कामकलाकाली खण्ड सप्तम पटल
महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड सप्तम पटल में कुण्डनिर्माण को बतला कर योगविधि योगमाहात्म्य के उल्लेख के पश्चात्
योगोपकारि देहसंस्थान का विस्तृत वर्णन किया गया है । देवी के निराकार स्वरूप का
ध्यान,
षट्चक्रभेदन से कुण्डलिनी जागरण, पुनः
कुण्डलिनी की स्वस्थान प्राप्ति एवं योगमहिमा का वर्णन कर मोक्ष का उत्कर्ष एवं
सिद्धि का अपकर्ष बतलाया गया है। तदनु देवी के साकार स्वरूप की चर्चा कर उसके
ध्यान से नाना प्रकार के सिद्धिलाभ के उपायों को प्रस्तुत किया गया है । पटल के
अन्त में पूजा की तीन श्रेणियों का वर्णन कर विश्वास को फलप्राप्ति का आधार बतलाया
गया है।
महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल ७
Mahakaal samhita kaam kalaa kaali khanda patal
7
महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड: सप्तमः पटल:
महाकालसंहिता कामकलाखण्ड सप्तम पटल
महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड सातवाँ पटल
महाकालसंहिता
कामकलाखण्ड:
(कामकलाकालीखण्ड :)
सप्तमः पटल:
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
योगविध्यभिधानं योगमाहात्म्याभिधानं च
अथ योगविधिं मत्तः शृणु सावहिता सती
॥ १०२ ॥
जपहोमार्च्चन ध्यानप्रयोगाश्चैकतो मताः
।
एकतो वायुरोधेन देहषट्चक्र भेदनम् ॥
१०३ ॥
सदाशिवेन यः प्रोक्तः क्रमो
योगविधेर्मम ।
तस्मिन् कृते किमेभिर्वा प्रयोगैः
साधनैरपि ॥ १०४ ॥
यो योगेन तनूमेतां साधयेद्
विधिवर्त्मना ।
परार्द्धशतजीवी स एवमाह सदाशिवः ॥
१०५ ॥
योगविधि और उसका माहात्म्य - अब
मुझसे सावधान होकर योगविधि को सुनो। जप, होम,
पूजा, ध्यान, अनुष्ठान
एक ओर तथा वायुरोध के द्वारा देहस्थ- षट्चक्र का भेदन एक ओर । सदाशिव ने योगविधि
का जो क्रम मुझको बतलाया उसके करने पर ये प्रयोग और साधन व्यर्थ हैं। जो (मनुष्य)
योग के द्वारा विधिवत् इस शरीर की साधना कर लेता है वह परार्धशत जीवी होता है—ऐसा उन महादेव सदाशिव ने बतलाया ॥१०२-१०५॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
योगोपकारि देहसंस्थानविवरणम्
तत्रादौ देहसंस्थानमाकर्णय वरानने ।
द्वे सहस्त्रे तु नाडीनां
(तिष्ठन्ति) देहपञ्जरे ॥ १०६ ॥
कीकसानि च तिष्ठन्ति द्वात्रिंशदिति
निश्चयः ।
वायवो दश तिष्ठन्ति पञ्च तेषु
महत्तराः ॥ १०७ ॥
सूर्य्याचन्द्रमसोः स्थानं देहमध्ये
व्यवस्थितम् ।
आकाशभूमिसलिलवह्नीनां तत्र
संस्थितिः ॥ १०८ ॥
वायुस्तु सर्वदेहेषु चलत्येव
प्रतिक्षणम् ।
यस्मात् प्रयात्यणुर्भूत्वा तस्मात्
प्राण इतीर्यते ॥ १०९ ॥
अग्निस्थानं यदेतस्मिंस्तज्जाम्बूनदसन्निभम्
।
त्रिकोणाकारतो ज्ञेयमितरेषां तु
मण्डलम् ॥ ११० ॥
देहसंस्थान का विवरण- हे वरानने!
उसमें पहले देहसंस्थान को सुनो। इस देहरूपी पिंजड़े में दो हजार नाड़ियाँ हैं।
बत्तीस कीकस (=हड्डियाँ) हैं। वायु दश हैं. उनमें पाँच वायु महत्तर हैं। सूर्य और
चन्द्रमा का स्थान देह के मध्य में कहा गया है। उसमें आकाश,
भूमि, जल और अग्नि की सत्ता है। सम्पूर्ण देह
में वायु प्रतिक्षण चलता रहता है। चूँकि यह अणु होकर प्रयाण करता है इसलिये इसे
प्राण (प्र+अणु - यहाँ उकार का उच्चारण सौविध्य के कारण लोप होने और दीर्घ सन्धि होने
से 'प्राण' शब्द का उद्भव हुआ है) कहते
हैं। इस शरीर में जो अग्निस्थान हैं वह सुवर्ण जैसा है । यह त्रिकोणाकार बतलाया
गया है। अन्य (आकाश, पृथ्वी और जल) का स्थान गोल है ।। १०६
११० ॥
त्रिकोणमग्निस्थानं यद् देहमध्यं
तदुच्यते ।
यद्यत्र तिष्ठति तनौ त्वं तदादौ
निबोध मे ॥ १११ ॥
अधो मेढ्राद् द्व्यङ्गुलं तत्तावदेव
गुदोपरि ।
एकाङ्गलप्रमाणं तद् देहमध्यं
प्रकीर्तितम् ॥ ११२ ॥
देहमध्यादूर्ध्वमस्ति कन्दं देवि
नवाङ्गुलम् ।
