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- अग्निपुराण अध्याय १४२
- सूर्य मूलमन्त्र स्तोत्र
- वज्रपंजराख्य सूर्य कवच
- देवीरहस्य पटल ३२
- देवीरहस्य पटल ३१
- अग्निपुराण अध्याय १४१
- अग्निपुराण अध्याय १४०
- अग्निपुराण अध्याय १३९
- अग्निपुराण अध्याय १३८
- रहस्यपञ्चदशिका
- महागणपति मूलमन्त्र स्तोत्र
- वज्रपंजर महागणपति कवच
- देवीरहस्य पटल २७
- देवीरहस्य पटल २६
- देवीरहस्य
- श्रीदेवीरहस्य पटल २५
- पञ्चश्लोकी
- देहस्थदेवताचक्र स्तोत्र
- अनुभव निवेदन स्तोत्र
- महामारी विद्या
- श्रीदेवीरहस्य पटल २४
- श्रीदेवीरहस्य पटल २३
- अग्निपुराण अध्याय १३६
- श्रीदेवीरहस्य पटल २२
- मनुस्मृति अध्याय ७
- महोपदेश विंशतिक
- भैरव स्तव
- क्रम स्तोत्र
- अग्निपुराण अध्याय १३३
- अग्निपुराण अध्याय १३२
- अग्निपुराण अध्याय १३१
- वीरवन्दन स्तोत्र
- शान्ति स्तोत्र
- स्वयम्भू स्तव
- स्वयम्भू स्तोत्र
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- अग्निपुराण अध्याय १३०
- अग्निपुराण अध्याय १२९
- परमार्थ चर्चा स्तोत्र
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- परमार्थद्वादशिका
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- ब्रह्म स्तव
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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
देवीरहस्य पटल २७
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् के
पटल २७ में गणपतिपञ्चाङ्ग अंतर्गत वरदगणेश अथवा महागणपति पूजा पद्धति का निरूपण के
विषय में बतलाया गया है।
रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् सप्तविंशः पटलः वरदगणेश-पूजापद्धतिः
Shri Devi Rahasya Patal 27
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य सत्ताईसवाँ पटल
रुद्रयामल तन्त्रोक्त देवीरहस्यम् सप्तविंश
पटल
देवीरहस्य पटल २७ महागणपतिपूजापद्धति
अथ सप्तविंशः पटलः
श्रीभैरव उवाच
अद्याहं पद्धतिं वक्ष्ये महागणपतेः
पराम् ।
गद्यैकसारसर्वस्वामानन्दैकतरङ्गिणीम्
॥१॥
अब मैं परमानन्दतरङ्गिनी सारसर्वस्व
महागणपति की परा पूजा पद्धति का वर्णन गद्य में कर रहा हूँ ।। १ ।।
साधको रात्रिशेषे समुत्थाय पद्मासनं
बद्ध्वा मूलेन त्रिराचम्य स्वशिरसि सहस्त्रारपद्मकेसरोज्ज्वलकर्णिकान्तर्गतं
निजगुरु शुक्लालङ्कारं ध्यात्वा नत्वा, तच्छासनमादाय
बहिरागत्य मलोत्सर्गशोधनं विधाय, वर्णोक्तं शौचं कृत्वा
नद्यादौ गत्वा वाह्रीकबीजेन दन्तान् विशोध्य शिवबीजेन गण्डूषाणि कृत्वा, श्रीं ह्रीं क्लीं इति मलापकर्षणं स्नानं विधाय मूलेनाङ्कुशमुद्रया तत्र
त्रिकोणं विलिख्य-
गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति
।
नर्मदे सिन्धुकावेरि जलऽस्मिन्
सन्निधिं कुरु ॥ इति ॥
रात्रि के व्यतीत होने पर साधक उठकर पद्मासन में बैठे मूल मन्त्र से तीन आचमन करे। अपने शिर में स्थित उज्ज्वल केसर से युक्त हजार दल वाले कमल के मध्य कर्णिका में अपने गुरु का ध्यान करे। गुरु के सभी अलङ्कार श्वेत वर्ण के हैं, उन्हें प्रणाम करे। उनकी आज्ञा प्राप्त करके घर से बाहर जाकर मलोत्सर्ग के बाद शोधन करे। शास्त्रवर्णित अपने वर्ण के अनुसार शौच करे। नदी आदि जलाशय पर जाकर 'ग्लौं' से दाँतों को साफ करे। 'गं' बीज से कुल्ला करे। 'श्रीं ह्रीं क्लीं' से मलापकर्षण करे। मूल मन्त्र के द्वारा अङ्कुशमुद्रा से जल पर त्रिकोण कल्पित करके निम्न मन्त्र से तीर्थों का आवाहन करे-
गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति
।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन्
सन्निधिं कुरु ।।
तत्र तीर्थमावाह्य,
देवं सशिवं ( सशक्तिं ) मूलेनावाह्य मूलेन मुखं त्रिः प्रोक्ष्य
त्रिरात्मानं पयसि प्रोन्मज्ज्यङ्क, 'ह्रीं हंसः श्रीसूर्याय
एष तेऽघों नमः' इत्यर्कायार्ध्य त्रयं दत्त्वा जलादवरुह्य
