखे। लेखन के इस क्रम को 'पल्लव' नामक विन्यास या सम्प्रदाय समझना चाहिये। यह उच्चकोटि का महान् उच्चाटनकारी प्रयोग है। आदि में मन्त्र लिखा जाय फिर साध्य व्यक्ति का नाम अङ्कित किया जाय। यह साध्य बीच में रहे। इसके लिये अन्त में पुनः मन्त्र का उल्लेख किया जाय। इस क्रम को 'योग' नामक सम्प्रदाय कहा गया है। शत्रु के समस्त कुल का संहार करने के लिये इसका प्रयोग करना चाहिये ॥ १-२अ ॥

आदौ मन्त्रपदन्दद्यान्मध्ये साध्यं नियोजयेत् ॥३॥

पुनश्चान्ते लिखेन्मन्त्रं साध्यं मन्त्रपदं पुनः ।

रोधकः सम्प्रदायस्तु स्तम्भनादिषु योजयेत् ॥४॥

अधोर्ध्वं याम्यवामे तु मध्ये साध्यन्तु योजयेत् ।

सम्पुटः सतु विज्ञेयो वश्याकर्षेषु योजयेत् ॥५॥

मन्त्राक्षरं यदा साध्यं प्रथितञ्चाक्षराक्षरं ।

प्रथमः सम्प्रदायः स्यादाकृष्टिवशकारकः ॥६॥

मन्त्राक्षरद्वयं लिख्य एकं साध्यक्षरं पुनः ।

विदर्भः सतु विज्ञेयो वश्याकाकर्षेषु योजयेत् ॥७॥

पहले मन्त्र का पद लिखे। बीच में साध्य का नाम लिखे। अन्त में फिर मन्त्र लिखे। फिर साध्य का नाम लिखे । तत्पश्चात् पुनः मन्त्र लिखे। यह 'रोधक' सम्प्रदाय कहा गया है। स्तम्भन आदि कर्मों में इसका प्रयोग करना चाहिये। मन्त्र के ऊपर, नीचे, दायें बायें और बीच में भी साध्य का नामोल्लेख करे, इसे 'सम्पुट' समझना चाहिये। वश्याकर्षण – कर्म में इसका प्रयोग करे। जब मन्त्र का एक अक्षर लिखकर फिर साध्य के नाप का एक अक्षर लिखा जाय और इस प्रकार बारी-बारी से दोनों के एक-एक अक्षर को लिखते हुए मन्त्र और साध्य के अक्षरों को परस्पर ग्रंथित कर दिया जाय तो यह 'ग्रन्थन' नामक सम्प्रदाय है। इसका प्रयोग आकर्षण या वशीकरण करनेवाला है। पहले मन्त्र का दो अक्षर लिखे, फिर साध्य का एक अक्षर। इस तरह बार-बार लिखकर दोनों को पूर्ण करे। (यदि मन्त्राक्षरों के बीच में ही समाप्ति हो जाय तो दुबारा उनका उल्लेख करे।) इसे 'विदर्भ' नामक सम्प्रदाय समझना चाहिये तथा वशीकरण एवं आकर्षण के लिये इसका प्रयोग करना चाहिये ॥ ३-७॥

आकर्षणाद्यत्कर्म वसन्ते चैव कारयेत् ।

तापज्वरे तथा वश्ये स्वाहा चाकर्षणे शुभं ॥८॥

नमस्कारपदञ्चैव शान्तिवृद्धौ प्रयोजयेत् ।

पौष्टिकेषु वषट्कारमाकर्षे वशकर्मणि ॥९॥

विद्वेषोच्चाटने मृत्यौ फट्स्यात्खण्डीकृतौ शुभे ।

लाभादौ मन्त्रदीक्षादौ वषट्कारस्तु सिद्धिदः ॥१०॥

यमोऽसि यमाराजोऽसि कालरूपोऽसि धर्मराट् ।

मयादत्तमिमं शत्रुमचिरेण निपातय ॥११॥

आकर्षण आदि जो मन्त्र हैं, उनका अनुष्ठान वसन्त ऋतु में करना चाहिये। तापज्वर के निवारण, वशीकरण तथा आकर्षण कर्म में 'स्वाहा' का प्रयोग शुभ होता है। शान्ति और वृद्धि कर्म में 'नमः' पद का प्रयोग करना चाहिये। पौष्टिक-कर्म, आकर्षण और वशीकरण में 'वषट्कार' का प्रयोग करे। विद्वेषण, उच्चाटन और मारण आदि अशुभ कर्म में पृथक् 'फट्' पद की योजना करनी चाहिये। लाभ आदि में तथा मन्त्र की दीक्षा आदि में 'वषट्कार' ही सिद्धिदायक होता है। मन्त्र की दीक्षा देनेवाले आचार्य में यमराज की भावना करके इस प्रकार प्रार्थना करे- 'प्रभो! आप यम हैं, यमराज हैं, कालरूप हैं तथा धर्मराज हैं। मेरे दिये हुए इस शत्रु को शीघ्र ही मार गिराइये ॥ ८-११ ॥

निपातयामि यत्नेन निवृत्तो भव साधक ।

संहृष्टमनसा ब्रूयाद्देशिकोऽरिप्रसूदनः ॥१२॥

पद्मे शुक्ले यमं प्रार्च्य होमादेतत्प्रसिद्ध्यति ।

आत्मानम्भैरवं ध्यात्वा ततो मध्ये कुलेश्वरीं ॥१३॥

रात्रौ वार्तां विजानाति आत्मनश्च परस्य च ।

दुर्गे दुर्गे रक्षणीति दुर्गां प्रार्च्यारिहा भवेत् ॥१४॥

जप्त्वा हसक्षमलवरयुम्भैरवीं घातयेदरिम् ॥१५॥

तब शत्रुसूदन आचार्य प्रसन्नचित्त से इस प्रकार उत्तर दे - 'साधक ! तुम सफल होओ। मैं यत्नपूर्वक तुम्हारे शत्रु को मार गिराता हूँ।' श्वेत कमल पर यमराज की पूजा करके होम करने से यह प्रयोग सफल होता है। अपने में भैरव की भावना करके अपने ही भीतर कुलेश्वरी (भैरवी) की भी भावना करे। ऐसा करने से साधक रात में अपने तथा शत्रु के भावी वृत्तान्त को जान लेता है। 'दुर्गरक्षिणि दुर्गे!' (दुर्ग की रक्षा करनेवाली अथवा दुर्गम संकट से बचानेवाली देवि! आपको नमस्कार है ) - इस मन्त्र के द्वारा दुर्गाजी की पूजा करके साधक शत्रु का नाश करने में समर्थ होता है। 'ह स क्ष म ल व र यु म्'- इस भैरवी मन्त्र का जप करने पर साधक अपने शत्रु का वध कर सकता है ॥ १२-१५॥

इत्याग्नेये महापुराणे युद्धजयार्णवे षट्कर्माणि नामाष्टत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'षट्कर्म का वर्णन' नामक एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१३८॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 139  

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