चतुरङ्गुलमुच्छ्रायमायामं तावदेव च
॥ ११३ ॥
आकारेणाण्डसदृशं त्वगस्थिपरिवेष्टितम्
।
तत्र सञ्चरति प्राणः स्वे स्थाने
परमोपरि ॥ ११४ ॥
तस्योपरिष्टाद् विज्ञेयं
कुण्डलीस्थानमुत्तमम् ।
कृत्स्नो योगविधिस्तत्र
सिद्धिश्चापि प्रतिष्ठिता ॥ ११५ ॥
जो त्रिकोण अग्निस्थान है वह देह का
मध्य कहा जाता है। जो इस शरीर में जहाँ रहता है पहले उसको मुझसे जानो । वह देहमध्य
एक अङगुल परिमाण वाला हैं । वह मेढू (=लिङ्गमूल) से दो अगुल नीचे गुदा के उतना (दो
अगुल) ही ऊपर स्थित है । हे देवि! देहमध्य से ऊपर नव अङ्गुल परिमाण वाला कन्द है ।
यह चार अङ्गुल ऊँचा और उतना ही चौड़ा है। यह आकार में अण्डा के समान तथा त्वचा और
अस्थि से परिवेष्टित है । उसी स्थान में प्राण सञ्चरण करता रहता है। उसके ऊपर
उत्तम कुण्डली का स्थान है । उसी में सम्पूर्ण योगविधि और सिद्धि प्रतिष्ठित है ॥
१११-११५ ॥
कन्दमध्ये स्थितास्तत्र मुख्या
नाड्यश्चतुर्दश ।
एकैकस्यां द्विचत्वारिंशच्छतं
परिनिष्ठिताः ॥ ११६ ॥
तिस्रस्तास्वपि मुख्याः स्युः
सुषुम्णेडाथ पिङ्गला ।
पयस्विनीसरस्वत्यौ वारणा च
कुद्दूस्तथा ॥ ११७ ॥
गान्धारी शङ्खिनी पूषा
हस्तिजिह्वाप्यलम्बुषा ।
विश्वोदरायशस्विन्यौ मुख्या ह्येताश्चतुर्दश
॥ ११८ ॥
मोक्षमार्गे सुषुम्णा सा
ब्रह्मरन्ध्रे प्रतिष्ठिता ।
तस्या वामे इडा ज्ञेया
चन्द्रसञ्चारसञ्चिता ॥ ११९ ॥
दक्षिणे पिङ्गला नाडी
रविसञ्चारशोभिता ।
सरस्वती कुहूश्चैव
सुषुम्णापार्श्वयोः स्थिता ॥ १२० ॥
उस कन्द के मध्य में चौदह मुख्य
नाड़ियाँ स्थित हैं। एक-एक नाड़ी में एक सौ बयालिस (अथवा बयालिस सौ छोटी-छोटी
नाड़ियाँ) संयुक्त हैं। इन सभी (नाड़ियों) में इडा पिङ्गला और सुषुम्णा मुख्यतम
हैं । पयस्विनी, सरस्वती, वारणा,
कुहू, गान्धारी, शङ्खिनी,
पूषा, हस्तिजिह्वा, अलम्बुसा,
विश्वोदरा और यशस्विनी (और उपर्युक्त इडा आदि तीन कुल मिलाकर) ये
चौदह नाड़ियाँ मुख्य हैं। (इनमें से ) सुषुम्णा मोक्षमार्ग में ब्रह्मरन्ध्र में
स्थित है । उसके बायें चन्द्र सञ्चार वाली इडा और दक्षिण में सूर्यसञ्चरण वाली
पिङ्गला नाड़ी सुशोभित है । सुषुम्णा के दोनों पार्श्वे में सरस्वती और कुहू स्थित
हैं ॥ ११६ १२० ॥
गान्धारी हस्तिजिह्वा च इडायाः
पृष्ठपार्श्वयोः ।
पूषा पयस्विनी चैव
पिङ्गलापृष्ठपार्श्वयोः ॥ १२१ ॥
कुहोश्च हस्तिजिह्वाया मध्ये
विश्वोदरा स्थिता ।
पयस्विनीकुहोर्मध्ये वारणा च
प्रकीर्तिता ॥ १२२ ॥
पूषायाश्च सरस्वत्याः स्थिता मध्ये
यशस्विनी ।
गान्धार्याश्च सरस्वत्याः शङ्खिनी
मध्यसंस्थिता ॥ १२३ ॥
अलम्बुषा च देवेशि कन्दमध्यादधः
स्थिता ।
पूर्वभागे सुषुम्णाया मेदान्तं च
कुहूः स्थिता ॥ १२४ ॥
अधश्चोर्ध्वं च विज्ञेया वारणा
सर्वगामिनी ।
पयस्विनी च याम्यस्य
पादाङ्गष्ठाङ्गुमिष्यते ॥ १२५ ॥
पिङ्गला चोर्ध्वगा याम्ये नासान्तं
विद्धि पार्वति ।
याम्ये पूषा च नेत्रान्तं
पिङ्गलायास्तु पृष्ठतः ॥ १२६ ॥
गान्धारी तथा हस्तिजिह्वा इडा के
पीछे और पार्श्व में स्थित हैं। पूषा और पयस्विनी पिङ्गला के पीछे और पार्श्व में
स्थित हैं । कुहू और हस्तिजिह्वा के मध्य में विश्वोदरा स्थित है । पयस्विनी और
कुहू के मध्य में वारणा (स्थित) कही गयी पूषा और सरस्वती के मध्य में यशस्विनी है।
गान्धारी और सरस्वती के मध्य में शङ्खिनी स्थित है । हे देवेशि ! अलम्बुसा कन्द के
मध्य से नीचे वर्त्तमान है । सुषुम्णा के पूर्वभाग में मेढ़ के अन्त तक कुहू स्थित
है । वारणा सर्वगामिनी है । वह ऊपर नीचे सब जगह फैली हुई है । पयस्विनी दायें पैर
के अंगूठे तक गयी हैं । हे पार्वति ! पिङ्गला (सुषुम्णा के) दायीं ओर ऊपर दायें
नासारन्ध्र तक गयी है । पूषा नाड़ी पिङ्गला के पीछे दायीं ओर दायें नेत्र पर्यन्त
गयी हुई है ॥ १२१-१२६ ॥