वैदिकीं सन्ध्यां निर्वर्त्य तान्त्रिकीं कुर्यात्। ततो वामकरे जलं धृत्वा
वर्मणावगुण्ठ्य मूलेन सप्तधाभिमन्य तद्गलितोदकबिन्दुभिः स्वशिरः सप्तधा प्रोक्ष्य,
तज्जलमिडयान्तनत्वा वामनासया विरिच्य सुषुम्नामार्गेण दक्षहस्ते
निःक्षिप्य, अस्त्राय फडिति मन्त्रेण
वामभागस्थशिलायामास्फालयेत् इत्यघमर्षणं विधायाचम्य प्राणायामत्रयं चरेत् । यथा-
पूरक: १६ कुम्भकः ३२ रेचकः ६४ एवं विधाय, गायत्री त्रिर्जपेत्। ॐ ह्रीं वक्रतुण्डाय विद्महे श्रीं क्लीं एकदन्ताय धीमहि ग्लौं गं गणपतिस्तन्नः
प्रचोदयात् ३, इति यथाशक्त्या जप्त्वा गायत्र्या
देवीदेवयोरर्घ्यत्रयं दत्त्वा 'मूलं समस्तभुवनान्तरायहरणं
हरपुत्रं गणगन्धर्वसिद्धवन्दितं प्रकटविकटाम्नायपरापररूपं गणाध्यक्षं गजाननं
महागणपतिं वरदगणेशं तर्पयामि नमः' इति द्विः सन्तर्प्य,
मूलं दिव्यौघ- सिद्धौघमानवौघपङ्किगतान् गुरूंस्तर्पयामि नमः।
मूलनैकैकाञ्जलिना परिवारान् सन्तर्प्य, संहारमुद्रया मनसा
देवीदेवौ विसृज्य यागमण्डपमागच्छेदिति सन्ध्याविधिः ।
तीर्थों का आवाहन कर मूल मन्त्र से
शिवसहित शक्ति का आवाहन करे। मूल मन्त्र से अपने मुख का प्रोक्षण तीन बार करे तीन
आचमन करे। 'ह्रीं हंसः श्रीसूर्याय एष ते अर्घ्यों
नमः' से तीन अर्घ्य
प्रदान करे। तब जल से बाहर आकर पहले वैदिकी सन्ध्या करे तब तान्त्रिकी सन्ध्या करे
बाँयें हाथ में जल लेकर 'फट्' से
अवगुण्ठन करे। मूल मन्त्र के सात जप से उसे मन्त्रित करे हाथ से टपके बूदों से
अपने शिर का प्रोक्षण सात बार करे। उस जल को इड़ा नाड़ी से अपने भीतर ले जाये। वाम
नासा से उसका विरेचन करे। सुषुम्ना मार्ग से उसे निकालकर दायें हाथ में लेकर 'अस्त्राय फट्' बोलकर अपने वाम भाग में स्थित
काल्पनिक शिला पर उसे पटक दे। इस प्रकार अघमर्षण करके आचमन करे और तीन प्राणायाम
करे। प्राणायाम में १६ मात्रा से पूरक, ३२ मात्रा से कुम्भक
और ६४ मात्रा से रेचक करे। तब तीन बार गणेश- गायत्री का जप करे।
गणेश गायत्री यह है –
ॐ ह्रीं वक्रतुण्डाय विद्महे श्रीं
क्लीं एकदन्ताय धीमहि ग्लौं गं गणपतिस्तत्रः प्रचोदयात्।
यथाशक्ति गणेश गायत्री का जप कर
देवी देव को तीन अर्घ्य प्रदान करे। तब दो बार तर्पण करे।
तर्पण का मन्त्र है-
मूलं समस्तभुवनान्तरायहरणं हरपुत्रं
गणगन्धर्वसिद्धवन्दितं प्रकटविकटाम्नायपरापर-रूपं गणाध्यक्षं गजाननं महागणपतिं वरद
गणेशं तर्पयामि नमः।
इसके बाद मूल मन्त्रसहित गुरुपंक्ति
का तर्पण करे। मन्त्र है—
मूलं दिव्यौघसिद्धौध-
मानवौघपंक्तिगतान् गुरूं तर्पयामि नमः।
मूल मन्त्र से अञ्जलि में जल लेकर
गणेश परिवार का तर्पण करे। तब संहार मुद्रा से मानसिक रूप से देवी देवों का
विसर्जन करे। तब यागमण्डप में आये सन्ध्याविधि समाप्त हुई।
यागमण्डपमेत्य ह्रीं श्रीं क्लीं गं
गङ्गायै नमः पूर्वे ह्रीं श्रीं क्लीं यं यमुनायै नमः उत्तरे । ह्रीं श्रीं क्लीं
सं सरस्वत्यै नमो दक्षिणे। ह्रीं श्रीं क्लीं यां योगिनीभ्यो नमः पश्चिमे । ह्रीं
श्रीं क्लीं क्षां क्षेत्रपालाय नमः मध्ये । इति द्वारदेवताः सम्पूज्य,
गृहान्तः प्रविश्य, ह्रीं श्रीं क्लीं आं
आसनशोधनमन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषिः सुतलं छन्दः कूर्मो देवता आसनामन्त्रणे विनियोगः
। ऐं पृथिव्यै नमः, अं अनन्ताय नमः, वं
वसुन्धरायै नमः ।
मूलं पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि
त्वं विष्णुना धृता ।
त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु
चासनम् ॥
इति ध्यानम् ।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं पद्मासनाय नमः
।
ह्रीं श्रीं क्लीं सिंहासनाय नमः ।
ह्रीं श्रीं क्लीं भद्रासनाय नमः ।
ह्रीं श्रीं क्लीं अपसर्पन्तु ते
भूता ये भूता भूमिसंस्थिताः ।
ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु
शिवाज्ञया ॥
