सरस्वतीतन्त्रम् प्रथमः पटलः
सरस्वतीतन्त्रम् प्रथमः पटलः- सरस्वती
हिन्दू धर्म की प्रमुख वैदिक एवं पौराणिक देवियों में से हैं। सनातन धर्म
शास्त्रों में दो सरस्वती का वर्णन आता है एक ब्रह्मा पत्नी सरस्वती एवं एक
ब्रह्मा पुत्री तथा विष्णु पत्नी सरस्वती। ब्रह्मा पत्नी सरस्वती मूल प्रकृति से
उत्पन्न सतोगुण महाशक्ति एवं प्रमुख त्रिदेवियो मे से एक है एवं विष्णु की पत्नी
सरस्वती ब्रह्मा के जिव्हा से प्रकट होने के कारण ब्रह्मा की पुत्री मानी जाती है
कई शास्त्रों में इन्हें मुरारी वल्लभा (विष्णु पत्नी) कहकर भी संबोधन किया गया
है। धर्म शास्त्रों के अनुसार दोनों देवियां ही समान नाम स्वरूप ,
प्रकृति ,शक्ति एवं ब्रह्मज्ञान-विद्या आदि की
अधिष्ठात्री देवी मानी गई है इसलिए इनकी ध्यान आराधना में ज्यादा भेद नहीं बताया
गया है।
सरस्वतीतन्त्रम् क्रमशः छ पटल में
इसका वर्णन किया गया है । सरस्वतीतन्त्रम् प्रथमः पटलःमें माता पार्वती ने आशुतोष
भगवान शिव से मन्त्रचैतन्य तथा योनिमुद्रा के तत्त्व के विषय में पूछा जिसे की आदिदेव
ने बतलाया है ।
अथ सरस्वतीतन्त्रम् प्रथमः पटलः
श्रीपार्वत्युवाच -
मन्त्रार्थं मन्त्रचैतन्यं
योनिमुद्रां न वेत्तियः ।
शतकोटिजपेनापि तस्य विद्या न
सिध्यति ॥ १॥
महादेव महादेव इति यत् पूर्वसूचितम्
।
एतत्तत्वं महादेव कृपया वद् शङ्कर ॥
२॥
पार्वती कहती हैं -महादेव ! जो
मन्त्रार्थः, मन्त्रचैतन्य तथा योनिमुद्रा
नहीं जानते, उन्हें शतकोटि संख्यात्मक जप करने से भी विद्या
सिद्ध नहीं होती । आपने पहले भी यही कहा हैं । हे शङ्कर ! इस तत्त्वको (पुनः)
कृपापूर्वक कहिये ॥ १-२॥
ईश्वर उवाच -
मन्त्रार्थं परमेशानि सावधानावधारय
।
तथाच मन्त्रचैतन्यं निर्वाणमुत्तमोत्तमम्
॥ ३॥
प्रसङ्गात्परमेशानि निगदामि
तवाज्ञया ।
मूलाधारे मूलविद्यां
भावयेदिष्टदेवताम् ॥ ४॥
ईश्वर कहते हैं -हे परमेश्वरी ! तुम
सावधान होकर मन्त्रार्थ तथा मन्त्र चैतन्य को सुनो । हे परमेश्वरी ! तुम्हारी आज्ञा
के अनुसार प्रसंगवशात् उत्कृष्टतम स्थिति निर्वाण के सम्बन्ध मे भी कहूंगा ।
मूलाधार पद्म में अवस्थित मूलविद्या का (कुण्डलिनी का) इष्ट रूप में चिन्तन करो ॥
३-४॥
शुद्धस्फटिकसङ्काशां भावयेत्
परमेश्वरीम् ।
भावयेदक्षरश्रेणी मिष्टविद्यां
सनातनीम् ॥ ५॥
परमेश्वरी की भावना शुद्ध निर्मल
स्फटिक के समान करना चाहिए । (एक्ष्त्र स्पचे) उस मूलाधार कमल मे स्थित व,
श, ष, स अक्षरो को
सनातनी इष्ट विद्या रूप से भावना करो ॥ ५॥
मुहूर्तार्द्धं विभाव्यैतां
पश्चाद्ध्यानपरो भवेत् ।
ध्याने कृत्वा महेशानि
मुहूर्तार्द्ध ततः परम् ॥ ६॥
ततो जीवो महेशानि मनसा कमलेक्षणे ।
स्वाधिष्ठानं ततो गत्वा