यशस्विनी नाडिका च
याम्यकर्णान्तमिष्यते ।
सरस्वती तथा चोर्ध्वमाजिह्वायां
प्रतिष्ठिता ॥ १२७ ॥
आसव्यकर्णाद् देवेशि शङ्खिनी
चोर्ध्वगा मता ।
गान्धारी सव्यनेत्रान्तमिडायाः
पृष्ठतः स्थिता ॥ १२८ ॥
हस्तिजिह्वा तथा सव्यं
पादाङ्गुष्ठाङ्गमिष्यते ।
विश्वोदरा च या नाडी सव्येऽसव्ये
गता स्मृता ॥ १२९ ॥
अलम्बुषा महाभागा पादमूलादधोगता ।
यशस्विनी नाडी दाहिने कान तक जाती
है। उसी प्रकार सरस्वती ऊपर की ओर जिह्वा में प्रतिष्ठित है । हे देवि ! शङ्खिनी
ऊपर की ओर बायें कान तक गयी है । गान्धारी इडा के पीछे बायें नेत्र तक स्थित है।
इसी प्रकार हस्तिजिह्वा बायें पैर के अगूठे तक स्थित हैं । जो विश्वोदरा नाडी है
वह बायें दायें सर्वत्र फैली हुई है । महाभागा अलम्बुसा नाडी पादमूल से नीचे गयी
है ॥ १२७-१३० ॥
प्राणोऽपानः समानश्च उदानो व्यान एव
च ॥ १३० ॥
नागः कूर्मः कृकरश्च देवदत्तो
धनञ्जयः ।
एते नाडीषु सर्वासु चरन्ति दश वायवः
॥ १३१ ॥
एतेषु वायवः पञ्च मुख्याः
पूर्वोदिताः प्रिये ।
तेषु मुख्यतमः प्राणः कन्दस्याधः
प्रतिष्ठितः ॥ १३२ ॥
मुखनासिकयोर्मध्ये हृदये नाभिमण्डले
।
कन्दमध्येsपि च प्राणः स्वयमेवावतिष्ठते ॥ १३३ ॥
अपानो पावोश्च ऊरुवङ्गणजानुषु ।
जङ्घोदरे च कट्यां च नाभिमूले च
तिष्ठति ॥ १३४ ॥
व्यानः श्रोत्राक्षिमध्ये च
हृत्कट्यां गुल्फयोरपि ।
समान: सर्वदेहेषु सर्वव्यापी
प्रतिष्ठितः ॥ १३५ ॥
भुक्तं सर्वरसं गात्रे व्यापयन्
वह्निना सह ।
द्विसप्ततिसहस्त्रेषु नाडीमध्येषु
सञ्चरन् ॥ १३६ ॥
समानो वायुरेवैकः स्थितो व्याप्य
कलेवरम् ।
नागादिवायवः पञ्च त्वगस्थ्यादिषु
संस्थिताः ॥ १३७ ॥
प्राण,
अपान, समान, उदान,
व्यान, नाग, कूर्म,
कृकर, देवदत्त और धनञ्जय - ये दश वायु सभी
नाड़ियों में सञ्चरण करते रहते हैं। हे प्रिये! इनमें से पाँच मुख्य हैं जिन्हें
पहले ही कह दिया गया है। उन (पाँचों) में भी प्राण मुख्यतम है। यह कन्द के नीचे
स्थित रहता है । मुख और नासिका के मध्य में, हृदय नाभिमण्डल
मे तथा कन्द के मध्य में प्राण स्वयं स्थित रहता है। अपान वायु मेढू, पायु, ऊरु, वङ्क्षण (=जङ्घा और
कूल्हे का जोड़ वाला भाग) जानु (= जाङ्घ), जङ्घा, पेट, कटि और नाभिमूल में रहता है। व्यान कान,
आँख, हृदय, कटि, गुल्फ (= टखना) में रहता है। समान वायु सर्वव्यापी सम्पूर्ण शरीर में
प्रतिष्ठित है। अग्नि के साथ वह खाये पीये समस्त रस को पूरे शरीर में फैलाता है ।
बहत्तर हजार नाड़ियों के बीच सञ्चरण करता हुआ यह समान वायु अकेला है जो सम्पूर्ण
शरीर को व्याप्त कर स्थित है । नाग आदि पाँच वायु, त्वचा,
अस्थि आदि में संस्थित हैं ।। १३०-१३७ ॥
निःश्वासोच्छ्वासकादिश्च प्राणकर्म
इतीष्यते ।
अपानवायोः कर्मैतद्
विण्मूत्रादिविसर्जनम् ॥ १३८ ॥
प्राणोपादानचेष्टादि व्यानकर्मेति
कीर्तितम् ।
उदानकर्म तत् प्रोक्तं
देहस्योन्नमनादिकम् ॥ १३९ ॥
शोषणादि समानस्य शरीरे कर्म
कीर्त्यते ।
क्षेपणादिगुणो यश्च नागकर्मेति
कीर्तितम् ॥ १४० ॥
निमीलनादि कूर्मस्य क्षुत् तृष्णा
कृकरस्य च ।
देवदत्तस्य देवेशि निद्रा तन्द्रेति
कीर्तितम् ॥ १४१ ॥
धनञ्जयस्य शोषादि सर्वकर्म
प्रकीर्तितम् ।
निःश्वास- उच्छ्वास आदि प्राण वायु
का कर्म माना जाता है। मल मूत्र आदि का त्याग अपान वायु का कर्म है। प्राण,
उपादान, चेष्टा आदि व्यान वायु का कर्म कहा
गया है । देह का ऊपर उठाना नीचे झुकाना आदि उदान वायु का कर्म है। शरीर में शोषण
आदि समान वायु का कर्म कहा जाता है। जो फेंकना आदि गुण हैं वह नाग का कर्म कहा गया
है। पलक गिराना आदि कूर्म का, क्षुत् तृष्णा आदि कृकर का
कर्म है । हे देवेशि ! निद्रा तन्द्रा आदि देवदत्त का कर्म कहा गया है। शोषण आदि
सब कर्म धनञ्जय का कहा गया है ।। १३८-१४२ ॥
ज्ञात्वैवं नाडिकास्थानं वायुयानं च