इति तालत्रयं दत्त्वा नाराचमुद्रां
प्रदर्श्य गुरुं ध्यायेत् ।
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया
।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे
नमः ॥
इति गुरुं ध्यात्वाचमेत् ।
यागमण्डप के द्वार पर द्वारदेवताओं
का पूजन इस प्रकार करे —
द्वार के पूरब में ह्रीं श्रीं
क्लीं गं गंगायै नमः ।
उत्तर में ह्रीं श्रीं क्लीं यं
यमुनायै नमः ।
दक्षिण में ह्रीं श्रीं क्लीं सं
सरस्वत्यै नमः।
पश्चिम में ह्रीं श्रीं क्लीं
यां योगिनीभ्यो नमः ।
मध्य में ह्रीं श्रीं क्लीं
क्षां क्षेत्रपालाय नमः ।
इस प्रकार द्वारदेवताओं का पूजन कर
मण्डप में प्रवेश करे। आसनशोधन करे। आसन के आमन्त्रण का विनियोग इस प्रकार होता
है-
ह्रीं श्रीं क्लीं आं आसनशोधन
मन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषिः सुतलं छन्दः कूमों देवता आसनमन्त्रणे विनियोगः।
ऐं पृथिव्यै नमः । ॐ अनन्ताय नमः वं
वसुन्धरायै नमः। मूल मन्त्र के साथ इस मन्त्र
का पाठ करे--
पृथ्वि त्वया धृता लोका देवी त्वं
विष्णुना धृता ।
त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु
चासनम् ।।
इसके बाद इन मन्त्रों का पाठ करे ॐ
ह्रीं श्रीं क्लीं पद्मासनाय नमः । ॐ ह्रीं श्रीं क्ली सिंहासनाय नमः । ॐ ह्रीं
श्रीं क्लीं भद्रासनाय नमः। इसके बाद भूतोत्सारण करे और यह मन्त्र पढे-
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अपसर्पन्तु ते
भूता ये भूता भुवि संस्थिता ।
ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया
।।
तब तीन ताली बजाकर नाराचमुद्रा
प्रदर्शित करे। गुरु का ध्यान करे। ध्यान- मन्त्र है-
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानांजनशलाकया
।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै
श्रीगुरवे नमः ।।
ग्लौं आत्मतत्त्वं शोधयामि स्वाहा,
ग्लौं विद्यातत्त्वं शोधयामि स्वाहा। ग्लौं शिवतत्त्वं शोधयामि
स्वाहा । इत्याचम्य, पूर्वोक्तं प्राणायामत्रयं विधाय
भूतशुद्धिं कुर्यात् । ह्रीं कुण्डलिनी ध्यात्वा श्री सुषुम्नावर्त्मना वायुं
प्रोक्ष्य, क्लीं तत्राधिष्ठानमानीय स्वशरीरं भस्मीभूतं
विचिन्त्य, यरलवं ब्रह्म- पथान्तर्जीवात्मानं विचिन्त्य,
तत्र हंक्षं सुधामानीय, तोयात् स्वात्मानं
सम्प्लाव्य, विगतकल्मषं देहं विभाव्य स्वस्थानं जीवमानीय
प्राणान् प्रतिष्ठापयेदिति भूतशुद्धिः ।
तत्पश्चात् इन आत्मशोधन मन्त्रों से आत्मशोधन आचमनसहित करे
ग्लौं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः।
ग्लौं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः।
ग्लौं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः।
इस प्रकार तीन आचमन करके पूर्वोक्त
रीति से तीन प्राणायाम करके भूतशुद्धि करे। 'ह्रीं' से कुण्डलिनी का
ध्यान करे 'श्रीं' से सुषुम्ना
मार्ग से श्वास लेवे। 'क्लीं' से
उसे भीतर मूलाधार में ले आये। अपने शरीर को भस्मीभूत समझे। यं रं लं वं से
अपने जीव को ब्रह्मरन्ध्र के अन्त में ले आये। वहाँ से हं क्षं से अमृत
लाकर अपने शरीर को प्लावित करे। इसके बाद अपने शरीर को कल्मषरहित मानकर जीव को
अपने स्थान में ले आये। प्राणप्रतिष्ठा करे। भूतशुद्धि की रीति यही हैं।
आह्रींक्रों यरलवं शंषसंहं सोहंस
हंसः मम प्राणाः इह प्राणाः १६ मम जीव इह स्थित;
१६ मम सर्वेन्द्रियाणि वाङ्मनश्चक्षुः श्रोत्रजिह्वाप्राणप्राणा
इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा, इति
प्राणप्रतिष्ठाक्रमः । ततः पुनराचम्य प्राणायामं विधाय न्यासपूर्वकं सङ्कल्पं
चरेत्।
अस्य श्रीवरदगणेशमन्त्रस्य
श्रीब्रह्मा ऋषिः गायत्रं छन्दः श्रीमहागणपतिर्देवता गं बीजं ह्रीं शक्तिः कुरु
कुरु कीलकं श्रीमहागणपतिप्रीत्यर्थे (त्रैलोक्यविजये) जपे विनियोगः ।
प्राणप्रतिष्ठा मन्त्र है-
आं ह्रीं क्रो यं रं लं वं शं षं सं
