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सरस्वतीतन्त्र द्वितीय पटल
सरस्वतीतन्त्रम् प्रथमः पटलःमें
आपने पढ़ा कि- माता पार्वती ने आशुतोष भगवान शिव से मन्त्रचैतन्य तथा योनिमुद्रा के
तत्त्व के विषय में पूछा जिसे की आदिदेव ने बतलाया । अब सरस्वतीतन्त्र द्वितीय पटल
में आप जानेंगे कि मन्त्र चैतन्य किसे कहते है?
अथ सरस्वतीतन्त्रम् द्वितीयः पटलः
ईश्वर उवाच -
तथाच मन्त्र चैतन्यं लिङ्गागमे
प्रकाशितम् ।
योनिमुद्रा मयाख्याता पुरा ते
रुद्रयामले ॥
इदानीं श्रूयतां देवि निर्वाणं येन
विन्दति ।
प्रपञ्चोऽपि ततो भूत्वा जीवस्तु
पक्षिणा सह ॥
प्रययौ परमं रम्यं निर्वाणं परमं
पदम् ।
सहस्रारं शिवं पूज्यं तन्मध्ये
शाश्वती पुरी ॥
तास्तु देवि पुरीं विद्धि
सर्वशक्तिमयीं प्रिये ।
पक्षिणा सह देवेशि जीवः शीघ्रं
प्रयाति हि ॥ ४॥
ईश्वर कहते हैं -हे देवी ! मन्त्र
चैतन्य किसे कहते है,यह लिंगागम मे कहा
गया हैं । पहले रुद्रयामल तन्त्र में मैने योनिमुद्रास्वरूप का उपदेश दिया हैं ।
अब जिसके द्वारा निर्वाणरूपी परम सुख मिलता है, वह सुनो ।
जीव प्रपंचरूप हो अर्थात् समस्त प्रपंच को, विश्व को,
अपने मे अभेदरूप से देखकर पक्षी के साथ (पक्षी
अर्थात् उर्ध्वगति रूपी स्पन्द के साथ) निर्वाण रूप परम पद मे गमन करता है ।
सहस्रदल कमल मंगलमय है और पूज्य स्थान है । वह नित्य पुरी भी है । हे देवी ! हे
प्रिये ! वह पुरी सर्वशक्तिमयी है । यहाँ यह भावना करो कि विश्व प्रपंच की निर्माणोपयोगी
समस्त सामग्री वहाँ हैं । कुण्डलिनी के साथ जीव को उस पुरी मे ले जाना चाहिये ॥ १-४॥
विभाव्य
अक्षरश्रेणीममृतार्णवशायिनीम् ।
सदाशिवपुरं रम्यं
कल्पवृक्षतलस्थितम् ॥ ५॥
नानारत्नसमाकीर्णं तन्मूलं कमलानने
।
वृक्षञ्च परमेशानि सततं
त्रिगुणात्मकम् ॥ ६॥
पञ्चभूतात्मकं वृक्षं
चतुःशाखासमन्वितम् ।
चतुःशाखां चतुर्वेदं
चतुर्विशतितत्वकम् ॥ ७॥
अब समस्त अक्षर समूह अमृत समुद्र मे
शयन कर रहे हैं, यह चिन्तन करके वक्ष्यमाण विषय
का चिन्तन करे । हे कमलानने ! कल्पवृक्ष के नीचे मनोरम सदाशिवपुरी है । उसका मूल
नानाप्रकार के रत्नो के द्वारा व्याप्त है । हे परमेश्वरी ! वह वृक्ष सर्वदा
त्रिगुणात्मक है, सत्व-रजन्तमोमय है । वह पंचभूतमय वृक्ष
ऋक्-यजुः साम एवं अथर्व रूपी चार शाखाओं से शोभित है । यही २४ तत्वात्मक भी है ॥
५-७॥
चतुर्वर्णयुतं पुष्पं शुक्लं रक्तं
शचिस्मिते ।
पीतं कृष्णं महेशानि पुष्पद्वयं परं
श्रृणु ॥ ८॥
हरितञ्च महेशानि विचित्रं
सर्वमोहनम् ।
षट्पूष्पाणि महेशानि षड्दर्शनमिदं
स्मृतम् ॥ ९॥
अन्यानि क्षुद्रशास्त्राणि शाखानि
मीनलोचने ।
तानि सर्वाणि पत्राणि
सर्वशास्त्राणि चेश्वरि ॥ १०॥
हे शुचिस्मिते ! तप्त वृक्ष का
पुष्प चार वर्ण युक्त है । यथा शुक्ल, रक्त,
पीत एवं कृष्ण । हे महेश्वरी ! और भी दो प्रकार के पुष्प हैं । वे
हैं हरितवर्ण तथा नानाविचित्र वर्ण वाले । वे सभी मन को मोहित करने वाले हैं । ये
६ प्रकार के पुष्प ही षड्दर्शनशास्त्र हैं । हे मीननेत्रे अन्य छोटे-छोटे शास्त्र
वृक्ष की छोटी शाखाये है ॥ ८-१०॥
इतिहासपुराणानि सर्वाणि
वृक्षसंस्थितम् ।
त्वगस्यिमेदमञ्जानि वृक्षशाखानि
यानि च ॥ ११॥
तानि सर्वाणि देवेशि इन्द्रियाणि
प्रकीर्त्तितम् ।
सर्वशक्तिमयं देवि विद्धि त्वं
मीनलोचने ॥ १२॥
इतिहासपुराणादि इस वृक्ष के त्वक्,
अस्थि तथा मेद एवं मज्जारूप हैं । हे देवेशी ! वृक्ष की शाखा आदि को