यत्नतः ॥ १४२ ॥
नाडीनां शोधनं कुर्याद् यथाविधि
पुरःसरः ।
ततस्तपोवनं गत्वा फलमूलोदकान्वितम्
॥ १४३ ॥
तत्र रम्ये शुचौ देशे नद्यां
देवालयेऽपि वा ।
सुशोभनं स्थलं कृत्वा
सर्वरक्षासमन्वितम् ॥ १४४ ॥
त्रिकालस्नानसंयुक्तः शुचिर्भूत्वा
समाहितः ।
मन्त्रैर्न्यासैर्न्यस्ततनुः
सितभस्मधरः सदा ॥ १४५ ॥
समस्थलोपरि कुशान् समास्तीर्याथ
वाऽजिनम् ।
विनायकं सुसम्पूज्य
कुशपुष्पोदकादिभिः ॥ १४६ ॥
गुरून् देवीं नमस्कृत्य तत्र चावध्य
चासनम् ।
उदङ्मुखः प्राङ्मुखो वा
पवित्रासनसङ्गतः ॥ १४७ ॥
समग्रीवशिरः कायः संवृतास्यः
सुनिश्चलः ।
सुषुम्णा वर्त्मना वायुं
कुण्डलिन्यां धमेत् क्षणम् ॥ १४८ ॥
नाड़ी शोधन - इस प्रकार
नाड़ीसंस्थान और वायु का गमनागमन जानकर साधक यथाविधि नाड़ियों का शोधन करे। फल-फूल
जल से युक्त तपोवन में जाकर रमणीय पवित्र स्थान में नदी या देवमन्दिर में समस्त
रक्षा से युक्त सुन्दर स्थान बनाकर (साधक) त्रिकाल स्नान करे। पवित्र होकर चित्त
को शान्त कर मन्त्र और न्यास से शरीर को युक्त करे । सदा श्वेत भस्म धारण करे ।
समतल भूमि पर कुश या चर्म का आसन बिछाये । कुश पुष्प जल आदि से गणेश की पूजा
कर गुरु और देवी को प्रणाम करे । पुनः (पद्म अर्धपद्म स्वस्तिक आदि में से कोई एक)
आसन लगाकर उत्तरमुख या पूर्वमुख हो आसन पर बैठ जाय । शिर गर्दन शरीर सीधा रखे ।
मुख बन्द रखे । निश्चल होकर सुषुम्णा के रास्ते वायु को एक क्षण के लिये कुण्डलिनी
में ले जाय ॥ १४२-१४८ ॥
गच्छत्यभिव्यक्तिमिदं नादब्रह्म
सनातनम् ।
तन्नादं पिङ्गलामार्गे समानीय
हृदब्जके ॥ १४९ ॥
इडया पूरयेत् तावद् यावद्
वर्णात्मकं भवेत् ।
भूमेरुपरि धातारं रत्या
बिन्दुसमन्वितम् ॥ १५० ॥
बिम्बमध्यस्थमोंकारसम्पुटाकृतमुन्नतम्
1
एकीकृत्य तु तत् सर्वमाकर्षेद्
हस्तिजिह्वया ॥ १५१ ॥
विश्वोदरालम्बुषाभ्यां
ब्रह्मरन्ध्रे निवेशयेत् ।
( उस समय ) यह सनातन (अर्थात्
नित्य) नादब्रह्म अभिव्यक्त होता है। उस नाद को पिङ्गलामार्ग से हृदयकमल में ले
आकर इडा से तब तक पूरित करते रहना चाहिये जब तक कि वह वर्ण का आकार नहीं ले लेता।
भूमि (=ल) के बाद धाता (=क) को रति*
(=औ) और बिन्दु से युक्त करे। फिर बिम्ब (= ह्रींयंड्री) के मध्य
में स्थित ॐ कार से सम्पुटित करे। (इस प्रकार ॐ लकौं ड्रीं ओम् बना?
) इन सब वर्णों को एक बार हस्तिजिह्वा नाडी से आकृष्ट करे और
विश्वोदरा तथा अलम्बुसा नाड़ियों के द्वारा ब्रह्मरन्ध्र में प्रविष्ट कराये ॥ १४९
१५२ ॥
* भूमि धाता रति आदि के बीजभूत अन्य वर्ण भी हैं। उनको यथोचित रूप में
क्रमबद्ध किया जा सकता है ।
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
देव्या निराकारस्वरूपध्यानम्
निवेश्य तां तत्र देवीं निराकारां
विचिन्तयेत् ॥ १५२ ॥
एकां ज्योतिर्मयीं शुक्लां सर्वगां
व्योमरूपिणीम् ।
अत्यन्तनिर्मलां
शुद्धामादिमध्यान्तवर्जिताम् ॥ १५३ ॥
अतिसूक्ष्मामनाकाशामस्पृश्यां
तामचाक्षुषीम् ।
कूटस्थामप्यदृश्यां तां
सच्चिदानन्दविग्रहाम् ॥ १५४ ॥
अगन्धामरसा स्वच्छामप्रेयामनूपमाम्
।
आनन्दामजरां नित्यां
सदसत्सर्वकारिणीम् ॥ १५५ ॥
सर्वाधारां जगद्रूपाममृत्युं
चाव्ययामजाम् ।
अनवस्थामप्रतक्य बह्निस्थां
सर्वतोमुखीम् ॥ १५६ ॥
सर्वदृक् सर्वतः पादां सर्वस्पृक्
सर्वतः शिराम् ।
निरञ्जनीं निर्विकारां शुद्धचैतन्यरूपिणीम्
॥ १५७ ॥
नादोपाहृतबीजेन ध्यायंस्तत्र
यजेदिमाम् ।
कुलाकुलसमुद्भूताममृतानन्दसञ्चयाम् ॥
१५८ ॥
सूर्यकोटिसमा शुभ्रां नादबीजतया
स्थिताम् ।
षट्चक्रभेदेन यजेद्योगे
कुण्डलिनीहृदोः ॥ १५९ ॥
देवी का निराकार ध्यान –
उस ( = ब्रह्मरन्ध्र) में प्रवेश कराकर वहाँ उसका निराकार ध्यान करे
कि वह एक, ज्योतिर्मयी, शुक्ला,
सर्वगा, व्योमरूपिणी, अत्यन्त
निर्मल, शुद्ध, आदिमध्यान्तहीन,