हं सोऽहं सः हंसः मम प्राणाः इह प्राणाः।
ॐ ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं
हं सोऽहं सः हंसः मम जीव इह स्थितः।
ॐ ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं
हं सोऽहं सः हंसः मम सर्वेन्द्रियाणि वाङ्मनःचक्षुश्रोत्रजिह्राघ्राणप्राणाः
इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।
यह प्राणप्रतिष्ठा की रीति हुई।
इसके बाद फिर आचमन और प्राणायाम करके न्यास करे और संकल्प करे।
अस्य श्रीवरदगणेशमन्त्रस्य
श्रीब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः,
श्रीमहागणपतिर्देवता, गं बीजं ह्रीं शक्ति,
कुरु कुरु कीलकं श्रीमहागणपतिप्रीत्यर्थे त्रैलोक्यविजये जपे
विनियोगः ।
ब्रह्मऋषये नम: शिरसि,
गायत्रीच्छन्दसे नमो मुखे, श्रीमहागणपतिदेवतायै
नमो हृदि, गं बीजाय नमो नाभौ ह्रीं शक्तये नमो गुह्ये,
कुरु कुरु कीलकाय नमः पादयोः, त्रैलोक्यविजये
विनियोगाय नमः सर्वाङ्गेषु — इति ऋष्यादिन्यासः ।
गां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
। गीं तर्जनीभ्यां नमः, शिरसे स्वाहा
। गूं मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट्। गैं अनामिकाभ्यां नमः, कवचाय
हुं । गौं कनिष्ठाभ्यां नमः, नेत्रेभ्यो वौषट् । गः
करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट् । इति करषडङ्गन्यासः ।
ॐ आत्मतत्त्वं हृदयाय नमः । ॐ विद्यातत्त्वं
शिरसे स्वाहा । ॐ शिवतत्त्वं शिखायै वषट् । ॐ गुरुतत्त्वं कवचाय हुं। ॐ योगतत्त्वं
नेत्रेभ्यो वौषट् । ॐ सर्वतत्त्वमस्त्राय फट् । इति तत्त्वन्यासः ।
ॐ अंकंखंगंघंङंआं हृदयाय नमः,
इंचंछंजंझंञंईं शिरसे स्वाहा, उंटंठंडंढंणंऊं
शिखायै वषट्, एंतंथंदंधंनंऐं कवचाय हुं, ओंपंफंबंभंमंऔं नेत्रेभ्यो वौषट्, अंयंरंलंवंशंषंसंहंळंक्षंअः
अस्त्राय फट्। एवं करन्यासः । इति कल्पन्यासः ।
ऋष्यादि न्यास –
ब्रह्मऋषये नमः शिरसि गायत्रीछन्दसे
नमः मुखे। श्रीमहागणपति- देवतायै नमः हृदि। गं बीजाय नमो नाभौ । ह्रीं शक्तये नमः गुह्ये।
कुरु कुरु कीलकाय नमः पादयोः । त्रैलोक्यविजये विनियोगाय नमः सर्वाङ्गेषु ।
करन्यास-
गां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । गूं
मध्यमाभ्यां नमः । गीं तर्जनीभ्यां नमः। गैं अनामिकाभ्यां नमः । गौं कनिष्ठाभ्यां
नमः । गः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
षडङ्गन्यास-
गां हृदयाय नमः। गीं शिरसे स्वाहा।
गूं शिखायै वषट् । गैं कवचाय हुँ । गौं नेत्रत्रयाय वौषट् । गः अस्त्राय फट् ।
तत्त्वन्यास –
ॐ आत्मतत्त्वं हृदयाय नमः । ॐ
शिवतत्त्वं शिखायै वषट् । ॐ विद्यातत्त्वं शिरसे स्वाहा । ॐ गुरुतत्त्वं कवचाय
हुँ। ॐ योगतत्त्वं नेत्राभ्यां वौषट् । ॐ सर्वतत्त्वमस्त्राय फट् ।
कल्पन्यास –
ॐ अं कं खं गं घं ङं आं हृदयाय नमः ।
इं चं छं जं झं जं ई शिरसे स्वाहा उं टं ठं डं ढं णं ॐ शिखायै वषट्।
एं तं थं दं धं नं ऐं कवचाय हुं ओं पं फं बं भं मं औ नेत्राभ्यां वौषट् ।
अं यं रं लं वं शं वं
सं हं ळं क्षं अः अस्त्राय फट् ।
इसी प्रकार करन्यास भी करे।
ॐ गं काशीपीठाय नमो हृदये,
ॐ गं काञ्चीपीठाय नमः शिरसि, ॐ गं
मधुपुरीपीठाय नमः शिखायाम् । ॐ गं उड्डीयानपीठाय नमः कवचे। ॐ गं अयोध्यापीठाय नमो
नेत्रयोः । ॐ गं जालन्धरपीठाय नमः अस्त्रे । इति पीठन्यासः । ॐ हृदयाय नमः । ह्रीं
गणपतये शिरसे स्वाहा। श्रीं वरवरद शिखायै वषट्। क्लीं सर्वजनं मे कवाचाय हुं।
ग्लौं वशमानय नेत्रेभ्यो वौषट् । गं स्वाहा अस्त्राय फट्। एवं करन्यासः, इति मन्त्रन्यासः ।
पीठन्यास-
ॐ गं काशीपीठाय नम हृदये। ॐ गं
काञ्चीपीठाय नमः शिरसि । ॐ गं मधुपुरीपीठाय नमः शिखायाम् । ॐ गं उड्डीयानपीठाय नमः
कवचे ॐ गं अयोध्यापीठाय नमः नेत्रयोः । ॐ गं जालन्धरपीठाय नमः अस्त्रे ।
मन्त्रन्यास - ॐ हृदयाय नमः। हीं