भावयेदिष्टदेतताम् ॥ ७॥
बन्धूकारूणसङ्काशां
जवासिन्दूरसन्निभाम् ।
विभाव्य अक्षरश्रेणीं पद्ममध्यगतां
पराम् ॥ ८॥
ततो जीवः प्रसन्नात्मा पक्षिणा सह
सुन्दरि ।
मणिपूरं ततो गत्वा
भावयेदिष्टदेवताम् ॥ ९॥
जीव मुहूर्तमात्रं काल पर्यन्त इनका
चिन्तन करके ध्यानरत हो जाये । हे महेश्वरी ! हे कमलनेत्रों वाली ! तदनन्तर मन
द्वारा स्वाधिष्ठान चक्र मे जाकर इष्टदेव का चिन्तन करे । वहाँ बन्धूकारूण,
जवापुष्प तथा सिन्दूर के समान गाढे रक्तवर्ण युक्त अक्षर ब, भ, म, य, र, ल की इष्टदेवता रूप से भावना करके प्रसन्न-चित्त
हो जाये । हे सुन्दरी ! वह प्रसन्नचित्त जीव मन द्वारा मणिपूर चक्र मे जाकर इष्ट
का चिन्तन करे ॥ ६-९॥
विभाव्य अक्षरश्रेणीं पद्ममध्यगतां
पराम् ।
शुद्धहाटकसङ्काशां शिवपद्मोपरि
स्थिताम् ॥ १०॥
ततो जीवो महेशानि पक्षिणा सह
पार्वति ।
हृत्पद्मं प्रययौ शीघ्रं
नीरजायतलोचने ॥ ११॥
इष्टविद्यां महेशानि भावयेत्
कमलोपरि ।
विभाव्य अक्षरश्रेणीं
महामरकतप्रभाम् ॥ १२॥
ततो जीवो वारारोहे विशुद्धं प्रययौ
प्रिये ।
तत्पद्मगहनं गत्वा पक्षिणा सह
पार्वति ॥ १३॥
इष्टविद्यां महेशानि आकाशोपरि
चिन्तयेत् ।
पक्षिणा सह देवेशि खञ्जनाक्षि
शुचिस्मिते ॥ १४॥
इष्टविद्या महेशानि
साक्षादब्रह्मस्वरूपिणीम् ।
विभाष्य अक्षरश्रेणीं हरिद्वर्णां
वरानने ॥ १५॥
आज्ञाचक्रे महेशानि षट्चक्रे
ध्यानमाचरेत् ।
षट्चक्रे परमेशानि ध्यानं कृत्वा
शुचिस्मिते ॥ १६॥
ध्यानेन परमेशानि यद्रूपं
समुपस्थितम् ।
तदेव परमेशानि मन्त्रार्थं विद्धि
पार्वति ॥ १७॥
मणिपूर चक्रस्थ दशदलपद्म में
विशुद्ध अक्षर श्रेणी ड ढ ण त थ द ध न प फ का शिरः पद्म के ऊपर स्थित परमदेवतारूप से
चिन्तन करे । हे महेश्वरी ! हे कमललोचनी ! तदनन्तर जीव शीघ्रता से (मन द्वारा)
हृदयकमल मे पहुँचे । हे महेशानी ! इष्टविद्या का चिन्तन पद्म के ऊपर स्थित रूप से करे
। वर्हां अक्षर श्रेणी क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ (द्वादशदलपद्म) का चिन्तन महामरकत मणि के वर्ण से करे । हे पार्वती ! हे
सुन्दरी ! तत्पश्चात् जीव विशुद्ध कमल में जाकर वहाँ हरित वर्ण के अक्षर श्रेणी
(१६ स्वरवर्ण का) का चिन्तन साक्षात् ब्रह्मरूपिणी इष्टविद्या-रूपेण करे । इसके
पश्चात् आज्ञाचक्र में (मन द्वारा) जाकर उस चक्र मे स्थित अक्षर ह, क्ष के साथ अभेद भावना से इष्ट देवता की भावना करे ! हे शुचिस्मिते ! यह षट्चक्र
ध्यान का क्रम हैं । इस ध्यान के द्वारा जो रूप प्रतिभात होता है, वही मन्त्रार्थ है ॥ १०-१७॥
॥ इति सरस्वतीतन्त्रे प्रथमः पटलः ॥
॥ सरस्वतीतन्त्रम् का प्रथम पटल समाप्त ॥
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