अतिसूक्ष्म, अनाकाश (= रिक्ततारहित), अस्पृश्य, अचाक्षुषी, कूटस्थ
होती हुई भी अदृश्य, सच्चिदानन्दरूपिणी, गन्ध रस से रहित, स्वच्छ, अप्रमेय,
अनौपम्य, आनन्दरूप, अजर,
नित्य, सत् असत् सब की रचना करने वाली,
सबका आधार, जगद् रूप, मृत्यु
रहित, अव्यय, जन्मरहित, अवस्था- रहित, अप्रतर्क्स, अग्नि
में स्थित, सर्वव्यापिनी, सर्वदृक्,
सर्वतः पैर वाली, सर्वस्पर्श वाली, सर्वशिरवाली, निर्मल, निर्विकार,
शुद्धचैतन्य रूप है। नाद से प्राप्त बीजमन्त्र के द्वारा ध्यान करता
हुआ साधक वहीं (= ब्रह्मरन्ध्र में ही) उनकी पूजा करे। कुल (=शक्ति) और अकुल
(=शिव) से उत्पन्न अमृत आनन्द की समूह रूप, करोड़ों सूर्य के
समान (तेजोमयी), शुभ, नादबीज के रूप
में स्थित देवी की षट्चक्रभेदन के द्वारा कुण्डलिनी और हृदय के सन्धिस्थल में पूजा
करे ॥ १५२-१५९ ॥
आधारपद्ममध्येऽन्तर्द्विपत्रे
त्रिदलेऽपि च ।
स्वाधिष्ठाने षोडशारे पीठे च
मणिपूरके ॥ १६० ॥
द्वादशे च विशुद्धेऽपि
तत्राप्यष्टदले तथा ।
हृदये दशपत्रे तु द्वादशार्द्धे
चतुर्दले ॥ १६९ ॥
कण्ठे भाले यजेद् देवीं जिह्वया
नादमुच्चरन् ।
गच्छन्तीं ब्रह्ममार्गेण
सूक्ष्मषट्चक्रभेदिनीम् ॥ १६२ ॥
प्रच्योतदमृतं दिव्यं क्षीरधारोपमं
द्रवम् ।
पीत्वा सदाशिवेनैव सामरस्यपदं गताम्
॥ १६३ ॥
यजेद् ध्यायेन्नमस्कुर्याद् यद्
यदिच्छेदनन्यधीः ।
षट्चक्र भेद के द्वारा कुण्डलिनी का
जागरण- दो दलों वाले मूलाधार कमल, तीन दलों वाले
स्वाधिष्ठान, षोडशदल वाले मणिपुर, द्वादशान्त,
अष्टदल विशुद्ध, दशदलहृदय, षड्दल और चतुर्दल वाले कण्ठ और भाल में देवी की पूजा जिह्वा से नाद का
उच्चारण करते हुए करना चाहिये। सूक्ष्म षट्चक्र का भेदन करने वाली वह देवी
ब्रह्ममार्ग से जाने वाली अमृत का क्षरण करती हुई, क्षीरधारा
के समान दिव्य द्रव का पान कर सदाशिव के साथ समरसता को प्राप्त हुई है। साधक
एकचित्त होकर जिस-जिस की कामना करता हो ( उस उस उद्देश्य की पूर्ति के लिये देवी
का ) यजन, ध्यान और नमन करे ।। १६०-१६४ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
एतदीयफलश्रुतिः
सामरस्यपदं प्राप्तां यः क्षणं
चिन्तयेत् सुधीः ॥ १६४ ॥
राजसूयाश्वमेधानां तेनेष्टा
यज्ञकोटयः ।
काष्ठां कलां क्षणं व्याप्य यः
स्थितस्तत्र साधकः ॥ १६५ ॥
वाजपेयः पुण्डरीको विश्वजित् तेन वै
कृतः ।
ध्यान का फल –
जो विद्वान् (देवी के साथ) सामरस्यपद को प्राप्त इसका एक क्षण के
लिये भी ध्यान करता है (समझ लेना चाहिये कि) उसने करोड़ों राजसूय और अश्वमेध यज्ञ
कर लिये हैं। जो साधक एक काष्ठा कला या क्षण तक उस (ध्यानावस्था) में स्थित रहता
है मानो उसने वाजपेय पुण्डरीक और विश्वजित् याग कर लिया ।। १६४-१६६ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
कुण्डलिन्याः स्वस्थाननिवेश:
पुनस्तेनैव मार्गेण नयेत्
कुण्डलिनीमधः ॥ १६६ ॥
पश्यन्त्यापरया तत्र वैखर्या
वर्त्मनापि च ।
संयोज्य लम्बिकामार्गात्तालुमूलादधो
नयेत् ॥ १६७ ॥
जिह्वयाकृष्य तां विद्यां हृदब्जे
विनिवेशयेत् ।
आमूलाद् ब्रह्मरन्ध्रान्तमेकीभूतं
विचिन्तयेत् ॥ १६८ ॥
हृदब्जादपि निष्काश्य तथा
नाडीचयादपि ।
प्रदीपकलिकाकारां कन्द एव निवेशयेत्
॥ १६९ ॥
कुण्डलिनी का स्वस्थान में निवेश -
( साधक जिस मार्ग से कुण्डलिनी को ब्रह्मरन्ध्र तक ले गया था) पुनः उसी मार्ग से
कुण्डलिनी को नीचे ले जाय । इस क्रम में वह पश्यन्ती-परा- बैखरी के मार्ग से भी
उसे संयुक्त कर लम्बिकामार्ग से तालुमूल से नीचे ले आये। जिह्वा से आकर्षण कर उस
विद्या का हृदयकमल में प्रवेश कराये । फिर मूलाधार से लेकर ब्रह्मरन्ध्र तक एकीभूत
रूप में ध्यान करे । तत्पश्चात् प्रदीप की कलिकासदृश उसको हृदय और नाड़ीसमूह से