गणपतये शिरसे स्वाहा। श्री वरवरद शिखायै वषट् । क्लीं सर्वजनं मे कवचाय हुं ग्लौं
वशमानय नेत्राभ्यां वौषट्। गं स्वाहा अस्त्राय फट्।
इसी प्रकार करन्यास भी करे।
एवं न्यासं विधाय श्रीचक्रं
ध्यात्वा चतुरश्रं षोडशदलं वसुदलं दशारं त्रिकोणं बिन्दु विचिन्त्य भद्रपीठोपरि
मूलेन संस्थाप्य योगपीठपूजां कुर्यात् । ह्रीं मण्डूकाय नमः । ह्रीं
कालाग्निरुद्राय नमः । एवं मूलप्रकृत्यै ० । आधारशक्त्यै ० । कूर्माय ० अनन्ताय ।
वराहाय ०। पृथिव्यै ० इत्युपर्युपरि सम्पूज्य,
तन्मध्ये ह्रीं सुधार्णवाय नमः । तन्मध्ये नवरत्नविराजितनवखण्ड-
मयश्वेतद्वीपाय नमः । तत्रेशानादिष्वष्टसु प्रादक्षिण्येन नवरत्नखण्डेभ्यो नमः ।
तन्मध्ये पद्मरागखण्डाय नमः मध्ये सुवर्णपर्वताय नमः । उपरि नन्दनोद्यानाय नमः ।
मध्ये कल्पवनाय नमः । सरोवराय नमः । पद्मवनाय नमः । विचित्र- रत्नखचित भूमिकायै
नमः। मध्ये सहस्रस्तम्भान्वितमध्यस्तम्भविवर्जित- चतुष्पञ्चाशद्योजनविस्तीर्णनानारत्नखचितचिन्तामणिमण्डपाय
नमः । मध्ये नवरत्नखचितरत्नमयवेदिकायै नमः । उपरि रत्नसिंहासनाय नमः । उपरि उच्चैः
श्वेतच्छत्राय नमः। पीठस्य कल्पिताग्निकोणादिषु धर्माय नमः, इत्यादि
। कल्पितपूर्वादिषु अधर्माय नमः, इत्यादि । सिंहासनमध्ये
आनन्दकन्दाय नमः । संविन्नालाय । सहस्रदलकमलाय ० प्रकृतिमयपत्रेभ्यो ०। विकृति-
मयकेसरेभ्या ०। पञ्चाशद्वर्णबीजाढ्य सर्वतत्त्वरूपायै कर्णिकायै नमः । उपरि अं
अर्कमण्डलाय नमः । सों सोममण्डलाय नमः रं वह्निमण्डलाय नमः । तं तमसे ० रं रजसे ०
सं सत्त्वाय ह्रीं गं ह्रीं सर्वमन्त्रासनाय नमः । ॐ अं आं
इत्यादिक्षान्तमुच्चार्य, शिवशक्तिसदाशिवेश्वर ०
इत्यादिसकलतत्त्वात्मने ह्रीं योगपीठाय नमः इति योगपीठपूजां विधाय पात्राणि
स्थापयेत्।
इस प्रकार न्यास करके श्रीचक्र का
ध्यान करे। इसमें चतुरस्र, षोडश दल, अष्टदल, दशदल, त्रिकोण,
बिन्दु का चिन्तन करके भद्रपीठ पर मूल मन्त्र से स्थापन करके योगपीठ
की पूजा करे।
योगपीठ पूजन- ह्रीं मण्डूकाय नमः
ह्रीं कालाग्निरुद्राय नमः । मूलप्रकृत्यै नमः । आधारशक्तये नमः । कूर्माय नमः
अनन्ताय नमः । वराहाय नमः पृथिव्यै नमः इस प्रकार पीठपूजा करके उसके ऊपर इनकी पूजा
करे सुधार्णवाय नमः नवरत्नविराजित- नवखण्डश्वेतद्वीपाय नमः। वहीं पर ईशानादि आठ
दिशाओं में प्रदक्षिणक्रम से इनकी पूजा करे - नवरत्नखण्डेभ्यो नमः पद्मरागखण्डाय
नमः। सुवर्णपर्वताय नमः नन्दनोद्यानाय नमः कल्पवनाय नमः । सरोवराय नमः पद्मवनाय
नमः । विचित्ररत्नखचितभूमिकायै नमः।
सहस्रस्तम्भान्वितमध्यस्तम्भविवर्जितचतुष्पञ्चाशद्योजनविस्तीर्णनानारत्नखचितचिन्ता-
मणिमण्डपाय नमः । नवरत्नखचितरत्नमयवेदिकायै नमः । रत्नसिंहासनाय नमः उच्चैः
श्वेतच्छवाय नमः पीठ के कल्पित अग्निकोणादिकों में धर्माय नमः इत्यादि कल्पित पूर्वादि
दिशाओं में अधर्माय नमः इत्यादि का पूजन करे। सिंहासन के मध्य में आनन्दकन्दाय नमः
। संविन्नालाय नमः सहस्रदलकमलाय नमः प्रकृतिमयपत्रेभ्यो नमः । विकृतिमयकेसरेभ्यो
नमः । पञ्चाशद्वर्णबीजाढ्य सर्वतत्त्व- रूपायै कर्णिकायै नमः। उसके ऊपर इनकी पूजा
करे-
अं अर्कमण्डलाय नमः । सों
सोममण्डलाय नमः रं वह्निमण्डलाय नमः । तं तमसे नमः । रं रजसे नमः सं सत्वाय नमः ।
ह्रीं गं ह्रीं सर्वमन्त्रासनाय नमः । ॐ अं आं ई ई ऋ ॠ लृं लॄं एं ऐं ओं औं अं अः
कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं
रं लं वं शं षं सं हं ळं क्षं शिवशक्तिसदाशिवेश्वर इत्यादि सकलतत्त्वात्मने ह्रीं
योगपीठाय नमः योगपीठपूजा करके पात्रस्थापन करे।
स्ववामभागे
त्रिकोणषट्कोणवृत्तचतुरश्ररूपं यन्त्रं विलिख्य शङ्खमुद्रां प्रदर्श्य,
गां हृदयाय नमः। गीं शिरसे गूं शिखायै ० मैं कवचाय ० गौं नेत्रेभ्यो
० ।
गः अस्त्राय फट् । इति त्रिपादिकां
प्रक्षाल्य मूलेन संस्थाप्य, रं
वह्निमण्डलाय दशकलात्मने नमः श्रीमहागणपतिपात्रासनाय नमः इति गन्धाक्षतैरभ्यर्च्य,
