सरस्वतीतन्त्र चतुर्थ पटल

सरस्वतीतन्त्र चतुर्थ पटल

आप सरस्वतीतन्त्र की सीरिज पढ़ रहे हैं जिसका प्रथम पटल, द्वितीय पटलतृतीय पटल अभी तक पढ़ा।अब आगे सरस्वतीतन्त्र चतुर्थ पटल में भगवान आशुतोष मन्त्र का प्राण से सम्बन्ध बतलाते हैं।

सरस्वतीतन्त्र चतुर्थ पटल

सरस्वतीतन्त्रम् चतुर्थः पटलः


ईश्वर उवाच -

यथ वक्ष्यामि देवेशि प्राणयोग श्रृणृऽण्व में ।

विना प्राणं यथा देहः सर्वकर्मसु न क्षमः ॥ १॥

विना प्राणं तथा मन्त्रः पुरश्चर्याशतैरपि ।

मायया पुटिता मन्त्रः सत्वधा जपतः पुनः ॥ २॥

सप्राणो जायते देवि सर्वत्रायं विधिः स्मृतः ।

तथैव दीपनीं वक्ष्ये सर्वमन्त्रेषु भाविनि ॥ ३॥

अन्धकारगृहे यद्वन्न किञ्चित् प्रतिभासते ।

दीपनीवर्जिता मन्त्र स्तथैव परिकीर्त्तितः ॥ ४॥

ईश्वर कहते है - अब प्राणयोग अर्थात् मन्त्र का प्राणसम्बन्ध कहता हूं। हे देवेशी ! उसे श्रवण करो । जैसे प्राणरहित देह कार्य नहीं करता, उसी प्रकार प्राणरहित मन्त्र सैकडो पुरश्चरणो से भी सिद्ध नहीं हो सकता । हे देवीं ``ह्रीं'' मन्त्र से सम्पुटित कर ७ वार मन्त्र जप करने मे वह सप्राण हो जाता हैं । सभी देवो के मन्त्र के साथ यही करना चाहिये । हे भाविनी ! सभी मन्त्रो का दीपनी मन्त्र अब कहूँगा । जैसे दीपक के विना अंधेरे घर मे कुछ नहीं दीखता उसी प्रकार दीपनी के बिना मन्त्र का तत्व प्रकाशित नहीं हो सकता ॥ १-४॥

वेदादिपुटितं मन्त्रं सप्तवारं जपेत् पुनः ।

दीपनीय समाख्याता सर्वत्र परमेश्वरि ॥ ५॥

हे महेश्वरी ! मन्त्र को प्रणव (ॐ) से सम्पुटित करके ७ बार जपे ।यही मंत्रो का दीपनी करण है ॥ ५॥

जातसूतकमादौ स्पादन्ते च मृतसूतकम् ।

सूतकद्वयसंयुक्ता यो मन्त्रः स न सिध्यति ॥ ६॥

मन्त्र जप के आदि मे जन्म का शौच तथा मन्त्र जप के अन्त मे मरण शौच लगता है । अतः अशौचयुक्त मन्त्र सिद्ध नहीं होते ॥ ६॥

वेदादिपुटितं मन्त्रं सप्तबारं जपेन्मुखे ।

जपस्यादौ तथा चान्ते सूतकद्वय ॥ ७॥

इन अशौचो को हटाने के लिये ॐ से पुटित मन्त्र ७ बार जपे ॥ ७॥

अथोच्यते जपस्यात्र क्रमश्च परमादभुतः ।

यं कृत्वा सिद्धिसङ्घानांमधिपो जायते नरः ॥ ८॥

अब जप का अत्यन्त अद्भुत क्रम कहता हूँ, जिसके अनुष्ठान से मनुष्य समस्त सिद्धि प्राप्त कर लेता हूं ॥ ८॥

नतिर्गुर्वादीनामादौ ततो मन्त्रशिखां भजेत् ।

ततोऽपि मन्त्रचैतन्यं मन्त्रार्थभावनां ततः ॥ ९॥

प्रथमतः गुरु प्रभृति को प्रणाम करे तदन्तर मंत्रशिखा जपे । तत्पश्चात् मन्त्र चैतन्य की भावना करके उसके उपरान्त मन्त्रार्थ भावना करे ॥ ९॥

गुरु ध्यानं शिरःपद्मं हृदीष्टध्यानमावहन् ।

कुल्लुकाञ्च ततः सेतुं महासेतुमनन्तरम् ॥ १०॥

निर्वाणञ्च ततो देवि योनिमुद्राविमावनाम् ।

अङ्गन्यासं प्राणायाम जिह्वाशोधनमेव च ॥ ११॥

प्राणयोग दीपनीञ्च अशौचभङ्गः मेव च ।

भ्रूमध्ये वा नसोरग्रै दृष्टिं सेतुजपं पुनः ॥ १२॥

सेतुमशौचभङ्गञ्च प्राणायाममिति क्रमात् ।

एतत्ते कथित देवि रहस्य जपकर्मणः ॥ १३॥

गोपनीयं प्रयत्नेन शपथस्मरणान्मम ।

एतत्तन्त्रं गृहे यस्य तत्रांह सुरवन्दिते ।

तिष्ठामि नात्र सन्देहो गोप्तव्यममरेष्वपि ॥ १४॥

शिर स्थित पद्म मे गुरु ध्यान करे । हृदय मे इष्टदेव का ध्यान करके कुल्लुका जपे । तदन्तर सेतु जप, तत्पश्चात् महासेतु जप करना चाहिये । हे देवी ! अब क्रमशः यह करे -

निर्वाण जप

योनि मुद्रा भावना

अंगन्यास

प्राणायाम

जिह्वाशोधनन्

प्राणयोग

दीपनी कर्म जप

अशौचभङ्ग जप

भ्रूमध्य में या नासाग्र मे दृष्टि करके सेतु जप करे । पुनः जप के अन्त में दह क्रमशः करे -

सेतु जप

अशोचभङ्ग जप

प्राणायाम

हे देवी ! तुमसे यह सब जप कर्म का रहस्य कहा । मेरो प्रतिज्ञा को याद रखकर इसे गुप्त रखना । हे सुरो द्वारा नमस्कृते ! जिसके घर मे यह तन्त्र है, वहाँ मैं रहता हूँ, यह निःसदिग्ध है । उसे देवताओं से भी गुप्त रखना । ९-१४॥

॥ इति सरस्वतीतन्त्रे चतुर्थः पटलः ॥

॥ सरस्वतीतन्त्र का चतुर्थ पटल समाप्त ॥

शेष जारी.........आगे पढ़े- सरस्वतीतन्त्र पञ्चम पटल

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