निकाल कर कन्द में प्रविष्ट करा दे ।। १६६-१६९ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
योगाभ्यासस्यास्य माहात्म्याभिधानम्
एतदभ्यासयोगेन यत्फलं तच्छृणुष्व मे
।
न क्षुत् पिपासा न जरा न
मृत्युर्नामयादि च ॥ १७० ॥
पुरीषमूत्रे नैव स्यान्निद्रा
तन्द्रा भवेन्न च ।
यावान् दोषः शरीरस्य तेषु कोऽपि न
जायते ॥ १७१ ॥
अतीतानागतं वेत्ति वासिद्धिरपि
जायते ।
सरस्वती तस्य मुखे स्वयमेत्य वसेत्
सदा ॥ १७२ ॥
परार्द्धजीवी च भवेत् कामरूपी
भवत्यपि ।
देवानाकर्षयेच्चापि खेचरो जायते तथा
॥ १७३ ॥
वर्णितुं शक्यते नास्य महिमा
वर्षकोटिभिः ।
साक्षात् स रुद्रो भवति
पाञ्चभौतिकदेहभृत् ॥ १७४ ॥
प्राप्नोति मोक्षमेवासौ
षण्मासाभ्यन्तरे नरः ।
इस योगाभ्यास का माहात्म्य –
इस अभ्यासरूपी योग से जो फल मिलता है वह मुझसे सुनो । इससे (योगी
को) भूख प्यास जरा मृत्यु रोग नहीं होते । मल-मूत्र का त्याग और निद्रा तन्द्रा भी
नहीं होती। शरीर के जितने दोष हैं उनमें से कोई भी नहीं होता। ( वह साधक) अतीत और
अनागत को जान लेता है। उसको वाकसिद्धि प्राप्त हो जाती है । उसके मुख में सदा
सरस्वती निवास करती है। वह कामरूपी और परार्द्धजीवी होता है। देवताओं को आकृष्ट
करता और आकाशचारी हो जाता है। उसकी महिमा का वर्णन करोड़ों वर्ष तक नहीं किया जा
सकता। पाञ्चभौतिक शरीर धारण किया हुआ भी वह साक्षात् रुद्र हो जाता है। यह मनुष्य
छह महीने के भीतर मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।। १७०-१७५ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
मोक्षोत्कर्षस्य सिद्धीनां चापकर्षस्याभिधानम्
मोक्षैकसाधकस्यास्य विधेरन्यास्तु
सिद्धयः ॥ १७५ ॥
केवलं विघ्नकारिण्य इत्येतद् विद्धि
पार्वति ।
मूढास्तु केवलं
सिद्धीरभिकाङ्क्षन्ति नित्यशः ॥ १७६ ॥
मोक्षार्थमेव यतते धीरः संसारसागरे
।
नाड्यश्चतुर्दश प्रोक्ताः पूर्वं
मुख्यतमा हि याः ॥ १७७ ॥
तासु वायुनिरोधेन भूयस्यः स्युर्हि
सिद्धयः ।
तेषां प्रकारा नाख्याता
विस्तरत्वान् मया प्रिये ॥ १७८ ॥
केवलं सिद्धिहेतुत्वं तेषां
नात्रोपयोगिता ।
विधिमेनं विधातुं यो न समर्थो
विमूढधीः ॥ १७९ ॥
स चिन्तयेत्तु साकारां तां देवीं
हृदयाम्बुजे ।
मोक्ष उत्कृष्ट और सिद्धियाँ
अपकृष्ट हैं-मोक्ष के साधक इस (योगी) के लिये सिद्धियाँ विधि से भिन्न प्रकार की
होती हैं। हे पार्वति ! यह समझ लो कि वे केवल विघ्नकारिणी ही होती हैं। मूर्ख लोग
प्रतिदिन केवल सिद्धियों को चाहते हैं किन्तु धीरपुरुष इस संसारसागर में मोक्ष के
लिये ही प्रयास करते हैं। पहले जो मुख्य चौदह नाड़ियाँ बतलायी गयीं उनमें
प्राणवायु को रोकने से सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं । हे प्रिये! विस्तार के भय से
मैंने उन (सिद्धियों) के भेद नहीं बताये । यहाँ उन सिद्धियों की उपयोगिता केवल
(सांसारिक वैभव की) हेतु बनने में नहीं है। (वरन् उनकी सहायता से देवी के निराकार
चिन्तन का मार्ग प्रशस्त करना चाहिये)। जो मूढ इस विधि का अनुष्ठान करने में समर्थ
नहीं है वह अपने हृदयकमल में साकार उसका चिन्तन करे ।।१७५-१८०।।
ध्यानं सम्प्रति वक्ष्यामि शृणु
देवि समाहिता ॥ १८० ॥
ध्यानमेव हि जन्तूनां कारणं
सौख्यमोक्षयोः ।
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
देव्या: साकाररूपध्यानम्
हृत्पद्माष्टदलोपेते कन्दमूलसमुत्थिते
॥ १८१ ॥
द्वादशाङ्गुलनालेऽस्मिंश्चतुरङ्गुलमुच्छ्रिते।
प्राणायामैर्विकसिते केशरान्वितकर्णिके
॥ १८२ ॥
हृत्सरोरुहमध्येऽस्मिन्
प्रकृत्यात्मिककर्णिके ।
अष्टैश्वर्य्यदलोपेते
विद्याकेशरसंयुते ॥ १८३ ॥
ज्ञाननाले महाकन्दे
प्राणायामप्रबोधिते ।
विश्वार्चिषं महावह्निं वमन्तीं
सर्वतोमुखीम् ॥ १८४ ॥
भयङ्करी जगद्योनिं
ललज्जिह्वाकरालिनीम् ।
भासयन्तीं स्वकं देहमापादतलमस्तकम्