तदुपरि पात्र संस्थाप्य ॐ सूर्यमण्डलाय द्वादशकलात्मने नमः श्रीमहा-
गणपत्यर्घ्यपात्राय नमः, ततो मूलेनापूर्य ॐ चन्द्रमण्डलाय
षोडशकलात्मने नमः गणपतिपात्राय नमः इति गन्धाक्षतैरभ्यर्च्य ततोऽङ्कुशमुद्रया
गङ्गे च यमुने तापे गोदावरि सरस्वति
।
नर्मदे सिन्धुकावेरि जलेऽस्मिन्
सन्निधिं कुरु ॥
इति तीर्थमावाह्य,
मूलेनाष्टधाभिमन्त्र्य षडङ्गैः सम्पूज्य, मत्स्यमुद्रयाच्छाद्य
फडिति छोटिकाभिः संरक्ष्य, हुमित्यवगुण्ठ्य, वमित्यमृतीकृत्य, शङ्ख- चक्रमुसलयोनिमुद्राः
प्रदर्श्य, तेनैव जलेन यागवस्तूनि प्रोक्षयेत् । मूलं ॐ
ह्रीं परमामृतरूपेण महागणपतिचन्द्रमण्डलनिवासाय चन्द्रामृतेन पूरय पूरय द्रव्यं
पवित्रीकुरु पवित्रीकुरु ॐ ह्रौं जुंसः स्वाहा। अनेन सर्वं प्रोक्षयेत्।
सामान्यार्ध्य स्थापन —
अपने वाम भाग में त्रिकोण, षट्कोण, वृत्त, चतुरस्र रूप का यन्त्र अंकित करके शङ्खमुद्रा
प्रदर्शित करे। षडङ्ग पूजा करे-
गां हृदयाय नमः। गीं शिरसे स्वाहा ।
गूं शिखायै वषट्। गैं कवचाय हुँ। गाँ नेत्राभ्यां वौषट् । गः अस्त्राय फट् ।
त्रिपाद को धोकर मूल मन्त्र से
स्थापित करे। रं वह्निमण्डलाय दशकलात्मने नमः । श्री महागणपतिपात्रासनाय नमः से
गन्धाक्षत से पूजन करे। उसके ऊपर पात्र स्थापित करे। पात्र का पूजन ॐ सूर्यमण्डलाय
द्वादशकलात्मने नमः । श्रीमहागणपत्यर्घ्यपात्राय नमः मन्त्र से गन्धाक्षत के
द्वारा करे। इसके बाद पात्र में जल को अङ्कुश मुद्रा से अग्रवर्णित मन्त्रोच्चारणपूर्वक
तीर्थों का आवाहन करे-
गङ्गे च यमुने तापे गोदावरि सरस्वति
।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन्
सन्निधिं कुरु ।।
मूल मन्त्र के आठ जप से अभिमन्त्रित
करे। षडङ्ग पूजन करे। मत्स्य मुद्रा से ढँके ।
फट् कहते हुए छोटिका मुद्रा से
संरक्षण करे। हुं मन्त्र से अवगुण्ठित करे। वं से अमृतीकरण करे। शङ्ख-चक्र-मुसल और
योनिमुद्रा दिखावे। इसी सामान्यार्घ्यं जल से सभी पूजन सामग्रियों का प्रोक्षण करे
तब इसे इस मन्त्र से अमृतमय बनाये - मूलं ॐ ह्रीं परमामृतरूपेण
महागणपतिचन्द्रमण्डलनिवासाय चन्द्रामृतेन पूरय पूरय द्रव्यं पवित्रीकुरु कुरु ॐ
हौं जूं सः स्वाहा। इस जल से सबका प्रोक्षण करे।
तदुत्तरे
पाद्याचमनीयमधुपर्कपात्राणि संस्थाप्य सम्पूज्यात्मानं तन्मयं विभाव्य,
ॐ नमो भगवते सकलगुणात्मशक्तियुक्ताय योगपीठात्मनेऽनन्ताय नमः इति
सम्पूज्य, सशक्तिकं देवं मूलेनावाह्य मूलेन नवमुद्राः
प्रदर्श्य, मूलषडङ्गं विधाय प्राणान् प्रतिष्ठाप्य
स्वागतमित्युदीर्य मूलेन पाद्यार्श्वे दद्यात्। एवं
पाद्यार्थ्याचमनीयमधुपर्कस्नानादि विधाय मातृकाक्षरैरभ्यर्च्य, तैर्धूपदीपनै- वेद्याचमनीयादीन् निवेद्य पुष्पाञ्जलित्रयं दत्त्वा
देवस्यावरणदेवताः पूजयेत्।
पाद्य,
आचमनीय, मधुपर्कपात्रस्थापन सामान्यार्घ्य
पात्र के उत्तर तरफ पाद्य, आचमनीय, मधुपर्क
पात्रों को स्थापित करे पूजन करे। अपने को महागणपतिस्वरूप समझे। ॐ नमो भगवते
सकलगुणात्मशक्तियुक्ताय योगपीठात्मने अनन्ताय नमः मन्त्र से पूजन करे। तब मूल
मन्त्र से शक्तिसहित देव का आवाहन करे। मूलमन्त्र से नव मुद्रा दिखाये । मूल
मन्त्र से षडङ्ग पूजन करे। प्राणप्रतिष्ठा करे, स्वागत करे।
मूल मन्त्र से पाद्य, अर्घ्य प्रदान करे। इस प्रकार पाद्य,
अर्घ्य, आचमनीय, मधुपर्क,
स्नानादि कराकर मातृका वर्णों से पूजन करे। तब धूप दीप नैवेद्य
आचमनीयादि निवेदित करे। तीन पुष्पाञ्जलि देकर देव के आवरणदेवताओं का पूजन करे।
ॐ ह्रीं श्रीं सर्वाशापूरकचक्राय
नमः इति पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा, ॐ
ह्रीं श्री इन्द्राय नमः पूर्वे । ह्रीं श्रीं क्लीं वरुणाय नमः पश्चिमे । ह्रीं
श्रीं क्लीं धर्मराजाय नमो दक्षिणे । ह्रीं श्रीं क्लीं कुबेराय नमः उत्तरे । इति
चतुरश्रं गन्धाक्षतैरभ्यर्च्य प्रथमावरणम् ।
