आमलकी एकादशी
इससे पूर्व आपने एकादशी व्रत कथा
में फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष में विजया एकादशी व्रत कथा पढ़ा। अब पढेंगे की-
फाल्गुन मास में शुक्ल पक्ष में आने वाली एकादशी को आमलकी कहते हैं। आमलकी यानी
आंवला को शास्त्रों में उसी प्रकार श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है जैसा नदियों में गंगा
को प्राप्त है और देवों में भगवान विष्णु को। विष्णु जी ने जब सृष्टि की रचना के
लिए ब्रह्मा को जन्म दिया उसी समय उन्होंने आंवले के वृक्ष को जन्म दिया। आंवले को
भगवान विष्णु ने आदि वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया है। इसके हर अंग में ईश्वर
का स्थान माना गया है। भगवान विष्णु ने कहा है जो प्राणी स्वर्ग और मोक्ष प्राप्ति
की कामना रखते हैं उनके लिए फाल्गुन शुक्ल पक्ष में जो पुष्य नक्षत्र में एकादशी
आती है उस एकादशी का व्रत अत्यंत श्रेष्ठ है। इस एकादशी को आमलकी एकादशी के नाम से
जाना जाता है।
आमलकी एकादशी व्रत कथा
मांधाता बोले कि हे वशिष्ठजी! यदि
आप मुझ पर कृपा करें तो किसी ऐसे व्रत की कथा कहिए जिससे मेरा कल्याण हो। महर्षि
वशिष्ठ बोले कि हे राजन्, सब व्रतों से उत्तम
और अंत में मोक्ष देने वाले आमलकी एकादशी के व्रत का मैं वर्णन करता हूं। यह एकादशी
फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष में होती है। इस व्रत के करने से समस्त पाप नष्ट हो
जाते हैं। इस व्रत का फल एक हजार गौदान के फल के बराबर होता है। अब मैं आपसे एक
पौराणिक कथा कहता हूं, आप ध्यानपूर्वक सुनिए।
एक वैदिश नाम का नगर था जिसमें
ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण आनंद
सहित रहते थे। उस नगर में सदैव वेद ध्वनि गूंजा करती थी तथा पापी, दुराचारी तथा नास्तिक उस नगर में कोई नहीं था। उस नगर में चैतरथ नाम का
चन्द्रवंशी राजा राज्य करता था। वह अत्यंत विद्वान तथा धर्मी था। उस नगर में कोई
भी व्यक्ति दरिद्र व कंजूस नहीं था। सभी नगरवासी विष्णु भक्त थे और आबाल-वृद्ध
स्त्री-पुरुष एकादशी का व्रत किया करते थे।
एक समय फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष
की आमलकी एकादशी आई। उस दिन राजा, प्रजा तथा
बाल-वृद्ध सबने हर्षपूर्वक व्रत किया। राजा अपनी प्रजा के साथ मंदिर में जाकर
पूर्ण कुंभ स्थापित करके धूप, दीप, नैवेद्य,
पंचरत्न आदि से धात्री (आंवले) का पूजन करने लगे और इस प्रकार
स्तुति करने लगे-
हे धात्री! तुम ब्रह्मस्वरूप हो,
तुम ब्रह्माजी द्वारा उत्पन्न हुए हो और समस्त पापों का नाश करने
वाले हो, तुमको नमस्कार है। अब तुम मेरा अर्घ्य स्वीकार करो।
तुम श्रीराम चन्द्रजी द्वारा सम्मानित हो, मैं आपकी
प्रार्थना करता हूं, अत: आप मेरे समस्त पापों का नाश करो। उस
मंदिर में सब ने रात्रि को जागरण किया।
रात के समय वहां एक बहेलिया आया,
जो अत्यंत पापी और दुराचारी था। वह अपने कुटुम्ब का पालन जीव-हत्या
करके किया करता था। भूख और प्यास से अत्यंत व्याकुल वह बहेलिया इस जागरण को देखने
के लिए मंदिर के एक कोने में बैठ गया और विष्णु भगवान तथा एकादशी माहात्म्य की कथा
सुनने लगा। इस प्रकार अन्य मनुष्यों की भांति उसने भी सारी रात जागकर बिता दी।
प्रात:काल होते ही सब लोग अपने घर
चले गए तो बहेलिया भी अपने घर चला गया। घर जाकर उसने भोजन किया। कुछ समय बीतने के
पश्चात उस बहेलिए की मृत्यु हो गई।
मगर उस आमलकी एकादशी के व्रत तथा
जागरण से उसने राजा विदूरथ के घर जन्म लिया और उसका नाम वसुरथ रखा गया। युवा होने
पर वह चतुरंगिनी सेना के सहित तथा धन-धान्य से युक्त होकर 10 हजार ग्रामों का पालन करने लगा। वह तेज में सूर्य के समान, कांति में चन्द्रमा के समान, वीरता में भगवान विष्णु