॥ १८५ ॥
प्रेतभूतपिशाचादिडाकिनीयोगिनीगणैः ।
भैरवाद्यैः परिवृतां
श्मशानतलवासिनीम् ॥ १८६ ॥
ज्वलत्करालज्वलनचितामध्यकृतस्थितिम्
।
शवोपरि समारूढां
विमुक्तचिकुरोच्चयाम् ॥ १८७ ॥
निष्क्रान्तरसनाकम्पप्रकम्पितजगत्त्रयाम्
।
दन्तमण्डलनिर्गच्छच्चारुचन्द्रिकया
तया ।। १८८ ॥
द्योतयन्तीं जगत् सर्वं
चन्द्रमण्डलवत् सदा ।
तुङ्गपीवरवक्षोजभरनम्रकलेवराम् ॥
१८९ ॥
प्रत्यालीढपदां
देवीमट्टहासभयप्रदाम् ।
पार्श्वस्थिताभ्यां फेरुभ्यामतीव
विकरालिनीम् ॥ १९० ॥
नृमुण्डमालासन्दोहकृतमालावगुण्ठिनीम्
।
सद्यः कृत्तनृमुण्डाभ्यां
कुण्डलद्वयशोभिनीम् ॥ १९१ ॥
कठोरपीवरानीलदो: षोडशविराजिताम् ।
नरान्त्रविहिताबद्धयोगपट्टपरिच्छदाम्
॥ १९२ ॥
दिगम्बरां खर्वतनुं हसन्तीं
कामलालसाम् ।
संवर्त्तकालज्वलनदुर्निरीक्ष्यतनुप्रभाम्
॥ १९३ ॥
कल्पान्तघोषमार्तण्डकोटिस्तम्भनकारिणीम्
।
निर्वातदीपवत्तस्मिन् दीपितां
हव्यवाहने ॥ १९४ ॥
ततस्तस्य शिखामध्ये संस्थितां
जगदम्बिकाम् ।
ध्यात्वा कामकलाकालीं सोऽहमस्मीति
भावयेत् ॥ १९५ ॥
तद्रूपतां समासाद्य मुक्तिं तेनैव
गच्छति ।
देवी के साकार रूप का
ध्यान — हे
देवि ! अब मैं (उसका ध्यान बतलाऊँगा । सावधान होकर सुनो। ध्यान ही जीवों के सुख और
मोक्ष का कारण है । कन्दरूपी मूल से उठा हुआ हृदयकमल आठ दलों वाला है। उसका नाल
बारह अगुल का है (अर्थात् मूलाधार से हृदय तक की दूरी बारह अङ्गुल है) । यह कमल
चार अङ्गुल ऊँचा है। इसकी कर्णिका में केशर है और यह प्राणायाम के द्वारा विकसित
है । इस हृदयकमल के बीच प्रकृति कर्णिका के रूप में है । अष्ट सिद्धियाँ (उस कमल
के) आठ दल हैं। विद्या केशर है। ज्ञान नाल है। ऐसा महाकन्द जब प्राणायाम से
प्रबोधित होता है तो उसमें (कामकलाकाली का ध्यान करना चाहिये । वह काली)
विश्वज्वाला वाली महा अग्नि का वमन कर रही है। परिपूर्ण, भयङ्कर,
संसार का कारण है । लपलपाती हुई जिह्वा के कारण विकराल है। पैर से
लेकर मस्तक तक अपने शरीर को भासित कर रही है। प्रेत, भूत,
पिशाच आदि डाकिनी एवं योगिनीगणों तथा भैरव आदि से परिवृत है। जलती
हुई विकराल अग्नि की चिता के मध्य में स्थित, शब के ऊपर आरूढ,
खुले बालों वाली, (मुँह के अन्दर से बाहर
निकली हुई जीभ के कम्प से तीनों लोकों को कँपा देने वाली, दाँतों
से निकलने वाली चारुचन्द्रिका से समस्त संसार को चन्द्रमण्डल के समान सदा प्रकाशित
करने वाली हैं। उनका शरीर ऊँचे-चौड़े स्तनों के भार से नम्र है। पैर आगे की ओर
बढ़ा है। अट्टहास से भय देने वाली है। अगल-बगल दो शृगालिने स्थित हैं जिनसे वह
अतीव विकराल हैं। नरमुण्डसमूह की माला पहनी है। तत्काल काटे गये दो नरमुण्डों के
कुण्डल से शोभायमान हैं। कठोर पुष्ठ नीली सोलह भुजाओं ( की करधनी से) शोभायमान
हैं। मनुष्य की आँतों से योगपट्ट बाँधी हैं । दिगम्बर, छोटी
देहवाली, हँसती हुई, कामासक्त, प्रलय काल की अग्नि की भाँति दुनिरीक्ष्य शरीर प्रभावाली है। कल्प के अन्त
में उत्पन्न हुए शब्द से करोड़ों सूर्यों को स्तम्भित करने वाली तथा उस अग्नि में
निर्वातदीप के समान दीपित हैं। उस अग्निशिखा के मध्य स्थित जगदम्बा कामकलाकाली का
ध्यान कर 'सोऽहमस्मि' (मैं वहीं
कामकला काली हूँ) ऐसी भावना करनी चाहिये। साधक तद्रूपता को प्राप्त कर उसी से मुक्त
हो जाता है ।। १८०-१९६ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
ध्यानविधिना विविधसिद्धिप्राप्त्युपायस्य वर्णनम्
अथवा सिद्धिलिप्सा चेद भवत्येव न
संशयः ॥ १९६ ॥
ध्यायन् वै पञ्चघटिकाः सर्वरोगैः
प्रमुच्यते ।
घटिकादशक ध्यानात् पृथिव्या
जयमाप्नुयात् ॥ १९७ ॥
नाडीपञ्चदशध्यानाद् वह्निनासौ न
दह्यते ।
घटिकाविंशतिध्यानाद् वायुवद्
व्योमगो भवेत् ॥ १९८ ॥
मूत्रं पुरीषं जयति पञ्चविंशतिनाडिभिः