मूलेन पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा ह्रीं
श्रीं क्लीं नन्दिने नमः । ह्रीं श्रीं क्लीं वीरेशाय नमः । ह्रीं श्रीं क्लीं
सौभाग्याय नमः ह्रीं श्रीं क्लीं भृङ्गिरीटिने नमः । हृीं श्रीं क्लीं विराटकाय
नमः । ह्रीं श्रीं क्लीं पुष्पदन्ताय नमः । ह्रीं श्रीं क्लीं विकर्ताय नमः ।
ह्रीं श्रीं क्लीं अन्त्यगणाय नमः । ह्रीं श्रीं क्लीं चित्तगणाय नमः । ह्रीं
श्रीं क्लीं लोहिताय नमः । ह्रीं श्रीं क्लीं सुन्दराय नमः । ह्रीं श्रीं क्लीं
नूपुराढ्याय नमः । ह्रीं श्रीं क्लीं विचाराय नमः । ह्रीं श्रीं क्लीं उग्ररूपाय
नमः । ह्रीं श्रीं क्लीं सुप्ताय नमः । ह्रीं श्रीं क्लीं विनर्तकाय नमः । इति
षोडशारं गन्धाक्षतैर्दक्षिणावर्तेनाभ्यर्च्य द्वितीयावरणम् ।
मूलेन पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा ह्रीं
श्रीं क्लीं करालाय नमः । ह्रीं श्रीं क्लीं विकरालाय नमः । ह्रीं श्रीं क्लीं
संहाराय ह्रीं श्रीं क्लीं रुरवे । ह्रीं श्रीं क्लीं महाकालाय ह्रीं श्रीं क्लीं
कालाग्नये ० ह्रीं श्रीं क्लीं सितास्याय ० । ह्रीं श्रीं क्लीं असितात्मने नमः ।
इति वसुदलं गन्धाक्षतदूर्वाभिर्दक्षिणा- वर्तेनाभ्यर्चयेदिति तृतीयावरणम् ।
मूलेन पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा ह्रीं
श्रीं क्लीं विनायकाय नमः । ह्रीं श्रीं क्लीं विघ्नराजाय नमः । ह्रीं श्रीं क्लीं
गणाध्यक्षाय । ह्रीं श्रीं क्लीं गजाननाय ०। ह्रीं श्रीं क्लीं हेरम्बाय० । ह्रीं
श्रीं क्लीं मोदकाहाराय० । ह्रीं श्रीं क्लीं द्वैमातुराय । ह्रीं श्रीं क्लीं
अरिन्दमाय० । ह्रीं श्रीं क्लीं एकदन्ताय । ह्रीं श्रीं क्लीं वक्रतुण्डाय नमः ।
इति गन्धाक्षतदूर्वाभिर्दक्षावर्तेन दशारमभ्यर्चयेदिति चतुर्थावरणम् ।
मूलेन पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा ह्रीं
श्रीं क्लीं कुमाराय नमः अग्ने । ह्रीं श्रीं क्लीं जयन्ताय दक्षे। ह्रीं श्रीं
क्लीं प्रद्युम्नाय वामे इति गन्धाक्षतदूर्वाभिः त्रिकोणमभ्यर्चयेदिति पञ्चमावरणम्
।
मूलेन पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा
मूलविद्यामुच्चार्य ह्रीं स्वशक्तिसहिताय महागणपतये नम्ः इति सप्तधा बिन्दुं
सम्पूजयेदिति षष्ठावरणम् ।
मू० ह्रीं गणेशाय नमः । ह्रीं
गाङ्गेयाय नमः । ह्रीं सिंहासनाय नमः । ह्रीं विघ्नान्तकाय नमः । ह्रीं आखुवाहाय
नमः । ह्रीं त्रिपुरान्तकाय नमः । इत्युपरि गन्धाक्षतदूर्वाभिरभ्यर्चयेदिति
सप्तमावरणम् ।
उपरि मूलं ह्रीं शतपत्राय नमः,
ह्रीं सहस्राराय नमः, ह्रीं दन्तमालायै नमः,
ह्रीं मोदकपात्राय नमः, ह्रीं सुधाकलशाय नमः,
ह्रीं परशवे नमः, ह्रीं शङ्खाय नमः, ह्रीं पाञ्चजन्याय नमः इति,
दर्शनेनापि शङ्खस्य किं पुनः
स्पर्शनेन च ।
विलयं यान्ति पापानि
हिमवद्भास्करोदये ॥
इति सप्तधा
सम्पूजयेदित्यष्टमावरणम्।
प्रथम आवरण
भूपुर में- १.ॐ ह्रीं श्रीं इन्द्राय नमः पूरब में
२. ॐ ह्रीं श्रीं वरुणाय नमः पश्चिम
में
३. ॐ ह्रीं श्रीं धर्मराजाय नमः
दक्षिण में
४.ॐ ह्रीं श्रीं कुवेराय नमः उत्तर में
गन्धाक्षतपुष्प से प्रथम आवरण पूजन करे।
षोडशार में मूल से पुष्पाञ्जलि देकर
पूर्वादि क्रम से दक्षिणावर्त पूजा करे।
द्वितीय आवरण-
१. ॐ ह्रीं श्रीं नन्दिने नमः ।
२. ॐ ह्रीं श्रीं वीरेशाय नमः
३. ॐ ह्रीं श्रीं सौभाग्याय नमः ।
४. ॐ ह्रीं श्रीं भृङ्गिरीटिने नमः
।
५. ॐ ह्रीं श्रीं विराटकाय नमः ।
६. ॐ ह्रीं श्रीं पुष्पदन्ताय नमः ।
७. ॐ ह्रीं श्रीं विकर्ताय नमः ।
८. ॐ ह्रीं श्रीं अन्त्यगणाय नमः ।
९. ॐ ह्रीं श्रीं चित्तगणाय नमः ।
१०. ॐ ह्रीं श्रीं लोहिताय नमः ।
११. ॐ ह्रीं श्रीं सुन्दराय नमः ।
१२. ॐ ह्रीं श्रीं नूपुराढ्याय नमः
।
१३. ॐ ह्रीं श्रीं विचाराय नमः ।
१४. ॐ ह्रीं श्रीं उग्ररूपाय नमः ।
१५. ॐ ह्रीं श्रीं सुप्ताय नमः ।