के समान और क्षमा में पृथ्वी के समान था। वह अत्यंत धार्मिक, सत्यवादी, कर्मवीर और विष्णु भक्त था। वह प्रजा का
समान भाव से पालन करता था। दान देना उसका नित्य कर्तव्य था।
एक दिन राजा शिकार खेलने के लिए
गया। दैवयोग से वह मार्ग भूल गया और दिशा ज्ञान न रहने के कारण उसी वन में एक
वृक्ष के नीचे सो गया। थोड़ी देर बाद पहाड़ी म्लेच्छ वहां पर आ गए और राजा को
अकेला देखकर 'मारो, मारो'
शब्द करते हुए राजा की ओर दौड़े। म्लेच्छ कहने लगे कि इसी दुष्ट
राजा ने हमारे माता, पिता, पुत्र,
पौत्र आदि अनेक संबंधियों को मारा है तथा देश से निकाल दिया है अत:
इसको अवश्य मारना चाहिए।
ऐसा कहकर वे म्लेच्छ उस राजा को
मारने दौड़े और अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र उसके ऊपर फेंके। वे सब अस्त्र-शस्त्र
राजा के शरीर पर गिरते ही नष्ट हो जाते और उनका वार पुष्प के समान प्रतीत होता। अब
उन म्लेच्छों के अस्त्र-शस्त्र उलटा उन्हीं पर प्रहार करने लगे जिससे वे मूर्छित
होकर गिरने लगे। उसी समय राजा के शरीर से एक दिव्य स्त्री उत्पन्न हुई। वह स्त्री
अत्यंत सुंदर होते हुए भी उसकी भृकुटी टेढ़ी थी, उसकी आंखों से लाल-लाल अग्नि निकल रही थी जिससे वह दूसरे काल के समान
प्रतीत होती थी।
वह स्त्री म्लेच्छों को मारने दौड़ी
और थोड़ी ही देर में उसने सब म्लेच्छों को काल के गाल में पहुंचा दिया। जब राजा
सोकर उठा तो उसने म्लेच्छों को मरा हुआ देखकर कहा कि इन शत्रुओं को किसने मारा है?
इस वन में मेरा कौन हितैषी रहता है? वह ऐसा
विचार कर ही रहा था कि आकाशवाणी हुई- 'हे राजा! इस संसार में
विष्णु भगवान के अतिरिक्त कौन तेरी सहायता कर सकता है।' इस
आकाशवाणी को सुनकर राजा अपने राज्य में आ गया और सुखपूर्वक राज्य करने लगा।
आमलकी एकादशी व्रत कथा की महिमा
महर्षि वशिष्ठ बोले कि हे राजन्! यह
आमलकी एकादशी के व्रत का प्रभाव था। आमलकी एकादशी एक हजार गौ दान का फल देती हैं।
जो मनुष्य इस आमलकी एकादशी का व्रत करते हैं, वे
प्रत्येक कार्य में सफल होते हैं और अंत में विष्णुलोक को जाते हैं।
आमलकी एकादशी व्रत कथा की विधि
स्नान करके भगवान विष्णु की प्रतिमा
के समक्ष हाथ में तिल, कुश, मुद्रा और जल लेकर संकल्प करें कि मैं भगवान विष्णु की प्रसन्नता एवं
मोक्ष की कामना से आमलकी एकादशी का व्रत रखता हूं। मेरा यह व्रत सफलता पूर्वक पूरा
हो इसके लिए श्री हरि मुझे अपनी शरण में रखें। संकल्प के पश्चात षोड्षोपचार सहित
भगवान की पूजा करें।
भगवान की पूजा के पश्चात पूजन
सामग्री लेकर आंवले के वृक्ष की पूजा करें। सबसे पहले वृक्ष के चारों की भूमि को
साफ करें और उसे गाय के गोबर से पवित्र करें। पेड़ की जड़ में एक वेदी बनाकर उस पर
कलश स्थापित करें। इस कलश में देवताओं, तीर्थों
एवं सागर को आमत्रित करें। कलश में सुगन्धी और पंच रत्न रखें। इसके ऊपर पंच पल्लव
रखें फिर दीप जलाकर रखें। कलश के कण्ठ में श्रीखंड चंदन का लेप करें और वस्त्र
पहनाएं। अंत में कलश के ऊपर श्री विष्णु के छठे अवतार परशुराम की स्वर्ण मूर्ति
स्थापित करें और विधिवत रूप से परशुराम जी की पूजा करें। रात्रि में भगवत कथा व
भजन कीर्तन करते हुए प्रभु का स्मरण करें।
द्वादशी के दिन प्रात: ब्राह्मण को
भोजन करवाकर दक्षिणा दें साथ ही परशुराम की मूर्ति सहित कलश ब्राह्मण को भेंट
करें। इन क्रियाओं के पश्चात परायण करके अन्न जल ग्रहण करें। पश्चिमी राजस्थान में
आंवला वृक्ष नही होने पर औरते खेजड़ी वृक्ष की पुजा करती हैं।
शेष जारी....आगे पढ़े- पापमोचिनी एकादशी व्रत कथा
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