।
सम्पूर्णदिवसेनैव सर्वसिद्धिः
प्रजायते ॥ १९९ ॥
अहोरात्रेण देवेशि जीवन्मुक्तो
भवेन्नरः ।
इति योगविधिः सर्वः कथितस्ते मया
क्रमात् ॥ २०० ॥
ध्यान से विविध सिद्धियाँ
- अथवा यदि (साधक को) सिद्धिलाभ की इच्छा हो तो निःसन्देह वह पाँच घड़ी (= २ घण्टा)
ध्यान कर समस्त रोगों से मुक्त हो जाता है । दश घड़ी ध्यान करने से पृथिवी पर विजय
प्राप्त करता है। पन्द्रह घड़ी ध्यान करने से वह अग्नि से नहीं जलता । बीस घटिका
तक ध्यान करने से वायु के समान व्योमचारी हो जाता है। पच्चीस नाडी तक ध्यान से
मल-मूत्र पर नियन्त्रण प्राप्त करता है । पूरा एक दिन ध्यान करने से सर्वसिद्धि
मिलती है। हे देवेशि ! एक दिन-रात ध्यान करने से मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है। इस
प्रकार मैंने तुमको क्रम से योगविधि बतलायी । १९६-२०० ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
पूजायाः कोटित्रयनिर्देश:
उत्तमो मध्यमः पक्षस्तथैवाधम एव च ।
उत्तमो योगमार्गेण मध्यमो
ध्यानसंश्रयात् ॥ २०१ ॥
पूजाध्यानादिभिर्ज्ञेयोऽप्यधमाराधनक्रमः।
कृते युगे वा त्रेतायां योग
एवोत्तमो विधिः ॥ २०२ ॥
ध्यानमेव द्वापरादौ कलौ न्यासार्चनं
खलु ।
अल्पायुषोऽल्पमेधाश्च स्वल्पप्रज्ञा
महालसाः ॥ २०३ ॥
दुराचारा नास्तिकाश्च कामलोभपरायणाः
।
ईदृशाश्च नराः सर्वे भविष्यन्ति कलौ
युगे ॥ २०४ ॥
नायं योगो महेशानि भविष्यति गुरुं
विना ।
केवलं न्यासपूजादि करिष्यन्ति
फलार्थिनः ॥ २०५ ॥
योगविधि की श्रेणियाँ
- ( यह योगविधि) उत्तम मध्यम और अधम (तीन प्रकार की) होती है । उत्तमविधि योगमार्ग
की,
मध्यम ध्यान का आश्रयण और पूजा ध्यान आदि अधम आराधन का क्रम हैं।
सत्ययुग अथवा त्रेता में योग ही उत्तमविधि थी । द्वापर में ध्यान और कलियुग में
न्यास, पूजा (प्रशस्य मानी गयी है। कलियुग में मनुष्य अल्पायु,
मन्दबुद्धि, स्वल्पप्रज्ञा वाले, महाआलसी, दुराचारी, नास्तिक,
कामी और लोभी होंगे। हे महेशानि! यह योग गुरु के बिना नहीं किया जा
सकता । फल अर्थात् सिद्धि चाहने वाले केवल न्यास. पूजा आदि करेंगे । २०१-२०५ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
विश्वासस्य फलदायकत्वाभिधानम्
तथाप्यास्थावतां देवि फलं किञ्चित्
प्रयच्छति ।
एवं ज्ञात्वा तु यः कुर्याद्
ध्यानन्यासार्चनानि हि ॥ २०६ ॥
अवश्यं फलभाग् भूयान्नात्र कार्या
विचारणा ।
ध्यानेऽर्चने जपे न्यासे होमे च
बलिकर्मणि ॥ २०७ ॥
भावना यादृशी यस्य सिद्धिः स्यादेव
तादृशी ।
इति ते कथितो देवि प्रपञ्चः
कामकालिकः ॥ २०८ ॥
वद सत्यं पुनर्मत्तः किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि
॥ २०९ ॥
विश्वास फलदायक है- ( यद्यपि कलियुग
में योगी और ध्यानी नहीं होते) तथापि हे देवि! आस्था वाले को (यह विधि) कुछ फल
देती ही है । ऐसा जानकर जो व्यक्ति ध्यान न्यास अर्चन करता है वह अवश्य फल का भागी
होता है । इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये। ध्यान पूजा जप न्यास होम और बलि-कार्य
के विषय में जिसकी जैसी भावना होती है उसको वैसी सिद्धि मिलती है । हे देवि ! यह
मैंने तुमको कामकलाकाली का विस्तार बतलाया। सच बताओ कि तुम मुझसे और क्या सुनना
चाहती हो ॥ २०६ २०९ ॥
॥ इत्यादिनाथविरचितायां
पञ्चशतसाहस्त्र्यां महाकालसंहितायां सामान्यविशेषप्रयोगो नाम सप्तमः पटलः ॥ ७ ॥
इस प्रकार श्रीमद् आदिनाथविरचित
पचास हजार श्लोकों वाली महाकाल- संहिता के कामकलाकाली खण्ड के सामान्यविशेषप्रयोग
नामक सप्तम पटल की आचार्य राधेश्याम चतुर्वेदी कृत 'ज्ञानवती' हिन्दी व्याख्या सम्पूर्ण हुई ॥ ७ ॥
आगे जारी ........ महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल 8
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