१६. ॐ ह्रीं श्रीं विनर्तकाय नमः ।
तृतीय आवरण-
अष्टदल में मूल मन्त्र से पुष्पाञ्जलि देकर तृतीयावरण की पूजा दूर्वा गन्धाक्षत से
दक्षिणावर्तक्रम से करे-
१. ॐ ह्रीं श्रीं करालाय नमः ।
२. ॐ ह्रीं श्रीं विकरालाय नमः ।
३. ॐ ह्रीं श्रीं संहाराय नमः ।
४. ॐ ह्रीं श्रीं रुरवे नमः ।
५. ॐ ह्रीं श्रीं महाकालाय नमः ।
६. ॐ ह्रीं श्रीं कालाग्नये नमः ।
७. ॐ ह्रीं श्री सितास्याय नमः ।
८. ॐ ह्रीं श्रीं असितात्मने नमः ।
चतुर्थ आवरण-
दश दल में मूल मन्त्र से पुष्पाञ्जलि देकर गन्धाक्षत दूब से दक्षिणावर्ती क्रम से
करे
१. ॐ ह्रीं श्रीं विनायकाय नमः ।
२. ॐ ह्रीं श्री विघ्नराजाय नमः ।
३. ॐ ह्रीं श्रीं गणाध्यक्षाय नमः ।
४. ॐ ह्रीं श्री गजाननाय नमः ।
५. ॐ ह्रीं श्रीं हेरम्बाय नमः ।
६. ॐ ह्रीं श्रीं मोदकाहाराय नमः ।
७. ॐ ह्रीं श्रीं द्वैमातुराय नमः ।
८. ॐ ह्रीं श्रीं अरिन्दमाय नमः ।
९. ॐ ह्रीं श्रीं एकदन्ताय नमः ।
१०. ॐ ह्रीं श्रीं वक्रतुण्डाय नमः
।
पञ्चम आवरण
—
त्रिकोण में पुष्पाञ्जलि मूल मन्त्र से देकर गन्धाक्षत दूर्वा से
पूजा करे-
१. ॐ ह्रीं श्रीं कुमाराय नमः -
अपने सम्मुख कोण में।
२. ॐ ह्रीं श्रीं जयन्ताय नमः दक्ष
कोण में।
३. ॐ ह्रीं श्रीं प्रद्युम्नाय नमः
- वाम कोण में।
षष्ठ आवरण-
बिन्दु में पुष्पाञ्जलि देकर मूल विद्या का उच्चारण करके सात बार पूजन करे।
सप्तम आवरण - मूल मन्त्र ह्रीं
स्वशक्तिसहिताय महागणपतये नमः । मूल मन्त्र ह्री गणेशाय नमः । ह्रीं गाङ्गेयाय नमः
ह्रीं सिंहासनाय नमः । ह्रीं विघ्नान्तकाय नमः । ह्रीं आखुवाहाय नमः । ह्रीं
त्रिपुरान्तकाय नमः यह पूजन भी गन्धाक्षत दूर्वा से करे।
अष्टम आवरण-
इसके बाद ऊपर में मूल मन्त्रसहित ह्रीं शतपत्राय नमः ह्रीं सहस्राराय नमः। ह्रीं
दन्तमालायै नमः ह्रीं मोदकपात्राय नमः। ह्रीं सुधाकलशाय नमः । ह्रीं परशवे नमः ।
ह्रीं शङ्खाय नमः। ह्रीं पाञ्चजन्याय नमः ।
निम्न मन्त्र से सात बार पूजन करे-
दर्शनेनापि शङ्खस्य किं पुनः
स्पर्शनेन च ।
विलयं यान्ति पापानि हिमवत्
भास्करोदये ।।
मूलमुच्चार्य
गन्धाक्षतदूर्वापुष्पधूपदीपनैवेद्याचमनीयताम्बूलच्छत्रचामरादीन् समर्प्य,
देवाग्रे संकल्पपूर्व षडङ्गन्यासं विधाय देवं ध्यात्वा, मूलेन मालामभ्यर्च्य यथाशक्त्या मूलं जपेत् । ततो मूलमुच्चार्य देवाय जपं
समर्प्य, कवचसहस्र- नामस्तवराजपाठं देवाग्रे कृत्वा, मूलं-
प्रातः प्रभृति सायान्तं
सायादिप्रातरन्ततः ।
यत्करोमि गणाध्यक्ष तदस्तु तव
पूजनम् ॥
इति नत्वा संहारमुद्रया सशक्तिकं
देवं विसर्जयेत् ।
इसके बाद मूल मन्त्रोच्चारणपूर्वक
गन्धाक्षतपुष्प दूर्वा-धूप-दीप नैवेद्य-आचमनीय- ताम्बूल छत्र-चामर आदि समर्पित
करे। देव के सामने संकल्प करके षडङ्गन्यास करके देव का ध्यान करे। मूल मन्त्र से
माला की पूजा करके यथाशक्ति मूल मन्त्र का जप करे। तब मूल मन्त्र का उच्चारण करके
जप को समर्पित करें। तब कवच, सहस्रनाम
स्तवराज का पाठ करे। इसके बाद मूल मन्त्र पढ़े हुये निम्न मन्त्र का पाठ करें-
प्रातः प्रभृति सायान्तं सायादि
प्रातरन्ततः ।
यत्करोमि गणाध्यक्ष तदस्तु तव
पूजनम्।।
मन्त्रपाठ के बाद नमस्कार करके
संहारमुद्रा से शक्तिसहित देव का विसर्जन करें।
इति श्रीनित्यपूजायाः पद्धतिं
गद्यरूपिणीम् ।
महागणपतेर्दिव्यां सर्वथा देवि
गोपयेत् ॥ २ ॥
महा गणपति की दिव्य गद्यरूपिणी
नित्य पूजापद्धति पूर्ण हुई। हे देवि ! इसे सर्वथा गुप्त रखना चाहिये ।। २ ।।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये वरदगणेशपूजापद्धतिनिरूपणं नाम सप्तविंश: पटलः ॥ २७ ॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में वरगणेशपूजा- पद्धति निरूपण नामक सप्तविंश पटल
पूर्ण हुआ।
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त देवीरहस्य पटल 28
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