इन्द्रिय भी कहा गया है । हे मीननेत्रोवाली ! तुम उक्त वृक्ष को सर्वशक्तिमय जानो
॥ ९-१२॥
एवद्भुतं महावृक्षभ्रमरैः
परिशोभितम् ।
कोकिलैः परमेशानि शोभिता
वृक्षपक्षिभिः ॥ १३॥
हे परमेश्वरी ! यह महावृक्ष अमरदेवो
द्वारा परिशोभित है । कोकिल प्रभृति वृक्ष के पक्षियों द्वारा भी यह शोभित है ॥
१३॥
सुशोभितं
देवगणैर्धनरत्नादिकांक्षिभिः ।
एवं कल्पद्रुमं ध्यात्वा तदधो
रत्नवेदिकाम् ॥ १४॥
तत्रोपरि महेशानि पर्यङ्कं भावयेत्
प्रिये ।
सूक्ष्मं हि परमं दिव्यं पर्यङ्क
सर्वमोहनम् ॥ १५॥
धनरत्नादि की अभिलाषा रखने वाले
साधक को देवताओं से शोभित कल्पतरु का चिन्तन करके उसकी छाया मे नीचे रक्खी रत्नमयी
वेदिका की भावना करनी चाहिये । हे प्रिये ! हे महेशानी ! उस वेदिका पर सूक्ष्म परम
दिव्य,
सर्वमोहन पलंग की भावना करे ॥ १४-१५॥
चन्द्रकोटिसमं देवि
सूर्यकोटिसमप्रभम् ।
शीतांशुरश्मिसंयुक्तं
नानागन्धसुमोदितम् ॥ १६॥
नानापुष्पसमूहेन रचितं हेममालया ।
ततः परं महेशानि
योगिनीकोटिचेष्ठितम् ॥ १७॥
योगिनीमुखगन्धेन भ्रमराः प्रपतन्ति
च ।
योगिनी मोहिनी साक्षात् वेष्ठितं
कमलेक्षणे ॥ १८॥
हे देवी ! वह पलंग करोडों चन्द्रमा
के समान तथा करोडों सूर्य के समान प्रभायुक्त हैं । वह चन्द्र किरणो से युक्त तथा
विभिन्न सुगन्धों से आमोदित हैं । यह पलंग नानापुष्प समूह से सजाई गई हैं तथा
स्वर्णमालाओं से सुशोभित हैं । हे महेश्वरी ! यह पलंग करोडों योगिनियों से धिरी
हुई हैं । उन योगिनियो के मुख की सुगन्ध से आकर्षित होकर भ्रमरगण वहाँ आ रहे हैं ।
हे कमलवदने ! जिन योगिनी के लिये यह पलंग घिरी है, वे योगिनी साक्षात् मोहिनीरूप हैं ॥ १७-१८॥
अत्यन्तकोमलं स्वच्छं शुद्धफेनसमं
प्रिये ।
पर्यङ्कः परमेशानि सदाशिवः स्वयं
पुनः ॥ १९॥
हे प्रिये ! वह अत्यन्त कोमल तथा
शुद्ध फेन के समान स्वच्छ पलंग है । हे परमेश्वरी स्वयं सदाशिव ही पलंग स्वरूप हैं
॥ १९॥
जीवः पुष्पं वदेत् देवि भावयेत्तव
पार्वति ।
सदाशिवं महेशानि तन्महाकुण्डलीयुतम्
॥ २०॥
हे देवी ! जीव पुष्प स्वरूप है,
वह तुम्हारी भावना करे । हे महेश्वरी ! महाकुण्डलीयुक्त सदाशिव हैं
॥ २०॥
कामिनीकोटिसंयुक्तं
चामरैर्हस्तसंस्थितमम् ।
एवं विभाव्य मनसि सदा जीवः
शुचिस्मिते ॥ २१॥
हे शुचिस्मिते ! (शुद्ध हास्य
करनेवाली) वे सदाशिव करोडों कामिनीगण से युक्त हैं । कामिनी हाथ मे चामर लिये हैं
। जीव को सदा इसी प्रकार से चिन्तन करना चाहिये ॥ २१॥
यस्य यस्य महेशानि यदिर्ष्ट कमलानने
।
तस्य ज्ञानसमायुक्तो मनसा परमेश्वरि
॥ २२॥
जोवोध्यानपरो भूत्वा जपेदस्य शतं
प्रिये ।
मन्त्राक्षरं महेशानि मातृकापुटितं
क्रमात् ॥ २३॥
हे महेशानी,
परमेश्वरी ! कमलवदने ! जिनका जिनका जो भी इष्ट है, वे मन ही मन उस इष्ट के साथ ज्ञानयुक्त हो ध्यानरत रहें और इष्टदेव के
मन्त्राक्षरो को मातृकावर्ण द्वारा क्रमशः पुटित करके सौ वार जप करें ॥ २२-२३॥
कृत्वा जीवः प्रसन्नात्मा जपेदस्य
शतं प्रिये ।
यत्संख्यापरमारेणौ पार्थिवे
परिवर्त्तते ।
तावद्वर्षसहस्राणि शिवलोके महीयते ॥
२४॥
जीव प्रसन्तचित्त स्थिति मे
इष्टमन्त्र १०० वार जपे । इससे पार्थिव परमाणुओं की जितनी संख्या है,
उतने हजार वर्ष पर्यन्त जीव शिवलोक मे निवास करता है ।
॥ इति सरस्वतीतन्त्रे द्वितीयः पटलः
॥
॥ सरस्वतीतन्त्र का द्वितीय पटल
समाप्त ॥
शेष जारी.........आगे पढ़े- सरस्वतीतन्त्र तृतीय पटल
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